Malviya Bridge

Malviya Bridge, inaugurated in 1887 (originally called The Dufferin Bridge) is a a double decker bridge over the Ganges at Varanasi. It carries rail track on lower deck and road on the upper deck. It is one of the major bridges on the Ganges and carries the Grand Trunk Road across the river. It has 7 spans of 350 ft and 9 spans of 110 ft long and it was the first bridge of its type constructed in the Indian sub-continent by the engineers of Oudh and Rohilkhand Railway Company (O&R Railway). The Bridge was renamed as Malviya Bridge in 1948 after Madan Mohan Malaviya. As the bridge is near Rajghat, it is also locally known as Rajghat bridge

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बनारस के स्थान देवता

सप्तपुरियों में प्रमुख पुरी (नगरी) काशी पुरी है। यह काशी नगरी देवमंदिरों के लिए प्रसिद्ध है। इस शहर के देवायतनों के विषय में अलग-अलग समय पर अनेक ग्रंथ रचे गए हैं। बनारस मुख्यतः अविमुक्त क्षेत्र है। यहां शिव जी के मंदिरों का बाहुल्य है परंतु अन्य देवी-देवताओं का प्रिय स्थान होने से यहां उनके भी अनेक मंदिरों का निर्माण हुआ। इन मंदिरों के अलावा यहां अनेक लोक देवताओं के भी मंदिर हैं, जिनमें बीर, सती माता, चौरा माता आदि हैं। इस विषय पर अध्ययन के पूर्व हमें बनारस के आदि स्वरूप के बारे में जानना होगा।

बनारस के पर्यायवाची के रूप में आनन्दवन का जिक्र आता है। इसका उल्लेख मत्स्यपुराण तथा स्कंदपुराण के काशी खंड में आया है। प्राचीन काल में शहर के चारों ओर उपवन थे। इसका उल्लेख फ़ाह्यान एवं ह्यूनत्सांग के वर्णनों से मिलता है। दो-तीन सौ वर्ष पहले भी वर्तमान शहर के अनेक भागों में वन थे। भदैनी मोहल्ले का नाम भद्रवन था, हरिकेश वन को काटकर जंगमबाड़ी मोहल्ला बसा है। हरतीरथ एवं वृद्ध काल के निकट दारूवन था, जिसको काटकर दारानगर बसाया गया। मैदागिन के दक्षिण में नीचीबाग तक अशोक वन था। इनके अतिरिक्त राजघाट से चौकाघाट तक बड़ी सड़क के उत्तर में वनों की एक शृंखला थी। इसका उल्लेख 'काशी खंड' में है। जेम्स प्रिंसेप के अनुसार अट्ठारहवीं सदी में मणिकर्णिका घाट के आस-पास जंगल रहा होगा। गंगा पुत्रों ने उन्हें बताया था कि घाट के पास के मकान में जो बड़े-बड़े वृक्ष दिखलायी देते थे उसी जंगल के वृक्ष हैं। मणिकर्णिका घाट के मकानों के दस्तावेजों में इसका जिक्र है कि ये मकान बनकटी के समय बने। गोपाल मंदिर के आगे भी वन था। इस क्षेत्र के विषय में जानकारी लेना आवश्यक है क्योंकि इन्हीं जगहों पर बीरों के मंदिर हैं। वास्तव में इन स्थानों पर वर्तमान बनारस शहर का निर्माण बहुत बाद में हुआ।
प्राचीन भारत में वैदिक देवताओं के साथ-साथ लौकिक देवताओं की भी उपासना होती थी। इसका उदाहरण हमें वेद, पुराण और जैन व बौद्ध ग्रंथों में मिलता है। अमरकोष नामक ग्रंथ में निम्न श्लोक है :-


विध्याधरो अप्सरो यक्षो रक्षो गंर्धवकिन्नराः।
पिशाचो गुहयकः सिद्धो भूतोहयी देवयो नमः।।


अर्थात् विद्याधर, अप्सरा, यक्ष, रक्ष, गंधर्व, किन्नर, पिशाच, गुह्यक, सिद्ध एवं भूत 'देव योनि' के हैं। इसी प्रकार एक प्राचीन बौद्ध ग्रंथ 'निद्देस' में उस समय प्रचलित भक्ति विश्वास के विषय में लिखा है, जिसके अनुसार हस्ति, अश्व, धेतु, सारमेय, बायस, वासुदेव, बलदेव, पूर्णभद्र, अग्नि, नाग, सूपर्ण, यक्ष, गंधर्व, महाराज, चंद्र, सूर्य, इंद्र, ब्रह्मा, देव, देश आदि को पूजा जाता था।

इनमें से कई वैदिक देवता थे तो कुछ पशु उपासकों का भी उल्लेख है। इसके अलावा इस सूची में यक्ष, नाग, असुर, गंधर्व आदि उपदेवताओं के भी उपासक वर्ग का उल्लेख है।

बाद में यक्षों एवं सर्प उपासना पद्धति शिव उपासना पद्धति में विलीन हो गई। तभी हरिकेश यक्ष शिव के वरदान से दण्डपाणि एवं क्षेत्रपाल के रूप में पूजित हैं। इन्हें क्षेत्रपाल भैरव कहा जाता है। अभी भी बनारस में नागपंचमी को नागकुआं पर, जहां विश्वास किया जाता है कि नागों का निवास है, एक मेला लगता है।
बनारस पर रचित स्कंद पुराण के अंतर्गत 'काशी खंड' में भी बीरों के मंदिरों का कोई उल्लेख नहीं है। अतः हम यह कह सकते हैं कि बनारस में पूजे जाने वाले बीर, लोक देवता, स्थान देवता या ग्राम्य देवता थे। आज हम साधारणतः स्थान तथा ग्राम देवता को उतना महत्त्व नहीं देते पर यदि हम किसी भी हिन्दु आनुष्ठानिक पूजा के अवसर पर उच्चारित मंत्रों को देखें तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि इनका कितना महत्त्व है। अतः कोई भी पूजा आरम्भ करने के पहले ईष्ट देवता या पूजित देवता पर पुष्प अर्पण करते समय यह मंत्र पढ़ा जाता है :-

एते गंध पुष्पे ऊं गणेशायः नमः
एते गंध पुष्पे ऊं शिवादि पंच देवताभ्यो नमः
एते गंध पुष्पे ऊं दशदिक पालेभ्यो नमः
एते गंध पुष्पे ऊं आदित्यादि नव ग्रहेभ्यो नमः
एते गंध पुष्पे ऊं मत्स्यादि दस अवतारेभ्यो नमः
एते गंध पुष्पे ऊं ग्राम देवताभ्यो नमः
एते गंध पुष्पे ऊं स्थान देवताभ्यो नमः
एते गंध पुष्पे ऊं गृह देवताभ्यो नमः
एते गंध पुष्पे ऊं सर्व देवीभ्यो नमः
एते गंध पुष्पे ऊं सर्व देवेभ्यो नमः


इन मंत्रों से स्पष्ट है कि प्रत्येक गांव के अपने देवता हैं तथा प्रत्येक स्थान के भी देवता हैं। इसके अलावा बीरों के बारे में अध्ययन के समय हमें यह ध्यान रखना होगा कि पहले हिंदुओं के मंदिरों में सवर्णों के अलावा अन्य जातियों का प्रवेश निषिद्ध था। अतः असवर्ण जातियां अधिकतर अपने स्थानीय मंदिरों में पूजा-उपासना करती थीं।

कालांतर में इन जगहें के साथ सवर्ण जातियां भी जुड़ गईं जिसके उदाहरण हमें कई जगह मिले हैं। अतः कई बीरों के मंदिरों के सेवाइत ब्राह्मण हैं। इन मंदिरों की पूजा पद्धति भी सरल है परंतु शिवरात्रि पर या इनके शृंगार के दिन ब्राह्मणों को बुलाकर विशेष पूजा का आयोजन किया जाता है। शिवरात्री पर कुछ बीरों के मंदिरों पर रुद्री का भी पाठ करवाया जाता है और इन बीरें को शिव रूप में जल आदि चढ़ाया जाता है।

मोचीचंद्र ने काशी का इतिहास (पृष्ठ-26) में बीर, बरम को यक्षों की पूजा के अवशेष के रूप में स्वीकार किया है। परंतु बरम अलग हैं, बीर अलग। बरम वास्तव में ब्रह्म राक्षस का संक्षिप्त अपभ्रंश है।
हरसू बरम भी ऐसे ही एक ब्रह्म राक्षस हैं। मेरा मत यह है कि जो ब्राह्मण उपवास करके या किसी अन्य उपाय से स्वेच्छा से प्राण त्याग देते हैं, उन्हें ब्रह्म राक्षस कहा जाता है। क्योंकि सनातन धर्म में स्वेच्छा से प्राण त्याग अर्थात् आत्महत्या को महापाप माना गया है। परंतु कुछ स्थान ऐसे भीं हैं जहां ब्रह्म बाबा कहा जाता है। इन स्थानों पर ब्राह्मणों और संतों की समाधियां भी हो सकती हैं।
बीरों के मंदिरों में गांजा, शराब एवं बलि दिए जाने के कारण मोतीचंद्र ने इन्हें यक्ष पूजा के अवशेष के रूप में माना है। परंतु बनारस के प्रमुख यक्ष हरिकेश यक्ष यहां के क्षेत्रपाल भैरव के रूप में पूजे जाते हैं।
कुबेर नाथ सुकुल ने अपनी पुस्तक वाराणसी वैभव में बीरों के विषय में लिखा है कि बीर संख्या में बावन हैं तथा इनका उल्लेख पृथ्वीराज रासो में है। इनका भैरवों अनुयाइयों के रूप में वर्णन किया गया है। इसके अतिरिक्त इस समय बहुत-से प्राचीन शिवलिंग, जिनका 'अरधा' नष्ट हो गया है, बीर कहकर पूजे जाते रहे हैं। बाधेबीर व्याध्रेश्वर है, इसी प्रकार ओंकारेश्वर के उत्तर में एक-एक शिवलिंग 'ताड़ेबीर' कहकर पूजे जाते हैं।

यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि 'त्रिस्थली सेतु' (15800) में कहा गया हैः
अत्र यद्यपि विश्वेश्वरलिंग कदाचित पनीयते अन्यदानीयते च कलावशत्पुरुषै स्तथापि तत्स्थानस्थिते यस्मिन्कस्मिंश्चिपूजदि कार्यम।
मुख्य विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंगाभाविडपि तत्स्थानस्थिते लिंगातरे पुजादि कार्यम्।
यदापि य्लेच्छादिदुष्ट राजा वशांतस्मिन्स्थाने किचिंदपि लिंग कदाचिन्नस्थातदापि प्रदक्षिणानभारस्काराधाः स्थानधर्मा भवेन्त्येव तावर्तेव च नित्ययातासिद्धिः।
स्थापना दयस्तु साधिष्ठाना न भवंतीति निर्णयः।
एवं लिंगांतरे प्रतिभातरे च सर्वत्र ज्ञेयम्।
बीरेश्वरादिष्व प्ययमेव पूजा प्रकाशे ज्ञेयों विशेषानुक्तौ।
तदुक्तौ तु स एव।

अर्थात् संयोगवश कभी लोग विश्वेश्वर के लिंग को अपने स्थान से हटा देते हैं, कभी दूसरा नया लिंग उसके स्थान पर लाकर स्थापित करते हैं, तथापि उस स्थान पर जो कोई भी लिंग रहे, उसकी पूजा करनी चाहिए। जब मलेच्छादि दुष्ट राजाओं के कारण उस स्थान पर कोई भी लिंग न हो, तब भी प्रदक्षिणा, नमस्कार आदि से धर्म प्राप्त किया जा सकता है। सिद्धि पर कुबेर नाथ सुकुल का यह कथन है कि टूटे हुए शिव अरघे का बीरों के रूप में पूजित होना गलत है।बीरों के विषय में सर्वप्रथम पृथ्वीराज रासो में उल्लेख है। वहां इनकी संख्या बावन (52) बतायी गई है। इन्हें भैरवी के अनुयायी या भैरव का गण कहा गया है। यह विश्वास अभी भी कायम है। बीरों की खोज करने पर बनारस एवं आस-पास में मुझे (51) बीरों के स्थान मिले। यह कहना कठिन है कि ये वही बीर हैं जिनका वर्णन पृथ्वीराज रासो में हुआ है। अधिकतर बीरों के मंदिर का स्थान बहुत ही  छोटी-सी जगह को घेरकर बनाया गया है। इस वजह से इनके दस्तावेज आदि नहीं मिलते हैं और दो-तीन मंदिरो को छोड़कर इनके मंदिरों में स्थापत्य का भी कोई विशेष महत्व नहीं है। अधिकतर मंदिर कमरेनुमा या छोटे मंदिर के स्वरूप में हैं।

बनारस शहर में बीरों के नाम से चार मोहल्ले बसे हैं अतः इनकी प्राचीनता एवं जनमानस में श्रद्धा के मान को समझा जा सकता है। ये मोहल्ले हैं- लहुराबीर, डेयोड़ियाबीर, भोगाबीर तथा भोजूबीर। अन्य दो जगहें भी बीरों के नाम से जानी जाती हैं, जैसे भदऊबीर एवं कंकरहाबीर। बाघाबीर, अग्यवानबीर एवं डेयोड़ियाबीर, सहोदराबीर, अहिराबीर (हनुमानपुरा), इन स्थानों पर बीरों के स्थानों को मंदिर रूप में बनाया गया है। बाघेबीर, सहोदराबीर के मंदिर करीब 150 से 200 वर्ष पुराने हैं। बाकी मंदिरों का नवीनीकरण हुआ है। डेयोड़ियाबीर मंदिर के सेवाइत बासदेवी गिरी के अनुसार यह मंदिर करीब 150 वर्ष पुराना है। इनके पास इन मंदिर के दस्तावेज हैं। अधिकतर बीरों के मंदिरों में मूर्तियों के स्थान पर शंकुनामा एक पक्की आकृति बनी मिलती है जैसे गांवों के डीहों के स्थान पर मिलती है।

बाघेबीर, ताड़ेबीर, कंकरहाबीर, डेयोड़ियाबीर, अहिराबीर चमरूबीर मंदिरों में कहीं शिवलिंग के रूप में तो कहीं प्राचीन मंदिरों के भग्नावशेषों को रखकर पूजा हो रही है। पुराने मंदिरों के अवशेषों को मंदिरों में और पेड़ों के नीचे रखकर पूजा करने की एक प्राचीन परंपरा हमें नजर आती हैं प्रायः लोग इन पर सिंदूर आदि लगा रोज जल चढ़ाते हैं एवं कपूर आदि जलाते हैं। कई बीरों के मंदिरों में अन्य देव प्रतिमायें स्थापित हो गई हैं जैसे मुस्याली बीर में हनुमान जी की मूर्ति, बनारस-गाजीपुर मार्ग पर दैत्राबीर बाबा के मंदिर में मां काली एवं हनुमान जी के मंदिर बन गए हैं। कई मंदिरों में शंकुरूपी आकृति पर चेहरा लगाकर शृंगार किया जाता है।

डेयोड़ियाबीर, दैत्राबीर (बड़ी गैबी), लाढूबीर (चुरामनपुर), भंगरहाबीर आदि स्थानों पर बकरे, मुर्गे, सूअर आदि की बलि चढ़ती है। चैत्र नवरात्र में शीतला देवी का पूजन होता है जो कि बसिपौरा के नाम से जाना जाता है। महिलायें शीतला देवी के अलावा बीरों के मंदिरों पर भी (गंगाजल, पंचमेवा, दूध) धार चढ़ाती हैं। लोकमत यह है कि शीतला जी बीरों की बहन है। शायरी माता को बीर की शक्ति के रूप में माना जाता है।

प्रायः नित्य पूजा में बीरों के स्थान पर जल चढ़ाकर कपूर एवं धूपबत्ती से श्रद्धालु आरती करते हैं परंतु विशेष पूजा के अवसर पर अलग-अलग स्थानों के अनुसार भव्य आयोजन होता है जिनमें पुरोहितों से पूजा अनुष्ठान करवाया जाता है। इन मंदिरों के आस-पास बसे मोहल्लों के निवासियों के मन में यह विश्वास है कि यह उस क्षेत्र के रक्षक हैं अतः शादी, विवाह आदि शुभ कार्यों से पहले एवं बाद में लोग बीरों के मंदिरों में दर्शन के लिए जाते हैं। बनारस में हमें अलग-अलग मोहल्लों में इन बीरों के मंदिर, अथवा स्थान मिले हैं जिनकी सूची इस प्रकार है :

लहुराबीर- इनके नाम से लहुराबीर मोहल्ला बसा हुआ है। लहुराबीर-मैदागिन मार्ग पर इनका मंदिर है।

भोगाबीर- इनके नाम का भी मोहल्ला है। इनका स्थान संकटमोचन मंदिर के पास है।

बाघेबीर- महामृत्यंजय मंदिर के आगे डी00वी0 कालेज के पास इनका स्थान है।

कंकरहाबीर- कमच्छा से शंकूधारा मार्ग के बीच स्थान का नाम कंकरहाबीर है।

डेयोड़ियाबीर- भेलुपूर थाने से आगे दाहिने की तरफ इनका मंदिर है। यह मोहल्ला डेयोड़ियाबीर के नाम से जाना जाता है। मंदिर के अंदर मुख्य विग्रह के स्थान पर किसी प्राचीन मंदिर की देव मूर्ति है तथा दीवारों पर भी कई प्राचीन मूर्तियों के अवशेष लगे हैं।

दैत्राबीर- इस नाम के चौकाघाट के कई स्थान हैं।

दैत्राबीर- जंगमबाड़ी से रामापुरा रोड पर।

दैत्राबीर- हथुआ मार्केट के बगल वाली गली में दैत्राबीर बाबा का छोटा मंदिर है।

दैत्राबीर- तिलभांडेश्वर मंदिर के पास।

दैत्राबीर- कश्मीरीगंज मोहल्ले में।

दैत्राबीर- वाराणसी गाजीपुर रोड पर उमरहा में मंदिर दैत्राबीर बाबा एवं हनुमान का मंदिर है।

दैत्राबीर- बड़ी गैबी पर।

दैत्राबीर- लेढूपुर में।

दैत्राबीर- कैंट से लहरतारा की तरफ बढ़ने पर कैंसर अस्पताल के पहले यह मंदिर पड़ता है।

ताड़ेबीर- ऊंकारेश्वर मंदिर के उत्तर में इनका मंदिर है। कुबेरनाथ शुक्ल के अनुसार यह मंदिर टूटे हुए शिव के अरधे पर निर्मित है। परंतु कुछ बीरों के मंदिरों में भग्न मूर्तियों को भी रखा जाता है।

भोजूबीर- इनके नाम से भी एक मोहल्ला आबाद है यह मोहल्ला उदय प्रताप कालेज के आगे पड़ता है।

लाढूबीर- इनका स्थान भेलूपुर चौराहे से पानी की टंकी की तरफ बढ़ने पर ऐंग्लो बंगाली कालेज के पहले है। यहां एक छोटा मंदिर है। अगल-बगल के श्रद्धालु यहां नित्य पूजा करते हैं तथा शिवरात्रि पर इनकी शिवरूप में विशेष पूजा होती है।

चमरूबीर- इनका स्थान भेलूपुर मोहल्ले के अंदर ऐंग्लो बंगाली कालेज के परिसर से सटा हुआ है। यहां भी मंदिरों के स्तंभों एवं मूर्तियों के भग्नावशेष रखे हैं। यह भग्नावशेष गुप्तोत्तर काल के हैं। यहां भी शिवरात्रि पर विशेष आयोजन होता है। इस मंदिर को अब पक्का स्वरूप दिया गया है।

नौगड़ेबीर- यह मंदिर दुर्गा जी के पीछे दुर्ग विनायक मंदिर से सटे रोड पर दीवार में बना हुआ है। इसमें एक तपस्वी के आकार की मूर्ति रखी है और शिवलिंग भी है।

बेलवाबीर- यह मंदिर शंकुलधारा कुंड से आगे बढ़ने पर किरहिया रोड के किनारे है। इसमें भी तपस्वी के आकार की मूर्ति है।

मदरहवाबीर- यह मंदिर किरहिया में है। इस मंदिर में छोटे मंदिर की आकृति बनी है। मोहल्ले के लोग विशेष आयोजन के दौरान इस पर मुखौटा लगाकर पूजा आदि करते हैं।

अहिराबीर- यह स्थान विनायक के पास है। यहां एक कमरेनुमा स्थान में शंकु आकार की आकृति है।

बढ़वाबीर- भेलूपुर पानी टंकी के गेट के बगल में इनका स्थान है। स्थानीय लोगों का कहना है यह मंदिर चालीस वर्ष पूर्व बना था।

अंगियाबीर- वाराणसी मिर्जापुर मार्ग पर स्थित है।

मंगरहाबीर- सलारपुर में स्थित है। उक्त क्षेत्र के निवासियों में इस मंदिर के प्रति बहुत श्रद्धा है। शादी, विवाह के बाद वर-वधू दर्शन के लिए यहां आते हैं। यहां बलि भी दी जाती है।

बरइचाबीर- यह मंदिर शंकर धाम कालोनी खोजवां में है।

नत्थाबीर- यह मंदिर फरीदपुरा में है।

भदऊबीर- यह मंदिर भदऊ चुंगी पर स्थित है। यह स्थान इन्हीं के नाम से प्रसिद्ध है।

अग्यवान बीर- नवाब गंज से खोजवां की तरफ बढ़ने पर बायीं ओर यह मंदिर है। इस मंदिर का नवीनीकरण किया गया है। मध्य में स्तंभनुमा आकृति है जिस पर तांबे का पत्तर चढ़ाया हुआ है।

अकेलवा बीर- इनका स्थान काशी हिंदू विश्वविद्यालय के अंदर ऐम्फिथियेटर के पास है।

सहोदरा बीर- अस्सी से लंका जाने के मार्ग में अस्सी पुल के पहले दाहिनी तरफ इनका मंदिर है यहां भी स्तम्भकार प्रतिमा है। यहां गांजा आदि चढ़ाया जाता है।

कर्मन बीर- रविदास मंदिर के आगे सीर गोवर्धनपुर गांव में इनका स्थान है।

लौटूबीर- यह मंदिर भी सीर गोवर्धनपुर गांव में स्थित है।

बचऊबीर- सीर गोवर्धन पुर गांव में इनका स्थान है। बचऊबीर के विषय में कहा जाता है कि इन्होंने निहत्थे, शेर का वध किया था और ये बहुत ही बलशाली व्यक्ति थे। यह मंदिर उनकी याद में बना है।

अहिराबीर- यह मंदिर हनुमान पुरा मोहल्ले में स्थित है। इस मंदिर के साथ-साथ शीतला जी का भी मंदिर है।

तड़ियाबीर- भेलूपुर मोहल्ले में पानी टंकी परिसर के पास इनका छोटा मंदिर है स्थानीय लोग इनकी नित्य पूजा करते हैं।

बदलाबीर- यह मंदिर खोजवां में स्थित है।

कालूबीर- किरहिया से दशमी की तरफ बढ़ने पर कुसुम सिनेमा के पास यह स्थान है।

शिहाबीर- इनका स्थान रामनगर में है।

तड़वाबीर- यह मंदिर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के अंदर आई0टी0 जिमखाना के पास है।

गुल्लाबीर- यह मंदिर भी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के अंदर नेशनल कैडेट कोर के परिसर के बगल में स्थित है।

बिजुड़ियाबीर- यह मंदिर सामने घाट पर है।

बाढूबीर- मण्डुआडीह से मढ़ौली जाने वाले मार्ग के बीच में, चुरामनपुर में यह मंदिर है। अगल-बगल के गांवों के लोग शादी, विवाह या किसी भी शुभ कार्य से पहले एवं बाद में इनका दर्शन करते हैं। यहां बलि भी चढ़ाई जाती है।

मुरचाली बीर- इस मंदिर में हनुमान जी की प्रतिमा स्थापित है। यह मतुआपुरा मोहल्ले में स्थित है।

रिठी बीर- इस मंदिर में शिवलिंग स्थापित है। यह भी कतुआपुरा मोहल्ले में स्थित है।

केवलाबीर- यह मंदिर सुदामापुरा से बजरडीहा की तरफ आगे जाने पर है। यह मंदिर भी छोटा है परंतु इसमें विग्रह लिंगाकार है। इसकी बगल में शिवलिंग भी रखा गया है।

कंकड़वा बीर- यह मंदिर वरुणा नदी के किनारे (कोनियाघाट) पर स्थित है।

जोगियाबीर- यह मंदिर डी00वी0 कालेज के सामने के रास्ते पर दाहिनी तरफ है।

नटबीर- यह स्थान विनायका से गैबी की तरफ जाने पर पहले चौराहे पर दाहिने हाथ पर है। इस स्थान पर एक छोटा-सा मंदिर है जिसमें कोई मूर्ति नहीं है। यहां पर श्रद्धालु मंगल और शनिवार को दीप जलाते हैं। यहां बलि भी दी जाती है।

अनजान बीर- यह मंदिर गैबी से महमूरगंज मार्ग पर स्थित है। इसमें शंकु की दो आकृतियां हैं।

अनजान बीर- यह मंदिर गैबी से महमूरगंज मार्ग पर स्थित है। इसमें शंकु की दो आकृतियां है।

पनारुबीर- यह मंदिर गिरजाघर से लक्सा की तरफ आगे बढ़ने पर लक्ष्मीकुंड की तरफ मुड़ने वाले रास्ते के दाहिनी तरफ दीवार में बना हुआ है।

बीरों के मंदिरों या स्थानों के विषय में अध्ययन करने से हमें यह ज्ञात होता है कि ये स्थानीय लोक देवता हैं। कालांतर में इन्हें भैरवों के गणों के रूप में मान लिया गया। पहले समाज के पिछड़ी जातियों द्वारा इनकी उपासना होती थीं परंतु अब सभी लोग इन स्थानों पर दर्शन करते हैं। डेयोड़ियाबीर मंदिर मे नागपंचमी वाले दिन बलि चढ़ाने का रिवाज अभी भी प्रचलित है।

बनारस शहर में कोई भी परंपरा मरती नहीं है। यह किसी न किसी रूप में विद्यमान रहती है। इसका साक्षात् प्रमाण हमें बीरों की उपासना से मिलता है।

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अजय रतन बनर्जी>





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बनारस शिव से कभी मुक्त नही, जब से आये कैलाश न गये। बनारसी की मस्ती को लिखा नही जा सकता अनुभव होता है। अद्भूद है ये शहर जिन्दगी जीनेका तरीका कुछ ठहरा हुआ है पर सुख ठहराव में है द्रुतविलंबित में नही. मध्यम में है इसको जीनेवाला है यह नगर। नटराज यहां विश्वेश्वर के रुप में विराजते है इसलिये श्मशान पर भी मस्ती का आलम है। जनजन् शंकरवत् है। इस का अनुभव ही आनन्द है ये जान कर जीना बनारस का जीना है जीवन रस को बना के जीना है।
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काल हर !! कष्ट हर !! दुख हर !! दरिद्र हर !! हर हर महादेव !! ॐ नमः शिवाय.. वाह बनारस वाह !!