बनारस में दुनिया का अनूठा कवि सम्मेलन

भाई ये काशी है... तीनो लोको से अलग, भगवान बिष्णु के बनाए हुवे इस काशी के अब दो रूप है, बिष्णु काशी और शिव काशी, धर्म, आस्था, सस्कृति से सराबोर हमारी काशी, चुकी ये तीनो लोको से अलग है तो यहाँ लोगो के विचार अभी दुनिया से अलग ही है... विश्व के सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में काशी का उल्लेख मिलता है - 'काशिरित्ते.. आप इवकाशिनासंगृभीता:'। पुराणों के अनुसार यह आद्य वैष्णव स्थान है। पहले यह भगवान विष्णु (माधव) की पुरी थी। जहां श्रीहरिके आनंदाश्रु गिरे थे, वहां बिंदुसरोवर बन गया और प्रभु यहां बिंधुमाधव के नाम से प्रतिष्ठित हुए। ऐसी एक कथा है कि जब भगवान शंकर ने क्रुद्ध होकर ब्रह्माजी का पांचवां सिर काट दिया, तो वह उनके करतल से चिपक गया। बारह वर्षों तक अनेक तीर्थों में भ्रमण करने पर भी वह सिर उन से अलग नहीं हुआ। किंतु जैसे ही उन्होंने काशी की सीमा में प्रवेश किया, ब्रह्महत्या ने उनका पीछा छोड़ दिया और वह कपाल भी अलग हो गया। जहां यह घटना घटी, वह स्थान कपालमोचन-तीर्थ कहलाया। महादेव को काशी इतनी अच्छी लगी कि उन्होंने इस पावन पुरी को विष्णुजी से अपने नित्य आवास के लिए मांग लिया। तब से काशी उनका निवास-स्थान बन गया।पहले भी लिखा जा चूका है बनारसी holi के बारे में.. आप देख सकते है लिंक पर
त्रलोक्य से न्यारी काशी नगरी की होली बाबा विश्वनाथ दरबार से शुरु होती है। रंग भरनी एकादशी के दिन सभी लोग बाबा संग अबीर-गुलाल खेलते हैं। इसके साथ ही सभी होलियाना माहौल में रंग जाते हैं। होली का यह सिलसिला बुढ़वा मंगल तक चलता है। इस दौरान जगह-जगह होली मिलन समारोहों की धूम देखने को मिलती है, जहां पर अबीर-गुलाल के बीच सभी एक-दूसरे से गले मिलते हैं। बनारस में सब कुछ बदलने के बाद भी लोग होली की मस्ती में डूबना नहीं भूलते। होली के दिन पूरे शहर की गलियों व नुक्कड़ों पर होलिका दहन के साथ ही युवकों की टोलियां फाग गाती हुई रात भर हुड़दंग करती है। कई स्थानों पर ढोल- नगाड़ों की थाप व भोजपुरी फिल्मी गीतों पर डांस होता है। दूसरे दिन पूरा शहर रंगोत्सव में डूब जाता है। मुकीमगंज से बैंड-बाजे के साथ निकलने वाली होली बारात में बाकायदा दूल्हा रथ पर सवार होता है। बारात जब अपने नीयत स्थल पर पहुंचती है तो महिलाएं परंपरागत ढंग से दूल्हे का परछन भी करती है। मंडप में दुल्हन भी आती है, लेकिन वर-वधू के बीच बहस शुरू होती है और दुल्हन शादी से इंकार कर देती है। बारात रात में लौट जाती है। होली वाले दिन काशी में चौसट्टी देवी का दर्शन करना लोग नहीं भूलते। हालांकि अब पहले की अपेक्षा लोगों की भीड़ कम हो गई है। बनारस की होली में कभी अस्सी का चर्चित कवि सम्मेलन भी था। मशहूर हास्य कवि स्व. चकाचक बनारसी, पं. धर्मशील चतुर्वेदी, सांड़ बनारसी, बदरी विशाल आदि शरीक होते थे। चकाचक के निधन के बाद अस्सी के हास्य कवि सम्मेलन पर विराम लग गया। अब इसका स्थान टाउनहाल मैदान में होने वाले हास्य कवि सम्मेलन ने ले लिया है। यहां भी रात तक लोग इसका आनंद लेते हैं। - See Video at:

अभी पड़ रहा रहा एक पोस्ट बनारस के holi के कवि सम्मेलन की.. अच्छा लगा तो आप से शेयर कर लिया... लेकिन अभी इसपर मंथन करे ..
Vijay Vineet जी की ये पोस्ट :
भांग, पान और ठंडाई की जुगलबंदी के साथ अल्हड़ मस्ती और हुल्लड़बाजी के रंगों में घुली बनारसी होली की बात ही निराली है। फागुन का सुहानापन बनारस की होली में ऐसी जीवंतता भरता है कि फिजा में रंगों का बखूबी अहसास होता है। फाल्गुनी बयार में किसी को रंगे बिना नहीं छोड़ने वाली काशी की होली ही नहीं, गालियां भी नायाब होती हैं। दुनिया की सांस्कृतिक राजधानी में होली के दिन शाम को टाउनहाल मैदान (मैदागिन) में अनूठा कवि सम्मेलन होता है, जिसमें जुटते हैं बड़ी संख्या में शहर के गण्यमान्य नागरिक और काव्य प्रेमी। इसकी सबसे बड़ी खासियत यह है कि यहां सिर्फ गालियों की कविता पढ़ी जाती है, जिसमें होता है व्यग्य का पुट। यहां श्रोताओं को कोई रचना उत्तम नहीं लगती तो हूट नहीं करते, बल्कि बनारसी अंदाज में कहते हैं भाग-भाग भोसड़ी के...।
बाबा विश्वनाथ की नगरी में 1980 में इस अनूठे कवि सम्मेलन की शुरुआत की थी मशहूर कवि चकाचक बनारसी ने। पहले यह सम्मेलन अस्सी पर होता था। चकाचक के निधन के बाद पिछले 21 साल से टाउनहाल में यह सम्मेलन हो रहा है। इस कवि सम्मलेन में हास्य रचनाएं पढ़ने वाले कवि भाषा की सभी वर्जनाओं को खुला छोड़ देते हैं। कविता की मुख्य धारा से उनका कोई सीधा संबंध नहीं होता। देश का कोई मंत्री हो या संतरी, भारत की सरकार हो या अमेरिका की, बनारस के कलेक्टर हों या पुलिस कप्तान। यहां गालियों की बौछार से सबकी बखिया उधेड़ी जाती है। हंसी-मजाक के बीच संस्कृति, समाज और राष्ट्र की मौजूदा गतिविधियों पर तंज कसते हुए उससे रूबरू कराया जाता है। गाली से पिरोई गई रचनाओं पर बनारस के लोग खूब झूमते हैं और ठहाके लगाते हैं। भांग-ठंडई के सुरूर और अबीर-गुलाल की रंगीनियत के बीच अल्हड़पन अंदाज में हास्य कविताओं का ऐसा दौर शुरू होता है कि शाम से आधी रात कब हो जाती है, किसी को पता ही नहीं चलता। होली के दिन काशी में गालियां शुभ मानी जाती हैं और इससे किसी को परहेज भी नहीं होता। इस सम्मेलन में पढ़ी गई कविताओं का एक संकलन भी निकलता है जिसे हर कोई पढ़ना चाहता है, लेकिन घर में रखना कोई नहीं चाहता।

मित्रों के विशेष आग्रह पर अनूठे कवि सम्मेलन में इस साल मैने भी शिरकत की। जैसे कवि थे, श्रोता भी उनसे उन्नीस नहीं थे। हर कोई गाली को सम्मान देता नजर आया। अश्लीता के सवाल पर चकाचक बनारसी को अपना " हर कोई गाली को सम्मान देता नजर आया। अश्लीता के सवाल पर चकाचक बनारसी को अपना गुरु बताने वाले मंच संचालक बद्री विशाल का तर्क था कि यह मंच साहित्य परोशने के लिए नहीं, सामाजिक और राजनीतिक सच को बेबाकी के साथ उधेड़ने के लिए है। गालियां सिर्फ बेहूदगी और फूहड़पन का पर्याय नहीं। पूर्वांचल में शादी-विवाह जैसे अवसरों पर महिलाएं भी गालियों की बैछार करती हैं, जिसे शुभकर माना जाता है। समाज कोई भी हो गाली अपना स्थान खुद ही तलाश लेती है...।"


अब Suman Singh जी की इस पोस्ट से भी मै सहमत हु.. इस लिए आप के सामने 
 
काशी के मशहूर कवि सम्मेलन की बहुत ही उम्दा रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिए
  Vijay Vineet जी को बधाई। मैंने उन्ही की रिपोर्ट से कुछ पंक्तियाँ उद्धृत करने की धृष्टता की है।

**क्यों की है ?
क्योंकि मुझे मशहूर और काशी की गरिमा को चार -चाँद लगाने वाले इस कवि-सम्मेलन के आयोजकों से पूछना है कि आखिर "गाली को सम्मान" देने का मतलब क्या है ?

** आखिर ये कैसा मंच है जिसका इस्तेमाल कविताओं के लिए तो किया जाता है पर उसे 'साहित्यिक ' मानने से इनकार किया जाता है ?

** महिलायें भी शादी-ब्याह के अवसरों पर परम्परागत रूप से गालियाँ देती आई हैं यदि यह मानकर भी आयोजक अश्लील को श्लील सिद्ध कर देना चाहते हों तो भी बताने का कष्ट करें कि वे महिलाएं कौन थी या कौन हैं ?

क्या वे उसी गाली देने में गर्व करने वाले समाज की 'सहिष्णु स्रोता' और वैसा ही मांगलिक अवसरों पर उचार देने वाली 'कुंठित- बूढ़ी औरतें नहीं थीं या हैं ?

** गाँव में भी क्या अब पढ़ी-लिखी औरतें गाली देने जैसा या'गारी गाने' जैसा काम करती हैं ?

*इन प्रश्नों के जवाब इसलिए कि बरसों से बनारस में 'गाली देने और सुनाने के कवि -सम्मेलन होते आएं हैं, जिन्हें फूहड़ कहना और मनना दोनों ही अपराध हैं। पर यही गालियाँ जब सज्जित मंच को छोड़कर घर की दहलीज लाँघ माँ-बहनों को अपमानित और लज्जित करती हैं तो उस समय ऐसे आयोजकों के अकाट्य तर्क कहाँ होते हैं ?
(सुमन)

सुमन जी की पोस्ट पर लोगो के विचार :
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Abhay Tripathi Kashi me ye sirf Holi sandhya par hota hai... sayad aap ko is sawal ka uchit jawab nahi mila kyunki shayad tathya janane wala hi nahi hai wahan koi..har parmpara ke peechhe koi na koi tathya chhupa hota hai jo samay ke sath wartmaan paristhiyo ke anusa...See More
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Sarvesh Tripathi
Sarvesh Tripathi समय सुहावन गारि बिराजा
हँसत राउ सुनि सहित समाजा
Sarvesh Tripathi
Sarvesh Tripathi महिलाओं की शादी ब्याह पर दी जाने वाली गाली का अपना एक रस ,एक भाव है ।
पर इस तरह गाली का खुला मुजाहिरा करना मुझे समझ मे नही आता|
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Suman Singh
Suman Singh समझ में आना चाहिए Sarvesh Tripathi जी क्योंकि जवाबदेही हमारी भी है।
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Sarvesh Tripathi
Sarvesh Tripathi सही कह रही हैं आप। वही बात मैं भी कह रहा हूँ।
पर इसके लिए जन जागृति की आवश्यकता है। क्योंकि उसके आयोजकों के पास सहज जन समर्थन है जो कि तर्क या बहस करेगा ही नही उसपर।
खैर आगे सब सही हो.....
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Suman Singh
Suman Singh आमीन
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Sarvesh Tripathi
Sarvesh Tripathi सुम्मामीन smile emoticon
Rameshwar Nagariya
Rameshwar Nagariya
Abhishek Sharma
Abhishek Sharma बनारस पसंद मगर बनारसीपन कभी कभी अलबत्ता फूहड़ किस्म का लगता है।
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Dharmendra Singh
Dharmendra Singh ...और इस धृष्टता की हिम्मत करने के लिए आपको बधाई...
Like · Reply · 1 · 21 hrs
Suman Singh
Suman Singh बधाई तब दीजियेगा जब आयोजकों से इस प्रश्न का जवाब मिल जाएगा धर्मेन्द्र जी, क्योंकि यह हम तब तक पूछते रहेंगे जब तक कि ऐसे आयोजन बंद नहीं कर दिए जाते।जिस देश में घूर कर देखने पर दण्ड का प्रावधान है उसी देश में ऐसे सम्मलेन किस संस्कृति को बचाते हैं इस प्रश्न का जवाब हमें ही नहीं हमारी बच्चियों को भी चाहिए।
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Prem Prakash इस अपसंस्कृति और कुपरंपरा के पीछे केवल एक शब्द होता है 'कुंठा' ...! हम इसमे श्रोता भी नही बनते। लोक परंपरा की आड़ लेना और भी बड़ी नासमझी है। गाली नही, महिलाएं गारी गाती हैं,वह बिलकुल भिन्न बात है।
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Anil Kumar Yadav
Anil Kumar Yadav गालियां समाज पर पुरूष के वर्चस्व और उसकी अत्याचार की लालसा ( गालियां किसी न किसी औरत के साथ बलात्कार का मानसिक रिहर्सल ही तो हैं) की मिसाल हैं. अगर ये सचमुच रचनात्मक और साहित्यिक लोग हैं तो ऐसी गालियां बनाने की हिम्मत करें जो सिर्फ मर्द को दी जा सके (क...See More
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Suresh Kumar Sharma
Suresh Kumar Sharma श्रीमान जी आप की सोच बिलकुल सही जो लोग मंचो से इसको सही मांते क्या वो अपने घरो मे इसको प्रयोग कर सकते हैं ? शायद कभी नही तो फिर कैसी संस्कृति जिसको हम अपने घर मे नही कर सकते हाय रे दोहर चरित्र !
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समीक्षा: टूटनी चाहिए यह अश्लील और भौड़ी परंपरा
० प्रस्तुति-विजय विनीत
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काशी के टाउनहाल मैदान में होली पर हर साल आयोजित होने वाले तथाकथित कवि सम्मेलन पर मेरा नजरिया यह है कि भौंडी और अश्लील परंपरा टूटनी चाहिए। अनूठी संस्कृति परोशने की शान बघारने वालों को बदलना चाहिए इसका घटिया स्वरूप। कवि सम्मेलन के आयोजक गालियों को काशी की संस्कृति से जोड़ते हैं। लेकिन
मुझे इस परंपरा में पुरुषवादी सोच की अभिव्यक्ति नजर आती है। इस साल सम्मेलन के मंच से स्त्रियों के प्रजनन अंगों को खूब निशाना बनाया गया। मुझे लगता है कि काशी में कुंठित लोगों की बड़ी जमात है, जो अपनी बेटियों को शाम पांच बजे के बाद घरों में कैद होने पर विवश कर देते हैं, लेकिन बेटों को छुट्टा सांड़ की तरह शहर में विचरण करने के लिए छोड़ देते हैं। सालों साल से यह सिलसिला चल रहा है। स्त्री के मामले में पुरुष दूसरे पुरुष के प्रति संदेह और भय से भरा हुआ है। इसका खामियाज स्त्री भुगत रही है। कहीं पिता के घर में. कहीं पति के घर में। दोनो जगह कैद है।

सच यह है कि जिस समाज में स्त्री को जितनी अधिक आजादी मिली है उसने अपने यौन व्यवहार से पुरुषों की सामंती सोच को तोड़ा है। पूंजीवादी समाज में सहवास के मिथक टूटते जा रहे हैं। स्त्री के यौनांगों पर हमला करने वाले काशी के टाउनहाल के तथाकथित कवि और रसिक दर्शक किसी महिला के कौमार्य भंग होने पर उसे किसी सम्मानित पुरुष के काबिल मानने का एलान करने की हिम्मत क्यों नहीं दिखाते? मुस्लिम समाज तो दूर, काशी के तथाकथित प्रगतिशाली हिन्दू भी औरतों को मर्दों की बराबरी का अधिकार देने के पक्षधर नहीं दिखते? किचन और बेडरूम से बाहर दिखने वाली स्त्री बेशर्म और छिनाल क्यों मानी जाने लगती है? पुरुष के यौनाचार को इज्जत के बजाए मर्दानगी से क्यों जोड़ा जाता है? काशी में अधिकतर गालियां मां-बहनों को लेकर क्यों गढ़ी गई हैं?

गुरु बताने वाले मंच संचालक बद्री विशाल का तर्क था कि यह मंच साहित्य परोशने के लिए नहीं, सामाजिक और राजनीतिक सच को बेबाकी के साथ उधेड़ने के लिए है। गालियां सिर्फ बेहूदगी और फूहड़पन का पर्याय नहीं। पूर्वांचल में शादी-विवाह जैसे अवसरों पर महिलाएं भी गालियों की बैछार करती हैं, जिसे शुभकर माना जाता है। समाज कोई भी हो गाली अपना स्थान खुद ही तलाश लेती है...।

काशी में इन्हीं गालियों के ज़रिये पुरुष समाज स्त्री के प्रजननांगों को अपनी विकृत मानसिकता और हिंसा का निशाना बना रहा है। 23 मार्च की शाम टाउनहाल के मंच से संचालक बद्री विशाल ने गालियों पर गढ़ी अपनी पैरोडी में स्त्री के प्रजनन अंगों पर तीखा प्रहार किया। इनके उकसाने पर दूसरे तथाकथित कवियों ने महिलाओं के जननांगों को लक्ष्य बनाकर गालियों की बौछार की। लगभग सभी ने आदमी के लिंगों का इस तरह से स्मरण कराने की कोशिश की जैसे औरत का कोई वजूद ही न हो। लगता है स्त्री के दर्द और मर्म को सुनने-समझने का रिवाज काशी में है ही नहीं। यदि स्त्री अपनी हकीकत बताने पर उतारू हो जाए तो होली पर टाउनहाल खाली नजर आएगा। मानता हूं कि काशी में स्त्रियां भी गालियां देती हैं। मगर इस जमात में वे ही स्त्रियां शामिल हैं जो पुरुषवादी सोच की चाशनी में लिपटी होती हैं और पुरुषों की गुलामी करती हैं। जिस समाज में स्त्रियों को पुरुषों की तरह आजादी है, वे स्त्रियां पुरुषवादी सोच के तहत गालियां नहीं देतीं।

लगता है कि काशी में नैतिकता और अनैतिकता का हथियार सिर्फ पुरुषों के पास है। उसे स्त्रियों के जननांगों पर पैरोड़ी बनाने की आजादी है, लेकिन अपने घरों की स्त्रियों को आजादी न देने की कुंठा कूट-कूटकर भरी है। कुलीन वर्ग में शामिल होने के लिए बेचैन मध्यवर्गीय समाज में पाखंड सबसे ज्यादा है। महिलाओं पर अत्याचार,
अनाचार और दबाव है तो इसी वर्ग में।ज्यादातर लोगों ने अपने घरों की महिलाओं के लिए आदर्शों की हदबंदी बना रखी है।
यूं कहा जा सकता है कि काशी का एक बड़ा समाज महिलाओं को घरों में कैद करके रखना चाहता है और खुद घरों से बाहर जाकर गुलछर्रे उड़ाने में तनिक भी संकोच नहीं करता। इन्हें भोजपुरी के दोअर्थी और अश्लील गानें और टाउनहाल के भौड़े सम्मेलन भाते हैं, लेकिन अपनी बेटियों की आजादी के सवाल पर कुंठा और खामोशी की चादर ओढ़ लेते हैं। अश्लीलता की संस्कृति परोशने के बजाए काव्य साधकों को वैचारिक और नैतिक मानदंडों पर भी खरा उतरना होगा। आखिर गाली के बहाने स्त्रियों के जननांगों पर हमला कहां तक उचित है? मेरा मानना है कि राजनीतिक और सामाजिक बुराइयों पर हमला करने के बहाने महिलाओं के जननांगों पर आधारित फूहड़ गालियां परोशने का सिलसिला बंद होना चाहिए।
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पोस्ट पर लोगो के विचार :
 
Shubham Mishra अब तो ये पुरानी हो चली है, इसको चलवाने वाले अब इसे पुरातन संस्कृति से जोड़कर इसे ऐसे ही चलने देने की दुहाई देंगे|
Ashok Kumar
Ashok Kumar विजय जी! मैं आप से सहमत हूँ। सामाजिक विकृति को परम्परा के नाम पर बढ़ावा देना अपराध है।
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Ratan Sankar Pathak
Ratan Sankar Pathak Right step for cultured city.
Amit Maurya
Amit Maurya सहमत हु
Ajai Kumar Singh
Ajai Kumar Singh विजय जी के बातो से मैं सहमत हूँ।
Vallabh Pandey
Vallabh Pandey ऐसे सम्मेलनों में कभी गया नही लेकिन जैसा सुना है उस आधार पर मेरा मानना है कि ऐसे असांस्कृतिक कार्यक्रमों पर रोक लगाई जानी चाहिए.

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बनारस शिव से कभी मुक्त नही, जब से आये कैलाश न गये। बनारसी की मस्ती को लिखा नही जा सकता अनुभव होता है। अद्भूद है ये शहर जिन्दगी जीनेका तरीका कुछ ठहरा हुआ है पर सुख ठहराव में है द्रुतविलंबित में नही. मध्यम में है इसको जीनेवाला है यह नगर। नटराज यहां विश्वेश्वर के रुप में विराजते है इसलिये श्मशान पर भी मस्ती का आलम है। जनजन् शंकरवत् है। इस का अनुभव ही आनन्द है ये जान कर जीना बनारस का जीना है जीवन रस को बना के जीना है।
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Converted to blogger by बनारसी राजू ;)
काल हर !! कष्ट हर !! दुख हर !! दरिद्र हर !! हर हर महादेव !! ॐ नमः शिवाय.. वाह बनारस वाह !!