वाराणसी बनारस या काशी
वाराणसी बनारस या काशी भी कहलाता है। वाराणसी दक्षिण-पूर्वी उत्तर प्रदेश राज्य, उत्तरी-मध्य भारत में गंगा नदी के बाएँ तट पर स्थित है और हिन्दुओं के सात पवित्र नगरों में से एक है। इसे मन्दिरों एवं घाटों का नगर भी कहा जाता है। वाराणसी का पुराना नाम काशी है। वाराणसी विश्व का प्राचीनतम बसा हुआ शहर है। यह गंगा नदी के किनारे बसा है और हज़ारों साल से उत्तर भारत का धार्मिक एवं सांस्कृतिक केन्द्र रहा है। दो नदियों वरुणा और असि के मध्य बसा होने के कारण इसका नाम वाराणसी पड़ा। बनारस या वाराणसी का नाम पुराणों, रामायण, महाभारत जैसे अनेकानेक ग्रन्थों में मिलता है। वेदों में भी काशी का उल्लेख है। संस्कृत पढ़ने प्राचीन काल से ही लोग वाराणसी आया करते थे। वाराणसी के घरानों की हिन्दुस्तानी संगीत में अपनी ही शैली है। काशी और बनारस के नाम से विख्यात वाराणसी विश्व के प्राचीनतम जीवंत शहरों में एक है। वास्तव में हिंदू मिथकों में वाराणसी का महत्व अकथ्य है। अंग्रेजी के प्रख्यात साहित्यकार मार्क ट्वेन बनारस की पवित्रता और मिथकीय विश्वास से अभिभूत थे। एक बार उन्होंने लिखा-"बनारस इतिहास से प्राचीन है, परंपरा से प्राचीन है, मिथकों से भी प्राचीन है और इतना प्राचीन दिखता है, जैसे इन सभी को एक साथ रख दिया गया हो।" 'वामन पुराण' के अनुसार वरूणा और असि नदियां काल के प्रारंभ में स्वत: ही आद्य पुरूष के शरीर से निकली हैं। इन दोनो नदियों के मध्य की भूमि ही 'वाराणसी' कहलाती है, जो सभी तीर्थयात्रियों के लिए पवित्रतम स्थान है। 'काशी' शब्द की व्युत्पत्ति 'कास' शब्द से हुई है, जिसका अर्थ होता है चमकना। मिथक यह है कि काशी, शिव और पार्वती द्वारा सृजित मूल-भूमि है, जहाँ वे काल के प्रारंभ में खड़े थे।
वाराणसी हिंदू धर्म का नाभिस्थल है। यह प्राचीन संस्कृति का परंपरागत शहर है। यहाँ से जुड़ी किंवदंतिया इसकी गरिमा में वृद्धि करती हैं और धर्म इसमें पवित्रता बोध पैदा करता है। जाने कब से यहाँ बड़ी संख्या में तीर्थयात्री और साधक आते रहे हैं। वाराणसी में रहने से अपने आप ही आत्म अन्वेषण तथा शरीर एवं आत्मा के शास्वत ऐक्य का अनुभव होता है। यहाँ आने वाला हर यात्री विस्मित रह जाता है ।
सूर्यास्त के समय गंगा के पार सुनहली रश्मियाँ झिलमिलाती हैं। यही रश्मियाँ सुबह भगवान शिव के अलकों को छूती है, गंगा किनारे के मंदिरों-इबादतगाहों को स्पर्श करती है। मंत्रों और ऋचाओं की स्वर लहरियों तथा अगरबत्तियों-धूपबत्तियों की सुगंध से भीने वातावरण में गंगा के किनारे सुनहले जल में डुबकी लगाकर तीर्थ यात्री अनूठे अनुभव का एहसास करता है।
हिंदू विश्वास के अनुसार वाराणसी में मृत्यु को वरण करने वाला व्यक्ति मोक्ष की प्राप्ति करता है तथा जीवन-मृत्यु, जन्म-पुनर्जन्म के बंधन से मुक्ति पा जाता है। भगवान शिव और पार्वती के निवास स्थल वाराणसी का उद्भव अज्ञात है। ऐसा माना जाता है कि वाराणसी में गंगा जीवों के सभी पापों का नाश कर देती हैं। वाराणसी ऐसी भूमि है जहाँ रहना और आत्मान्वेषण करना अनंत सुख का अनुभव है। वाराणसी संगीत, कला, शिल्प और शिक्षा के लिए भी ख्यात है। भारत से बाहर गए आज विश्व के तमाम ख्यातनाम लोगों की शिक्षा वाराणसी के सांस्कृतिक परिवेश में हुई है।
स्थिति
वाराणसी भारतवर्ष की सांस्कृतिक एवं धार्मिक नगरी के रूप में विख्यात है। इसकी प्राचीनता की तुलना विश्व के अन्य प्राचीनतम नगरों जेरुसलेम, एथेंस तथा पेइकिंग (बीजिंग) से की जाती है। वाराणसी गंगा के बाएँ तट पर अर्द्धचंद्राकार में 250 18' उत्तरी अक्षांश एवं 830 1' पूर्वी देशांतर पर स्थित है। प्राचीन वाराणसी की मूल स्थिति विद्वानों के मध्य विवाद का विषय रही है।
विद्वानों के मतानुसार
शेरिंग मरडाक, ग्रीब्ज,और पारकर,जैसे विद्वानों के मतानुसार प्राचीन वाराणसी वर्तमान नगर के उत्तर में सारनाथ के समीप स्थित थी। किसी समय वाराणसी की स्थिति दक्षिण भाग में भी रही होगी। लेकिन वर्तमान नगर की स्थिति वाराणसी से पूर्णतया भिन्न है, जिससे यह प्राय: निश्चित है कि वाराणसी नगर की प्रकृति यथासमय एक स्थान से दूसरे स्थान पर विस्थापित होने की रही है। यह विस्थापन मुख्यतया दक्षिण की ओर हुआ है, पर किसी पुष्ट प्रमाण के अभाव में विद्वानों का उक्त मत समीचीन नहीं प्रतीत होता है। गंगा नदी के तट पर बसे इस शहर को ही भगवान शिव ने पृथ्वी पर अपना स्थायी निवास बनाया था। यह भी माना जाता है कि वाराणसी का निर्माण सृष्टि रचना के प्रारम्भिक चरण में ही हुआ था। यह शहर प्रथम ज्योर्तिलिंग का भी शहर है। पुराणों में वाराणसी को ब्रह्मांड का केंद्र बताया गया है तथा यह भी कहा गया है यहाँ के कण-कण में शिव निवास करते हैं। वाराणसी के लोगों के अनुसार, काशी के कण-कण में शिवशंकर हैं। इनके कहने का अर्थ यह है कि यहाँ के प्रत्येक पत्थर में शिव का निवास है। कहते हैं कि काशी शंकर भगवान के त्रिशूल पर टिकी है।
हेवेल की दृष्टि में
हेवेल की दृष्टि में वाराणसी नगर की स्थिति विस्थापन प्रधान थी, अपितु प्राचीन काल में भी वाराणसी का वर्तमान स्वरूप सुरक्षित था। हेवेल के मतानुसार बुद्ध पूर्व युग में आधुनिक सारनाथ एक घना जंगल था और यह विभिन्न धर्मावलंबियों का आश्रय स्थल भी था। भौगोलिक दशाओं के परिप्रेक्ष्य में हेवेल का मत युक्तिसंगत प्रतीत होता है। वास्तव में वाराणसी नगर का अस्तित्व बुद्ध से भी प्राचीन है तथा उनके आविर्भाव के सदियों पूर्व से ही यह एक धार्मिक नगरी के रूप में ख्याति प्राप्त था। सारनाथ का उद्भव महात्मा बुद्ध के प्रथम धर्मचक्र प्रवर्तन के उपरांत हुआ। रामलोचन सिंह ने भी कुछ संशोधनों के साथ हेवेल के मत का समर्थन किया है। उनके अनुसार नगर की मूल स्थिति प्राय: उत्तरी भाग में स्वीकार करनी चाहिए। हाल में अकथा के उत्खनन से इस बात की पुष्टि होती है कि वाराणसी की प्राचीन स्थिति उत्तर में थी जहाँ से 1300 ईसा पूर्व के अवशेष प्रकाश में आये हैं।
नामकरण
'वाराणसी' शब्द 'वरुणा' और 'असी' दो नदीवाचक शब्दों के योग से बना है। पौराणिक अनुश्रुतियों के अनुसार 'वरुणा' और 'असि' नाम की नदियों के बीच में बसने के कारण ही इस नगर का नाम वाराणसी पड़ा।
'पद्मपुराण' के एक उल्लेख के अनुसार दक्षिणोत्तर में 'वरना' और पूर्व में 'असि' की सीमा से घिरे होने के कारण इस नगर का नाम वाराणसी पड़ा।
'अथर्ववेद' में वरणावती नदी का उल्लेख है। संभवत: यह आधुनिक वरुणा का ही समानार्थक है।
'अग्निपुराण' में नासी नदी का उल्लेख मिलता है।
चुनार किला महाराजा Vikrmaditya, उज्जैन
के राजा द्वारा अपने भाई राजा Bhrithari प्रवास के सम्मान में स्थापित किया
गया था. पुराणों के अनुसार, preachings की हिंदू पुस्तक, Charanadri चुनार
का सबसे पुराना नाम था के रूप में भगवान विष्णु Satyug की उम्र में महान
राजा बाली के वंश में उसके अपने Vaman अवतार में पहला कदम उठाया था. यह भी
अच्छी तरह से था Nainagarh के रूप में जाना जाता है. Chandrakanta
'chunargarh, बाबू Devakinandan खत्री द्वारा प्रसिद्ध क्लासिक उपन्यास,
वाराणसी के पवित्र शहर से केवल 40 किलोमीटर दूर है. चुनार किले गंगा नदी,
गंगा के साथ पहाड़ों की विंध्य रेंज के एक विस्तार पर स्थित है, उसके आधार
के निकट बह रही है. विभिन्न विदेशी झरने और धार्मिक पूजा स्थलों के
पर्यटकों और स्थानीय लोगों के हजारों को आकर्षित करते हैं. चुनार अपने
मिट्टी के बर्तनों के उद्योगों के लिए बहुत अच्छी तरह से जाना जाता है.
चुनार किला
नया विश्वनाथ मंदिर वाराणसी के बनारस
हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के परिसर में स्थित है. यह भी भारत के
प्रसिद्ध उद्योगपति परिवार, बिड़ला, यह निर्माण के रूप में बिरला मंदिर कहा
जाता है. नई विश्वनाथ मंदिर भगवान शिव को समर्पित है और मूल विश्वनाथ
मंदिर की एक प्रतिकृति है. मंदिर सफेद पत्थर में बनाया गया है, और मदन मोहन
मालवीय, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के संस्थापक द्वारा की योजना बनाई है.
नया विश्वनाथ मंदिर की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है कि यह सभी जातियों और
धर्मों के लोगों के लिए खुला है. नई विश्वनाथ मंदिर के विशाल परिसर में
आगंतुक की आँखों के लिए एक खुशी है. आंतरिक शिव लिंग और हिंदू ग्रंथों से
छंद दीवारों पर अंकित है.
अवश्य जाएँ :
रामनगर किला और संग्रहालय, गंगा नदी के दाएं किनारे पर स्थित है। यह
किला, राजा बलवंत सिंह का शाही निवास था जिसे 17 वीं शताब्दी में बनवाया
गया था। रामनगर वह स्थल है जहां वेदव्यास के रचयिता ने तप किया था।
वास्तव में, उनके तप करने के बाद इस जगह का वास्तविक नाम व्यास काशी था।
रामनगर प्रमुख रूप से 31 दिनों के लिए जाना जाता है, सितम्बर और
अक्टूबर महीने में इन 31 दिनों में यहां रामलीला का आयोजन किया जाता है।
रामनगर संग्रहालय में खूबसूरती से नक्काशी की गई बालकनी, भव्य मंडप और
खुले आंगन है।
इस संग्रहालय का सबसे अह्म हिस्सा विद्या मंदिर है जो शासकों के काल की
अदालत का प्रतिनिधित्व करता है। इस संग्रहालय में कई प्राचीन वस्तुओं का
नायाब कलेक्शन है जिनमें प्राचीन घडियां, पुराने शस्त्रगार, तलवारें,
पुरानी बंदूकें, शाही कारें और हाथी दांत के काम के सामान शामिल है। पर्यटक
यहां आकर शाही परिवारों के मध्ययुगीन वेशभूषा, आभूषण और फर्नीचर देख सकते
है।
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बनारस शिव से कभी मुक्त नही, जब से आये कैलाश न गये। बनारसी की मस्ती को लिखा नही जा सकता अनुभव होता है। अद्भूद है ये शहर जिन्दगी जीनेका तरीका कुछ ठहरा हुआ है पर सुख ठहराव में है द्रुतविलंबित में नही. मध्यम में है इसको जीनेवाला है यह नगर। नटराज यहां विश्वेश्वर के रुप में विराजते है इसलिये श्मशान पर भी मस्ती का आलम है। जनजन् शंकरवत् है। इस का अनुभव ही आनन्द है ये जान कर जीना बनारस का जीना है जीवन रस को बना के जीना है।
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