फाल्गुन शुक्ल-एकादशी को काशी में रंगभरी एकादशी कहा जाता है | इस दिन बाबा विश्वनाथ का विशेष
श्रृंगार होता है और काशी में होली का पर्वकाल प्रारंभ हो जाता है | प्रतिवर्ष श्री काशी विश्वनाथ का भव्य श्रृंगार रंगभरी एकादशी, दीवाली के बाद अन्नकूट तथा महा शिवरात्रि पर होता है | पौराणिक परम्पराओं और मान्यताओं के अनुसार रंगभरी एकादशी के दिन ही भगवान शिव माता पार्वती से विवाह के उपरान्त पहली बार अपनी प्रिय काशी नगरी आये थे | इस पुनीत अवसर पर शिव परिवार की चल प्रतिमायें काशी विश्वनाथ मंदिर में लायी जाती हैं और बाबा श्री काशी विश्वनाथ मंगल वाध्ययंत्रो की ध्वनि के साथ अपने काशी क्षेत्र के भ्रमण पर अपनी जनता, भक्त, श्रद्धालुओं का यथोचित लेने व आशीर्वाद देने सपरिवार निकलते है | यह पर्व काशी में माँ पार्वती के प्रथम स्वागत का भी सूचक है | जिसमे उनके गण उन पर व समस्त जनता पर रंग अबीर गुलाल उड़ाते, खुशियाँ मानते चलते है | जिसमे सभी गलियां रंग अबीर से सराबोर हो जाते है और हर हर महादेव का उद्गोष सभी दिशाओ में गुंजायमान हो जाता है और एक बार काशी क्षेत्र फिर जीवंत हो उठता है जहाँ श्री आशुतोष के साक्षात् होने के प्रमाण प्रत्यक्ष मिलते है |

रंगभरी एकादशी पर 12 मार्च को देवाधिदेव महादेव के भाल पहला गुलाल सजा और इसके साथ काशी में होली की हुड़दंग और रंग कि सुरुवात हुई धर्मशास्त्रों के अनुसार बाबा काशी विश्वनाथ फाल्गुन कृष्ण
चतुर्दशी यानी महाशिवरात्रि के दिन मां पार्वती से विवाह रचाने के बाद फाल्गुन शुक्ल एकादशी पर गौना लेकर आते हैं।
इसके बाद श्री महाकाल श्री काशी विशेश्वेर को सपरिवार मंदिर गर्भ स्थान में ले जाकर श्रृंगार कर अबीर, रंग, गुलाल आदि चढाया जाता है | इस दिन से वाराणसी में रंग खेलने का सिलसिला प्रारंभ हो जाता है जो लगातार छह दिन तक चलता है | श्री काशी विश्वनाथ मंदिर प्राचीन ऐतिहासिक धरोहर है जिससे काशी की जनता का भावनात्मक लगाव है | काशी की जनता अपना सर्वस्व श्री काशी विश्वनाथ को मानती है और सुब कुछ उन्ही को समर्पित कर अपने आप को धन्य मानती है |
रंगभरी एकादशी पर रानी गौरा का गौना कराकर लौट रहे भोले बाबा की रजत पालकी जब विश्वनाथ दरबार की ओर बढ़ी तो अबीर गुलाल की आंधी चल पड़ी। जमीन से आसमान तक सब लाल लाल। घंटों की घन घन और डमरू की ताल। सैकड़ों वर्ष पुरानी परंपरा के साथ ही रंग पर्व की हुड़दंग शुरू हो गई त्रैलोक्य न्यारी काशी में…….
इसी कड़ी में किसी ने खूब लिखा है की " खेले मशाने में होरी दिगंबर...खेले मशाने में होरी...भूत पिशाच बटोरी दिगंबर....भूत नाथ के मंगल होरी "....!!!
॥हर-हर महादेव॥
जय हो जय हो, जय शिव शम्भो||
आज कैसा रहा बनारस.. कैसी रही आज बनारस कि रंगभरी एकादशी Rajesh Shukla जी के साथ " बनारस आज "
इस एकादशी को महंत आवास से रजत पालकी में राजशाही पगड़ी वांधे बाबा विश्वनाथ की बारात सजी । इनके साथ ही हिमालय की पुत्री गौरा को भी सजाया गया । गोद में बैठे हुए छोटे से गणेश सबकी मनोकामना पूरी किये । इस मौके पर अबीर गुलाल के रेड कारपेट पर पुजारियों के कंधे पर सवार देवाधिदेव अपने दरबार पहुंचें। गर्भगृह के भक्तगण बाबा के भाल पहला गुलाल सजाएं।बाबा को अबीर-गुलाल से सराबोर करते हुए काशी होली के रंगों में डूबने लगा । ऐसा कहा जाता है कि बाबा विश्वनाथ पाल्गुल कृष्ण चतुर्दशी यानी महाशिवरात्रि के दिन मां पार्वती से विवाह रचाने केबाद फाल्गुल शुल्क एकादसी पर गौना लेकर काशी आए थे। इसलिए इस अवसर पर शिव परिवार की प्रतिमाएं काशी विश्वनाथ मंदिर में लाई जाती हैं और बाबा श्री काशी विश्वनाथ मंगल वाध्ययंत्रों की ध्वनि के साथ अपने काशी क्षेत्र के भ्रमण पर अपनी जनता भक्त श्रद्धालुओँ का यथोचिल लेने व आशीर्वाद देने सपरिवार निकलते हैं।
फाल्गुन शुक्ल-एकादशी को काशी में रंगभरी एकादशी कहा जाता है। इस दिन बाबा विश्वनाथ का विशेष श्रृंगार होता है और काशी में होली का पर्वकाल प्रारंभ हो जाता है।
मुक्तिदायिनीकाशी की यात्रा, यहां निवास और मरण तथा दाह-संस्कार का सौभाग्य पूर्वजन्मों के पुण्यों के प्रताप तथा बाबा विश्वनाथ की कृपा से ही प्राप्त होता है। तभी तो काशी की स्तुति में कहा गया है-
यत्र देहपतनेऽपिदेहिनांमुक्तिरेवभवतीतिनिश्चितम्।
पूर्वपुण्यनिचयेनलभ्यतेविश्वनाथनगरीगरीयसी॥
विश्वनाथजी की अति-श्रेष्ठ नगरी काशी पूर्वजन्मों के पुण्यों के प्रताप से ही प्राप्त होती है। यहां शरीर छोडने पर प्राणियों को मुक्ति अवश्य मिलती है। काशी बाबा विश्वनाथ की नगरी है। काशी के अधिपति भगवान विश्वनाथ कहते हैं- इदं मम प्रियंक्षेत्रं पञ्चक्रोशीपरीमितम्। पांच कोस तक विस्तृत यह क्षेत्र (काशी) मुझे अत्यंत प्रिय है। पतित-पावनी काशी में स्थित विश्वेश्वर (विश्वनाथ) ज्योतिर्लिंग सनातनकाल से हिंदुओं के लिए परम आराध्य है, किंतु जनसाधारण इस तथ्य से प्राय: अनभिज्ञ ही है कि यह ज्योतिर्लिंग पांच कोस तक विस्तार लिए हुए है- पञ्चक्रोशात्मकं लिङ्गंज्योतिरूपंसनातनम्। ज्ञानरूपा पञ्चक्रोशात्मक | यह पुण्यक्षेत्र काशी के नाम से भी जाना जाता है-ज्ञानरूपा तुकाशीयं पञ्चक्रोशपरिमिता। पद्मपुराण में लिखा है कि सृष्टि के प्रारंभ में जिस ज्योतिर्लिगका ब्रह्मा और विष्णुजी ने दर्शन किया, उसे ही वेद और संसार में काशी नाम से पुकारा गया-
यल्लिङ्गंदृष्टवन्तौहि नारायणपितामहौ।
तदेवलोकेवेदेचकाशीतिपरिगीयते॥
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