काशी के बीर बाबा


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बनारस के बीर बाबा
सप्तपुरियों में प्रमुख पुरी (नगरी) काशी पुरी है। यह काशी नगरी देवमंदिरों के लिए प्रसिद्ध है। इस शहर के देवायतनों के विषय में अलग-अलग समय पर अनेक ग्रंथ रचे गए हैं। बनारस मुख्यतः अविमुक्त क्षेत्र है। यहां शिव जी के मंदिरों का बाहुल्य है परंतु अन्य देवी-देवताओं का प्रिय स्थान होने से यहां उनके भी अनेक मंदिरों का निर्माण हुआ। इन मंदिरों के अलावा यहां अनेक लोक देवताओं के भी मंदिर हैं, जिनमें बीर, सती माता, चौरा माता आदि हैं। इस विषय पर अध्ययन के पूर्व हमें बनारस के आदि स्वरूप के बारे में जानना होगा।
बनारस के पर्यायवाची के रूप में आनन्दवन का जिक्र आता है। इसका उल्लेख मत्स्यपुराण तथा स्कंदपुराण के काशी खंड में आया है। प्राचीन काल में शहर के चारों ओर उपवन थे। इसका उल्लेख फ़ाह्यान एवं ह्यूनत्सांग के वर्णनों से मिलता है। दो-तीन सौ वर्ष पहले भी वर्तमान शहर के अनेक भागों में वन थे। भदैनी मोहल्ले का नाम भद्रवन था, हरिकेश वन को काटकर जंगमबाड़ी मोहल्ला बसा है। हरतीरथ एवं वृद्ध काल के निकट दारूवन था, जिसको काटकर दारानगर बसाया गया। मैदागिन के दक्षिण में नीचीबाग तक अशोक वन था। इनके अतिरिक्त राजघाट से चौकाघाट तक बड़ी सड़क के उत्तर में वनों की एक शृंखला थी। इसका उल्लेख काशी खंडमें है। जेम्स प्रिंसेप के अनुसार अट्ठारहवीं सदी में मणिकर्णिका घाट के आस-पास जंगल रहा होगा। गंगा पुत्रों ने उन्हें बताया था कि घाट के पास के मकान में जो बड़े-बड़े वृक्ष दिखलायी देते थे उसी जंगल के वृक्ष हैं। मणिकर्णिका घाट के मकानों के दस्तावेजों में इसका जिक्र है कि ये मकान बनकटी के समय बने। गोपाल मंदिर के आगे भी वन था। इस क्षेत्र के विषय में जानकारी लेना आवश्यक है क्योंकि इन्हीं जगहों पर बीरों के मंदिर हैं। वास्तव में इन स्थानों पर वर्तमान बनारस शहर का निर्माण बहुत बाद में हुआ।
प्राचीन भारत में वैदिक देवताओं के साथ-साथ लौकिक देवताओं की भी उपासना होती थी। इसका उदाहरण हमें वेद, पुराण और जैन व बौद्ध ग्रंथों में मिलता है। अमरकोष नामक ग्रंथ में निम्न श्लोक है :-

विध्याधरो अप्सरो यक्षो रक्षो गंर्धवकिन्नराः।
पिशाचो गुहयकः सिद्धो भूतोहयी देवयो नमः।।

अर्थात् विद्याधर, अप्सरा, यक्ष, रक्ष, गंधर्व, किन्नर, पिशाच, गुह्यक, सिद्ध एवं भूत देव योनिके हैं। इसी प्रकार एक प्राचीन बौद्ध ग्रंथ निद्देसमें उस समय प्रचलित भक्ति विश्वास के विषय में लिखा है, जिसके अनुसार हस्ति, अश्व, धेतु, सारमेय, बायस, वासुदेव, बलदेव, पूर्णभद्र, अग्नि, नाग, सूपर्ण, यक्ष, गंधर्व, महाराज, चंद्र, सूर्य, इंद्र, ब्रह्मा, देव, देश आदि को पूजा जाता था।
इनमें से कई वैदिक देवता थे तो कुछ पशु उपासकों का भी उल्लेख है। इसके अलावा इस सूची में यक्ष, नाग, असुर, गंधर्व आदि उपदेवताओं के भी उपासक वर्ग का उल्लेख है।
बाद में यक्षों एवं सर्प उपासना पद्धति शिव उपासना पद्धति में विलीन हो गई। तभी हरिकेश यक्ष शिव के वरदान से दण्डपाणि एवं क्षेत्रपाल के रूप में पूजित हैं। इन्हें क्षेत्रपाल भैरव कहा जाता है। अभी भी बनारस में नागपंचमी को नागकुआं पर, जहां विश्वास किया जाता है कि नागों का निवास है, एक मेला लगता है।
बनारस पर रचित स्कंद पुराण के अंतर्गत काशी खंडमें भी बीरों के मंदिरों का कोई उल्लेख नहीं है। अतः हम यह कह सकते हैं कि बनारस में पूजे जाने वाले बीर, लोक देवता, स्थान देवता या ग्राम्य देवता थे। आज हम साधारणतः स्थान तथा ग्राम देवता को उतना महत्त्व नहीं देते पर यदि हम किसी भी हिन्दु आनुष्ठानिक पूजा के अवसर पर उच्चारित मंत्रों को देखें तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि इनका कितना महत्त्व है। अतः कोई भी पूजा आरम्भ करने के पहले ईष्ट देवता या पूजित देवता पर पुष्प अर्पण करते समय यह मंत्र पढ़ा जाता है :-

एते गंध पुष्पे ऊं गणेशायः नमः
एते गंध पुष्पे ऊं शिवादि पंच देवताभ्यो नमः
एते गंध पुष्पे ऊं दशदिक पालेभ्यो नमः
एते गंध पुष्पे ऊं आदित्यादि नव ग्रहेभ्यो नमः
एते गंध पुष्पे ऊं मत्स्यादि दस अवतारेभ्यो नमः
एते गंध पुष्पे ऊं ग्राम देवताभ्यो नमः
एते गंध पुष्पे ऊं स्थान देवताभ्यो नमः
एते गंध पुष्पे ऊं गृह देवताभ्यो नमः
एते गंध पुष्पे ऊं सर्व देवीभ्यो नमः
एते गंध पुष्पे ऊं सर्व देवेभ्यो नमः

इन मंत्रों से स्पष्ट है कि प्रत्येक गांव के अपने देवता हैं तथा प्रत्येक स्थान के भी देवता हैं। इसके अलावा बीरों के बारे में अध्ययन के समय हमें यह ध्यान रखना होगा कि पहले हिंदुओं के मंदिरों में सवर्णों के अलावा अन्य जातियों का प्रवेश निषिद्ध था। अतः असवर्ण जातियां अधिकतर अपने स्थानीय मंदिरों में पूजा-उपासना करती थीं।

कालांतर में इन जगहें के साथ सवर्ण जातियां भी जुड़ गईं जिसके उदाहरण हमें कई जगह मिले हैं। अतः कई बीरों के मंदिरों के सेवाइत ब्राह्मण हैं। इन मंदिरों की पूजा पद्धति भी सरल है परंतु शिवरात्रि पर या इनके शृंगार के दिन ब्राह्मणों को बुलाकर विशेष पूजा का आयोजन किया जाता है। शिवरात्री पर कुछ बीरों के मंदिरों पर रुद्री का भी पाठ करवाया जाता है और इन बीरें को शिव रूप में जल आदि चढ़ाया जाता है।

मोचीचंद्र ने काशी का इतिहास (पृष्ठ-26) में बीर, बरम को यक्षों की पूजा के अवशेष के रूप में स्वीकार किया है। परंतु बरम अलग हैं, बीर अलग। बरम वास्तव में ब्रह्म राक्षस का संक्षिप्त अपभ्रंश है। हरसू बरम भी ऐसे ही एक ब्रह्म राक्षस हैं। मेरा मत यह है कि जो ब्राह्मण उपवास करके या किसी अन्य उपाय से स्वेच्छा से प्राण त्याग देते हैं, उन्हें ब्रह्म राक्षस कहा जाता है। क्योंकि सनातन धर्म में स्वेच्छा से प्राण त्याग अर्थात् आत्महत्या को महापाप माना गया है। परंतु कुछ स्थान ऐसे भीं हैं जहां ब्रह्म बाबा कहा जाता है। इन स्थानों पर ब्राह्मणों और संतों की समाधियां भी हो सकती हैं।

बीरों के मंदिरों में गांजा, शराब एवं बलि दिए जाने के कारण मोतीचंद्र ने इन्हें यक्ष पूजा के अवशेष के रूप में माना है। परंतु बनारस के प्रमुख यक्ष हरिकेश यक्ष यहां के क्षेत्रपाल भैरव के रूप में पूजे जाते हैं।

कुबेर नाथ सुकुल ने अपनी पुस्तक वाराणसी वैभव में बीरों के विषय में लिखा है कि बीर संख्या में बावन हैं तथा इनका उल्लेख पृथ्वीराज रासो में है। इनका भैरवों अनुयाइयों के रूप में वर्णन किया गया है। इसके अतिरिक्त इस समय बहुत-से प्राचीन शिवलिंग, जिनका अरधानष्ट हो गया है, बीर कहकर पूजे जाते रहे हैं। बाधेबीर व्याध्रेश्वर है, इसी प्रकार ओंकारेश्वर के उत्तर में एक-एक शिवलिंग ताड़ेबीरकहकर पूजे जाते हैं।
यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि त्रिस्थली सेतु’ (15800) में कहा गया हैः

अत्र यद्यपि विश्वेश्वरलिंग कदाचित पनीयते अन्यदानीयते च कलावशत्पुरुषै स्तथापि तत्स्थानस्थिते यस्मिन्कस्मिंश्चिपूजदि कार्यम।
मुख्य विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंगाभाविडपि तत्स्थानस्थिते लिंगातरे पुजादि कार्यम्।
यदापि य्लेच्छादिदुष्ट राजा वशांतस्मिन्स्थाने किचिंदपि लिंग कदाचिन्नस्थातदापि प्रदक्षिणानभारस्काराधाः स्थानधर्मा भवेन्त्येव तावर्तेव च नित्ययातासिद्धिः।
स्थापना दयस्तु साधिष्ठाना न भवंतीति निर्णयः।
एवं लिंगांतरे प्रतिभातरे च सर्वत्र ज्ञेयम्।
बीरेश्वरादिष्व प्ययमेव पूजा प्रकाशे ज्ञेयों विशेषानुक्तौ।
तदुक्तौ तु स एव।

अर्थात् संयोगवश कभी लोग विश्वेश्वर के लिंग को अपने स्थान से हटा देते हैं, कभी दूसरा नया लिंग उसके स्थान पर लाकर स्थापित करते हैं, तथापि उस स्थान पर जो कोई भी लिंग रहे, उसकी पूजा करनी चाहिए। जब मलेच्छादि दुष्ट राजाओं के कारण उस स्थान पर कोई भी लिंग न हो, तब भी प्रदक्षिणा, नमस्कार आदि से धर्म प्राप्त किया जा सकता है। सिद्धि पर कुबेर नाथ सुकुल का यह कथन है कि टूटे हुए शिव अरघे का बीरों के रूप में पूजित होना गलत है।
बीरों के विषय में सर्वप्रथम पृथ्वीराज रासो में उल्लेख है। वहां इनकी संख्या बावन (52) बतायी गई है। इन्हें भैरवी के अनुयायी या भैरव का गण कहा गया है। यह विश्वास अभी भी कायम है। बीरों की खोज करने पर बनारस एवं आस-पास में मुझे (51) बीरों के स्थान मिले। यह कहना कठिन है कि ये वही बीर हैं जिनका वर्णन पृथ्वीराज रासो में हुआ है। अधिकतर बीरों के मंदिर का स्थान बहुत ही छोटी-सी जगह को घेरकर बनाया गया है। इस वजह से इनके दस्तावेज आदि नहीं मिलते हैं और दो-तीन मंदिरो को छोड़कर इनके मंदिरों में स्थापत्य का भी कोई विशेष महत्व नहीं है। अधिकतर मंदिर कमरेनुमा या छोटे मंदिर के स्वरूप में हैं।
बनारस शहर में बीरों के नाम से चार मोहल्ले बसे हैं अतः इनकी प्राचीनता एवं जनमानस में श्रद्धा के मान को समझा जा सकता है। ये मोहल्ले हैं- लहुराबीर, डेयोड़ियाबीर, भोगाबीर तथा भोजूबीर। अन्य दो जगहें भी बीरों के नाम से जानी जाती हैं, जैसे भदऊबीर एवं कंकरहाबीर।
बाघाबीर, अग्यवानबीर एवं डेयोड़ियाबीर, सहोदराबीर, अहिराबीर (हनुमानपुरा), इन स्थानों पर बीरों के स्थानों को मंदिर रूप में बनाया गया है। बाघेबीर, सहोदराबीर के मंदिर करीब 150 से 200 वर्ष पुराने हैं। बाकी मंदिरों का नवीनीकरण हुआ है। डेयोड़ियाबीर मंदिर के सेवाइत बासदेवी गिरी के अनुसार यह मंदिर करीब 150 वर्ष पुराना है। इनके पास इन मंदिर के दस्तावेज हैं। अधिकतर बीरों के मंदिरों में मूर्तियों के स्थान पर शंकुनामा एक पक्की आकृति बनी मिलती है जैसे गांवों के डीहों के स्थान पर मिलती है।

बाघेबीर, ताड़ेबीर, कंकरहाबीर, डेयोड़ियाबीर, अहिराबीर चमरूबीर मंदिरों में कहीं शिवलिंग के रूप में तो कहीं प्राचीन मंदिरों के भग्नावशेषों को रखकर पूजा हो रही है। पुराने मंदिरों के अवशेषों को मंदिरों में और पेड़ों के नीचे रखकर पूजा करने की एक प्राचीन परंपरा हमें नजर आती हैं प्रायः लोग इन पर सिंदूर आदि लगा रोज जल चढ़ाते हैं एवं कपूर आदि जलाते हैं। कई बीरों के मंदिरों में अन्य देव प्रतिमायें स्थापित हो गई हैं जैसे मुस्याली बीर में हनुमान जी की मूर्ति, बनारस-गाजीपुर मार्ग पर दैत्राबीर बाबा के मंदिर में मां काली एवं हनुमान जी के मंदिर बन गए हैं। कई मंदिरों में शंकुरूपी आकृति पर चेहरा लगाकर शृंगार किया जाता है।
डेयोड़ियाबीर, दैत्राबीर (बड़ी गैबी), लाढूबीर (चुरामनपुर), भंगरहाबीर आदि स्थानों पर बकरे, मुर्गे, सूअर आदि की बलि चढ़ती है। चैत्र नवरात्र में शीतला देवी का पूजन होता है जो कि बसिपौरा के नाम से जाना जाता है। महिलायें शीतला देवी के अलावा बीरों के मंदिरों पर भी (गंगाजल, पंचमेवा, दूध) धार चढ़ाती हैं। लोकमत यह है कि शीतला जी बीरों की बहन है। शायरी माता को बीर की शक्ति के रूप में माना जाता है।

प्रायः नित्य पूजा में बीरों के स्थान पर जल चढ़ाकर कपूर एवं धूपबत्ती से श्रद्धालु आरती करते हैं परंतु विशेष पूजा के अवसर पर अलग-अलग स्थानों के अनुसार भव्य आयोजन होता है जिनमें पुरोहितों से पूजा अनुष्ठान करवाया जाता है। इन मंदिरों के आस-पास बसे मोहल्लों के निवासियों के मन में यह विश्वास है कि यह उस क्षेत्र के रक्षक हैं अतः शादी, विवाह आदि शुभ कार्यों से पहले एवं बाद में लोग बीरों के मंदिरों में दर्शन के लिए जाते हैं। बनारस में हमें अलग-अलग मोहल्लों में इन बीरों के मंदिर, अथवा स्थान मिले हैं जिनकी सूची इस प्रकार है :
लहुराबीर- इनके नाम से लहुराबीर मोहल्ला बसा हुआ है। लहुराबीर-मैदागिन मार्ग पर इनका मंदिर है।

भोगाबीर- इनके नाम का भी मोहल्ला है। इनका स्थान संकटमोचन मंदिर के पास है।
बाघेबीर- महामृत्यंजय मंदिर के आगे डी00वी0 कालेज के पास इनका स्थान है।
कंकरहाबीर- कमच्छा से शंकूधारा मार्ग के बीच स्थान का नाम कंकरहाबीर है।
डेयोड़ियाबीर- भेलुपूर थाने से आगे दाहिने की तरफ इनका मंदिर है। यह मोहल्ला डेयोड़ियाबीर के नाम से जाना जाता है। मंदिर के अंदर मुख्य विग्रह के स्थान पर किसी प्राचीन मंदिर की देव मूर्ति है तथा दीवारों पर भी कई प्राचीन मूर्तियों के अवशेष लगे हैं।
दैत्राबीर- इस नाम के चौकाघाट के कई स्थान हैं।
दैत्राबीर- जंगमबाड़ी से रामापुरा रोड पर।
दैत्राबीर- हथुआ मार्केट के बगल वाली गली में दैत्राबीर बाबा का छोटा मंदिर है।
दैत्राबीर- तिलभांडेश्वर मंदिर के पास।
दैत्राबीर- कश्मीरीगंज मोहल्ले में।
दैत्राबीर- वाराणसी गाजीपुर रोड पर उमरहा में मंदिर दैत्राबीर बाबा एवं हनुमान का मंदिर है।
दैत्राबीर- बड़ी गैबी पर।
दैत्राबीर- लेढूपुर में।
दैत्राबीर- कैंट से लहरतारा की तरफ बढ़ने पर कैंसर अस्पताल के पहले यह मंदिर पड़ता है।
ताड़ेबीर- ऊंकारेश्वर मंदिर के उत्तर में इनका मंदिर है। कुबेरनाथ शुक्ल के अनुसार यह मंदिर टूटे हुए शिव के अरधे पर निर्मित है। परंतु कुछ बीरों के मंदिरों में भग्न मूर्तियों को भी रखा जाता है।
भोजूबीर- इनके नाम से भी एक मोहल्ला आबाद है यह मोहल्ला उदय प्रताप कालेज के आगे पड़ता है।
लाढूबीर- इनका स्थान भेलूपुर चौराहे से पानी की टंकी की तरफ बढ़ने पर ऐंग्लो बंगाली कालेज के पहले है। यहां एक छोटा मंदिर है। अगल-बगल के श्रद्धालु यहां नित्य पूजा करते हैं तथा शिवरात्रि पर इनकी शिवरूप में विशेष पूजा होती है।
चमरूबीर- इनका स्थान भेलूपुर मोहल्ले के अंदर ऐंग्लो बंगाली कालेज के परिसर से सटा हुआ है। यहां भी मंदिरों के स्तंभों एवं मूर्तियों के भग्नावशेष रखे हैं। यह भग्नावशेष गुप्तोत्तर काल के हैं। यहां भी शिवरात्रि पर विशेष आयोजन होता है। इस मंदिर को अब पक्का स्वरूप दिया गया है।
नौगड़ेबीर- यह मंदिर दुर्गा जी के पीछे दुर्ग विनायक मंदिर से सटे रोड पर दीवार में बना हुआ है। इसमें एक तपस्वी के आकार की मूर्ति रखी है और शिवलिंग भी है।
बेलवाबीर- यह मंदिर शंकुलधारा कुंड से आगे बढ़ने पर किरहिया रोड के किनारे है। इसमें भी तपस्वी के आकार की मूर्ति है।
मदरहवाबीर- यह मंदिर किरहिया में है। इस मंदिर में छोटे मंदिर की आकृति बनी है। मोहल्ले के लोग विशेष आयोजन के दौरान इस पर मुखौटा लगाकर पूजा आदि करते हैं।
अहिराबीर- यह स्थान विनायक के पास है। यहां एक कमरेनुमा स्थान में शंकु आकार की आकृति है।
बढ़वाबीर- भेलूपुर पानी टंकी के गेट के बगल में इनका स्थान है। स्थानीय लोगों का कहना है यह मंदिर चालीस वर्ष पूर्व बना था।
अंगियाबीर- वाराणसी मिर्जापुर मार्ग पर स्थित है।
मंगरहाबीर- सलारपुर में स्थित है। उक्त क्षेत्र के निवासियों में इस मंदिर के प्रति बहुत श्रद्धा है। शादी, विवाह के बाद वर-वधू दर्शन के लिए यहां आते हैं। यहां बलि भी दी जाती है।
बरइचाबीर- यह मंदिर शंकर धाम कालोनी खोजवां में है।
नत्थाबीर- यह मंदिर फरीदपुरा में है।
भदऊबीर- यह मंदिर भदऊ चुंगी पर स्थित है। यह स्थान इन्हीं के नाम से प्रसिद्ध है।
अग्यवान बीर- नवाब गंज से खोजवां की तरफ बढ़ने पर बायीं ओर यह मंदिर है। इस मंदिर का नवीनीकरण किया गया है। मध्य में स्तंभनुमा आकृति है जिस पर तांबे का पत्तर चढ़ाया हुआ है।
अकेलवा बीर- इनका स्थान काशी हिंदू विश्वविद्यालय के अंदर ऐम्फिथियेटर के पास है।
सहोदरा बीर- अस्सी से लंका जाने के मार्ग में अस्सी पुल के पहले दाहिनी तरफ इनका मंदिर है यहां भी स्तम्भकार प्रतिमा है। यहां गांजा आदि चढ़ाया जाता है।
कर्मन बीर- रविदास मंदिर के आगे सीर गोवर्धनपुर गांव में इनका स्थान है।
लौटूबीर- यह मंदिर भी सीर गोवर्धनपुर गांव में स्थित है।
बचऊबीर- सीर गोवर्धन पुर गांव में इनका स्थान है। बचऊबीर के विषय में कहा जाता है कि इन्होंने निहत्थे, शेर का वध किया था और ये बहुत ही बलशाली व्यक्ति थे। यह मंदिर उनकी याद में बना है।
अहिराबीर- यह मंदिर हनुमान पुरा मोहल्ले में स्थित है। इस मंदिर के साथ-साथ शीतला जी का भी मंदिर है।
तड़ियाबीर- भेलूपुर मोहल्ले में पानी टंकी परिसर के पास इनका छोटा मंदिर है स्थानीय लोग इनकी नित्य पूजा करते हैं।
बदलाबीर- यह मंदिर खोजवां में स्थित है।
कालूबीर- किरहिया से दशमी की तरफ बढ़ने पर कुसुम सिनेमा के पास यह स्थान है।
शिहाबीर- इनका स्थान रामनगर में है।
तड़वाबीर- यह मंदिर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के अंदर आई0टी0 जिमखाना के पास है।
गुल्लाबीर- यह मंदिर भी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के अंदर नेशनल कैडेट कोर के परिसर के बगल में स्थित है।
बिजुड़ियाबीर- यह मंदिर सामने घाट पर है।
बाढूबीर- मण्डुआडीह से मढ़ौली जाने वाले मार्ग के बीच में, चुरामनपुर में यह मंदिर है। अगल-बगल के गांवों के लोग शादी, विवाह या किसी भी शुभ कार्य से पहले एवं बाद में इनका दर्शन करते हैं। यहां बलि भी चढ़ाई जाती है।
मुरचाली बीर- इस मंदिर में हनुमान जी की प्रतिमा स्थापित है। यह मतुआपुरा मोहल्ले में स्थित है।
रिठी बीर- इस मंदिर में शिवलिंग स्थापित है। यह भी कतुआपुरा मोहल्ले में स्थित है।
केवलाबीर- यह मंदिर सुदामापुरा से बजरडीहा की तरफ आगे जाने पर है। यह मंदिर भी छोटा है परंतु इसमें विग्रह लिंगाकार है। इसकी बगल में शिवलिंग भी रखा गया है।
कंकड़वा बीर- यह मंदिर वरुणा नदी के किनारे (कोनियाघाट) पर स्थित है।
जोगियाबीर- यह मंदिर डी00वी0 कालेज के सामने के रास्ते पर दाहिनी तरफ है।
नटबीर- यह स्थान विनायका से गैबी की तरफ जाने पर पहले चौराहे पर दाहिने हाथ पर है। इस स्थान पर एक छोटा-सा मंदिर है जिसमें कोई मूर्ति नहीं है। यहां पर श्रद्धालु मंगल और शनिवार को दीप जलाते हैं। यहां बलि भी दी जाती है।
अनजान बीर- यह मंदिर गैबी से महमूरगंज मार्ग पर स्थित है। इसमें शंकु की दो आकृतियां हैं।
अनजान बीर- यह मंदिर गैबी से महमूरगंज मार्ग पर स्थित है। इसमें शंकु की दो आकृतियां है।
पनारुबीर- यह मंदिर गिरजाघर से लक्सा की तरफ आगे बढ़ने पर लक्ष्मीकुंड की तरफ मुड़ने वाले रास्ते के दाहिनी तरफ दीवार में बना हुआ है।
बीरों के मंदिरों या स्थानों के विषय में अध्ययन करने से हमें यह ज्ञात होता है कि ये स्थानीय लोक देवता हैं। कालांतर में इन्हें भैरवों के गणों के रूप में मान लिया गया। पहले समाज के पिछड़ी जातियों द्वारा इनकी उपासना होती थीं परंतु अब सभी लोग इन स्थानों पर दर्शन करते हैं। डेयोड़ियाबीर मंदिर मे नागपंचमी वाले दिन बलि चढ़ाने का रिवाज अभी भी प्रचलित है।

बनारस शहर में कोई भी परंपरा मरती नहीं है। यह किसी न किसी रूप में विद्यमान रहती है। इसका साक्षात् प्रमाण हमें बीरों की उपासना से मिलता है।
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बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय



बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय
काशी या बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी में स्थित एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय है। इसे संक्षेप में बी.एच.यू. (BHU) भी कहा जाता है। इस विश्वविद्यालय की स्थापना (बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय एक्टएक्ट क्रमांक 16, सन् 1915) के अंतर्गत हुई थी। पं. मदनमोहन मालवीय ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना का प्रारम्भ 1904 ई. में कियाजब काशी नरेश 'महाराज प्रभुनारायण सिंहकी अध्यक्षता में संस्थापकों की प्रथम बैठक हुई। 1905 ई. में विश्वविद्यालय का प्रथम पाठ्यक्रम प्रकाशित हुआ।

इतिहास
जनवरी, 1906 ई. में कुंभ मेले में मालवीय जी ने त्रिवेणी संगम पर भारत भर से आई जनता के बीच अपने संकल्प को दोहराया। कहा जाता हैवहीं एक वृद्धा ने मालवीय जी को इस कार्य के लिए सर्वप्रथम एक पैसा चंदे के रूप में दिया। डा. ऐनी बेसेंट काशी में विश्वविद्यालय की स्थापना में आगे बढ़ रही थीं। इन्हीं दिनों दरभंगा के राजा महाराज 'रामेश्वर सिंहभी काशी में 'शारदा विद्यापीठकी स्थापना करना चाहते थे। इन तीन विश्वविद्यालयों की योजना परस्पर विरोधी थीअत: मालवीय जी ने डा. बेसेंट और महाराज रामेश्वर सिंह से परामर्श कर अपनी योजना में सहयोग देने के लिए उन दोनों को राजी कर लिया। फलस्वरूप 'बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी सोसाइटीकी 15 दिसंबर, 1911 को स्थापना हुईजिसके महाराज दरभंगा अध्यक्षइलाहाबाद उच्च न्यायालय के प्रमुख बैरिस्टर 'सुंदरलालसचिवमहाराज 'प्रभुनारायण सिंह', 'पं. मदनमोहन मालवीयएवं 'डा. ऐनी बेसेंटसम्मानित सदस्य थीं।[1]

स्थापना
तत्कालीन शिक्षामंत्री 'सर हारकोर्ट बटलरके प्रयास से 1915 ई. में केंद्रीय विधानसभा से 'हिन्दू यूनिवर्सिटी ऐक्टपारित हुआजिसे तत्कालीन गवर्नर जनरल 'लॉर्ड हार्डिंजने तुरंत स्वीकृति प्रदान कर दी। 4 जनवरी, 1916 ई. वसंत पंचमी के दिन समारोह वाराणसी में गंगा तट के पश्चिमरामनगर के समानांतर महाराज 'प्रभुनारायण सिंहद्वारा प्रदत्त भूमि में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का शिलान्यास हुआ। उक्त समारोह में देश के अनेक गवर्नरोंराजे-रजवाड़ों तथा सामंतों ने गवर्नर जनरल एवं वाइसराय का स्वागत और मालवीय जी से सहयोग करने के लिए हिस्सा लिया। अनेक शिक्षाविदवैज्ञानिक एवं समाजसेवी भी इस अवसर पर उपस्थित थे। गांधी जी भी विशेष निमंत्रण पर पधारे थे। अपने वाराणसी आगमन पर गांधी जी ने डा. बेसेंट की अध्यक्षता में आयोजित सभा में राजा-रजवाड़ोंसामंतों तथा देश के अनेक गण्यमान्य लोगों के बीचअपना वह ऐतिहासिक भाषण दियाजिसमें एक ओर ब्रिटिश सरकार की और दूसरी ओर हीरे-जवाहरात तथा सरकारी उपाधियों से लदेदेशी रियासतों के शासकों की घोर भर्त्सना की गई थी।

डॉ. राधाकृष्णनएनी बेसेंट और मालवीय जी का योगदान
डा. बेसेंट द्वारा समर्पित 'सेंट्रल हिन्दू कॉलेजमें काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का विधिवत शिक्षणकार्य, 1 अक्टूबर, 1917 से आरंभ हुआ। 1916 ई. में आई बाढ़ के कारण स्थापना स्थल से हटकर कुछ पश्चिम में 1,300 एकड़ भूमि में निर्मित वर्तमान विश्वविद्यालय में सबसे पहले इंजीनियरिंग कॉलेज का निर्माण हुआ और फिर आर्ट्स कॉलेजसाइंस कॉलेज आदि का निर्माण हुआ। 1921 ई से विश्वविद्यालय की पूरी पढ़ाई 'कमच्छा कॉलेजसे स्थानांतरित होकर नए भवनों में होने लगी। इसका उद्घाटन 13 दिसंबर, 1921 को 'प्रिंस ऑफ वेल्सने किया था।[1] पंडित मदनमोहन मालवीय ने 98 साल पहले 1916 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की थी। तब इसका कुल मिलाकर एक ही कॉलेज था- सेंट्रल हिन्दू कॉलेज और आज यह विश्वविद्यालय 15 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल में फैला हुआ है। जिसमें 100 से भी अधिक विभाग हैं। इसे एशिया का सबसे बड़ा आवासीय विश्वविद्यालय होने का गौरव हासिल है। महामना पंडित मालवीय के साथ ही सर्वपल्ली राधाकृष्णन और एनी बेसेंट ने भी विश्वविद्यालय की स्थापना में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई और लंबे समय तक विश्वविद्यालय से जुड़े रहे।

विश्वविद्यालय परिसर
वाराणसी प्राचीन नगरी है और इसे देखकर सहज ही लगता है कि हम किसी पुरानी रियासत में हैं। परिसर के भीतर विशालकाय भवन हैंजिनमें कक्षाएँ चलती हैं। विज्ञानकलासामाजिक विज्ञानइंजीनियरिंगमेडिकलफाइन आर्ट्ससंगीतसंस्कृत शोध विभाग आदि के लिए अलग- अलग इमारतें हैं। इसका परिसर खूब हरा-भरा है और लगता ही नहीं कि आप भीड़-भाड़ वाली वाराणसी नगरी में हैं। विश्वविद्यालय के पास निजी संचार प्रणालीप्रेसकंप्यूटर नेटवर्कडेयरीकृषि फार्मकला व संस्कृति संग्रहालय और विशालकाय सेंट्रल लाइब्रेरी हैं। लाइब्रेरी में  10 लाख से भी अधिक पुस्तकेंपत्रिकाएँशोध रिपोर्ट और ग्रंथ आदि हैं। विश्वविद्यालय का अपना हेलीपैड भी और अपनी अलग सुरक्षा व्यवस्था भी है। विश्वविद्यालय से एमबीए की डिग्री भी हासिल की जा सकती है।

इसके प्रांगण में विश्वनाथ का एक विशाल मंदिर भी है। विशाल सर सुंदरलाल चिकित्सालयगोशालाप्रेसबुकडिपो एवं प्रकाशनटाउन कमेटी (स्वास्थ्य)पी.डब्ल्यू.डी.स्टेट बैंक की शाखापर्वतारोहण केंद्रएन.सी.सी. प्रशिक्षण केंद्र, "हिन्दू यूनिवर्सिटी" नामक डाकखाना एवं सेवायोजन कार्यालय भी विश्वविद्यालय तथा जनसामान्य की सुविधा के लिए इसमें संचालित हैं।[1] इस विश्वविद्यालय के दो परिसर है। मुख्य परिसर (1300 एकड़) वाराणसी में स्थित है। मुख्य परिसर में 3 संस्थान, 14 संकाय और 124 विभाग है। विश्वविद्यालय का दूसरा परिसर मिर्जापुर जनपद में बरकछा नामक जगह (2700 एकड़) पर स्थित है।[1]

बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय
विश्वविद्यालय का इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी यूनिवर्सिटी ग्रांट्स कमीशनएशियन रिसर्च एंड डवलपमेंट बैंकडिफेंस रिसर्च एंड डवलपमेंट ऑर्गेनाइजेशनटाटा आयरन एंड स्टील कंपनीहिंदुस्तान एल्युमीनियम कंपनीस्टील आथॉरिटी ऑफ़ इंडिया और भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड के सहयोग व समर्थन से चलाया जा रहा है।

विभिन्न कोर्सेस और सुविधाएँ
परिसर के भीतर 14 अलग-अलग संकाय हैं। इनमें एक महिला कॉलेजइंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजीइंस्टीट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेसकृषि संकाय भी शामिल हैं। विश्वविद्यालय में छह विषयों के एडवांस्ड स्टडी सेंटर भी हैं। ये विषय हैं बॉटरीजुलोजीमेटलर्जीइलेक्ट्रॉनिक्सभौतिकी और माइनिंग। विश्वविद्यालय में 49 छात्रावास हैंजिनमें से 35 लड़कों के लिए और  14 लड़कियों के लिए हैं। कई नए छात्रावास भी निर्माणाधीन अवस्था में हैं। यहाँ के इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी की तुलना आईआईटी से की जाती है। प्रवेश भी आईआईटी की परीक्षा में प्रदर्शन के आधार पर होता है। यह संस्थान 16 कोर्स उपलब्ध कराता है। इनमें कंप्यूटर इलेक्ट्रिकलइलेक्ट्रोनिक्स एप्लाएड फिजिक्सएप्लाएड मैथेमेटिक्स और एप्लाएड केमिस्ट्री भी शामिल हैं। इंजीनियरिंग कोर्स काफ़ी लोकप्रिय हैं और यहाँ के मेटलर्जी व माइनिंग कोर्स तो देश में सबसे अच्छे माने जाते हैं। मेडिकल संस्थान में प्रवेश के लिए अखिल भारतीय स्तर पर प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण करनी होती है। इसके अतिरिक्त तीन साल के कला व समाज विज्ञान बीए व बीएसएसी डिग्री कोर्स की पढ़ाई होती है। बीलिव एंड इनफॉर्मेशन साइंसपत्रकारिताएलएलबीएमबीए के साथ ही कई और पेशेवर कोर्स भी कराए जाते हैं। स्नातकोत्तर स्तर पर भी कई कोर्स हैं। यह देश के उन गिने-चुने विश्वविद्यालयों में से है जहाँ आयुर्वेद के साथ-साथ आधुनिक चिकित्सा पद्धति की भी पढ़ाई होती है। इनके अतिरिक्त वेदव्याकरण और सांख्य योग से संबंधित कोर्स भी कराए जाते हैं। विश्वविद्यालय के प्रवेश द्वार पर स्थित लंका का छोटा सा बाज़ार छात्र-छात्राओं की ज़रूरतें पूरी करता है। कुछ ही दूर गंगा तट पर अस्सी घाट स्थित हैजहाँ  फाइन आर्ट्स के छात्र स्केच बनाते अकसर दिखते हैं। दिन भर परिसर के भीतर सेंट्रल लाइब्रेरी के पास विश्वनाथ मन्दिर छात्रों के जमावड़े का केंद्र रहता है।

प्रवेश परीक्षा
बीएबीएससीबीकॉमएलएलबी प्रवेश परीक्षाओं के लिए बारहवीं में 45 फीसदी औसत अंक के साथ उत्तीर्ण होना जरूरी है। स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में प्रवेश के लिए स्नातक स्तर पर  48 फीसदी अंकों के साथ उत्तीर्ण होना चाहिए। इंजीनियरिंग और मेडिकल प्रवेश परीक्षा के लिए अच्छी तैयारी की ज़रूरत है।

पूर्व कुलपति
श्री सुंदरलालपं. मदनमोहन मालवीयडा. एस. राधाकृष्णन (भूतपूर्व राष्ट्रपति)अमरनाथ झाआचार्य नरेंद्रदेवडा. रामस्वामी अय्यरडा. त्रिगुण सेन (भूतपूर्व केंद्रीय शिक्षामंत्री) जैसे मूर्धन्य व्यक्ति यहाँ के कुलपति रह चुके हैं।[1]

प्रतिभाशाली छात्र
वैज्ञानिक जयंत नार्लिकरभारत सरकार के वैज्ञानिक सलाहाकार पी. रामा रावऑयल एंड. नेचुरल गैस कमीशन के चेयरमैन बी.सी. बोराएशिया ब्राउन बावेरी के सीएमडी के. एन. शिनॉयपंजाब नेशनल बैंक के सीएमडी एस. एस. कोहली सरीखे लोग विश्वविद्यालय के छात्र रहे हैं। इनके अतिरिक्त भी विश्वविद्यालय के छात्र बतौर वैज्ञानिकसाहित्यकारएमबीएइंजीनियर और चिकित्सक देश-विदेश में काफ़ी सुनाम अर्जित कर चुके हैं और कई ज़िम्मेदार पदों पर कार्यरत हैं।

पत्र व्यवहार
किसी भी तरह की जानकारी के लिए संबद्ध विभागाध्यक्ष के नाम काशी हिन्दू विश्वविद्यालयवाराणसी- 221005 के पते पर पत्र व्यवहार किया जा सकता है। 

टीका टिप्पणी और संदर्भ

    
↑ 1.0 1.1 1.2 1.3 1.4 काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना (हिन्दी) (पी.एच.पी) historybhu.blogspot.com। अभिगमन तिथि: फ़रवरी, 2011

साभार: भारत डिस्कवरी   

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बनारस शिव से कभी मुक्त नही, जब से आये कैलाश न गये। बनारसी की मस्ती को लिखा नही जा सकता अनुभव होता है। अद्भूद है ये शहर जिन्दगी जीनेका तरीका कुछ ठहरा हुआ है पर सुख ठहराव में है द्रुतविलंबित में नही. मध्यम में है इसको जीनेवाला है यह नगर। नटराज यहां विश्वेश्वर के रुप में विराजते है इसलिये श्मशान पर भी मस्ती का आलम है। जनजन् शंकरवत् है। इस का अनुभव ही आनन्द है ये जान कर जीना बनारस का जीना है जीवन रस को बना के जीना है।
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काल हर !! कष्ट हर !! दुख हर !! दरिद्र हर !! हर हर महादेव !! ॐ नमः शिवाय.. वाह बनारस वाह !!