ई रजा कासी हॅ - लंगोट सर्ग

वैसे तो बनारस में और भी तमाम रंग देखे, सब का ज़िक्र करना यहाँ मुमकिन नहीं लेकिन लंगोट की चर्चा के बिना यह विवरण अधूरा रह जाएगा। अपनी काशी डायरी का अंत इसी लंगोट को समर्पित करता हूँ।
जहाँ बाकी देश में खासकर बड़े शहरों में ब्रीफ़्स और अण्डरवियर्स का चलन है, बनारस में लंगोट अभी भी लोकप्रिय है, घाट पर नहाते पुरुषों में अधिकतर लोग आप को ब्राण्डेड अण्डरवीयर में ज़रूर दिखेंगे मगर एक अच्छी संख्या लंगोटधारियों की भी मिलेगी। और नगरों में लंगोट को लोगों ने पके करेले की तरह त्याग दिया है। करेला तो वो पहले भी था क्योंकि जो लोग लंगोट के योग्य अपने को नहीं पाते थे उन्होने पिछली पीढ़ी में ही पटरे वाले जांघिये का आविष्कार करवा लिया था। अब तो खैर! ये भी बात होने लगी है कि लंगोट पहनने से आदमी नपुंसक हो जाला।
आधुनिक विज्ञान के फ़ैड्स पर यक़ीन करना ख़तरे से खाली नहीं। साठ के दशक में पूरे योरोप और अमरीका के वैज्ञानिकों ने मिल्क फ़ूड कम्पनियों को यह प्रमाण पत्र दे दिया है कि माँ का दूध बच्चे के लिए पर्याप्त नहीं। साठ, सत्तर और अस्सी, और नब्बे के दशक में पैदा होने वाले बच्चे डिब्बा बन्द पाउडर के दूध पर पले। आज बिना किसी माफ़ी, किसी अपराध स्वीकरोक्ति के ये फ़िर से स्थापित कर दिया गया है कि माँ का दूध ही सर्वश्रेष्ठ है। तो आज का कॉमन सेन्स है कि लंगोट पहनने से आदमी नपूंसक हो जाता है।
 

अगर सचमुच ऐसा होता तो काशी में आबादी की वृद्धि दर में कमी ज़रूर नोटिस की जाती। काशी में लंगोट कितना आम है इसका अन्दाज़ा आप को कपड़ों की कुछ दुकानों के आगे फ़हराते रंगीन पताकाओं से मिलेगी। अगर आप भूल न गए हों तो आप पहचान जाएंगे कि ये झण्डा-पताका नहीं छापे वाले रंगीन लंगोट हैं।
लंगोट पहनना कोई कला नहीं है। आप को बस गाँठ मारना और हाथ घुमा के सिरा खोंसना आना चाहिये। लेकिन घाट पर लंगोट पहनना एक हुनर ज़रूर है। इस हुनर में पहले लंगोट का एक सिरा मुँह में दबा कर शेष तिकोना भाग लटका लिया जाता है। फिर पहने हुए लंगोट/अंगौछे को गिरने के लिए आज़ाद छोड़कर फ़ुर्ती से तिकोने को पृष्ठ भाग पर जमा लिया जाता है। दोनों तरफ़ ओट हो जाने के बाद फिर नाड़े को कस लिया। सारा हुनर इस फ़ुर्ती में ही है। अनाड़ी लोग चूक जाते हैं तो उनके पृष्ठ भाग आम दर्शन के लिए सर्व सुलभ हो जाता है। और हुनरमन्द हाथ की सफ़ाई से नज़रबन्दी कर देते हैं और एक पल में ही सब कुछ खुल कर वापस ओट में हो जाता है। जय लिंगोट।

मेरे हिसाब से लंगोट से बेहतर अन्डरवियर मिलना असम्भव है। एक प्रकार के मॉर्डन अण्डरवियर की टैग लाइन है कि फ़िट इतना मस्त कि नो एडजस्ट। बात मार्के की है। हर आदमी अण्डी पहन के एडजस्ट का हाजतमन्द हो जाता है। मुश्किल ये है कि सारी अण्डीज़ प्रि फ़िटेड आती है वो आप के लिए कस्टम मेड नहीं है। ९० हो सकता है आप के लिए ढीला हो, और ८५ टाइट। आप सर पटक कर मर जाइये आप के लिए कोई ८७ या ८८ साइज़ का अण्डरवियर नहीं बनाएगा। और किसी ने बना भी दिया तो आप का साइज़ सर्वदा ८७ ही रहेगा इस की क्या गारन्टी है हो सकता है सुबह ८४ हो शाम ९१ हो जाय और रात को ८१।
झख मार कर आप ८५ या ९० का साइज़ लेंगे और फिर आप कितना भी एडजस्ट करें कुछ एडजस्ट नहीं होगा। इसके विपरीत लंगोट है। इसके ठीक विपरीत लंगोट कस्टम मेड है। जितना चाहे एडजस्ट। टाइट पहनना हो सिरा खींच कर टाइट कर लीजिये। और नपुंसक हो जाने के अफ़वाह से बचाव करना हो तो ढील दे कर लंगोट का वातायन बना लीजिये।

जय बनारस! जय लंगोट!!

(बनारस यात्रा के दौरान लिखी गई

निर्मल आनन्द  जी के डायरी से)




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2 comments:

Kashish Sharan Ashish said...

(k) [-( =p~ हम आप के आभारी है (h)

Yogesh Agrawal said...

अवा देखल जाये तोहरे लगोटवा में कितना दम हौ , भागे भूत की लंगोटीये सही, हमरे बनारस में लंगोट लोटा सोटा का सबसे खास उपकरण है , घंटो घाट पर लंगोटा रगड़ते बनारसी आज भी आम है , बनारस के सांस्कृतिक सन्धर्भ में लंगोटा शायद बनारसी ध्वज जैसा मान रखता है अमर रहे बनारस सास्वत रहे लंगोट .... देखा कैसा भागल लंगोटा ले कर ,

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बनारस शिव से कभी मुक्त नही, जब से आये कैलाश न गये। बनारसी की मस्ती को लिखा नही जा सकता अनुभव होता है। अद्भूद है ये शहर जिन्दगी जीनेका तरीका कुछ ठहरा हुआ है पर सुख ठहराव में है द्रुतविलंबित में नही. मध्यम में है इसको जीनेवाला है यह नगर। नटराज यहां विश्वेश्वर के रुप में विराजते है इसलिये श्मशान पर भी मस्ती का आलम है। जनजन् शंकरवत् है। इस का अनुभव ही आनन्द है ये जान कर जीना बनारस का जीना है जीवन रस को बना के जीना है।
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काल हर !! कष्ट हर !! दुख हर !! दरिद्र हर !! हर हर महादेव !! ॐ नमः शिवाय.. वाह बनारस वाह !!