एक कहावत है

एक कहावत है कि...
"कुत्ता आदमी से भी ज़्यादा वफादार होता है..."

इस को चरितार्थ करती ये तस्वीर...

कोई शक़ !



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कपालमोचन तालाब

<<--मुख्य पेज "वाराणसी एक परिचय " 

 

कपालमोचन तालाब उत्तर प्रदेश राज्य के वाराणसी नगर में स्थित है। यह तालाब कज्जाकपुरा से पुराना पुल जाने वाले रास्ते पर है। इस तालाब को रानी भवानी ने पक्का कराया था। कहा जाता है कि यहां स्नान करके लाट भैरव का दर्शन-पूजन व दान करने से अश्वमेध यज्ञ करने का फल मिलता है। कपालमोचन में पिण्डदान और श्राद्ध की महिमा भी है। यहां गंगा स्नान, पूजा, जप, हवन, गोदान, चंद्रायन व्रत का भी उल्लेख मिलता है।


 टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कुंड व तालाब (हिंदी) काशी कथा।

 

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कुरूक्षेत्र कुण्ड

<<--मुख्य पेज "वाराणसी एक परिचय " 

काशी का गंगा के साथ-साथ जल तीर्थों के कारण भी विशेष महत्व रहा है। इसलिये इसका एक नाम अष्ट कूप व नौबावलियों वाला नगर भी है। काशी के जल तीर्थ भी गंगा के समान पूज्य रहे हैं। इन्हीं कुण्डों में एक कुण्ड कुरू क्षेत्र कुण्ड भी है। अस्सी से पंच मंदिर होते हुए रवीन्द्रपुरी कालोनी जाने वाले मार्ग पर दाहिनी ओर स्थित कुरू क्षेत्र कुण्ड के बारे में ऐसी मान्यता रही है कि यह कुण्ड हरियाणा राज्य के पानीपत स्थित कुरूक्षेत्र का ही एक रूप है। प्राचीन काल में महाभारत की युद्धस्थली रही कुरूक्षेत्र के नाम पर ही इस कुण्ड का नाम रखा गया, इस कुण्ड का धार्मिक, अध्यात्मिक महत्व काफी पहले से रहा है। इस कुण्ड में पर्व आदि पर स्नान का विशेष महत्व रहा है। पहले इस कुण्ड में काफी जल इकट्ठा रहा करता था, लेकिन धीरे-धीरे कई कारणों से जल कम होता गया। प्रदूषण व कुण्ड का पर्याप्त रख-रखाव न होने के कारण अब यह कुण्ड भी धीरे-धीरे अपने अस्तित्व को खोता जा रहा है। पौराणिक ग्रंथ मानसी उल्लासमें काशी के जल कुण्डों, जल तीर्थों का व्यापक व विशद वर्णन मिलता है। न केवल लोग कुरूक्षेत्र कुण्ड का जल पवित्र माना जाता है और वहाँ स्नान करते थे बल्कि यहाँ के जल को भगवान पर चढ़ाते थे। कुण्ड लोगों की प्यास बुझाने का भी एक मुख्य श्रोत था। सूर्य ग्रहण में यहाँ स्नान करना धार्मिक महत्व था। इसका उल्लेख स्कन्द पुराण काशी खण्ड और काशी रहस्य में है। स्नान से मनोवांछित फल मिलता है, ऐसी मान्यता है।
कुण्ड की मौजूदा स्थिति यह है कि इसके चारों तरफ काई का अम्बार है। पानी प्रदूषित हो गया है। कुण्ड के दक्षिण में पत्थर की कई प्राचीन मूर्तियां हैं जो उपेक्षा के कारण लुप्त होती जा रही हैं। वर्तमान समय में कुण्ड का स्वरूप काफी बदल गया है। अब सिर्फ यह कुण्ड उपेक्षित कुण्डों की सूची में है।
काशी में अब कुण्ड तेजी से अपने अस्तित्व को खोते जा रहे हैं। कई महत्वपूर्ण कुण्डों, सरोवरों को पाटकर उस पर भवन आदि का निर्माण करा दिया गया है। कई कुण्डों, पोखरों पर अवैध कब्जे का प्रयास जारी है। धार्मिक, पौराणिक व लोगों के जीवन के लिये महत्वपूर्ण जल तीर्थों के अस्तित्व की रक्षा के लिये अब नागरिकों को ही कारगर पहल करनी होगी, वरना वह दिन दूर नहीं जब इनका अस्तित्व पूरी तरह समाप्त हो जायेगा।
 

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कुंड व तालाब (हिंदी) काशी कथा।
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काशी के विनायक

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काशी के छ्प्पन  विनायक

बड़ा गणेश - देव भूमि काशी से सभी को लगाव रहा है। भगवान शिव तो इस नगरी को कभी छोड़करजाते ही नहीं। काशी में विघ्नकर्ता गणेश जी के भी कई मंदिर स्थापित हैं। यहां 56 विनायक भी हैं जिनका मंदिर है। इन 56 विनायकों के प्रमुख हैं बड़ा गणेश जिन्हें वक्रतुण्ड भी कहा जाता है। इनका विशाल एवं प्रसिद्ध मंदिर लोहटिया में इन्हीं के नाम पर पड़े मोहल्ले बड़ा गणेश में स्थित है। मंदिर परिसर के मध्य में गर्भगृह में सिन्दूरी रंग की बड़ा गणेश की विशाल प्रतिमा स्थापित है। इस प्रतिमा को देखने से अदभुत आभास होता है। बड़ा गणेश की प्रतिमा के साथ गर्भगृह में इनका पूरा परिवार पत्नी रिद्धि-सिद्धी एवं पुत्र शुभ लाभ भी हैं। जबकि गर्भगृह के बाहर हाल में गणेश जी के वाहन मूसक की भावपूर्ण प्रतिमा स्थापित है। जिसे देखकर ऐसा लगता है कि गणेश जी को ले जाने के लिए बिल्कुल तैयार है। मंदिर परिसर में ही स्थित एक कुंए के पास दन्तहस्त विनायक की प्रतिमा है। इसके अलवा मंदिर में मन्सा देवी, संतोषी मां, हनुमान जी की भी प्रतिमांयें हैं। कहा जाता है कि बड़ा गणेश के दर्शन करने से सारे रूके हुए कार्य सम्पूर्ण हो जाते हैं और तरक्की मिलती है। बड़ा गणेश का जन्मोत्सव धूमधाम से भादों महीने में मनाया जाता है। इस दौरान गणेश जी का दूध, दही, घी, शहद एवं गंगाजल से पंचामृत स्नान कराया जाता है। स्नान कराने के बाद आकर्षक ढंग से प्रतिमा का श्रृंगार होता है। वहीं, गणेश जी के स्नान के बाद उस पंचामृत को श्रद्धालुओं में प्रसाद स्वरूप वितरित किया जाता है। जन्मोत्सव के पर्व पर मंदिर दर्शनार्थियों से पट जाता है। वहीं दूसरा बड़ा कार्यक्रम माघ महीने में होता है। इस माह की चतुर्थी को कई हजार की संख्या में दर्शनार्थी गणेश जी का दर्शन-पूजन कर आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। इस दिन प्रातःकाल 4 बजे से ही श्रद्धालुओं की कतारें दर्शन के लिए लग जाती हैं दर्शन-पूजन रात 12 बजे तक चलता है। इस दौरान काफी दूर-दूर से भक्त बड़ा गणेश के समक्ष अपना मत्था टेकते हैं। वहीं प्रत्येक सप्ताह बुधवार को भी काफी संख्या में भक्त मंदिर में आते हैं। मान्यता के अनुसार बड़ा गणेश से सच्चे मन से जो भी मनोकामना की जाती है वह निश्चिय ही पूरी होती है। यह मंदिर प्रातःकाल 4 बजे से रात साढ़े 10 बजे तक खुला रहता है। मंगला आरती सुबह साढ़े 4 बजे, मध्यान आरती दिन में साढ़े 10 बजे एवं शयन आरती रात साढ़े 10 बजे सम्पन्न होती है। मन्दिर कैन्ट स्टेशन से करीब 5 किलोमीटर दूरी पर स्थित है।


दुर्ग विनायक - काशी के विनायकों में से एक हैं दुर्ग विनायक। दुर्गाकुण्ड क्षेत्र में स्थित दुर्ग विनायक का मंदिर कुण्ड के दक्षिणी कोने पर एवं माँ दुर्गा के प्रसिद्ध मंदिर के ठीक पीछे स्थित है। कहा जाता है कि कलयुग में काली और विनायक की पूजा-अर्चना से तत्काल फल प्राप्त होता है। इसलिए दुर्ग विनायक में दर्शनार्थियों की सहज आस्था है। पंचक्रोशी यात्रा के क्रम में भी यात्री दुर्ग विनायक का आशीर्वाद लेते हैं। मान्यता के अनुसार दुर्ग विनायक के दर्शन-पूजन से सभी प्रकार के कष्ट दूर हो जाते हैं और मान-प्रतिष्ठा में दिनों-दिन वृद्धि होती है। जनवरी महीने में पड़ने वाली गणेश चतुर्थी को मंदिर में उत्सव मनाया जाता है। इस दौरान दुर्ग विनायक का भव्य श्रृंगार किया जाता है। इस कार्यक्रम में भाग लेने के लिए काफी संख्या में श्रद्धालु मंदिर पहुंचते हैं। वहीं हर महीने पड़ने वाली चतुर्थी को भी मंदिर में दर्शन-पूजन करने वालों की अच्छी तादात रहती है। दुर्ग विनायक का मंदिर प्रातः साढ़े 4 बजे खुलता है और सुबह की आरती 5 बजे होती है। मंदिर दिन में 12 तक दर्शनार्थियों के लिए खुला रहता है। जबकि सायंकाल मंदिर 4 बजे पुनः दर्शन-पूजन के लिए खुलता है एवं आरती सायं 6 बजे सम्पन्न होती है। मंदिर रात को 10 बजे बंद होता है। मंदिर के पुजारी बालेश्वर दुबे हैं।


चिंतामणि गणेश - काशी के अधिकतर मंदिरों में गणेश यानी विनायक की प्रतिमा स्थापित है। वेदों में गणेश का उल्लेख बृहस्पति-वाचस्पति और ब्रह्णास्पति के रूप में है। प्राचीनकाल से ही मान्यता रही है कि कोई अनुष्ठान करने से पहले गणेश जी की पूजा सबसे पहले की जाती है। इसलिए विनायक का महत्व हिन्दू धर्म में बढ़ जाता है। काशी के प्रसिद्ध विनायक मंदिरों में से एक चिंतामणि गणेश का मंदिर केदारखण्ड क्षेत्र में स्थित है। सोनारपुरा से केदारघाट की ओर बढ़ने पर गली में स्थित चिंतामणि विनायक का छोटा सा मंदिर काफी प्रस़िद्ध है। इस मंदिर में नियमित रूप से भक्त दर्शन-पूजन के लिए आते हैं। माना जाता है कि चिंतामणि गणेश का आशीर्वाद मिल जाने पर सभी प्रकार की समस्या सुलझ जाती है और सुख-शांति का आगमन होता है। गणेश चतुर्थी पर इस मंदिर में भव्य आयोजन किया जाता है। इस दौरान मंदिर को सजाने के साथ ही चिंतामणि विनायक का आकर्षक ढंग से श्रृंगार किया जाता है। भगवान विनायक के इस दिव्य स्वरूप का दर्शन करने के लिए काफी संख्या में भक्त मंदिर में पहुंचते हैं। वहीं भादों महीने में इनका हरियाली श्रृंगार किया जाता है। इस दौरान मंदिर में भजन-कीर्तन भी होता है। जिससे मंदिर सहित आस-पास का महौल भक्तिमय हो जाता है। यह मंदिर नियमित रूप से सुबह साढ़े पांच बजे खुलता है और सुबह की आरती 6 बजे सम्पन्न होती है। मंदिर दोपहर 11 बजे तक खुला रहता है। शाम को मंदिर पुनः 5 बजे खुलता है जो रात्रि 9 बजे तक खुला रहता है। शाम की आरती मन्त्रोच्चारण के बीच साढ़े 7 बजे होती है। मंदिर के पुजारी चल्ला सुब्बाराव शास्त्री हैं।


अभय विनायक - सभी भयों से मुक्ति देने वाले अभय विनायक का मंदिर डी 17/111, दशाश्वमेध घाट के बगल में स्थित है। दर्शनार्थी रिक्शा से इस मंदिर तक पहुँच सकते हैं। यह मंदिर दर्शन पूजन के लिए दिन भर खुला रहता है।


अर्क विनायक - आर्क विनायक का मंदिर 2/17 तुलसी घाट स्थित लोलार्क कुण्ड के पास विद्यमान है। रविवार को इनका दर्शन-पूजन करने का विशेष महत्व है।

आशा विनायक - आशा विनायक का मंदिर डी.3/71 मीर घाट हनुमान मंदिर के पास स्थित है। इनके दर्शन-पूजन से सारी मनोकामनायें पूरी होती है। विश्वनाथ गली दशाश्वमेध घाट होते हुए यहां पहुंचा जा सकता है यह मंदिर सुबह सात बजे से दोपहर एक बजे तक और शाम को चार से रात 9 बजे तक खुला रहता है।

अविमुक्त विनायक
- कुछ लोगों के अनुसार मूल अविमुक्त विनायक का मंदिर गायब हो चुका है। वहीं ज्ञानवापी मस्जिद के पास अविमुक्त विनायक का मंदिर है। बगल में ही विश्वेश्वर विश्वनाथ जी का मंदिर है। ऐसी मान्यता है कि अविमुक्त विनायक सारी परेशानियों से मुक्ति देते हैं।

भीमचण्डी विनायक - भीमचण्डी विनायक का मंदिर पंचकोशी मार्ग में स्थित है। इनका मंदिर हर समय खुला रहता है।

चक्रदंत विनायक - चक्रदंत विनायक का मंदिर डी 49/10 सनातन धर्म स्कूल नई सड़क के पास ही स्थित है। दर्शनार्थियों के लिए यह मंदिर हमेशा खुला रहता है।

चिन्तामणि विनायक - चिन्तामणि विनायक का मंदिर सी के 26/42 ईश्वर गंगी तालाब के पूरब स्थित है। लहुराबीर से रिक्शा के जरिए इस मंदिर तक पहुँचा जा सकता है। दर्शनार्थी किसी भी समय मंदिर में दर्शन-पूजन कर सकते हैं।

चित्रघण्ट विनायक
- चित्रघण्ट विनायक का मंदिर सी के 23/34 चित्र घण्टा देवी के पास स्थित है। यह मंदिर चौक में यूको बैंक के सामने गली में स्थित है दर्शनार्थी दिनभर कभी भी मंदिर में जाकर दर्शन-पूजन कर सकते हैं।

दंत हस्त विनायक - दन्त हस्त विनायक का मन्दिर सी के 58/101 बड़ा गणेश मंदिर के पास लोहटिया में स्थित है। यह मंदिर भोर में साढ़े चार बजे से रात साढ़े दस बजे तक खुला रहता है। प्रतिदिन मंगला आरती पौने पांच बजे सुबह व शाम की आरती रात साढ़े दस बजे होती है। बुधवार को मंदिर में विशेष आरती रात साढ़े ग्यारह बजे होती है।

देहली विनायक - देहली विनायक का मंदिर वाराणसी शहर से 20 किलो मीटर दूर गांव में स्थित है। यह मंदिर हर समय खुला रहता है।

दुर्मुख विनायक - दुर्मुख विनायक का मंदिर सी के 34/60 काशी करवट मंदिर के पास स्थित है। चौक से मंदिर तक पहुंचा जा सकता है।

द्वार विनायक - द्वार विनायक का मंदिर स्वर्गद्वारेश्वर मणिकर्णिका घाट के पास स्थित है। यहां कभी भी दर्शन-पूजन किया जा सकता है।

द्विमुख विनायक - द्विमुख विनायक का मंदिर डी 51/90 संबा आदित्य के पश्चिम सूरज कुण्ड के पास स्थित है।

एक दंत विनायक - एक दंत विनायक का मंदिर डी.32/102 पुष्प दंतेश्वर बंगाली टोला में स्थित है। एक दंत विनायक काशी को बुरी शक्तियों से बचाते हैं।

गजकर्ण विनायक
का मंदिर – सी के 37/43, कोतवालपुरा ईशानेश्वर में स्थित हैं इस मंदिर में कभी भी दर्शन-पूजन कर सकते हैं।

गजविनायक - गज विनायक का मंदिर सी के 54/44 राजा दरवाजा बड़ा भूतेश्वर मंदिर के पास स्थित है। चौक से रिक्शा या पैदल चलकर इस मंदिर तक पहुंचा जा सकता है।

गणनाथ मंदिर - गणनाथ विनायक का मंदिर सी के 37/1 ढंढ़ी राज गली विश्वेश्वर मंदिर के पास स्थित है। ज्ञानवापी से मंदिर तक आसानी से पहुंचा जा सकता है।

ज्ञान विनायक - ज्ञान विनायक का मंदिर खोवा गली चौराहा सी के 28/4 लंगीलेश्वर मंदिर सुबह आठ से दस बजे तक और शाम छह बजे तक खुला रहता है।

ज्येष्ठ विनायक - ज्येष्ठ विनायक का मंदिर सी के 62/144 सप्तसागर मोहल्ला में स्थित है। मैदागिन से इस मंदिर तक आसानी से पहुंचा जा सकता है। यह मंदिर दर्शन पूजन के लिए सुबह साढ़े पांच बजे से दोपहर साढ़े 12 बजे तक और शाम पांच से रात साढ़े आठ बजे तक खुला रहता है।

काल विनायक - काल विनायक सी के 247/10 राम घाट पर स्थित है। चौक से मंदिर तक पहुंचा जा सकता है।

कलिप्रिय विनायक - कलिप्रिय विनायक का मंदिर डी 10/50 साक्षी विनायक के पीछे मनप्रकमेश्वर मंदिर के पास स्थित है।

खर्व विनायक - खर्व विनायक का मंदिर राजघाट किले के बगल में स्थित है।

उद्दण्ड विनायक - उद्दण्ड विनायक का मंदिर भुइली रामेश्वर में विद्यमान है।

पाशपाणी विनायक - इनका मंदिर सदर बाजार क्षेत्र में स्थित है।

सिद्धि विनायक - सिद्धि विनायक का मंदिर मणिकर्णिका कुण्ड के पास है।

लम्बोदर विनायक - लम्बोदर विनायक का मंदिर केदारघाट पर स्थित है।

कूटदन्त विनायक
- कूटदन्त विनायक का मंदिर – क्रींकुण्ड पर है।

शालकण्ड विनायक - इनका मन्दिर मण्डुवाडीह पर है।

कुण्डाण्ड विनायक - कुण्डाण्ड विनायक का मंदिर फुलवरिया में है।

मुण्ड विनायक - इनका मंदिर सदर बाजार में स्थित है।

विकटद्विज विनायक - इनका मंदिर धूपचंडी क्षेत्र में है।

राजपुत्र विनायक - इनका मंदिर राजघाट किले के पास स्थित है।

प्रणव विनायक - प्रणव विनायक का मंदिर त्रिलोचन घाट पर स्थित है।

वक्रतुण्ड विनायक - वक्रतुण्ड विनायक का मंदिर लोहटिया में है।

त्रिमुख विनायक - इनका मंदिर सिगरा टीले के पास है।

पंचास्य विनायक - पंचास्य विनायक का मंदिर पिशाचमोचन स्थित है।

हेरम्ब विनायक - हेरम्ब विनायक का मन्दिर मलदहिया इलाके में है।

विघ्न हरण विनायक - इनका मन्दिर चित्रकूट इलाके में स्थित है।

वरद विनायक - वरद विनायक का मन्दिर प्रह्लाद घाट पर है।

मोदक प्रिय विनायक - इनका मन्दिर त्रिलोचन मन्दिर के पास है।

सिंहकुण्ड विनायक - इनका मन्दिर खालिसपुरा में है।

कूणिताक्ष विनायक - इनका मन्दिर लक्ष्मीकुण्ड में है।

प्रसाद विनायक - प्रसाद विनायक का मन्दिर पितरकुण्डा पर है।

पिचडिला विनायक - इनका मन्दिर प्रह्लाद घाट पर है।

उद्दण्ड विनायक - इनका मन्दिर त्रिलोचन बाजार में स्थित है।

स्थूलदण्ड विनायक - इनका मन्दिर मानमंदिर के पास है।

नागेश विनायक - इनका मन्दिर भोंसला घाट पर है।

सृष्टि विनायक - इनका मन्दिर कालिका गली में है।

यक्ष विनायक - इनका मंदिर कोतवालपुरा में है।

मंगल विनायक - मंगल विनायक बालाघाट में स्थित है।

मित्र विनायक - इनका मन्दिर सिंधिया घाट पर विद्यमान है।

मोदक विनायक - इनका मन्दिर काशी करवट मन्दिर के पास है।

प्रमोद विनायक - प्रमोद विनायक का मन्दिर सी के 31/16 काशी में है।

सुमुख विनायक - विनायक का मन्दिर मोतीघाट पर स्थित है।
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नमः शिवाभ्यां विषमॆक्षणाभ्यां

नमः शिवाभ्यां विषमॆक्षणाभ्यां
बिल्वच्छदामल्लिकदामभृद्भ्याम्
शॊभावतीशान्तवतीश्वराभ्यां
नमॊ नमः शङ्करपार्वतीभ्याम्

नमः शिवाभ्यां पशुपालकाभ्यां
जगत्रयीरक्षणबद्धहृद्भ्याम्
समस्तदॆवासुरपूजिताभ्यां
नमॊ नमः शङ्करपार्वतीभ्याम्

स्तॊत्रं त्रिसन्ध्यं शिवपार्वतीभ्यां
भक्त्या पठॆद्द्वादशकं नरॊ य
स सर्वसौभाग्यफलानि
भुङ्क्तॆ शतायुरान्तॆ शिवलॊकमॆति 




Gopal Krishna Shukla
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बनारस की ताम्रकला

<<--मुख्य पेज "वाराणसी एक परिचय " 


बनारस की ताम्रकला
बनारस या वाराणसी में पीतल एवं तांबे से बने कलात्मक चीजों एवं पात्रों का प्रचलन अन्य उद्योग जैसे साड़ी तथा काष्ठकला के समान ही अति प्राचीन है। इसका मुख्य कारण काशी का पुण्यधाम होना है। जब तीर्थयात्री बनारस आते थे तो वे लोग यहां पर विभिन्न तरह के संस्कार तथा पूजा पाठ में उपयुक्त होने वाले पात्रों को ख़रीदते थे। कुछ पात्र ख़रीदकर घर भी ले जाते थे। इन्हीं कारणों से यह उद्योग विकसित तथा पुष्पित होता रहा। यहां के पात्रों की कलात्मकता इतनी अच्छी थी कि इनकी मांग धीरे-धीरे अन्य धार्मिक स्थानों एवं नगरों में भी होने लगी। एक समय ऐसा भी आया जब यहां के अनुष्ठानी पात्र तथा सिहांसन, त्रिशूल, घंटी, घंटा, घुंघरू आदि की मांग देवघर, वृन्दावन, उज्जैन और तो और नेपाल के काठमांडू शहर के पशुपतिनाथ मंदिर के परिसर तक होने लगी। इसी के साथ-साथ धीरे-धीरे यहां के ताम्र कलाकारों ने और भी बहुत से सजावट की वस्तु, घरेलू उद्योग के पात्र, मूर्ति एन्टीक पीस इत्यादि भी बनाना प्रारंभ कर दिया। इससे भी इसका विस्तार होने लगा, तथा जगह-जगह पर इनके द्वारा बनाए गए 'कला-कृतियों' की मांग दिन-प्रतिदिन बढ़ ती गयी।[1]

प्रारंभ में यहां केवल धार्मिक अनुष्ठानों में प्रयुक्त होने वाले पात्रों का निर्माण होता रहा। इन पात्रों में प्रमुख नाम इस प्रकार है:
 
क्रमांक
पात्र
1
पंचपात्र
2
अर्ध्य
3
आचमन
4
दीप
5
घंटी
6
घंटा
7
मंगल कलश
8
त्रिशूल
9
लोटा
10
कमण्डल
11
मूर्ति
12
घुंघरू

ताम्रकला उद्योग का सार्वभौमिक स्वरुप
मुसलमानों के भारत आगमन के बाद ताम्र उद्योग (कला) पर भी इस्लाम का प्रभाव पड़ा। परन्तु इस कला ने भी इस्लाम की कला को बहुत ज्यादा प्रभावित किया। धीरे-धीरे यहां के ताम्र-कलाकारों ने मुसलमानों के शादी-विवाह या अन्य उत्सवों में प्रयुक्त होने वाले नक़्क़ाशीयुक्त बर्तन (पात्र), थाल, तरवाना इत्यादि बनाना प्रारंभ किया। पात्रों की कलात्मक में अत्यधिक आकर्षण था। इस कलात्मकता आकर्षण से हिन्दू भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। धीरे-धीरे हिन्दुओं ने भी इन पात्रों का उपयोग अपने यहां के उत्सवों तथा शादी-विवाह आदि के आयोजनों में करना प्रारम्भ कर दिया।
 
'बदना' का निर्माण
कालान्तर में मुसलमानों द्वारा व्यवहार में लाया जाने वाला 'बदना' का निर्माण भी पूर्णतः कलात्मक ढंग से काशी के कसेरों ने प्रारंभ किया। 'बदना' में इनके द्वारा निखारी गयी कलात्मकता ने सभ्रान्त मुसलमान, यहां तक कि मुग़ल बादशाहों, रईसों और लखनऊ के नवाबों का भी मन मोह लिया। इनकी कला-क्षमता तथा प्रयोगवादिता से प्रभावित होकर इन लोगों ने काशी के ताम्र कलाकारों को प्रोत्साहित करना शुरु किया। प्रोत्साहन आर्थिक मदत तथा समाजिक मर्यादा या सम्मान दोनों ही रुप में दिया जाता था। ताम्र कलाकार इससे और अधिक प्रोत्साहित होकर एक से एक कलात्मक तथा मनमोहक ताम्र-कलाकृतियों का निर्माण करते रहे। इनकी कलाकृति आश्चर्यजनक, आकर्षक, प्रयोगवादी तथा अपने आप में एक अनूठी चीज थी।
इसके अतिरिक्त बनारस के ताम्र-कलाकारों ने हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियों का निर्माण प्रारंभ रखा। इस तरह से यहां की ताम्र-कला तीव्रगति से आगे बढ़ते हुए फलती-फूलती तथा विकसित होती रही। कुछ अंश में स्थानीय लोग तथा बहुतायत में तीर्थयात्रियों द्वारा इन कला-कृतियों की खपत होती रही। रईसों ने भी इनसे अपना सम्पर्क बनाए रखा।[1]

इतिहास
70 तथा 80 के दशक में बजार में एकाएक इस्पात (स्टील) तथा एल्युमिनियम का धमाके के साथ आगमन हुआ। जहां तांबे, पीतल, कांसे आदि के बने पात्रों की कीमत दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी वहीं इस्पात के बर्तन काफ़ी सस्ते पड़ते थे। चूंकि बर्तनों का निर्माण बड़े बड़े फैक्ट्रियों में किया जाता था अतः स्वाभाविक रुप से इसमें मजदूरी भी धातु की तुलना में काफ़ी कम लगती थी। कुछ ही वर्षों में इन दोनों चीजों ने खासकर इस्पात ने पूरे बाज़ार पर अपना कब्जा कर लिया। लोग इस्पात के उपकरणें के दिवाने होने लगे। इस्पात का उपकरण 'आइडेन्टीटी प्राइड' बन गया। फिर क्या था थाली, रसोई के बर्तन, ग्लास, कप और न जाने क्या-क्या चीज इस्पात की बनने लगी। और तो और पूजा के थाल, फूलों की डलिया, कमण्डल इत्यादि जैसे चीजों का भी निर्माण इस्पात से होने लगा। हालांकि यज्ञ-अनुष्ठानों एवं धार्मिक कार्यों के लिए एल्यूमिनियम के बर्तन को अपवित्र माना गया, परन्तु पण्डितों एवं शास्रज्ञों ने बहुत से अनुष्ठानिक क्रिया-कलापों में भी इस्पात के पात्र को व्यवहार में लाने की इजाजत लोगों को दे दी। धीरे-धीरे स्थिति इतनी विकराल हो गई कि काशी के विश्वनाथ गली में ताम्रपात्र तथा अन्य कलाकृति बेचने वाले ताम्रपात्र कम और इस्पात के पात्र अधिक बेचने लगे। एकाएक ऐसा लगने लगा मानो 'ताम्रकला' का नामो-निशान ही मिट जाएगा। इसमें सदियों से लगे 'ताम्र-कलाकार' तथा ताम्र-व्यवसायी दोनों ही काफ़ी परेशान हो गए।
लोग वर्तमान पुनः प्राचीन तथा परम्परागत चीजों के प्रति आकर्षित हो रहे हैं। आजकल लोगों का ध्यान प्राकृतिक चिकित्सा, तथा हर्बल चिकित्सा पर भी बढ़ा है। इसी के क्रम में अच्छे डाक्टरों तथा सभ्रान्त एवं पढ़े-लिखे लोगों के घरों में भी ताम्बे-पीतल तथा अन्य धातुओं के बर्तनों का प्रयोग पानी पीने, पानी रखने तथा कभी-कभी भोजन बनाने के पात्रों के रुप में भी किया जा रहा है। हालांकि यह एक तदर्थ बात है कि पिछले पचास वर्षों में विभिन्न कारणों से वाराणसी के 'मेटल वर्करों' की संख्या में कमी आयी है। यह एक आश्चर्यजनक बात है। एक ओर जहां सिल्क साड़ी तथा वस्र उद्योग एवं काष्ठ-कला में कार्यरत लोगों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। वहीं ताम्र तथा अन्य धातु उद्योग में लगे कलाकारों की संख्या में दिन प्रतिदिन ह्यस। निश्चित ही यह एक विचारणीय प्रश्न है।[1]

कलाकारों का वर्गीकरण
वाराणसी के ताम्र कलाकारों को मोटे तौर पर चार भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है:
1.      रिपोजी या इन्ग्रेवींग करने वाले कलाकार
2.      धार्मिक अनुष्ठान में प्रयुक्त होने वाले पात्रों का निर्माण करने वाले कलाकार
3.      सजावटी समान (एन्टीक पीस) इत्यादि का निर्माण करने वाले कलाकार।
4.      घरेलू बर्तनों का निर्माण करने वाले कलाकार।
ताम्र कलाकारों का एक वर्ग ऐसा भी है जो पुराने तांबे के पात्रों को गलाने का काम करता है। तांबे को गलाकर फिर उसके केक को पिटउआ बर्तन या पात्र बनाने के लिए ताम्र कलाकारों को ये दे देते हैं।
प्रमुख कलाकृतियो के नाम
1.      लोटा
2.      कमण्डल
3.      फूलों की डालिया
4.      गंगाजल पात्र
5.      वरगुणा
6.      पंचपात्र
7.      घुंघरु
8.      बदना
9.      पानदान
10. घंटी
11. देवी-देवताओं की मूर्तियां
12. मंगल कलश
13. झूले
14. पालना
15. तबला
16. झालर
17. रसोई में प्रयुक्त होने वाले विभिन्न पात्र
18. घण्टी
19. तरबाना (इसे प्रचलित भाषा में कोपर भी कहा जाता है। शादी विवाह के समय कन्यादान के समय प्रयुक्त किया जानेवाला पात्र।)
20. आचमनी।[1]
प्रयुक्त किये जानेवाले उपकरण
ताम्रकला में उपकरण (औजार) की तुलना में हाथ की सफाई तथा मानसिक सोच का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसमें बहुत ही सीमित औजारों का प्रयोग किया जाता है। जो लोग पूर्व में व्यवहार किये गये उपकरणों को ख़रीद कर उसे गलाते हैं और गलाकर प्लेट बनाते हैं वे निम्नलिखित औजारों का प्रयोग करते हैं:
  • छोटी संख्या
  • बड़ी संडसी
  • छोटा चिमटा
  • बड़ा चिमटा
  • कलछुल (बड़े साइज का)
  • सब्बल (दो बड़े आकार में)
  • घड़ियां (यह ताप का कुचालक होता है। घड़ियां वनारस में नहीं बनाई जाती बल्कि यह चेन्नई से बनकर यहां आती है। यह घड़े तथा बाल्टी की आकृति में होती हैं। इसका व्यवहार कच्चे माल को गलाने के लिये किया जाता है।)
  • डाई (इसमें गले पिघले हुए माल को डालकर उसका प्लेट बनाया जाता है।)
  • हथोड़ा।
एक 25 न. के घड़िया में (घड़िया विभिन्न नम्बरों तथा आकृतियों में उपलब्ध होता है।) 40 किलो तक कच्चे माल को पिघलाया जाता है। अगर लगातार बिजली उपलब्ध हो तो 3 आदमी मिलकर 12 घंटे में 2 कुंतल माल को गला लेते हैं। पुराने (कच्चे) माल को थोक के व्यापारियों से ख़रीदा जाता है। इसी तरह से पीटकर बनाए जाने वाले पात्रों के निर्माण के लिए निम्नलिखित औजारों को उपयोग में लाया जाता है।
  1. सबरा
  2. मधन्ना
  3. हथौड़ा
मधन्ना एक प्रकार की छोटी हथौड़ी है जिससे पीटा जाता है और उपकरण तैयार किया जाता है। मशीन से बनाए जाने वाले पात्रों एवं कलाकृतियों में केवल निम्नलिखित औजारों का प्रयोग हाथ द्वारा यहां के कलाकार करते हैं।
  • हवाई स्टील (यह छोटे बड़े विभिन्न आकार में उपलब्ध होता है।)
  • डाइमण्ड स्टील (इसका प्रयोग काटने के लिए किया जाता है)।
  • हवाई स्टील का काम खुरचने तथा आकृति देने के लिए किया जाता है।
  • इसी प्रकार एन्टीक पीस, बनाने के लिए भी मधन्ना, सबरा, हथौड़ा, प्रकाल, स्केल इत्यादि औजारों की सहायता ली जाती है।[1]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
1.      ↑ 1.0 1.1 1.2 1.3 1.4 मिश्र, डॉ. कैलाश कुमार। बनारस की ताम्रकला (हिंदी) (एच.टी.एम.एल) ignca.nic. अभिगमन तिथि: 20 नवंबर, 2012


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बनारस शिव से कभी मुक्त नही, जब से आये कैलाश न गये। बनारसी की मस्ती को लिखा नही जा सकता अनुभव होता है। अद्भूद है ये शहर जिन्दगी जीनेका तरीका कुछ ठहरा हुआ है पर सुख ठहराव में है द्रुतविलंबित में नही. मध्यम में है इसको जीनेवाला है यह नगर। नटराज यहां विश्वेश्वर के रुप में विराजते है इसलिये श्मशान पर भी मस्ती का आलम है। जनजन् शंकरवत् है। इस का अनुभव ही आनन्द है ये जान कर जीना बनारस का जीना है जीवन रस को बना के जीना है।
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काल हर !! कष्ट हर !! दुख हर !! दरिद्र हर !! हर हर महादेव !! ॐ नमः शिवाय.. वाह बनारस वाह !!