काशी नाथ ...विश्वनाथ जी ..परम दुर्लभ छवि .

परम दुर्लभ छवि .
Post Link :
  • Digg
  • Del.icio.us
  • StumbleUpon
  • Reddit
  • RSS

महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ

 
<<--मुख्य पेज "वाराणसी एक परिचय " 
 
महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ

महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के वाराणसी में स्थित एक मानित राजपत्रित विश्वविद्यालय है।

इसे पहले काशी विद्या पीठ के नाम से ही जाना जाता था किन्तु बाद में इसे भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी को पुनः समर्पित किया गया और उनका नाम इसके साथ जोड दिया गया।

इस विद्यापीठ में गाँधी जी के सिद्धांतों का पालन किया जाता है। महात्मा गाँधी के स्वावलम्बन तथा स्वराज के आह्वान से प्रेरित होकर ब्रिटिश शासनकाल में भारतीयों द्वारा स्थापित यह पहला आधुनिक विश्वविद्यालय था।

अपने समकालीन गुजरात विद्यापीठ व जामिया इस्लामिया की भांति यह विद्यापीठ भी पूरी तरह ब्रिटिश अधिकारियों के नियंत्रण और सहायता से परे था। भारतीय शिक्षाविद और राष्ट्रप्रेमी लोग ही इसका सारा प्रबन्धन और देखरेख करते थे।

स्थापना
महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ की स्थापना 10 फ़रवरी सन् 1920 में बाबू शिव प्रसाद गुप्त ने की थी और गांधीजी ने इसकी आधारशिला रखी थी। शिव प्रसाद जी राष्ट्रवादी शिक्षाविद थे। जुलाई 1963 में इसे विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा मानद विश्वविद्यालय घोषित किया गया। इस विश्वविद्यालय में स्नातक, परा स्नातक एवं अनुसंधान स्तर की शिक्षा उपलब्ध है। प्रमुख राष्ट्रवादी व विद्वान आचार्य नरेन्द्र देव, भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, जीवत राम कृपलानी, बाबू श्रीप्रकाश, बाबू सम्पूर्णानन्द आदि महान लोगों ने इसमें शिक्षण कार्य किया। भारत के पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने भी इस विद्यापीठ से शिक्षा ग्रहण की थी।[1]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

    ↑ Kashi Vidya Peeth (
अंग्रेज़ी) (एच.टी.एम.एल) Varanasi holi city of india। अभिगमन तिथि: 22 फ़रवरी, 2011

साभार: भारत डिस्कवरी   

आधिकारिक वेबसाइट


  • Digg
  • Del.icio.us
  • StumbleUpon
  • Reddit
  • RSS

गौतम बुद्ध

<<--मुख्य पेज "वाराणसी एक परिचय " 

 गौतम बुद्ध (जन्म ५६३ ईस्वी पूर्व - मृत्यु ४८३ ईस्वी पूर्व) विश्व के प्राचीनतम धर्मों में से एक बौद्ध धर्म के प्रवर्तक थे। शाक्य नरेश शुद्धोधन के घर जन्मे सिद्धार्थ विवाहोपरांत नवजात शिशु राहुल और पत्नी यशोधरा को त्यागकर संसार को जरा, मरण और दुखों से मुक्ती दिलाने के मार्ग की तलाश में रात में राजपाठ छोड़कर जंगल चले गए। वर्षों की कठोर साधना के पश्चात बोध गया (बिहार) में बोधी वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई और वे सिद्धार्थ से बुद्ध बन गए।

जीवन वृत्त
उनका जन्म 483 और 563 ईस्वी पूर्व के बीच शाक्य गणराज्य की तत्कालीन राजधानी कपिलवस्तु के निकट लुंबिनी,नेपाल में हुआ।[1] लुम्बिनी वन नेपाल के तराई क्षेत्र में कपिलवस्तु और देवदह के बीच नौतनवा स्टेशन से 8 मील दूर पश्चिम में रुक्मिनदेई नामक स्थान के पास स्थित था। कपिलवस्तु की महारानी महामाया देवी के अपने नैहर देवदह जाते हुए रास्ते में प्रसव पीड़ा हुई और वहीं उन्होंने एक बालक को जन्म दिया। शिशु का नाम सिद्धार्थ रखा गया। गौतम गोत्र में जन्म लेने के कारण वे गौतम भी कहलाए। शाक्यों के राजा शुद्धोधन उनके पिता थे। परंपरागत कथा के अनुसार, सिद्धार्थ की माता मायादेवी जो कोली वन्श की थी का उनके जन्म के सात दिन बाद निधन हो गया था। उनका पालन पोषण उनकी मौसी और शुद्दोधन की दूसरी रानी महाप्रजावती ने किया। शिशु का नाम सिद्धार्थ दिया गया, जिसका अर्थ हैा "वह जो सिद्धी प्राप्ति के लिए जन्मा हो"। जन्म समारोह के दौरान, साधु द्रष्टा आसित ने अपने पहाड़ के निवास से घोषणा की- बच्चा या तो एक महान राजा या एक महान पवित्र पथ प्रदर्शक बनेगा।[2] शुद्दोधन ने पांचवें दिन एक नामकरण समारोह आयोजित किया और आठ ब्राह्मण विद्वानों को भविष्य पढ़ने के लिए आमंत्रित किया। सभी ने एक सी दोहरी भविष्यवाणी की, कि बच्चा या तो एक महान राजा या एक महान पवित्र आदमी बनेगा।[3] दक्षिण मध्य नेपाल में स्थित लुंबिनी में उस स्थल पर महाराज अशोक ने तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व बुद्ध के जन्म की स्मृति में एक स्तम्भ बनवाया था। बुद्ध का जन्म दिन व्यापक रूप से थएरावदा देशों में मनाया जाता है।[4] सुद्धार्थ का मन वचपन से ही करुणा और दया का स्रोत था। इसका परिचय उनके आरंभिक जीवन की अनेक घटनाओं से पता चलता है। घुड़दौड़ में जब घोड़े दौड़ते और उनके मुँह से झाग निकलने लगता तो सिद्धार्थ उन्हें थका जानकर वहीं रोक देता और जीती हुई बाजी हार जाता। खेल में भी सिद्धार्थ को खुद हार जाना पसंद था क्योंकि किसी को हराना और किसी का दुःखी होना उससे नहीं देखा जाता था। सिद्धार्थ ने चचेरे भाई देवदत्त द्वारा तीर से घायल किए गए हंस की सु८ुषा की और उसके प्राणों की रक्षा की।

शिक्षा एवं विवाह
सिद्धार्थ ने गुरु विश्वामित्र के पास वेद और उपनिषद्‌ तो पढ़े ही, राजकाज और युद्ध-विद्या की भी शिक्षा ली। कुश्ती, घुड़दौड़, तीर-कमान, रथ हाँकने में कोई उसकी बराबरी नहीं कर पाता। सोलह वर्ष की उम्र में सिद्धार्थ का शाक्य कन्या यशोधरा के साथ विवाह हुआ। पिता द्वारा ऋतुओं के अनुरूप बनाए गए वैभवशाली और समस्त भोगों से युक्त महल में वे यशोधरा के साथ रहने लगे जहाँ उनके पुत्र राहुल का जन्म हुआ।

विरक्ति
राजा शुद्धोधन ने सिद्धार्थ के लिए भोग-विलास का भरपूर प्रबंध कर दिया। तीन ऋतुओं के लायक तीन सुंदर महल बनवा दिए। वहाँ पर नाच-गान और मनोरंजन की सारी सामग्री जुटा दी गई। दास-दासी उसकी सेवा में रख दिए गए। पर ये सब चीजें सिद्धार्थ को संसार में बाँधकर नहीं रख सकीं। वसंत ऋतु में एक दिन सिद्धार्थ बगीचे की सैर पर निकले। उन्हें सड़क पर एक बूढ़ा आदमी दिखाई दिया। उसके दाँत टूट गए थे, बाल पक गए थे, शरीर टेढ़ा हो गया था। हाथ में लाठी पकड़े धीरे-धीरे काँपता हुआ वह सड़क पर चल रहा था। दूसरी बार कुमार जब बगीचे की सैर को निकला, तो उसकी आँखों के आगे एक रोगी आ गया। उसकी साँस तेजी से चल रही थी। कंधे ढीले पड़ गए थे। बाँहें सूख गई थीं। पेट फूल गया था। चेहरा पीला पड़ गया था। दूसरे के सहारे वह बड़ी मुश्किल से चल पा रहा था। तीसरी बार सिद्धार्थ को एक अर्थी मिली। चार आदमी उसे उठाकर लिए जा रहे थे। पीछे-पीछे बहुत से लोग थे। कोई रो रहा था, कोई छाती पीट रहा था, कोई अपने बाल नोच रहा था। इन दृस्यों ने सिद्धार्थ को बहुत विचलित किया। उन्होंने सोचा कि 'धिक्कार है जवानी को, जो जीवन को सोख लेती है। धिक्कार है स्वास्थ्य को, जो शरीर को नष्ट कर देता है। धिक्कार है जीवन को, जो इतनी जल्दी अपना अध्याय पूरा कर देता है। क्या बुढ़ापा, बीमारी और मौत सदा इसी तरह होती रहेगी सौम्य? चौथी बार कुमार बगीचे की सैर को निकला, तो उसे एक संन्यासी दिखाई पड़ा। संसार की सारी भावनाओं और कामनाओं से मुक्त प्रसन्नचित्त सन्यासी ने सिद्धार्थ को आकृष्ट किया।

महाभिनिष्क्रमण
सुंदर पत्नी यशोधरा, दुधमुँहे राहुल और कपिलवस्तु जैसे राज्य का मोह छोड़कर सिद्धार्थ तपस्या के लिए चल पड़ा। वह राजगृह पहुँचा। वहाँ उसने भिक्षा माँगी। सिद्धार्थ घूमते-घूमते आलार कालाम और उद्दक रामपुत्र के पास पहुँचा। उनसे उसने योग-साधना सीखी। समाधि लगाना सीखा। पर उससे उसे संतोष नहीं हुआ। वह उरुवेला पहुँचा और वहाँ पर तरह-तरह से तपस्या करने लगा।

सिद्धार्थ ने पहले तो केवल तिल-चावल खाकर तपस्या शुरू की, बाद में कोई भी आहार लेना बंद कर दिया। शरीर सूखकर काँटा हो गया। छः साल बीत गए तपस्या करते हुए। सिद्धार्थ की तपस्या सफल नहीं हुई। शांति हेतु बुद्ध का मध्यम मार्ग : एक दिन कुछ स्त्रियाँ किसी नगर से लौटती हुई वहाँ से निकलीं, जहाँ सिद्धार्थ तपस्या कर रहा था। उनका एक गीत सिद्धार्थ के कान में पड़ा- 'वीणा के तारों को ढीला मत छोड़ दो। ढीला छोड़ देने से उनका सुरीला स्वर नहीं निकलेगा। पर तारों को इतना कसो भी मत कि वे टूट जाएँ।' बात सिद्धार्थ को जँच गई। वह मान गया कि नियमित आहार-विहार से ही योग सिद्ध होता है। अति किसी बात की अच्छी नहीं। किसी भी प्राप्ति के लिए मध्यम मार्ग ही ठीक होता है।

ज्ञान प्राप्ति
वैशाखी पूर्णिमा के दिन सिद्धार्थ वटवृक्ष के नीचे ध्यानस्थ थे। समीपवर्ती गाँव की एक स्त्री सुजाता को पुत्र हुआ। उसने बेटे के लिए एक वटवृक्ष की मनौती मानी थी। वह मनौती पूरी करने के लिए सोने के थाल में गाय के दूध की खीर भरकर पहुँची। सिद्धार्थ वहाँ बैठा ध्यान कर रहा था। उसे लगा कि वृक्षदेवता ही मानो पूजा लेने के लिए शरीर धरकर बैठे हैं। सुजाता ने बड़े आदर से सिद्धार्थ को खीर भेंट की और कहा- 'जैसे मेरी मनोकामना पूरी हुई, उसी तरह आपकी भी हो।' उसी रात को ध्यान लगाने पर सिद्धार्थ की साधना सफल हुई। उसे सच्चा बोध हुआ। तभी से सिद्धार्थ बुद्ध कहलाए। जिस पीपल वृक्ष के नीचे सिद्धार्थ को बोध मिला वह बोधिवृक्ष। कहलाया और गया का समीपवर्ती वह स्थान बोधगया।

धर्म-चक्र-प्रवर्तन
वे 80 वर्ष की उम्र तक अपने धर्म का संस्कृत के बजाय उस समय की सीधी सरल लोकभाषा पाली में प्रचार करते रहे। उनके सीधे सरल धर्म की लोकप्रियता तेजी से बढ़ने लगी।

चार सप्ताह तक बोधिवृक्ष के नीचे रहकर धर्म के स्वरूप का चिंतन करने के बाद बुद्ध धर्म का उपदेश करने निकल पड़े। आषाढ़ की पूर्णिमा को वे काशी के पास मृगदाव (वर्तमान में सारनाथ) पहुँचे। वहीं पर उन्होंने सबसे पहला धर्मोपदेश दिया और पहले के पाँच मित्रों को अपना अनुयायी बनाया और फिर उन्हें धर्म प्रचार करने के लिये भेज दिया।

वे 80 वर्ष की उम्र तक अपने धर्म का संस्कृत के बजाय उस समय की सीधी सरल लोकभाषा पाली में प्रचार करते रहे। उनके सीधे सरल धर्म की लोकप्रियता तेजी से बढ़ने लगी।

महापरिनिर्वाण
पालि सिद्धांत के महापरिनिर्वाण सुत्त के अनुसार ८० वर्ष की आयु में बुद्ध ने घोषणा की कि वे जल्द ही परिनिर्वाण के लिए रवाना होंगे। बुद्ध ने अपना आखिरी भोजन, जिसे उन्होंने कुन्डा नामक एक लोहार से एक भेंट के रूप में प्राप्त किया था, ग्रहण लिया जिसके कारण वे गंभीर रूप से बीमार पड़ गये। बुद्ध ने अपने शिष्य आनंद को निर्देश दिया कि वह कुन्डा को समझाए कि उसने कोई गलती नहीं की है। उन्होने कहा कि यह भोजन अतुल्य है।[5]

उपदेश
भगवान बुद्ध ने लोगों को मध्यम मार्ग का उपदेश किया। उन्होंने दुःख, उसके कारण और निवारण के लिए अष्टांगिक मार्ग सुझाया। उन्होंने अहिंसा पर बहुत जोर दिया है। उन्होंने यज्ञ और पशु-बलि की निंदा की। बुद्ध के उपदेशों का सार इस प्रकार है -

सम्यक ज्ञान

बुद्ध के अनुसार धम्म है: -
   
जीवन की पवित्रता बनाए रखना
   
जीवन में पूर्णता प्राप्त करना
   
निर्वाण प्राप्त करना
   
तृष्णा का त्याग
   
यह मानना कि सभी संस्कार अनित्य हैं
   
कर्म को मानव के नैतिक संस्थान का आधार मानना

बुद्ध के अनुसार अ-धम्म है: -
    परा-प्रकृति में विश्वास करना
   
आत्मा में विश्वास करना
   
कल्पना-आधारित विश्वास मानना
   
धर्म की पुस्तकों का वाचन मात्र

बुद्ध के अनुसार सद्धम्म क्या है: -

1. जो धम्म प्रज्ञा की वृद्धि करे--

   
जो धम्म सबके लिए ज्ञान के द्वार खोल दे
   
जो धम्म यह बताए कि केवल विद्वान होना पर्याप्त नहीं है
   
जो धम्म यह बताए कि आवश्यकता प्रज्ञा प्राप्त करने की है

2.
जो धम्म मैत्री की वृद्धि करे--

   
जो धम्म यह बताए कि प्रज्ञा भी पर्याप्त नहीं है, इसके साथ शील भी अनिवार्य है
   
जो धम्म यह बताए कि प्रज्ञा और शील के साथ-साथ करुणा का होना भी अनिवार्य है
   
जो धम्म यह बताए कि करुणा से भी अधिक मैत्री की आवश्यकता है.

3.
जब वह सभी प्रकार के सामाजिक भेदभावों को मिटा दे

   
जब वह आदमी और आदमी के बीच की सभी दीवारों को गिरा दे
   
जब वह बताए कि आदमी का मूल्यांकन जन्म से नहीं कर्म से किया जाए
   
जब वह आदमी-आदमी के बीच समानता के भाव की वृद्धि करे

बौद्ध धर्म एवं संघ
बौद्ध धर्म सभी जातियों और पंथों के लिए खुला है। उसमें हर आदमी का स्वागत है। ब्राह्मण हो या चांडाल, पापी हो या पुण्यात्मा, गृहस्थ हो या ब्रह्मचारी सबके लिए उनका दरवाजा खुला है। उनके धर्म में जात-पाँत, ऊँच-नीच का कोई भेद-भाव नहीं है। बुद्ध के धर्म प्रचार से भिक्षुओं की संख्या बढ़ने लगी। बड़े-बड़े राजा-महाराजा भी उनके शिष्य बनने लगे। शुद्धोधन और राहुल ने भी बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। भिक्षुओं की संख्या बहुत बढ़ने पर बौद्ध संघ की स्थापना की गई। बाद में लोगों के आग्रह पर बुद्ध ने स्त्रियों को भी संघ में ले लेने के लिए अनुमति दे दी, यद्यपि इसे उन्होंने विशेष अच्छा नहीं माना। भगवान बुद्ध ने 'बहुजन हिताय' लोककल्याण के लिए अपने धर्म का देश-विदेश में प्रचार करने के लिए भिक्षुओं को इधर-उधर भेजा। अशोक आदि सम्राटों ने भी विदेशों में बौद्ध धर्म के प्रचार में अपनी अहम्‌ भूमिका निभाई। मौर्यकाल तक आते-आते भारत से निकलकर बौद्द धर्म चीन, जापान, कोरिया, मंगोलिया, बर्मा, थाईलैंड, हिंद चीन, श्रीलंका आदि में फैल चुका था। इन देशों में बौद्ध धर्म बहुसंख्यक धर्म है।

गौतम बुद्ध - अन्य धर्मों की दृष्टि में

गौतम बुद्ध अन्य धर्मों में नबी या ईश्वरदूत के रूप में वर्णित है।

हिन्दू धर्म में
आरंभ में बुद्ध और उनके धर्म को अस्विकार करने वाले हिन्दू धर्म ने बाद में बुद्ध को विष्णु के अवतारों में शामिल कर लिया। कुछ पुराणों में ऐसा कहा गया है कि भगवान विष्णु ने बुद्ध अवतार इसलिये लिया था जिससे कि वो "झूठे उपदेश" फैलाकर "असुरों" को सच्चे वैदिक धर्म से दूर कर सकें, जिससे देवता उनपर जीत हासिल कर सकें। इसका मतलब है कि बुद्ध तो "देवता" हैं, लेकिन उनके उपदेश झूठे और ढोंग हैं। ये बौद्धों के विश्वास से एकदम उल्टा है: बौद्ध लोग गौतम बुद्ध को कोई अवतार या देवता नहीं मानते, लेकिन उनके उपदेशों को सत्य मानते हैं।

कुछ हिन्दू लेखकों (जैसे जयदेव) ने बाद में यह भी कहा है कि बुद्ध विष्णु के अवतार तो हैं, लेकिन विष्णु ने ये अवतार झूठ का प्रचार करने के लिये नहीं बल्कि अन्धाधुन्ध कर्मकाण्ड और वैदिक पशुबलि रोकने के लिये किया था। गौतम बुद्ध चाहे विष्णु जी के अवतार हों या नहीं लेकिन वे पूजने के योग्य तो हैं ही।

सभी विचारकों के अपने मत रहे हैं अत: तथ्य की सत्यता का ज्ञान इस बात से तो लगाया ही जा सकता है कि सभी में गौतम बुद्ध को एक महान पथ प्रदर्शक के रूप में स्थान दिया और वह मानव कल्याण की भावनाओं को अभिव्यक्त करते रहे तभी उन्होंने अपने शिष्य को अंतिम कथन यही कहा की 'अपना दीपक स्वयं बनो'

हिंदू ग्रंथों का कहना है कि बुद्ध भगवान विष्णु है, जो पृथ्वी पर आये।

इस्लाम में
मिर्ज़ा ताहिर अहमद ने अपने किताब "एन एलीमेंट्री स्टडी आफ इस्लाम" मे कहा है कि कुरान की धुल - काइफल नामक हस्ती बुद्ध हो सकता है। अहमदियास ([English] :Ahmadiyyas) के द्वारा बुद्ध एक नबी के रूप में माना गया है।[6]&[7]

सन्दर्भ





  • Digg
  • Del.icio.us
  • StumbleUpon
  • Reddit
  • RSS
बनारस शिव से कभी मुक्त नही, जब से आये कैलाश न गये। बनारसी की मस्ती को लिखा नही जा सकता अनुभव होता है। अद्भूद है ये शहर जिन्दगी जीनेका तरीका कुछ ठहरा हुआ है पर सुख ठहराव में है द्रुतविलंबित में नही. मध्यम में है इसको जीनेवाला है यह नगर। नटराज यहां विश्वेश्वर के रुप में विराजते है इसलिये श्मशान पर भी मस्ती का आलम है। जनजन् शंकरवत् है। इस का अनुभव ही आनन्द है ये जान कर जीना बनारस का जीना है जीवन रस को बना के जीना है।
Copyright © 2014 बनारसी मस्ती के बनारस वाले Designed by बनारसी मस्ती के बनारस वाले
Converted to blogger by बनारसी राजू ;)
काल हर !! कष्ट हर !! दुख हर !! दरिद्र हर !! हर हर महादेव !! ॐ नमः शिवाय.. वाह बनारस वाह !!