काशी / वाराणसी की संगीत परम्परा (काशी संगीत समाज )_1


वाराणसी, बनारस या काशी भी कहलाता है। वाराणसी दक्षिण-पूर्वी उत्तर प्रदेश राज्य, उत्तरी-मध्य भारत में गंगा नदी के बाएँ तट पर स्थित है और हिन्दुओं के सात पवित्र नगरों में से एक है। इसे मन्दिरों एवं घाटों का नगर भी कहा जाता है। वाराणसी का पुराना नाम काशी है। वाराणसी विश्व का प्राचीनतम बसा हुआ शहर है। यह गंगा नदी के किनारे बसा है और हज़ारों साल से उत्तर भारत का धार्मिक एवं सांस्कृतिक केन्द्र रहा है। दो नदियों वरुणा और असि के मध्य बसा होने के कारण इसका नाम वाराणसी पड़ा। बनारस या वाराणसी का नाम पुराणों, रामायण, महाभारत जैसे अनेकानेक ग्रन्थों में मिलता है। वेदों में भी काशी का उल्लेख है। संस्कृत पढ़ने प्राचीन काल से ही लोग वाराणसी आया करते थे। वाराणसी के घरानों की हिन्दुस्तानी संगीत में अपनी ही शैली है।
मस्तमौलाओं-फक्कड़ों के शहर बनारस
एहि काशी नगरिया क जोड़ नाहीं बा/ 
कंकड़-कंकड़ शंकर कोई तोड़ नाहीं

काशी में हर विधा के कलाकार है..  इसी क्रम में वाराणसी लंबे समय से दुनिया के लिए दार्शनिक और सांस्कृतिक परंपराओं के पहचान के लिए जाना जाता है  जिसमे संगीत, नृत्य और कला के महान कलाकारों के अनगिनत नाम है काशी से , जिसके संरक्षण में एक नाम आता है काशी से श्री कृष्ण कुमार रस्तोगी जी का
प्रस्तुत है एक खास मुलाकात संगीत लौ के रक्षक पुराने शहर के चौखम्बा क्षेत्र में
आज, वाराणसी की संगीत लौ के रक्षक पुराने शहर के चौखम्बा क्षेत्र में स्थित काशी संगीत समाज (बनारस संगीत सोसायटी), के नाम से भी जाना जाता है  . यह संगठन 2006 में 100 वर्ष पूरे कर लिए. आज इस संगीत समाज में विलक्षण दुर्लभ रिकॉर्डिंग का संग्रह, प्राचीन वाद्ययंत्र और अतीत संगीतकारों की उल्लेखनीय तस्वीरें..
सौ साल से भी पुराना ये संगीत संगठन 'काशी संगीत समाज' संगीत की महफ़िल के पूजा करने के लिए प्रयोग किया जाता है पुराने और दुर्लभ संगीत वाद्ययंत्र अब विलुप्त होने के कगार पर है जिन्हे सदियों से सांस्कृतिक शहर वाराणसी के चौखम्बा क्षेत्र स्थित काशी संगीत समाज के पास अभी भी सुरक्षित हैं.
'इसराजसहित 150 से अधिक साल पुरानी दुर्लभ 18 संगीत वाद्ययंत्र, 'कश्यप वीणा', 'रुद्रवीणा', 'दिलरुबा', 'मजीरा', 'सुरभारती' संस्था के संग्रहालय की शोभा बड़ा रहे है .
मशहूर संगीतकार पंडित विष्णुनारायण भातखंडे और पंडित विष्णु दिगंबर पुलस्कर जी ने 1906 में स्थापित किया गया था इन उपकरणों के अलावा, महाराज काशी राज की अदालत में गाया करते थे मगरमच्छ चेहरा, सुरबहार और इसराज तरह संरचित एक दुर्लभ तानपुरा भी शामिल है जो प्रसिद्ध कलाकार लखपत यादव द्वारा किए गए तीन उपकरणों रहे हैं.
जीसी कंपनी के पेरिस ईख और हारमोनियम भी इस संस्था के संग्रह में  है. जिसे ग्वालियर गणपत राव भैयाजी, श्याम लाल खत्री (कोलकाता) और कई अन्य प्रसिद्ध गायकों और संगीतकारों के प्रसिद्ध कलाकारों इस हारमोनियम में प्रदर्शन किया है.
"कई प्रसिद्ध कलाकारों को इस संस्था के साथ संबद्ध किया गया है और उनमें से कुछ को अन्य स्रोतों से खरीदा गया है इन उपकरणों की रक्षा करना भी एक बहुत बड़ा महाभारत है. इसका रखरखाव भी बहुत महंगा है, सरकार की ओर से कोई समर्थन न होने के बावजूद, काशी संगीत समाज अभी भी  संगीत शो आयोजित करता है.
"बहुत जल्द, संगठन 'धरोहर' के नाम से भारत कला भवन, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में साधन संग्रह का प्रदर्शन करने की योजना बना रहा है.
चौखम्भा के निवासी श्री कृष्ण कुमार रस्तोगी जी ..
जो की बनारस की संगीत परंपरा को आज भी जीवित रखे है..
बाप रे बाप.. उनका घर है या साक्षात संग्रहालय क्या कोई बनारस की संस्कृति को जागृत करने के लिए इतना तप क़र सकता है ?
ग्वालियर घराने से संगीत की शिक्षा .. पुराने ज़माने के वाध्य संगीत यंत्रो का संग्रह.. कितनी पुरानी फोटो का संग्रह.. ये तो बनारसी बौड़म ही है..
बनारस की संगीत सभ्यता में एक नाम “ लखपत “ जिसकी जानकारी अभी तक बनारस के किसी भी संगीत साहित्य कार ने नहीं बताई... लेकिन प्रमाण स्वरुप लखपत का वाद्य यन्त्र आज भी एक धोरोहर की तरह की तरह सुरक्षित है
वैसे संगीत के बारे में  तो हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का बनारस घराना वाराणसी में ही जन्मा एवं विकसित हुआ है। वाराणसी, भारत के कई दार्शनिकों, कवियों, लेखकों, संगीतज्ञों एवं कलाकारों की जन्मस्थली एवं कर्मस्थली रहा है, जिनमें कबीर, रविदास, स्वामी रामानंद, तैलंग स्वामी, मुंशी प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, भारत रत्न पंडित रविशंकर, गिरिजा देवी, पंडित हरि प्रसाद चैरसिया एवं भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खां जैसे विश्वविख्यात नाम हैं।
इनके अलावा गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानसभी यहीं लिखा था और गौतम बुद्ध ने अपना प्रथम प्रवचन बनारस के ही सारनाथ में दिया था।
वैसे भी काशी के बारे में कहा जाता है की ...
काशी नगरी की दिनचर्या में कुछ ऐसी विशेषताएँ परम्परागत रुप से मान्य रहीं, जो काशीराज से लेकर जन - सामान्य तक में समान रुप से पाई जाती रही हैं. सादा जीवन, उच्च विचार, धार्मिक निष्ठा, स्वभाव में सहजता, स्वाभिमान, अक्खड़पन एवं परम संतोष के साथ एक मस्ती, व्यवहार कुशलता में कृत्रिमता का अभाव, एक विशेष खुलेपन के साथ सहज आत्मायता, सच्चरित्रता, धार्मिक सहिष्णुता एवं प्रत्येक कलाओं तथा प्रत्येक क्षेत्र के प्रति पूर्ण आदर एवं स्नेह की भावना आदि गुण सभी के हृदय पर अपनी अमिट छाप अंकित कर देने वाले रहे, जिससे स्थानीय या अन्य प्रदेशों से काशी आये विद्वान् ही नहीं, अपितु विदेशी यात्री, विद्वान् एवं सामान्य पर्यटक तक प्रभावित रहें है. उत्तरवाहिनी पुण्यसलिला गंगा के तट पर बसी इस नगर की प्रात: कालीन अनुपम छटा को देखकर अमीर खुसरो, मिर्जा गालिब से लेकर काशई के कबीर, सुप्रसिद्ध शायर नजीर बनारसी तक ने अपनी कलम से 'सबहे बनारस' उक्ति को न्नकर अपनी लेखनी को पवित्र किया है . काशी की अनुपम गंगाधारा से अठखेलियाँ करती सूर्यरिश्मयाँ क्रमश: बालरवि, प्रखर सूर्य एवं थकित प्रकाश देवता के साथ - साथ क्रमश: रक्तवर्णी, रजत रश्मि एवं स्वर्ण रश्मियों का मान कराती हुई सायंकालीन शोभा यात्रा के स्वागत के लिए प्रस्थान करती हैं. काशई के घाटों की इस मीलों लम्बी अपूर्व शोभा यात्रा ता वर्णन सहृदय कवियों, लेखकों की लेखनी द्वारा अनेक संदर्भों में व्यक्त किया जाता रहा है. ब्राह्ममुहूर्त में काशिराज एवं अन्य नरेशों के घाटों पर अवस्थित विशाल अट्टालिकाओं, शिवालयों, देवमंदिरों के सिंहद्वार के ऊपर 'नौबत खानों' से आती शहनाई की मंगलध्वनि से प्रात: कालीन रागों ललित, जोगिया, कालिंगड़ा, रामकली, भैरव, भैरवी की अनुपम स्वर लहरियों एवं मंदिरों, शिवालयों के कंगूरों से मंगल आरती की देवस्तुति, शंख, घण्टा, घड़ियाल की पवित्र ध्वनि, वेदाध्यायी विद्वानों के आवासी पाठशालाओं से आती वेदध्वनी, संगीतज्ञों के निवास - स्थानों से संगीत साधनारत साधकों के द्वारा तंत्रीनाद, कंठसंगीत एवं नूपुरों की झंकृत स्वरवल्लरियों के साथ काशी के समान्य नागरिकों के झुण्ड़ों द्वारा उच्चारित हर - हर महादेव शम्भो, काशी - विश्वनाथ गंगे, के उद्घोष के साथ पुण्य - सलिला माँ गंगा की पवित्रतम लहरों में स्नान करने की उत्फुल्लता के साथ इस नगरी का सवेरा अनेक शताब्दियों से निरन्तर जीवन्त होता आया है .
आमोद - प्रमोद की विभिन्न कलात्मक परम्परा के संदर्भ में इस नगर की दैनिक दिनचर्या में धार्मिक आस्था, वाणी की उदारता, शास्रार्थपटुता, लेखनपटुता में निर्भीकता, संस्कृति, परम्परा एवं देशप्रेम, आस्था, नि: शुल्क विद्यादान, गोदान, अन्नदान, संकटकालीन स्थितियों में उदारता की पराकाष्ठा आदि चारित्रिक, धार्मिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक गुणों से ओतप्रोत इस नगर की गतिशीलता अन्य नगरों से सर्वथा मिला रही है. 'चना चबैना गंगाजल जो पुरवै करतार, काशी कबहुँ न छोड़िए विश्वनाथ दरबार' उक्ति को चरितार्थ करती काशीवासियों में वे सभी मानवीय गुण विद्यमान रहे है, जिनसे किसी नगरी की विशिष्टता बनती है. यहाँ का नागरिक ब्राह्ममुहूर्त में निद्रादेवी की गोद से उठकर दैनिक कृत्यों से निवृत होकर माँ गंगा भी धारा में स्नान कर, अपनी झारी - कमण्डल में गंगाजल लेकर बाबा विश्वनाथ, माँ अन्नपूर्णा एवं अन्य देवालयों के देवी देवताओ का गंगाजल, पुष्प, अक्षत, विल्वपत्र से अभिषेक, दर्शन, अथवा दूर के सिसी उपवन, सरोवर अथवा गंगा के पार ढढ़ाई - बादाम - विजया भवानी के सेवन के उपरान्त कुछ काल शारीरिक व्यायाम के बाद सुगन्धित पुष्प, इत्र आदि से सज्जित होकर भगवती दर्शन, इक्का - घोड़ा दौड़, गंगातट की सैन अथवा सुरुचिसम्पन्न आमोद - प्रमोद पण्डि सभा, शास्रार्थ सभा, काव्य गोष्ठी अथवा संगीत गोष्ठी में भाग लेकर सुखद उच्चस्तरीय मनोरंजन में भाग लेने का व्यसनी रहा है. यहाँ के विद्वान् सरस्वती की गम्भीर उपासना में ही स्वाध्याय करते हुए अधीत शास्रों का नि: शुल्क अध्ययन - अध्यापन का वाग्वेवी की दिव्य आराधना में ही अपना सम्पूर्ण जीवन व्यतीत कर हर्ष का अनुभव करते रहे हैं. काशीराज एवं देश के अन्य नरेशों की ओर से भारतीय धर्म, आचार विचार संस्कृति की रक्षा एवं उन्नति के लिए काशी में अनेक पाठशालाओं की स्थापना की गई थी, जिनका सम्पूर्ण व्यय उन नरेशों के राजकोष से दिया जाता था, जो विद्वानों के लिए उनका जीविका और स्थायी रुप से काशी में निवास करने का एक विशिष्ट प्रयोजन और प्रलोभन था. गंगातट पर पक्के घाटों का निर्माण एवं विभिन्न मतमतान्तरो के देवी - देवताओं, आचार्यों के मंदिरों, देवालयों, मठो, आश्रमें में विधिवत् पूजन, अर्चन, दर्शन, नि: शुल्क आवास एवं भोजन की सुन्दर व्यवस्था भी उन्हीं राजाओं के राजकोष अथवा सम्पन्न धनाढ्यों के द्वारा स्थापित न्यासों के द्वारा सुचारु रुप से सम्पादित होती थी. पाठशालाओं में विद्वानों एवं विद्यार्थियों के लिए नि: शुल्क शिक्षा, आवास, वस्र, भोजन आदि की समुचित व्यवस्था से लाभान्वित अत्यन्त मन्दबुद्धि विद्यार्थी भी विद्वानों की सत्संगति में अध्ययनरत रहकर कालान्तर में विशिष्ट विद्वान् बन जाता था और अपने कुल, वंश, ग्राम, नगर के यश को उज्जवल करता था. विद्वानों की विशिष्ट विद्वत्ता का जन - सामान्य पर प्रभाव डालने के लिए समय - समय पर विद्वत् गोष्ठई, पाण्डित सभा, शास्रार्थ, संगीतगोष्ठी आदि एवं विद्यार्थियों के स्वाध्याय की परीक्षा के लिए विद्वत्, परिषद द्वारा शलाकापरीक्षा - प्रतियोगिता परीक्षाओं की परम्परा, राजा, धनीमानी, समाज सेवी संस्थाओं,
नागरिकों द्वारा आयोजित होती थी. बिना जय - पराजय की भावना से विद्वानों के आपसी मनोरंजनार्थ इस प्रकार के विद्वञ्जन - विनोद के आयोजन काशी की सरिमा के अनुकूल थे, जिनमें सम्मिलित विद्वानों को समान रुप से दक्षिण, अंग वस्र, मिष्ठान आदि देकर सत्कार करने की विशिष्ट परम्परा सदियों तक विशेष रुप से विजयादशमी, दीपावली, होली, नवरात्र, नागपंचमी आदि पारम्परिक त्योहारों पर नगर के धनी मानी गुणग्राहक सम्भ्रान्त नागरिकों एवं सामाजिक संस्कृतिक चेतना केलिए समर्पित संस्थानों के माध्यम से आयोजित होती रही है, जिससे काशीस्थ विद्वानों की बुद्धचातुर्य, शास्रीय चिन्तन, दार्शनिक अनुशीलन के विकास के लिए किए कार्यों से सामाजिक चेतना का मार्ग उद्बुद्ध होता गया. ऐसे ही आयोजन यहाँ के विद्वानों की बुद्धि की उत्तरोत्तर चमत्कारिणी अभिवृद्धि की उपादेयता के लिए सशक्त माध्यम एवं अपरिहार्य माधन थे.
यहाँ के विद्वान न केवल समस्त कलाओं में ही नहीं, अपितु व्याकरण, वेदान्त, न्याय, कर्मकाण्ड, दर्शन, धर्मशास्र आदि के शास्रार्थ में भी अत्यन्त प्रवीण एवं पटु थे. सुप्रसिद्ध वैयाकरण केसरी महामहोपाध्याय पं. दामोदर शास्री एवं मैथिली विद्वान पं. बच्चा झा के बीच हुआ प्रचण्ड ऐतिहासिक शआस्रार्थ अब इतिहास की वस्तु है जिनके शास्रार्थ को देखने सुनने के लिए विद्वानों सहित हजारों की सँख्या में जनसाधारण की उपस्थिति थी. आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती से काशी के मूर्धन्य विद्वानों में प्रसिद्ध पं. बालशास्री का शास्रार्थ आर्यसमाज के इतिहास की विशिष्ट घटना है. सर्वत्र विजयश्री प्राप्त स्वामी दयानन्दजी को काशी के विद्वानों के सम्मुख पराजय स्वीकार करनी पड़ी. काशी के स्वनामधन्य विद्वान महामहोपाध्याय गंगाधर शास्री का बल्लम सम्प्रदाय के विलक्षण विद्वान प्रज्ञाचक्षु श्री गट्टूलालजी से काशी स्थित गोपाल मंदिर में जो प्रसिद्ध शास्रार्थ हुआ था,
वह आज भी विद्वानों में चर्चित है जिसमें महामहोपाध्याय श्री गंगाधर शास्री को विजय श्री प्राप्त हुई. इस प्रकार की शास्रार्थ सभा आये दिन काशी में होती रहती थी. जिसमें अनेक महत्वपूर्ण शास्रों मत - मतान्तरों के खण्डन - मण्डन एवं शास्रीय उद्धरणों का सर्व सम्मति से प्रतिपादन विद्वानों द्वारा होता था. आज भी नागपंचमी के दिन नागकुआँ पर विद्वानों एवं संस्कृतनिष्ठ, अध्ययन - अध्यापनरत छात्रों के बाच शास्रार्थ की परम्परा अविच्छिन रुप में चल रही है.

  • Digg
  • Del.icio.us
  • StumbleUpon
  • Reddit
  • RSS

2 comments:

Shvetank Mishra said...

Good Information

Unknown said...

Hme fakhra hai ki is adbhut wyakti se hamaara parichay hai.

Post a Comment

बनारस शिव से कभी मुक्त नही, जब से आये कैलाश न गये। बनारसी की मस्ती को लिखा नही जा सकता अनुभव होता है। अद्भूद है ये शहर जिन्दगी जीनेका तरीका कुछ ठहरा हुआ है पर सुख ठहराव में है द्रुतविलंबित में नही. मध्यम में है इसको जीनेवाला है यह नगर। नटराज यहां विश्वेश्वर के रुप में विराजते है इसलिये श्मशान पर भी मस्ती का आलम है। जनजन् शंकरवत् है। इस का अनुभव ही आनन्द है ये जान कर जीना बनारस का जीना है जीवन रस को बना के जीना है।
Copyright © 2014 बनारसी मस्ती के बनारस वाले Designed by बनारसी मस्ती के बनारस वाले
Converted to blogger by बनारसी राजू ;)
काल हर !! कष्ट हर !! दुख हर !! दरिद्र हर !! हर हर महादेव !! ॐ नमः शिवाय.. वाह बनारस वाह !!