'स्वप्नदोष' लाइलाज बीमारी है बबुआ...

मेरे गाँव के दो तीन टोले में परसों से ही चर्चा हो रही थी कि कोई हकीम साहब आए हैं। हर समस्या का समाधान है इनके पास। और गुप्त रोगों का इलाज भी कर रहे हैं।स्वप्नदोष, वशीकरण, तलाक, मनचाही नौकरी से लेकर मनचाही शादी भी करा रहे हैं।

सच कहूं तो अजीब सी समस्या से जूझ रहा हूँ। रोज रात को सोते समय सपने आते हैं और बिस्तर गीला हो जाता है। बहुत प्रयास किया कि आत्मनियंत्रण रखूं। कुछ योग-जोग भी किए। ध्यान-समाधि भी लगाई। पर मन है कि और अधिक 'असहिष्णु' होता जा रहा है।होम्योपैथी से लेकर कीमोथेरेपी तक करा ली लेकिन कुछ दिनों तक ठीक रहता है फिर समस्या जस की तस। बड़ी चर्चा सुनने के बाद आज इस क्लिनिक में पहुंच ही गया।
क्लिनिक क्या था! बस एक बड़ी सी दरी बिछाकर हकीम साहब बैठे थे। लाउडस्पीकर पर कैसेट अपनी नियमित आवाज में बोल रहा था - अगर आप 'स्वप्नदोष' की समस्या से पीड़ित हैं।सोने पर सपने परेशान करते हैं। बिस्तर भीग जाता है तो चले आइए हमारे क्लीनिक में। मात्र एक हफ्ते में गारंटी के साथ इलाज ठीक हो जाएगा।"..... मैंने देखा कि डिब्बों में हिमालय पर्वत से प्राप्त जड़ी बूटियां सुशोभित हो रही थी। कुछ बूढ़े 'शिलाजीत' की पुड़िया जेब में रखकर सेवन की विधि समझ रहे थे। एक युवा अपनी समस्या बता रहा था कि 'हेमवंती' के लिए हम क्या क्या नहीं किए पर वो कह रही है कि- "हम तुमको उस नजर से नहीं देखते"। हकीम साहब ने एक नीली डिबिया से एक जड़ी निकाल कर उसे दिया और जाप करने वाला मंत्र उसके कानों में बता दिया।
आधे घंटे इन्तजार के बाद मेरा नंबर आया।हकीम साहब ने अपने बारे में बताया कि वो जालौन से आए हैं। अमिताभ बच्चन देवानंद और राजेश खन्ना के पारिवारिक हकीम यही हैं। पहले तो यकीन नहीं हुआ पर उन्होंने सैकड़ों फोटो दिखाए। किसी में अमिताभ बच्चन से हाथ मिला रहे थे तो किसी में जान अब्राहम से। एक फोटो कैटरीना कैफ के साथ भी थी।अब संदेह का सवाल ही नहीं था।
मैंने आह भरते हुए कहा - हकीम साहब आप तो बहुत पहुंचे हुए हैं। फिर बड़ा सा क्लिनिक क्यों नहीं खोल लेते?
हकीम साहब ने कहा कि - बबुआ हमको एम्स में आयुर्वेद विभाग का हेड बनाया जा रहा था लेकिन हमने गांव-देहात की सेवा का व्रत लिया है न।
खैर! नाड़ी विशेषज्ञ हकीम साहब ने मेरी नब्ज हाथ में पकड़ी और मुस्कुराते हुए कहा कि- आत्महत्या के बिचार आते हैं न?
मैं स्तब्ध रह गया। नब्ज मेरी और पता हकीम साहब को।हाय! अभी कल ही तो सोच रहा था कि - 'आह! मानव जीवन कितना निरुपाय' ।
हकीम साहब ने कहा कि - लड़की का नाम क्या है?
मैंने कहा कि- हकीम साहब आप गलत समझ रहे हैं।लड़की का चक्कर नहीं है। मेरा दिल 'आवास विकास कालोनी' है। कोई जब चाहे आ सकता है, जब चाहे जा सकता है।
हकीम साहब ने कहा कि - तब तुम्हारी समस्या क्या है?
मैंने थोड़ा झिझकते हुए कहा कि - रात में सपने आते हैं। बिस्तर गीला हो जाता है।
हकीम साहब मुस्कुराए और नीली डिबिया से जड़ी निकाली मंत्र पढ़ा और सुबह शाम दूध में डाल कर पीने को बताया।
मैंने कहा कि - हकीम साहब ये जड़ी तो हेमवंती वाली है।
हकीम साहब ने कहा कि - बबुआ असली चीज मंत्र है। जड़ी बूटी नहीं।
मैंने जड़ी जेब में रखते हुए कहा कि - हकीम साहब ठीक तो हो जाऊंगा न?
हकीम साहब ने कहा कि - एकदम ठीक हो जाओगे बबुआ। ये बताओ कि कब से है ये बीमारी?
मैंने बताया कि - जब से बैंक में खाता खुलवाया है तब से।
हकीम साहब ने कहा कि मैं समझा नहीं। रोग का डिटेल बताओ।
मैंने बताया कि - हकीम साहब मोदी जी ने कहा था कि खाता खुलवा लो मैं पन्द्रह लाख रुपये खाते में डालूंगा। तबसे रोज रात को सोने पर वही पन्द्रह लाख रुपये सपने में आते हैं। और आंसुओं से बिस्तर गीला हो जाता है।
अचानक हकीम साहब भावुक हो गए। फिर मेरे कन्धे पर सिर टिकाकर रो पड़े। और रोते रोते कहा - बबुआ यही तो 'स्वप्नदोष' की बीमारी है। सच बताऊँ तो ये बीमारी मुझे भी है। मैंने भी जबसे खाता खोला है तब से मेरा भी बिस्तर गीला हो जाता है। ये लाइलाज बीमारी है बबुआ।अब मैं ही नहीं हकीम साहब भी 'असहिष्णु' हो रहे थे।  =D

असित कुमार मिश्र 
बलिया
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सवाल आस्था का...

हाईकोर्ट की रोक के बाद भी गंगा में ही मूर्ति विसर्जन पर अड़े लोगों पर काशी में कल हुए लाठीचार्ज की निंदा करने वालों की फेसबुक पर बहार सी आई हुई है। कोई इसे बर्बरता बोल रहा है तो कोई बेरहमी। कुछ लोग तो इसे यूपी सरकार की पुलिस बताकर सपा और सीएम अखिलेश यादव को दोषी ठहराते हुए तरह-तरह के विशेषणों से नवाज रहे हैं। इन्हें ये नहीं पता कि पुलिस केवल पुलिस होती है।
मंगलवार रात करीब दस बजे...स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद का संबोधन.
काशी में आधी रात को बर्बरता करने वाली पुलिस सपा की नहीं है। और न ही आधी रात को दिल्ली के रामलीला मैदान में बाबा रामदेव की टीम को पीटने वाली पुलिस कांग्रेस की थी। गुजरात में हार्दिक पटेल के साथियों पर बर्बरता करने वाली पुलिस भी बीजेपी की नहीं थी। गुजरात में तो पुलिस ने पटेलों के साथ मीडिया वालों को भी पीटा और पटेलों की कालोनियों में उत्पात भी मचाया। इसलिए पुलिस केवल पुलिस होती है।
मंगलवार रात करीब 11 बजे...भीड़ को किसी प्रकार संभालने की कोशिश
काशी में कल पीटे गए और इसे बर्बरता कहने वाले दोनों लोगों के साथ मेरी पूरी सहानुभूति है। मुझे नहीं पता कि जो लोग वीडियो और फ़ोटो डालकर सहानुभूति प्रकट कर रहे हैं, उनमें से कितने लोग गोदौलिया चौराहे पर गए थे और कितनी देर रहे थे? मैं सोमवार की रात, मंगलवार की दोपहर और मंगलवार की आधी रात यानी लाठीचार्ज के समय भी उसी चौराहे पर मौजूद था। धरना दे रहे लोग किस तरह से मीडिया खासकर चैनल के साथियों को गाली दे रहे थे सभी ने देखा। उनकी खिजलाहट ये थी कि धरना को लाइव क्यों नहीं किया जा रहा है। साफ लग रहा था कि इनकी आस्था गंगा में या गणपति में नहीं, पब्लिसिटी और शक्तिप्रदर्शन में है। अगर कुंड में विसर्जन नहीं करना था तो पंडाल से मूर्ति उठानी ही नहीं चाहिए थी।
मंगलवार रात करीब आठ बजे...उत्पात कर रहे युवकों को संयम बरतने की सलाह
स्थानीय थाने में लिख कर दिया गया कि हम लक्ष्मीकुण्ड में विसर्जन करेंगे। इसके बाद भी काशी के ह्रदय स्थल गोदौलिया पर मूर्ति लाकर धरना शुरू कर दिया गया। काशी विश्वनाथ मंदिर और सबसे महत्वपूर्ण घाट दशाश्वमेध के रास्ते को ब्लाक कर दिया गया। स्कूली बच्चों को जो परेशानी हुई सो हुई, जहां एक रात से दूसरी रात तक भाषणबाजी-नारेबाजी हुई वहीं स्थित मारवाड़ी अस्पताल में भर्ती मरीजों की भी चिंता नहीं की गई। ये कैसी आस्था है? आस्था सिर्फ मूर्ति के प्रति है, जीवित लोग अौर अस्पताल में जीवन से संघर्ष कर रहे लोगों के प्रति कोई आस्था नहीं?
मंगलवार रात करीब नौ बजे...नारेबाजी
पुलिस ने धरना शुरू होते ही इन्हें हटाने के लिए बल प्रयोग नहीं किया? बीच सड़क मूर्ति के साथ धरना 
सोमवार की शाम शुरू हुआ। मंगलवार की रात एक बजे लाउडस्पीकर से चेतावनी दी गई और सभी से धरना खत्म करने को कहा गया। इसके 15 मिनट बाद यानी सवा एक बजे लाठीचार्ज शुरू हुआ। मतलब धरना शुरू होने के 36 घंटे बाद पुलिस ने लाठीचार्ज किया। इन 36 घंटों में 36 बार पुलिस ने अपनी तरफ से इन लोगों को समझाने की कोशिश की। एक्सरसाइज करने के लिए पुलिस को लाठी नहीं दी गई है। पुलिस को लाठी इसी तरह की स्थिति से निबटने के लिए मिली है।
मंगलवार रात करीब पौने दो बजे...लक्ष्मीकुंड पर गणपति की पूजा के लिए फूल-माला खरीदी गई
कुछ लोग ऐसे भी हैं जो हाईकोर्ट के आदेश को ही गलत ठहराने में लगे हैं। उनकी भावनाअों को भी मैं सम्मान करता हूं। लेकिन हाईकोर्ट या सरकार के किसी भी आदेश का पालन कराने के लिए ही पुलिस नाम
मंगलवार रात करीब दो बजे...विसर्जन से पहले गणपति की पूजा
की संस्था बनाई गई है। अदलत और सरकार के आदेश सही हों या गलत, उनका पालन कराना ही कार्यपालिका का दायित्व है। जिस दिन पुलिस ने अदालत या सरकार के आदेश को मानने से इनकार कर दिया, उस दिन की स्थिति की कल्पना भी करना मुश्किल है। अगर हमें लगता है कि हाईकोर्ट का आदेश गलत है तो उसके लिए तीन रास्ते हैं। पहला हाईकोर्ट में ही गुहार लगाई जाए। दूसरा, वहां बात न बने तो सुप्रीमकोर्ट में मामला पहुंचाया जाए। तीसरा, सुप्रीम कोर्ट से भी बात न बने तो संसद से इस बारे में नया कानून बनाने के लिए जनप्रतिनिधियों पर दबाव बनाया जाए। इस समय तो केन्द्र में सरकार भी काशी के सांसद मोदी की है। फिर आम आदमी को परेशान करने वाला आंदोलन क्यों? जिन नारों ने 1991 में देश में माहौल खराब किया अौर कई राज्य दंगों की आग में जले, उन नारों का इस्तेमाल यहां क्यों? ऐसे में क्यों न माना जाए कि कुछ लोग काशी का अमन चैन खराब करने की कोशिश कर रहे थे?
मंगलवार रात करीब सवा दो बजे...गणपति का विसर्जन
अंत में एक बात अौर...पुलिस ने भी गणपति को ले जाकर ऐसे ही कुंड में फेंक नहीं दिया है। आपसे ज्यादा आस्था का प्रदर्शन किया गया। मूर्ति को गाड़ी से उतारने से लेकर प्रवाहित करने तक पूरी श्रद्धा के साथ जवान लगे रहे। सीअो स्तर के अधिकारी ने अपनी जेब से पैसे निकालकर माला खरीदी, पंडित जी का इंतजाम किया, कुंड के किनारे विधिवत पूजा पाठ के बाद विसर्जन संपन्न हुआ।
गणपति के बगल में खड़े सभी युवा एसटीएफ के जवान हैं अौर बाकायदा जूता खोलकर ही गाड़ी पर चढ़े।
रिपोर्ट बनारस से बनारसी मस्ती के  बनारस वाले के लिए योगेश जी की .. हर हर महादेव
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काशी में खूबसूरत पेंटिंग्स कर रही हैं खुले मेनहोल से आगाह

काशी की सड़कों पर आजकल आपको बेहतरीन कलाकारी देखने को मिलेगी। पेंटिंग भी ऐसी जो आपकी आंखों को सुकून देने से ज़्यादा आपको आगाह करती नज़र आएगी। इन पेंटिंग्स में आपको कहीं मेनहोल में गिरता आदमी नज़र आएगा तो कहीं यूं लगेगा कि कोई किसी गड्ढे से अपनी मदद करने को आपको आवाज़ दे रहा है। दरअसल ये पेंटिंग्स आपको सावधान करने के लिए ही बनाई जा रही हैं। आपको खुले मेनहोल और सड़क के गड्ढों में गिरने से बचाने के लिए, आपको सावधान करने के लिए ये ज़िम्मा उठाया है काशी के उमेश जोगाइ ने। रात को जब आधा शहर सो रहा होता है तब वो सड़कों पर ऐसी पेंटिंग्स करते नज़र आ जाते हैं।
फोटो- केशव यादव इन पेंटिंग्स को 'आवाज़' अभियान का नाम दिया गया है।फोटो- केशव यादव

मीरघाट के रहने वाले कलाप्रेमी उमेश जोगाइ इन दिनों काशी की सड़कों पर कुछ ऐसी ही पेंटिंग्स कर रहे हैं। सड़कों पर पेंटिंग बनाने के पीछे एक खास वजह भी है और मकसद भी। हुआ यूं कि पिछले दिनों हुई ज़ोरदार बारिश के कारण पूरा शहर जलमग्न हो गया था। गुरुबाग पर भी पूरा घुटने के उपर तक बारिश का पानी लग गया था। यहां एक मेनहोल खुला होने की वजह से एक बच्ची उसमे गिर गई। बड़ी मुश्किल से उसे बचाया जा सका। ये पूरी घटना उमेश जोगाइ की बेटी के सामने की थी। घर पर उसने अपने पापा को ये बात बताई। बेटी की इस चिंता से वो भी विचलित हो उठे। तभी उन्होंने ठान लिया कि वो इसके लिए ज़रूर कुछ करेंगे। प्रशासन, नगर निगम की बजाय उन्होंने खुद लोगों को जागरूक करने का कदम उठाया। इसके बाद उन्होंने बीएचयू फाइन आर्ट्स के स्टूडेंट संदीप साहनी और विशाल यादव की मदद ली और फिर शहर के लोगों को कुछ इस अंदाज़ में आगाह करने की अपनी मुहिम शुरू कर दी। इस पेंटिंग्स को तीनों दोस्तों ने 'आवाज़' अभियान का नाम दिया है।
फोटो- केशव यादवरविंद्रपुरी से शिवाला और गोदौलिया से गुरुबाग तक की रोड पर मेनहोल के पास ये पेंटिंग बनाई गईं हैं। फोटो- केशव यादव

उमेश जोगाइ ने शहर भर में मेनहोल और गड्ढों का डेटा तैयार किया है और उसी डेटा के अनुसार वो जगह-जगह पेंटिंग बना रहे हैं। उन्होंने रविंद्रपुरी से शिवाला और गोदौलिया से गुरुबाग तक की रोड पर मेनहोल के पास ये पेंटिंग बनाई है। ये पेंटिंग्स इतनी शानदार होती हैं कि लोग इन्हें देखते रह जाते हैं। उमेश जोगाइ बताते हैं, "इस समय जिस पेंट का हम इस्तेमाल कर रहे हैं वो ज़्यादा दिन तक टिक नहीं सकता। हमारी कोशिश है कि जिस पेंट से ज़ेबरा क्रॉसिंग पेंट किया जाता है उसका इस्तेमाल करें ताकि वो टिक सके।"


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निगाह बनारस ( जिला जलेबामय , तीज कल ....)

भादो की पहली शाम रस घोलते जलेबा के नाम और गांव गलियों में गूंज उठा ऋतु गान। महिलाओं ने भी ढोलक की थाप पर कजरी की तान छेड़ी और मनोविनोद में पूरी रात काट दी। मौका था लोकमानस से जुड़े पर्व रतजगा का जो द्वितीय लोप होने से भाद्रपद के पहले ही दिन आज सोमवार को मनाया गया।
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झूलै बनारस सावन में

आस्था, अध्यात्म और मौजमस्ती के शहर बनारस में सावन का आलम ही कुछ और होता है । इस जीवंत शहर में सावन की फुहारें जीवन में नया रंग भर देती हैं। आषाढ़ पूर्णिमा से श्रावण पूर्णिमा तक मेले त्योहारोंधार्मिक उत्सवों की धूम के बीच सारा शहर ही मानो हिंडोले झूलता है । मंदिरों में झूला-हिंडोला श्रृंगार, भिन्न-भिन्न फूलों, पत्तियों और फलों से मंदिर में आराध्य की सजावट और पूजा-अर्चना विशेष वातावरण की सृष्टि करते हैं ।

'सात वार, नौ त्यौहार' की कहावत वाराणसी के लिए है लेकिन शायद सावन के महीने में ही इसके विविध रूप और छटाएँ दिखाई पड़ती हैं। सिर्फ मंदिरों में ही नहीं, सावन में घर-घर श्रृंगार-सजावट की परंपरा काशी में अब भी सावन में पूरे शबाब पर होती है। सावन का झूला धार्मिक एकता और महोत्सवों के माध्यम से हर वर्ग-हर जाति और अलग-अलग धार्मिक मान्यताओं के लोगों को भावना के स्तर पर एकाकार कर देता है।

काशी के विश्वनाथ हों या काली, सत्यनारायण हों या बीसू जी (अग्रवालों का मंदिर) या फिर महामृत्युंजय या दुर्गा सभी सावन में झूला झूलते हैं। यह सावन झूला महोत्सव मंदिरों की अपनी खासियत है। कहीं केवड़ा, कहीं गुलाब, कहीं अशोक की पत्ती और तुलसी, कहीं बेला, चमेली, चंपा, जूही या मौलिश्री और न जाने कितने ही तरह के फूलों से सजा भगवान का झूला और फूलों की डोर के साथ मंदिरों के पारंपरिक रागों में ढला भगवद् भक्ति का संगीत सभी सावन को बनारस में नए रूप में जीवंत करते हैं।

मंदिरों के इस शहर में पूरे महीने चलने वाला यह सावनी रंग महोत्सव शहर के पुराने हिस्से की गली-गली को अपने खास रंग में रंग देता है। 'काशी का कंकर-कंकर, शंकर समान' कहावत सावन में शिव की आराधना में लीन इस शहर में चरितार्थ होती देखी जा सकती है। कहीं शिवजी झूला झूल रहे हैं, पार्वती झूला रही हैं तो कहीं विन्ध्यावासिनी, विशालाक्षी, दुर्गा, काली, बंदिनी, गंगा संकठा और भैरों के मंदिरों में इन देवी-देवताओं के गण इन्हें झूले झुलाते दिखाई पड़ेंगे।

इन नयनाभिराम झांकियों की खासियत हैं सावन में अलग-अलग मंदिरों में सजने वाली जलविहार झाकियाँ और संगीत कार्यक्रम। सावन को बनारस में नया आयाम मिलता है। भारतेंदु हिंदी साहित्य आकाश के नक्षत्र थे। उन्होंने भी काशी के इस सावन महोत्सव का वर्णन करते हुए कजरी लिखी। गलियों में हर रोज झुंडों में बँटकर कजरी गाने वाली विवाहिताओं और कुवांरियों के स्वर अब प्रायः नहीं सुनाई पड़ते पर शहर के आसपास के कस्बों-गांवों में 'पिया हमहूं चलब दुर्गाजी के मेला में, देखब घुसके ढेलीढेला में ना ....' जैसे कजरी स्वर सुनाई पड़ते हैं।

नागपंचमी, कजरी तीज, रक्षाबंधन जैसे बड़े त्योहारों के अतिरिक्त छोटे-मोटे दो दर्जन त्योहारों से सजी बनारस के सावनी महोत्सव में जगह-जगह शास्त्रीय संगीत की महफिलें भी सारी-सारी रात 'रतजगा' की परंपरा को जीवंत रूप देती हैं। नामी-गिरामी कलाकार-संगीतकार बिना कुछ लिए-दिए सावन के स्वागत में संगीत के सुर पिरो देते हैं।

श्रावण पूर्णिमा के दिन वेद मंत्रोच्चार के बीच श्रावणी उपाकर्म और ऋषिपूजन करते लोग गंगा की धारा में कमर तक पानी में रहकर घंटों पूजन-अर्चन करते हैं। सावन के सोमवार को पूरा बनारस शिवमय हो जाता है। प्रसिद्ध काशी विश्वनाथ मंदिर में डेढ़-दो लाख शिवभक्त और पदयात्रा कर पहुँचे कांवरिए घंटों बोल-बम और हर-हर महादेव का उद्घोष करते पंक्तिबद्ध प्रतीक्षा करते हुए मंदिर की ओर रवि-सोम की आधीरात से ही बढ़ने लगते हैं।

आस्था और विश्वास की फुहारों के साथ सावन के बरसते बादल और भींगने को उत्सुक लालायित लोगों को तृप्त करती बूंदें किसानों-कामकारों सभी को बनारस की सांस्कृतिक संपन्नता का संदेश देती हैं। काशी विश्वनाथ मंदिर, करपात्री विश्वनाथ मंदिर, बी.एच.यू. विश्वनाथ मंदिर, संकटमोचन और खासकर तुलसी मानस मंदिर में सावनी मेले की चहल-पहल पूरे मास चलती है।

तुलसी मानस मंदिर की झांकियों और 15 दिन चलने वाले दुर्गाजी के मेले में बहरी अलंग यानी शहर की भीड़भाड़ से दूर पकाते-खाते खुशियाँ मनाते लोगों को धर्म और आस्था के जरिए खुशिओं की सौगात-सी मिल जाती है। रामअगर और सारनाथ के खुले स्थान, मंदिर परिसर और दोनों जगहों के तालाब के किनारे हजारों-लाखों लोगों के झुंड पूरे महीने दर्शन-पूजन और खाने-पकाने के साथ ही पिकनिक का आनंद लेते दिखाई देते हैं।

सावन में बनारसी मौज-मस्ती का यह उत्सव जाति-वर्ग, अमीरी-गरीबी, उम्र जैसे अंतर या भेदभाव को भूलकर एक साथ सावन मनाने का मौका प्रदान करता है। यह सावन महोत्सव सिर्फ बारिश और मेघों के स्वागत का या धार्मिक अवसर का नहीं बल्कि पूरे समाज को जोड़ने का अभूतपूर्व अवसर बन जाता है।

प्रसिद्ध साहित्यकार धर्मवीर भारती ने ठीक ही लिखा था - सावन में तो पूरा बनारस ही हिंडोले झूलता है। एक बार सावन के इस हिंडोले की पींगें महसूस करने के लिए बनारस आने का बहुत मन है। देखें, कब संयोग बनता है।

वाकई सावन में पूरे शहर में लगने वाले दर्जनों छोटे-बड़े मेलों में चरखी पर सवार कजरी गाती महिलाएँ ही नहीं, मंदिरों के झूले ही नहीं, झूलनोत्सव ही नहीं, बारिश की फुहारों को मनाने अपनाने का बनारसी रंग और अंदाज ही कुछ अनूठा है जो शायद ही और कहीं देखने को मिल सके। तभी तो एक प्रसिद्ध कजरी में महिलाएँ गाती हैं- झूलै बनारस सावन में...............!

- अभितांशु पाठक
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चतुर्थी विभक्ति एक वचन

बनारस में सबसे पहले अगर कहीं सुबह होती है तो प्रहलाद घाट मुहल्ले में। जैसे ही सवा छह हुआ कि दो बातें एक साथ होती हैं। जगेसर मिसिर सूर्य भगवान को जल चढ़ाते हैं।
दूसरी ये कि परमिला नहा कर छत पर कपड़े फैलाने आ जाती है। मिसिर जी के होंठ कहते हैं- "ओम् सूर्याय नम:" और दिल कहता है-'मेरे सामने वाली खिड़की में एक चाँद का टुकड़ा रहता है'।इसी सूर्य और चंद्र के बीच जगेसर बाबा साढ़े तीन साल से झूल रहे हैं।

आज जगेसर जी तीन लोटा जल चढ़ा चुके थे पर उनका 'चांद' नहीं दिखा। फिर चौथा लोटा फिर पांचवा..... ...दसवां।
पंडीजी अब परेशान कि आखिर मामला क्या है? अब तक तो 'चाँद' दिख जाता था।

सामने से सनिचरा गाना गाते हुए जा रहा है..."मेरा सनम सबसे प्यारा है...सबसे...।"
जगेसर जल्दी से घर में आते हैं। फेसबुक स्टेट्स चेक करते हैं। परमिला ने आज गुडमार्निंग का मैसेज भी नहीं भेजा। फोन करते हैं कालर टोन सुनाई देता है.....ओम् त्र्यम्बकं यजामहे......। दुबारा फोन करते हैं। पाँच मिनट बाद फोन उठता है।
पंडीजी व्यग्रता से पूछते हैं-"अरे कहां हो जी?".."आज दिखी ही नहीं.... तबीयत ठीक ठाक है न?"

उधर की आवाज़- "पंडीजी हमरा बियाह तय हो गया है।.. अब हम छत पर नहीं आ सकते। .....फोन भी मत कीजिएगा।..... फेसबुक पर हम आपको ब्लॉक कर दिए हैं।... बाबूजी कह रहे थे कि बेरोजगार से बियाह करके हम लड़की को........."
जगेसर बात काटते हैं- "अरे तो हमको नौकरी मिलेगी नहीं का?"
परमिला डाँटती है-"चुप करिए पंडीजी! 2008 में जब आप बी०एड्० करते थे तब से एही कह रहे हैं।...... बिना दूध का लईका कौ साल जिलाएंगे??"
दिन के दस बज रहे हैं। तापमान अभी सैंतालीस के आसपास हो गया है।पूरा अस्सी घाट खाली हो गया है। दो चार नावें दूर गंगा में सरक रही हैं। चमकती जल धारा में सूर्य का वजूद हिल रहा है। कुछ बच्चे अभी भी नदी में खेल रहे हैं।
पंडीजी सीढ़ियों पर बैठे अपना नाम दुहराते हैं- "पंडित जगेश्वर मिश्र शास्त्री प्रथम श्रेणी, आचार्य, गोल्ड मेडलिस्ट, नेट क्वालीफाईड,बीएड 73%, 2011 में लेक्चरर का फार्म डाला अभी तक परीक्षा नहीं हुई। 2013 में परीक्षा दी, नौ सवाल ही गलत आए थे और तीन सवालों के जवाब बोर्ड गलत बता रहा है। मतलब साफ है इसमें भी
कोई चांस नहीं। डायट प्रवक्ता से लेकर उच्चतर तक की परीक्षा ठीक हुई है। पर छह महीने बाद भी भर्ती
का पता नहीं। प्राईमरी टेट में 105 अंक हैं। मतलब इसमें भी चांस नहीं। 2012 में पी०एचडी० प्रवेश परीक्षा पास की थी पर अभी तक किसी विश्वविद्यालय ने प्रवेश ही नहीं लिया।

तभी बलराम पांडे कन्धे पर हाथ रखते हैं- "अरे शास्त्री जी!..पहला मिठाई आप खाइए।".. हमरा शादी तय हो गया है।.....पं०रामविचार पांडे की लड़की परमिला से। आप मेरा
हाईस्कूल, इण्टर का कापी न लिखे होते तो हमारा एतना अच्छा नंबर नहीं आता। न हम शिक्षामित्र हुए होते। न आज मास्टर बन पाते। न आज एमे पास सुन्दर लड़की से
बियाह होता।"

जगेसर मिसिर के हाथ में लड्डू कांप रहा है। तभी बलराम पांडे फिर बोलते हैं- "अच्छा! 'अग्नये स्वाहा'
में कौन विभक्ति होती है एक बार फिर समझा दिजियेगा... कोई पूछ दिया तो ससुरा बेइज्जती खराब हो जाएगी।"

जगेसर नशे की सी हालत में घर में घुसते हैं। हवन- सामग्री तैयार करते हैं। और हवन पर बैठ जाते हैं। अब
अग्नि में समिधाएँ जल रही हैं। अचानक उठते हैं और अपने सारे अंकपत्र-प्रमाणपत्र अग्नि में डाल देते हैं। और चिल्लाते हैं- "अग्नये स्वाहा! अग्नये स्वाहा!!...चतुर्थी
विभक्ति एक वचन... चतुर्थी विभक्ति एक वचन!!" और मूर्छित होकर वहीं गिर पड़ते हैं।

कल के अखबार में वही रोज की खबरें होंगी- शिक्षा के क्षेत्र में सरकार की उपलब्धियाँ और गर्मी ने ली एक और व्यक्ति की जान।
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किस्से शहर बनारस के

काशी कहें या बनारस दोनों का अर्थ एक ही है। काशी से धर्म और आध्यात्म का बोध होता है और बनारस से यहां की संस्कृति जनजीवन और मौज मस्ती का। भौतिक सुख की अंधी बेला में, बनारस का बना हुआ रस तो चौपट हो गया, अब स्मृतियां ही शेष हैं। यह बनारस ही है, जहां गंगा की धारा उलट गई, आम लंगड़ा हो गया, बात बतरस में बदलकर किस्से और कहावत में बदल गई।

धर्म, ज्ञान और मोक्ष की नगरी में गप्प सच बन गया, सच गप्प बन गया। सच क्या है, गप्प क्या है - इसका फैसला पाठकवृंद स्वयं कर लें। यह मेरे लिये और भी मुश्किल है क्योंकि जब मैं देखता हूं कि यहां कहने वाला और सुनने वाला दोनों एक दूसरे को गुरू का संबोधन करते हैं तो फिर यह फैसला करना बड़ा मुश्किल है कि इसमें गुरू कौन है और चेला कौन है। जिस तरह से बनारस का पान, मान, भांग, मिठाई, साड़ी, आम जगत विख्यात है, उसी तरह यहां की गप्पबाजी भी सारे जहां में प्रसिद्ध है। बनारस के गप्प में जो मजा है, वह सारे जहां के सच में नहीं है। 

बनारस के पुराने रईसों के संदर्भ में डा. रायकृष्ण दास से बातचीत चल रही थी। मैंने कहा- एक किस्सा प्रचलित है। फक्कड़ साह के जमाने में नौकर से एक झाड़-फड़नूस गिर गया। टूटकर गिरने से उसकी अजीबोगरीब मनमोहक तरंग की आवाज सुन फक्कड़ साह ने नौकर को बुलाया और पूछा यह कैसी आवाज थी? वह डर गया, किंतु कोई जवाब देता इसके पहले उनकी फरमाईश हो गई कि ठीक है - नुकसान के लिये डरों नहीं, उन मोहक तरंगों को फिर से पैदा करो! नौकर ने एक-एक कर शेष पांच झाड़ फड़नूसों को झाड़-झाड़ कर गिरा दिया और तरंगित तरंगों को सुन फक्कड़ साह नौकर पर खुश हुए और एक अशरफी इनाम में दी। इस किस्से को सुन रायकृष्ण दास मुस्करा उठे थे। उन्होंने कहा-बनारस के गप्प में जो रस है, वह अकबर बीरबल के किस्सों में नहीं है। 

बनारस का आदमी मुंह में पान घुलाये किसी पान की दुकान पर, घाट किनारे या किसी के बैठक खाने में जब ठेठ बनारसी बोली में धारा प्रवाह मुखरित होता है तो उसकी वाणी से कई बार साहित्य के नौ रस टप-टप टपकने लगते हैं। न जाने कौन सी बात है कि बनारस के ही आदमी के मुख से ऐसी बातें सुनने में अच्छी लगती हैं, वह भी ऐसे आदमी के मुख से और अच्छी लगती हैं, जो सुबह शाम भांग छानता हो, भयंकर शीत नहली में भी सुबह शाम गंगा की निर्मल धारा में डुबकी लगाता हो। 

लेख का शुभारंभ करने के पूर्व मेरी इच्छा हुई कि मैं किसी ऐसे ही गहरेबाज का साक्षात्कार करूं। जाड़े की शीत लहरी में सायंकाल के छः बज रहे थे। गंगा पार की रेत, डूबते सूरज के अंधेरे में डूबती जा रही थी। सिंधिया घाट पर एक साठा से मुलाकात हुई जो साठा में पाठा लग रहा था। एक-एक फूट के लंबे-लंबे सफेद बाल और दाढ़ी मूंछों पर बनारस की मस्ती विद्यमान थी। उसने ज्योंहि कसरत बंद किया मैंने कहा-‘गुरू ई ठिठुरन में भी तोहार साधना अमर हौ।’ मेरा इतना कहना था कि गुरू शुरू हो गये और उनकी लच्छेदार बातों का रस लूटने के लिये भीड़ एकत्र हो गई। गुरू की तेज तर्रार आवाजें और शायरी को सुन, तीन-चार सैलानियों की नावें भी घाट किनारे लग गईं। 

गुरू ने कहा-‘नयका जमाना के नयकी रोशनी में तो सब कुछ हेराय गयल हव, इतो हमारे निभउले क बात हव कि हर मौसम में भांग छान के गोता लगाइला अउर साठ बरस के उमिर में भी दंड बैठक लगा के चंगा रहीला। हम उ जमाना भी देखले, हई जब गंगा पार से कोई गावे ‘कोयल तोरी बोलिया से जिया से संइयां उठ भागे हो रामा तब रोवां-रोवां फहर उठत रहल। अब त फिल्मी गाना का जमाना हव, जौने में डूब के नईकी पीढ़ी बार्बाद होत हव। पहले के लोग त हजार-बारह सौ गायत्री जप करत रहलन। ओन के शरीर में बल और चेहरे पर तेज रहत रहल एहि घटवा पर जब ऊ लोग कपड़ा कछार के आसमान के तरफ फेकत रहलन तब सूखत-सूखत नीचे गिरत रहल। का-का हम बताई-डालडा घी क लोगन दिया भी नाही जलावत रहलन। देसी घी कनस्तर में से निकाले में कलछुल टेढ़ा हो जात रहल। बारह आना का मुरली मनोहर धोती अउर बीस आना का जयपुरिया डुपट्टा ओढ़ के जे चले ओके लोग टुकटुकी लगा के देखत रहलन। अब तो इसब गप लगला सच त इ हव क डालडा घी राशन कार्ड पर बेटे लगल। 

एक पौराणिक कथा : विश्व की प्राचीनतम नगरी काशी का महत्व पौराणिक काल में भी रहा है। शिव पुराण में वर्णित एक कथा के अनुसार, शिवजी से काशी बिना नहीं रहा गया। शिवजी ने चौंसठ योगिनियों को भेजा तो वह काशी में आकर ही रह गईं। भगवान शंकर चिंतित हुए और उन्होंने सूर्य नारायन को योगिनियों का समाचार लेने भेजा तो वह भी बारह शरीर धारण कर यहां के हो गए। तत्पश्चात गणपति विष्णु स्वयं आए और ब्राह्मण का रूप धारण कर राजा दिवोदास को ज्ञान का उपदेश दिया। 

इस भौतिक युग में भी काशी का ठाट-बाट निराला है और जन-जन की बोली से जो रस टपकता है, उससे लगता है कि यहां के जनजीवन पर काशी के घाटों, मंदिरों और वेद मंत्रों के उच्चारण का सदाबहार प्रभाव है। कहते हैं कि चौसठ योगिनियों, बारह सूर्य, छप्पन विनायक, आठ भैरव, नौ दुर्गा, बयालीस शिवलिंग, नौ गौरी, महारूद्र, चौदह ज्योर्तिलिंग, काशी में ही हैं। अतः महाज्ञानी जब तक काशी में अपने ज्ञान की परीक्षा नहीं देता, तब तक उसका ज्ञान अधूरा रहता है। भगवान बुद्ध, शंकराचार्य, रामानुजाचार्या, गुरू नानक, गुरू रामदास, क्राइस्ट आदि ने यहां आकर अपने-अपने मतों का प्रचार किया और कबीर तुलसी जैसे संतों ने दुर्लभ साहित्य की रचना की। पुराण और महाभारत के रचयिता व्यासजी को काशी में मां अन्नपूर्णा के कोप का भाजन बनना पड़ा। पौराणिक काल में व्यासजी अपने विद्यार्थियों के साथ काशी वास की इच्छा से यहां आए। मां अन्नपूर्णा ने परीक्षा ली। तीन दिन तक उन्हें भिक्षा नहीं मिली तो वह भूख से पीडि़त होकर क्षुब्ध हो गए और श्राप दे दिया कि काशी में वास करने वाले तीन पीढ़ी तक विद्या, धन और मोक्षहीन होंगे। अन्नपूर्णा, व्यासजी के अहंकारपूर्ण श्राप से अत्यंत क्रोधित हुईं और उन्हें नगर से बाहर चले जाने की आज्ञा दी। व्यासजी का अहंकार नष्ट हो गया। उन्होंने मां अन्नपूर्णा से क्षमा मांगी। गंगा पार बसने और पर्वों के समय काशी नगरी में आने का आदेश मां अन्नपूर्णा ने उन्हें दिया। व्यासजी का प्राचीन मंदिर यहां राम नगर में व्यासपुरा में है। 

काशी करवट : काशी में जाकर पूजा-पाठ, स्नान-ध्यान और पुण्य करने पर परीक्षा के लिए तीर्थ-यात्री काशी करवत के मंदिर तक जाता था, जहां पर शिवलिंग के ऊपर एक आरा रहता था। कहते हैं, आरा के नीचे यात्री अपना सिर झुका देता था। आरा जिस सिर को स्पर्श करता था, उसकी काशी यात्रा सफल मानी जाती थी, अन्यथा यह माना जाता था कि अभी उसके किये हुये कर्म का पाप शेष है। काशी करवत का प्राचीन मंदिर पहले सिंधिया घाट के निकट दत्तात्रेय मंदिर के पास था, परंतु अब ज्ञानवापी के निकट एक मकान के सूखे कूप में नया शिवलिंग मंदिर है। नीचे जाने के लिये एक ओर से सीढ़ी गई है, जिसमें ताला बंद रहता है। जानकारों का कहना है कि पौराणिक महत्व की मीमांसा करते हुए पण्डा भोले-भाले यात्रियों को कूप में ले जाकर मनगढ़ंत किस्से सुनाकर, डरा धमकाकर ठग लेते थे, जिससे पुलिस सतर्क हो गई और वह ताले की ताली अपने कब्जे में रखने लगी थी। प्रत्येक सोमवार को सफाई के लिए थाने से ताली मंगाई जाती थी। 

किसी दूसरे शहर में कोई घटना घट जाती है तो उसके प्रचारित होने में समय लगता है, किन्तु बनारस एक ऐसा शहर है, जहां आदि काल से आज तक कौआ कान लेकर उडता है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है- दो सांड़ों के लड़ जाने पर बलबे का हो जाना। 

विदेशी शासकों को भी बनारस वालों की मौज मस्ती का सहज अंदाज था। उन्हें मालूम था कि बनारसी गप्प लड़ाने और बात को फैलाने के मामले में अव्वल दर्जे के हैं, इसलिए यहां के बलवा हड़ताल और विद्रोह को देखते हुए महारानी विक्टोरिया का एक नवंबर सन् अट्ठारह सौ अठवन को जो आदेश सुनाया गया, उनमें बहुत सी बातों के साथ इन तथ्य का भी स्पष्ट उल्लेख था कि जिन लोगों ने खूनियों और मुखियों को अपने यहां आश्रय दिया है, उनके प्राण की रक्षा नहीं की जायेगी, किंतु झूंठी खबरें फैलाने वालों के अपराध पर कुछ रियायत की जाएगी। 

बनारस वालों का कान कौआ किस तरह से लेकर उड़ता रहा है, उस संदर्भ में पंद्रह अप्रैल सन् अठारह सौ इक्यानबे की एक घटना सुनिए- दिन में ग्यारह बजे एक व्यक्ति चौक में खड़ा होकर चिल्लाया कि भदैनी मुहल्ले में जलकल बैठाने के लिए राम जी का मंदिर खोदा जा रहा है। बस फिर क्या था। दुकानें बंद होने लगीं और देखते ही देखते समूचा शहर भदैनी के मैदान में एकत्र हो गया। जलकल के इंजन, पीपे, आदि तोड़ दिये गए। इस घटना को राम हल्ला के नाम से जाना जाता है। 

बात का हौआ खड़ा कर बनारस के लोगों ने सत्रह अगस्त सन् सत्रह सौ इक्यासी को वारेन हेस्टिंग्स और उसकी फौज को भगा दिया। वारेन हेस्टिंग्स काशीराम चेतसिंह से पचास लाख रुपया बतौर जुर्माना वसूल करना चाहता था। राजा चेतसिंह के हर अनुरोध को उसने ठुकरा दिया और बनारस आकर कबीर चौरा स्थित एक मकान में जो माधोदास के नाम से जाना जाता है, आकर ठहर गया। शहर में राजा साहब के गिरफ्तार होने की बात फैली। किसी बनारसी ने तुकबंदी गढ़कर प्रचारित किया तो हर आदमी की जुबान पर एक ही बात सुनाई पड़ने लगी। 

घोड़े पे हौदा, हाथी पे जीन।

डर कर भाग वारेन हेस्टिन॥

 
घोड़े पर हौदा सौर हाथी पे जीन की बात अंग्रेजों को रहस्यमय प्रतीत हुई। वे इसका अर्थ नहीं समझ सके और यह सोचकर कि भागने में ही कल्याण है, रातों-रात वारेन हेस्टिंग्स साढ़े चार सौ फौजी साथियों को लेकर, अपने दलाल बेनी राम की सहायता से भागा और चुनार के किले में जाकर शरण ली। जो फौजी सिपाही और अधिकारी मारे गए, उन्हें चेतगंज और भदैनी मुहल्ले में दफना दिया गया। 

इतिहास के पृष्ठों पर ही अंकित एक दूसरा किस्सा गौरइया शाही का है, जो बिना किसी के उकसाए बात-बात में घटित हो गया। सन् 1852 में बनारस के कुछ गप्पियों ने हॉक  दी कि जेल में कैदियों को बलपूर्वक गोमांस खाने के लिये बाध्य किया जा रहा है। बनारस में भौंसला घाट, नाटी इमली और बैजनत्था में नागरिकों की एक सभा में उत्तेजना फैल गई। कलेक्टर की गाड़ी रोककर भीड़ ने मिट्टी के गौरइया (तंबाकू पीने का पात्र) से प्रहार किया। बैजनत्था की सभा में पुलिस ने घेरे बंदी कर तीन सौ व्यक्तियों को गिरफ्तार किया। इस घटना को गौरइया शाही के नाम से पुकारा जाने लगा। 

टूटा हाथी नौ लाख का :सन् 1797 अवध के नवाब आसफुद्दौला की मृत्यु के बाद, वजीर अली गद्दी पर बैठा, किन्तु तुरंत ही उसे हटा दिया गया। सहादत अली खां बनारस से जाकर 17 जनवरी सन् 1798 को नवाब की गद्दी पर बैठ गए। वजीर अली को बनारस में रहने की आज्ञा मिली। बनारस के माधोदास के बाग में वह डेढ़ लाख रुपये वार्षिक पेंशन पर रहने लगा। अवध की राजगद्दी से हटाए जाने का प्रतिशोध उसके मन में था, जिससे वह तरह-तरह के षड़यंत्र रचता ही रहता था। परिणाम स्वरूप, वजीर अली को बनारस छोड़कर कलकत्ता रहने का फरमान मिला। वह 14 जनवरी सन् 1799 को अपने 200 हथियार बंद साथियों के साथ बनारस के रेजिडेंट मिस्टर जीएफ चेरी से मिलने गया और उनके सहित कई अंग्रेजों को मार डाला। अंग्रेज सैनिकों की छावनी में घूम-घूमकर वजीर अली उन्हें मारकाट, लूटपाट करता हुआ बटोल के जंगल से होता हुआ जयपुर पहुंचा, जहां उसे गिरफ्तार कर लिया गया। वजीर अली को जब जयपुर से कलकत्ता लाया जा रहा था तो बनारस के पड़ाव पर तत्कालीन काशी नरेश उदित नारायण सिंह शिष्टाचार का निर्वाह करते हुए मिलने गये तो वजीर अली ने पन्ना रत्न का बना हुआ हाथी निकालकर फेंका और काशी नरेश से कहा-‘राजा, मैं तो गिरफ्तार हूं, मेरे पास कुछ बचा नहीं है, फिर भी मेरी ओर से यह पन्ना का हाथी आप को भेंट है।’ हाथी के जमीन पर गिरने से उसका एक पैर टूट गया। हाथी का मूल्यांकन नौ लाख रुपए मूल्य में किया गया। तभी से बनारस में यह कहावत प्रचलित है कि टूटा हाथी नौ लाख का।

रामलीला के हनुमान : बनारस की प्राचीन रामलीला का अपना महत्व है। इसे मेघा भगत ने शुरू किया था। यदि राम की प्रतिमूर्ति के पैर धोकर पीते हुए आप यहां के लोगों को देखेंगे तो आश्चर्य चकित अवश्य होंगे। क्या हुआ! सन् 1838 के क्वार के महीने में बनारस के अंग्रेज कलक्टर मिस्टर वाक्सलवरेन्ट और उनके साथी भी रामलीला देखकर भौंचक्के रह गए। चौकाघाट पर समुंद्र लंघन की लीला चल रही थी। निकट की वरूणा नदी का जल बाढ़ के कारण लीला भूमि तक तैर रहा था। घूमते-फिरते अंग्रेज कलक्टर और पादरी लीला भूमि तक पहुंचे और रामलीला के दृश्यों को देखर अट्टाहास करते हुए कहा-‘रामायण के हनुमान तो समुंद्र लांघ गए थे, आप इस बढ़ी हुई नदी का यह पाट लांघ जाएं, तो समझा जाए कि रामलीला आयोजित करने का कोई सामाजिक-धार्मिक महत्व है। चमत्कार हुआ कि रामलीला के हनुमान जय बजरंग बली उद्घोष के साथ एक छलांग में नदी के बढ़े हुये जल को लांघ गए और उलटकर देख इंसानी एहसास होने पर वह स्वर्गवासी हो गए। रामलीला के हनुमानजी के स्मारक के रूप में वहां एक मंदिर स्थापित है। अंग्रेज कलक्टर बहुत प्रभावित हुए और तब से राजकीय स्तर पर रामलीला को आर्थिक सहायता एवं संरक्षण प्राप्त है, जिसका निर्वाह वर्तमान सरकार भी करती आ रही है।

राजा बनारस: इतिहास और वेद-पुराण के किस्सों से आप ऊब गए होंगे। आइए! अब हम आपको महाराज काशी नरेश से मिलवाएं जो स्वयं चितेरे और मौजमस्ती के दरिया में डूबे रहने वाले औघड़ दानी भगवान शंकर के प्रतीक कहे जाने लगे थे। एक दशक से ज्यादा हुआ तब से लेकर निवर्तमान काशी नरेश तक को देखकर काशी वासी ‘हर हर महादेव’ का उद्घोष करते हैं। इस उद्घोष का एक मनोरंजक इतिहास भी है। सन् उन्नीस सौ ग्यारह में राजधानी में दिल्ली दरबार का आयोजन किया गया था। तत्कालीन काशी नरेश प्रभु नारायण सिंह, राजा के रूप में दिल्ली दरबार में आमंत्रित नहीं थे। उन्होंने दिल्ली जाने की घोषणा की तो काशी के सैकड़ों गहरेबाज भी दिल्ली दरबार का अवलोकन करने राजधानी गए। 

काशी नरेश बाघंबर धारण किए, मस्तक पर भभूत लगाए जब बग्घी की सवारी से दिल्ली की सड़क पर निकले तो दिल्ली पहुंचे बनारसियों के हर-हर महादेव के उद्घोष से दिल्ली की सड़क गूंज उठी। वायसराय, अन्य देशी रियासतों के राजाओं सहित अन्य लोगों को यह दृश्य आकर्षक लगा। वायसराय ने काशी नरेश को काशी विश्वनाथ का प्रतीक मानकर उनके लिए दिल्ली दरबार के समारोह में अंतिम पंक्ति में एक विशेष कुर्सी लगवाई, जिस पर वह विराजमान हुए। चार अप्रैल सन् उन्नीस सौ ग्यारह के दिन गवर्नर सर लेसली पोर्टर ने बनारस में एक दरबार आयोजित कर, काशीराज प्रभुनारायण सिंह को स्वतंत्र शासक की सनद दी। इसके पूर्व महाराज ईश्वरी प्रसाद नारायण सिंह को लार्ड लिटन ने दिल्ली दरबार में तेरह तोप की सलामी से सम्मानित कर महाराज की उपाधि दी थी। कहते हैं, ईश्वरी नारायण सिंह बड़े गुण ग्राही एवं कला मर्मज्ञ थे। 

होली-दीपावली विजय दशमी, जन्माष्टमी और सावन के दिनों रामनगर पैलेस में गायन-वादन और नृत्य की परंपरा थी। एक बार राज दरबार में संगीत का आयोजन समाप्त हो चुका था। महाराज सिंहासन पर बैठे आम चूस रहे थे। अपने ज़माने की नामी गायिका मैना महफिल में विलंब से पहुंची। महाराज ने कहा-‘तू काहे, देर से अइलू हव.....अब का बचल हव, कहा त हम तोहें कोइली दे देई।’ 

मैना होशियार गायिका थी। उसे मालूम था कि काशीराज में एक कोइली गांव है। उसने तुरंत कहा- ‘महाराज हमें कोइली दे दा।’ महाराज ने कहा-‘जाओ तुम्हें दे दिया।’ महाराज का वचन सुन मैना ने कहा-‘आज से कोइली गॉव अब हमार हो गइल सरकार?’ काशी नरेश ने तुरंत कोइली गांव मैना के नाम लिख दिया। 

महाराज ईश्वरी नारायण सिंह के राज गायक शिवदासजी प्रयागजी को लेकर भी एक मनोरंजक किस्सा मशहूर है। ये दोनों गायक आपस में भाई थे और बीस मिनट के अंतर में पैदा हुए थे। प्रयाग जी बड़े थे। एक दिन ये महाराज के साथ-साथ गंगा स्नान कर रहे थे। महाराज ने कहा-‘प्रयाग! मैं आज प्रसन्न हूं!.... चाहता हूं कि आज कुछ मांगो।’ 

प्रयागजी ने कहा-‘दीजिएगा न! सरकार!’ महाराज ने कहा - ‘तुरंत मांगिए।’ प्रयागजी ने कहा-‘सरकार मैं यही मांगता हूं कि आपसे पहले हमारी मृत्यु हो।’ 

काशीराज ने कहा-‘यह क्या मांगा, यह तो ईश्वर के हाथ की वस्तु है।’

प्रयागजी ने कहा-‘महाराज! मुझे जो मांगना था, मांग लिया आप दिल से मुझे यह आशीर्वाद देंगे तो ईश्वर भी उसे मंजूर कर लेगा।’ 

ईश्वर ने इसे सुना और प्रयागजी की मृत्यु के बाद ईश्वरी नारायण सिंह का भी देहांत हो गया। राजा और राजगायक की राख उसी गंगा की निर्मल धारा में घुल मिल गई जिसमें खड़ा होकर अंजुलि में जल लिए राजा ने अपने प्रिय गायक को उनसे कुछ भी मांगने के लिए प्रेरित किया था। 

रोम बल:घाटों के किनारे के घाटिया भी बड़े मजेदार होते हैं। वैसे तो बनारस का आम आदमी गप्पबाजी के लिये मशहूर होता है। कमर तोड़ महंगाई के इस दौर में भी आपको बनारस की गप्प का मजा लेना हो तो किसी घाट पर घाटिया के तख्त पर बैठ जाइए फिर गंगा तट के बयार और बनारस के सुख से आप तृप्त हो जाएंगे। 

गंगा घाट का दृश्य। गर्मी का दिन। सैलानी और नगरवासी नौका विहार में लीन। इधर गंगा की पांच सीढि़यों के ऊपर झम्मन गुरू की छतरी के नीचे लोग भांग बूटी छान-छानकर गप्पबाजी में लीन हैं। एक से बढ़कर एक बतोले बाज अपनी-अपनी सनक में बहके जा रहे हैं। झम्मन गुरू ने कहा-‘इधर-उधर की हम बहुत सुन चुके, एक सच्ची घटना हम सुना रहे हैं। इस घटना का रूद्रकाशिकेय ने अपनी पुस्तक बहती गंगा में रोम-रोम में बज्रवल के नाम से वर्णन भी किया है।’ 

बनारस में एक झालर महाराज थे। पेशे से वह पंडा थे। दूर-दूर तक के यजमान उनके यहां आते थे। संकट मोचन हनुमानजी का दर्शन करने के बाद ही अन्न ग्रहण करते थे। एक बार सूर्य ग्रहण के दिन यजमान यात्रियों के चक्कर में झालर गुरू को हनुमानजी के दर्शन का ध्यान हो आया। पहला ग्रास हाथ में ही रह गया। वह थाली छोड़कर उठे और मां से कहा-‘मां मेरी थाली देखती रह, मैं दौड़ते हुए जाऊंगा और दम भर में दर्शन करके लौट आऊंगा।’ बादल घिरे थे, बूंदे पड़ रही थीं। रह-रहकर बिजली चमक उठती थी। झालर महाराज इस मौसम को चीरते हुए अश्वमेध के घोड़े की तरह निर्द्वंद दौड़े चले जा रहे थे। ‘...कहते-कहते घाटिया गुरू ने गमछे से होंठ से छलकते पान को पोंछा और फिर शुरू हो गए। उस ज़माने में संकट मोचन के निकट पड़ने वाले नाले का बड़ा भयानक रूप था। झालर महाराज ने देखा कि  नाला समुद्र की तरह हा-हाकार करता हुआ उफान ले रहा है। उसे पार करने का साधन जब उन्हें नहीं मिला तो उन्होंने धोती-दुपट्टा उतार कर पेड़ की डाल पर रख दिया और लंगोट के ऊपर गमछा कसकर ज्यों ही कूदने के लिए तैयार हुए कि पीछे से किसी ने उनका हाथ पकड़ लिया। मुड़कर देखा तो एक हट्टा-कट्टा आदमी उनका हाथ पकड़े हुये था। आदमी ने पूछा-‘क्या आत्महत्या करना चाहते हो।’ 

नहीं, हनुमानजी का दर्शन करने जा रहा हूं।’ नाले की तीव्र धारा की ओर इशारा करते हुए उस अज्ञात व्यक्ति ने कहा-‘जिस धारा में हाथी का पैर नहीं टिक सकता, उस धारा में तुम्हारी हड्डी भी पता नहीं लगेगी। ‘अब चाहे जो हो, मैं तो हनुमानजी का दर्शन करके ही लौटूंगा।’ अज्ञात व्यक्ति ने कहा-‘अब समझ लो कि तुम्हें संकट मोचन हनुमान के दर्शन हो गए और लौट जाओ।’
झालर ने कहा-‘ऐसे कैसे समझ लूं कि हनुमानजी के दर्शन हो गए, यहां हनुमान जी कहां हैं?’
अज्ञात व्यक्ति ने मुस्कराते हुए कहा ‘समझ लो, मैं ही हनुमानजी हूं।’ झालर गुरू ने दांत पीसते हुए कहा-‘सभी ऐरे गैरे हनुमानजी बनने लगे तो हो गया कल्याण। तुम हनुमान जी हो तो प्रमाण दो।’
क्या प्रमाण लोगे?’ ‘वही रूप दिखाओं, जो उन्होंने सीताजी को दिखाया था।’ ‘डरोगे तो नहीं?’ ‘नहीं।’
अज्ञात व्यक्ति ने शरीर बढ़ाना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे विकराल स्वरूप को देख झालर गुरू डर गए और नत मस्तक होकर क्षमा मांगी।
साधारण मानव काया में पुनः स्थिर हो उस अज्ञात व्यक्ति ने झालर गुरू से पूछा-‘बोलो तुम मुझसे क्या चाहते हो, जो मांगोगे वही मिलेगा।’
झालर को उसी दिन दोपहर की एक घटना स्मरण हो आई, जब एक पंडा ने झापड़ माकर उनकी मुट्टी से रकम छीन ली थी। झालर ने कहा-महाराज मुझे अपनी कानी अंगुली का बल दे दीजिए।
हनुमानजी फिर मुस्कराए और कहा- ‘तुम्हारा कलियुगी कलेवर इतना बल सहन कर सकेगा। तुम अपना मुंह ऊपर उठाकर खोल दो।’
झालर ने अपना मुंह खोला तो हनुमानजी ने एक रोआं तोड़कर उसमें डाल दिया। मुंह में रोआं पड़ते ही झालर के शरीर में बिजली सी दौड़ गई। वह वायुवेग से दौड़ते हुए घर वापस आए। वह पहले रसोई घर में घुसकर दोनों हाथों से भोजन ठूंस-ठूंस कर मुंह में भरने लगे। पेट नहीं भरा तो भूख-भूख कहकर भंडारा में घुस गए और वहां जो सामान मिला सबको भक्षण करते गए। लोगों को ऊपर फेर का भ्रम हो गया। घर के लोगों ने उन्हें भंडारे में बंद कर बाहर से सांकल लगा दी। रात भर वह अन्न बर्बाद करते रहे। सवेरे जब वह घाट पर आए तो उन्हें देख लोग छींटा-कसी करने लगे। कोई कुछ कहता तो कोई कुछ। एक ने कहा-‘गुरू तनी सम्हार के कहीं तोहरे भार से मढ़ी न लोट जाय।’
गुरू को यह बात तीखी लगी। उन्होंने कहा-‘ला जब ऐहि देखै के हव त देखा।’
इतना कहकर उन्होंने अपने शरीर का दबाव मढ़ी पर दिया तो वह झुक चली। देखने वाले लोग बाप रे बाप कहकर भागे। फिर झालर महाराज किलकारी मार-मार, कुछ देर तक घाट की सीढि़यों पर दौड़ते रहे और एक भयानक गर्जना के साथ गंगा में कूद पड़े। घाटिया झम्मन गुरू की बात सुनकर लोग आश्चर्य चकित रह गए। गुरू ने कहा ‘अब सब लोग अपने-अपने घरे जा अउर मलाई रबड़ी काटा ईहां क बनारसयिन क जेतना बात होत रहल, ऊ सब त आज कल के लोगन बदे त किस्सा कहानी त बनी गयल हब।’ 

मुड़ी कट्टा बाबा : एक ओर काशी में साहित्य, संगीत और संस्कृति की त्रिवेणी का संगम है, तो दूसरी ओर अंधविश्वास भी जनमानस में पनपता रहता है। मानो तो देव नहीं तो पत्थर की कहावत यहां पूर्ण रूप से चरितार्थ है। यहां पत्थर की पूजा होती है, गली-चौराहे की पूजा होती है, तभी तो कहा गया है कि काशी का एक-एक कंकर शंकर हैं। यहां एक पत्थर रखकर किसी ने फूल-माला चढ़ा दिया तो दूसरा पथिक भी वहां सिर झुका देता है, तीसरा गंगाजल अक्षत चढ़ा देता है। इस संदर्भ में मुड़ी कट्टा बाबा का उल्लेख आवश्यक है। भेलपुर से विश्वविद्यालय जाने वाली मुख्य सड़क के एक किनारे बलेबरिया में स्थित मुड़ी कट्टा बाबा सिर रहित मूर्ति के बारे में तरह-तरह की चर्चाएंं सुनने को मिलती हैं। एक मनोरंजक चर्चा यह है कि एक व्यक्ति दुर्गाजी का नियमित दर्शन करता था। पहले दुर्गा मंदिर जाने वाला मार्ग अत्यंत सूनसान रहा करता था। एक दिन उस व्यक्ति के दुश्मनों ने उसे घेर लिया और तलवार से सिर काट दिया। लोगों का कहना है कि इस सदी के पूर्वाद्ध में, जब स्वाधीनता संग्राम का दौर जारी था, तो किसी ने यक्ष की मूर्ति वहां लाकर रख दी। आस-पास के नियमित दर्शन करने वालों में तरह-तरह के किस्से तो प्रचलित थे ही, किसी ने यह मत भी स्थापित कर दिया कि यह वही बाबा प्रकट हुए हैं, जिनकी दुर्गाजी जाते समय मौत हो गई। फिर क्या था, वहां भजन कीर्तन और पूजा पाठ होने लगा। गजेड़ी गांजा चढ़ाने लगे। लोग मनौतियां उतारने लगे और अब तो वह न जाने कितने हाथों से पूजे जा चुके हैं। उन्हें देव श्रेणी में ही रखना उत्तम है।

जो मांगों मिलेगा
बनारस औघड़ औलिया और फकीर का शहर भी माना जाता है। तुलसी ने रामचरित मानस की रचना की तो संत कबीर गृहस्थ जीवन में रहते हुए महान योगी बने। साधना और तप के बल से यहां लोगों ने एक से एक अलौकिक कृत्य स्थापित किए हैं, जिन्हें हम किवदंतियों और कथा कहानियों के रूप में आज भी सुनते आ रहे हैं। यहां एक बाबा कीना राम हुए हैं, जिनके प्रताप और औघड़ दान की अगणित कथाएं प्रचलित हैं। वह जो कहते थे, वही हो जाता था।
काशी के राजा चेतसिंह के ज़माने में एक दिन बाबा कीनाराम टहलते-टहलते रामनगर पहुंचे तो राजा ने अहंकारवश उन्हें प्रणाम तक नहीं किया। बाबा ने राजा की परीक्षा लेने के लिए कहा-‘बाबा को भूख लगी है।’ राजा ने बाबा पर घृणा भरी दृष्टि से नजर फेरी और अपने एक कर्मचारी की ओर इशारा करते हुए कहा-‘देखो आज दोपहर में एक सड़ी हुई लाश किले के किनारे पड़ी है, उसे डोमड़ों से उठवा कर बाबा को दे दो।’
राजा का विचित्र आदेश सुन कर्मचारी ठिठक गया और हाथ जोड़कर कहा-‘महाराज, बाबा से बैर लेना उचित नहीं।’ पर सरकार बहादुर ने कर्मचारी की एक भी नहीं सुनी और कहा-‘हम राजा वह भिखारी, उसने हमें सलाम क्यों नहीं किया?’ कर्मचारी ने राजा के आदेश का पालन किया। मुर्दा लाकर रख दिया गया। राजा ने कहा-‘बाबा, अब देर काहे, भोग लगाइए।’ बाबा ने अपना सिल्क का दुपट्टा उतार मुर्दे को ढक दिया और पांच मिनट बाद जब उसे खोला गया तो वह पकवान बन गया। किस्म-किस्म की मिठाइयां और भोग का सामान मुर्दे के स्थान पर तैयार था। राजा, बाबा की लीला देखकर थर्र-थर्र कांपने लगे। बाबा ने श्राप दिया, परंतु राजा के गिड़गिड़ाने से वह पसीज गए और क्षमादान प्रदान किया। बाबा कीनाराम का स्थल आज भी शिवाला पर स्थित है और वहां उनके उत्तराधिकारी पदासीन हैं।
जान बची तो लाखों पाए
एक कहावत बनारस की है-जान बची तो लाखों पाए। जान है तो जहान है। दुनिया के दो प्राचीनतम नगर हैं-काशी और यरूशलम। यरूशलम तो आजकल झगड़े का केंद्र बना हुआ है, परन्तु काशी? यह आज भी रक्षा का केंद्र है, किंतु उसकी पुरातन संस्कृति का क्षरण जरूर हो रहा है। शाह आलम का जमाना था। बनारस की इस कहावत के तहत ईरान के बादशाह शेख अली हाजी अपनी जान बचाने के लिए बनारस आए। उन्हें किसी औलिया ने बता दिया था कि आप कल जिस तख्त पर बैठेंगे, उस पर आपकी लाश नजर आएगी। बेहतर होगा कि सूर्य निकलने के पहले आप राज्य की सीमा से बाहर चले जाएं। शेख अली हाजी बनारस चले आए और रहमत अली तख्त पर बैठा। वह अपने साथ काफी धन एवं जवाहरात ले आए थे।
हाजीजी, बनारस के फातामन में ठहरे और एक फीकर बन गए। वह लंगर चलवाते थे। एक दिन सौदा नाम का एक व्यक्ति उनसे मिलने गया। दरवाजे पर बैठे कुत्ते ने भौंकना शुरू कर दिया। सौदा ने हाजीजी के पास पंक्ति लिखकर भेज दी। ‘दरे दरवेश रा दर्बान वायद’। फकीर के दरवाजे पर दरबान की जरूरत इसलिए पड़ती है कि दुनियां के कुत्ते न आ जाएं।
हाजीजी एक मस्त फकीर थे। इराक की आबोहवा में वह पैदा तो अवश्य हुये थे, किंतु उनकी रग-रग में बनारस का पानी बहने लगा था। जहां वह शाह आलम की एक कौड़ी भी इज्जत नहीं करते थे, वहीं महाराज काशी नरेश के लिए एक चांदी का सिंहासन बनवाया था। हाजीजी ने बनारस के ब्राह्मणों के बारे में लिखा है-‘यहां का हर ब्राह्मण चलता हुआ इबादत खाना मालूम पड़ता है, उनमें मुझे राम और लक्ष्मण की सूरत नजर आती है।’
हाजीजी अव्वल दर्जे के फकीर हुए। वह जो कहते वही होता। आज भी उनकी मजार की पूजा होती है। फातमान स्थित बादशाह बाग में उनकी मजार के ऊपर एक नीम का पेड़ है। कहते हैं कि उसकी पत्ती चखने पर मीठी मालूम पड़ती है। नजीर बनारसी ने शेख अली हाजी पर एक पंक्ति लिखी है। आए काशी में हजीं, काशी के होकर रह गए। आबरू इराक की, मेरे नगर में रह गई। हाजीजी इरान में रह गए होते पता नहीं क्या होता, बनारस आ गए तो अमर होकर इतिहास के पन्नों में अंकित हो गए। तभी तो बनारस वाले कहते हैं-जान बची तो लाखों पाए।

किस्से साहित्यकारों के
बनारस के साहित्यकारों की मौज-मस्ती, बेलौस बातचीत और दो टूक मजाक में जो रस था, वह रसगुल्ले की चाशनी में कहां। बिना किसी की पगड़ी उछाले ऐसी-ऐसी बातें कह दी जाती थीं कि ठहाके ही ठहाके लग उठते थे। तब आज की राजनीतिक चेतना का द्वंद्व अकारण ही नहीं था।
महाकवि जयशंकर प्रसाद अपने नारियल बाजार स्थित दुकान पर बैठे दो-चार साहित्यकारों के साथ बातचीत में लीन थे कि इसी बीच एक कटी हुई पतंग आकर गिरी। उनमें से किसी एक ने पतंग उठाकर उन्हें देते हुए कहा ‘लीजिये उड़ाइए।’ प्रसाद जी ने कहा-‘हम उड़ाई हुई नहीं उड़ाते।’
एक बार रामचंद्र शुक्ल इक्के पर सवार दुर्गाकुंड की ओर से आ रहे थे। रास्ते में किसी रईस के यहां काशी बाई का गाना हो रहा था, जो सड़क तक सुनाई पड़ रहा था। शुक्ल जी ने अपने मित्रों से कहा - ‘जिसका बिरहा इतना मीठा है, उसका मिलन कितना सुखद होगा।’
सन् उन्नीस सौ पैंतीस में नागरी प्रचारिणी सभा में एक संगीत सम्मेलन आयोजित किया गया था, जिसमें रामचंद्र वर्मा, रवींद्र नाथ टैगोर सहित बनारस तथा बाहर के बहुत से साहित्यकार उपस्थित थे। पं. सीताराम चतुर्वेदी कार्यक्रम का संचालन कर रहे थे। वह एक-एक कलाकारों का परिचय भी कराते। उन्होंने मुश्ताक अली का परिचय कराते हुए कहा-‘यह बनारस के ही हैं, किन्तु एक लंबे अर्से से कलकत्ता में बस गए हैं।’
इस समारोह में काशी बाई और सिद्धेश्वरी भी उपस्थित थीं। ज्यों ही पं. सीताराम चतुर्वेदी परिचय देकर बैठे, त्यों ही दर्शक दीर्घा में बैठे मुरारी लाल केडिया ने पूछा-‘ये मुश्ताक अली सिद्धेश्वरी के हैं, या काशी के।’ केडिया जी की आवाज सुनते ही एक जोरदार ठहाका गूंजा, क्योंकि सिद्धेश्वरी और काशीपुरा नाम के दो मुहल्ले भी बनारस में हैं। सब तो सब, सिद्धेश्वरी और काशी बाई भी हंस पड़ी थीं।

बात बेढब की
बेढबजी हास्य रस के अवतार थे। उनके चेहरे से शालीनता, गंभीरता टपकती थी, तो वाणी से हास्य एवं व्यंग्य धारा प्रवाहित होती थी। उनकी बातें सुनकर लोग हंस पड़ते थे। किंतु वह नहीं, चश्में के भीतर से उनकी आंखें हंसती रहती थीं। उनकी कही हुई बातें आज भी लोग चुटकुले और किस्से के रूप में सुनते-सुनाते रहते हैं।
बेढबजी ही एकमात्र ऐसे विधायक रहे हैं, जो सदन के पटल पर हास्य एवं व्यंग्य के माध्यम से देश की तस्वीर रखते थे। एक बार लखनऊ विधान परिषद में कोटा परमिट की बात चल रही थी। नोंक-झोंक में उलझे विधायक कुर्सी पीट रहे थे। बेढब जी उठे और बोले- ‘अध्यक्ष महोदय, मेरे साथी ने ठीक ही कहा है। मैंने भी बनारस के कलेक्टर के पास एक बार तोप खरीदने के लिये अर्जी दी थी। मैंने ऐसा इसलिये किया था कि जब एक बोरा चीनी मांगने पर बीस किलो का परमिट मिलता है, तो मैंने सोचा तोप की अर्जी दूंगा तो रिवाल्वर की मंजूरी मिल जाएगी।’
बेढब जी की यह बेढव बात सुनते ही सदन में हंसी के फौव्वारे छूटने लगे।
संपूर्णानंदजी अक्सर सिर हिलाते रहते थे। एक बार वे किसी समारोह की अध्यक्षता कर रहे थे। बेढबजी ने कहा-‘बाबूजी के नाक में प्राणायम करते समय छिपकली घुस गई है और जब वह रेंगती है, तो इनको सिर झटकारना पड़ता है।’
बेढबजी ने अपने गांव जवार के पड़ौसी हरिऔध जी को नहीं छोड़ा। एक बार उन्होंने कह दिया कि ‘मैं भी हरिऔधजी के गांव का रहने वाला हूं। मैं अच्छी तरह से जानता हूं कि प्रिय प्रवास हरिऔधजी का नहीं लिखा हुआ है। प्रिय प्रवास के वास्तविक रचयिता उनके गुरू बाबा सुमेर सिंह हैं’  बेढबजी का यह वाक्य अखबारों और पत्र पत्रिकाओं में छप गया। सबसे आश्चर्य और उल्लेख की बात तो यह है कि दो-तीन समीक्षकों ने अपनी-अपनी पुस्तकों में बेढबजी की इस मजाक को सच मानकर उल्लेख कर दिया।
एक बार बनारस के प्रमुख दैनिक समाचार पत्र के संवाददाता बेढबजी से मिलने गए। बेढबजी ने कहा- ‘आज का सबसे बढि़या समाचार यह है कि दो सांड़ लड़ते-लड़ते माधोराज के धरहारा पर चढ़ गए और एक ने दूसरे का पीछा तब तक नहीं छोड़ा, जब तक कि उसने हुरपेंट कर दूसरे को नीचे धकेल नहीं दिया।’ संवाददाता ने यह समाचार अपने पत्र में छाप दिया। पुलिस के अधिकारी इस समाचार से अत्यंत चिंतित हुए क्योंकि दोनों साड़ों का नाम दो संप्रदायों पर रखा गया था। समाचार निराधार निकला और संवाददाता को डांट सुननी पड़ी।

गप्प गोष्ठी
आकाशवाणी के इलाहाबाद केंद्र से एक बार गप्प गोष्ठी का आयोजन किया गया। इस आयोजन में अमृतलाल नागर, भगवतीचरण वर्मा, विजय देव नारायण शाही, भैया जी बनारसी और बेढब बनारसी आदि ने भाग लिया था। किसी ने चंद्रलोक की सैर का किस्सा सुनाया तो किसी ने इधर-उधर की हांक दी।
बेढबजी की बारी आई तो उन्होंने कहा-‘मैं एक बार कानपुर गया था। वहां पर एक जूता बनाने वाली कंपनी के मैनेजर ने आधुनिक यंत्रों से सुसज्जित कारखाना दिखाया। उसने दिखाया कि एक ओर से भेड़ बकरी का झुंड मशीन में चला जा रहा है और दूसरी ओर से जूते-चप्पल बनकर तैयार निकलते चले आ रहे हैं। संयोग से उसने स्टार्टर का बटन उल्टा घुमा दिया तो देखा एक ओर से जूते चप्पल फिर से मशीन में जाने लगे और दूसरी ओर से भेड़ बकरियों का झुंड बाहर निकलने लगा था।’
सच कहता हूं, इसे गप्प नहीं मानिएगा, बनारस अपने आप में एक अंर्तराष्ट्रीय नगर है। इस शहर में हर देश, हर कौम और हर मजहब के लोग रहते हैं। हर सौ पचास कदम पर एक गली मुड़ती है। गलियों के इस शहर में हर गली की अपनी एक अलग भाषा है। पंडे-दलालों और व्यापारियों की भाषा को समझना तो हर बनारसी के लिये संभव भी नहीं। तभी तो कहा गया ‘ठग जाने ठगी की भाषा’ परन्तु मौजमस्ती की समूचे बनारस वालों की एक भाषा है, एक संस्कृति है, एक चाल-ढाल है। गप्प लड़ाना यहां के लोगों की संस्कृति है, यह सच है। यहां मेले तमाशे में जब एक रेवड़ी बेचने वाला चिल्लाता है कि-‘ले लो बैजूसाब की गुलाबी रेवड़ी, तो दूसरा कहता है कि यह बैजूसाब के बाप की गुलाबी रेवड़ी यहां गंगा पार भुंटा भूना जाता है, तो इस पार तक सुगंध आती है। लोग तीतर-बटेर और बुलबुल उड़ाने में रुपया पानी की तरह बहा देते हैं। एक भंग का गोला छानकर लोग चंद्रलोक की सैर कर जाते हैं।’
बनारस की महिमा का वर्णन कोई खेल नहीं, तभी तो कहा गया है - रांड़, सांड़, सोढ़ी संन्यासी, इनसे बचे तो से वै काशी। इन पंक्तियों का अर्थ तो सरल समझ में आता है। परन्तु गहराई में इसका अर्थ अत्यंत जटिल एवं गूढ़ है। इस गप्प संबंधी लेख का सच तो इन पंक्तियों में से है। 

चना चबैना, गंगाजल जो पुरवै कर तार
काशी कबहूं न छोडि़ये विश्वनाथ दरबार।
  कमल नयन 
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सुबह-ए- बनारस

उपर्युक्त शीर्षक में काशी और वाराणसी के साथ बनारस नाम को जोड़ने का आशय नगर के आधुनिक सन्दर्भ को परिलक्षित कराना है। क्या ‘बनारस’ काशी और वाराणसी के नामगत विशेषता से कुछ या किसी रूप में आन्वित होता है या नहीं? यही होता है तो किस रूप में उसकी सार्थकता निरूपित की जा सकती है यद्यपि यह स्पष्टतः ज्ञात है कि वाराणसी का ही भाषान्तर बनारस है जो सम्भवतः अंग्रेजों द्वारा अपने शासन काल में बेनारसे से पुनः उच्चारण सौकर्य से बनारस के रूप में प्रसिद्ध हुआ है, किन्तु इस नाम में ‘वाराणसी’ की नामगत विशेषता का बोध नहीं होता बल्कि जिसमें रस-मौज-मस्ती-जोश ताजा मिज़ाज हमेशा बना रहे, कभी कम न हो-इस अर्थ में ‘बनारस’ नाम की अन्विति या व्यवहार होता है। यहाँ के लोगों की प्रकृति (स्वभाव) का बोधक विशेषता ‘बनारस’ नाम है। अपने मूल शब्द (वाराणसी) के अर्थ से बिल्कुल अलग-थलग। रस शब्द अनेकार्थक है-मौज-मस्ती, खुशी के साथ यहाँ के पान, भाँग, ठँडई आदि भी रस से जुड़े हैं। बनारसवाला पान, बनारस की ठंडई और बनारस का लँगड़ा आम ये सब ‘बनारस’ इस नाम को चरितार्थ करते हैं। इस अनेक कारणों से यहाँ का ‘रस’ हमेशा बना रहता है। दुनिया बदल रही है तो बदले, बनारसी लोग अपने ‘रस’ में ही बने रहते हैं- कल आज और आगे भी बने रहेंगे अपने रस में अपनी मस्ती के वश में। सांख्यदर्शन में “मूलप्रकृतिरविकृतिः” कहा गया है। अर्थात् मूल-प्रधान (सहजात) प्रकृति में कोई विकृति परिवर्तन नहीं होता-यह वाक्य यद्यपि उक्त दर्शन में संसार के निर्माण सम्बन्धित प्रकृति के विषय में कहा गया है, किन्तु यह पूर्णतः बनारसी प्रकृति के विषय में अर्थसंगत है। आज भी खांटी बनारसी लोगों का स्वभाव यथावत् है-प्रतिदिवस परिवर्तनशील सामाजिक परिस्थिति में भी। यहाँ के रचनाकारों ने भी इस बनारसी मूल प्रकृति का विस्तार से वर्णन किया है-जो उपर्युक्त दार्शनिक वाक्यार्थ से सार्थ समन्वित होता है। ‘सुबह-ए-बनारस’ यह उक्ति केवल ‘बनारस’नाम से ही जुड़कर उपर्युक्त अर्थ की संगति को सम्पुष्ट करती है। इस नगर के अनेक नामों में से किसी एक नाम में भी यहाँ के ‘सुबह’ का ऐतिहासिक, पौराणिक या धार्मिक सम्बन्ध नहीं मिलता केवल बनारस से ही इसका खास सम्बन्ध है और प्रसिद्धि है। अतः ‘सुबह-ए बनारस’ भी यहाँ के रस के हमेशा बने रहने की ज्वलन्त उदाहरणात्मक मौद्रिक वाक्योक्ति है। दुनिया में दूर-दूर तक और गाँव-गिरांव जन-जन में सब जगह ‘बनारस’ की मूल प्राकृतिक विशेषता का विविध रूपों में आख्यान, बखान है। उन सबकी चर्चा करना सम्भव नहीं केवल संकेत मात्र ही पर्याप्त है-इतने से ही विद्वान ‘बनारस’ को जानते हैं, जान लेंगे। ‘सदा बनारस रसभरा बान बानगी देख। एक बान एक तान है- एक शान एक टेक।।’-बनारस के विषय में मेरे बचपन में सुना हुआ यह ‘दोहा’ उसकी यथास्थिति मूल प्रकृति का पूर्ण प्रमाण है।

लेख के शीर्षक में काशी-वाराणसी-बनारस यह क्रम है किन्तु प्रतिक्रम से पहले ‘बनारस’ पर ही विमर्श प्रस्तुत कर दिया है- यह सहज ही हो गया, भूल से नहीं संज्ञान से ऐसा किया गया है। तीनों नामों में दो सजातीय संस्कृत के नाम है-काशी-वाराणसी है। ‘बनारस’ भाषान्तरीय विजातीय है और आधुनिकता से विशेष सन्दर्भित है-इसलिये उस पर विमर्श के पश्चात् अब काशी-वाराणसी इन दोनों नामों की शास्त्र संगति एवं अर्थ संगति पर विमर्श अपेक्षित है। इनमें भी प्रतिक्रम से ‘वाराणसी’ शब्द के नाम वैशिष्टय का निरूपण किया जा रहा है। मेरी दृष्टि ‘वाराणसी’ नाम पुराणकालीन प्रतीत होता है- वारणा (वरुणा) और असी के संयोग (सन्धि) से वाराणसी निष्पन्न है-यह तो सुविदित ही है। इन दोनों शब्दों से बना हुआ वाराणसी वरुणा नदी और असी नदी क्षेत्र के अन्तराल का बोधक है-इसी को वाराणसी कहा गया है-शेष क्षेत्रों को वाराणसी का बाह्य क्षेत्र माना गया-यह वस्तुत लोग प्रसिद्धि (जनश्रुति) है, शास्त्र प्रसिद्धि इसमें प्रमाण नहीं है। इन दोनों शब्दों में ‘गंगा’ असम्बद्ध हैं अर्थात् गंगा का क्षेत्र भी शब्दद्वय परिभाषित वाराणसी का बाह्य क्षेत्र है। कुछ लोग ‘असी’ शब्द से ‘गंगा’ को जोड़ लेना मानते हैं जो युक्ति संगत नहीं है, ‘असी’ नगर एक क्षेत्र (भाग) है जिसके नाम से गंगा का घाट प्रसिद्ध है, ‘घाट’ का संकेत ‘असी’ शब्द से मान लेने पर भी वह सम्पूर्ण गंगा का बोधक नहीं हो सकता। तो क्या गंगा को वाराणसी क्षेत्र से बाह्य मानकर ‘वाराणसी’ की परिभाषा अर्थसंगत हो सकती है? यहाँ के सुधीजनों के लिये विचारणीय विषय है। मेरे विचार से उक्त दोनों शब्दों की संधि से बना वाराणसी शब्द क्षेत्र की सीमा में आबद्ध नहीं है प्रत्युत् सम्पूर्ण नगर का एक नाम है जिसमें वरुणा नदी और नदी (प्रायः लुप्त) दोनो क्षेत्र स्थित है। अन्यथा गंगा को वाराणसी से बाह्य मानने पर जो परिभाषा के स्थूल अर्थ द्वारा ज्ञात होता है, वाराणसी का तीर्थ रूप, धार्मिक रूप और व्यक्ति विशेष से अनेक नगरों और देशों का नामकरण किया जाता है-यह परम्परा है-ऐसा ही वाराणसी के विषय में समझना चाहिये।


बौद्ध ग्रन्थों में विशेषकर जातक कथाओं में वाराणसी का शतशः उल्लेख मिलता है। सारनाथ में भगवान् बुद्ध के द्वारा जो अपने चार शिष्यों को प्रथम देशना (उपदेश) देने का उल्लेख है वह भी वाराणसी के अन्तर्गत उल्लिखित है। यद्यपि उक्त ग्रन्थों में काशी की भी चर्चा है किन्तु विरलतर, वाराणसी बहुल रूप से चर्चित है- इसमंऔ वरूणा और असी की सीमाबद्धता का निषेध सिद्धि होता है क्योंकि परिभाषा के अनुसार सारनाथ वाराणसी के अन्तर्गत नहीं माना जायेगा। पुराणों में काव्यों में एवं स्मृतियों दर्शनों में भी वाराणसी का बहुशः उल्लेख पाया जाता है। परन्तु यह नाम प्राचीन होकर भी इस नगरी की सनातनता का बोधक नहीं है- ऐसा इसकी नामव्युत्पत्ति और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की समीक्षा करने से प्रमाणित होती है। वाल्मीकि, व्यास, भास, कालिदास आदि प्राचीनतम महाकवियों के काव्यों में काशी की चर्चा बहुलतर है। बाद के श्रीहर्ष, भारवि, जयदेवादि के काव्यों में वाराणसी का वर्णन प्राप्त होता है। महाकवि श्रीहर्ष ने तो अपने नैषधीय महाकाव्य में वाराणसी वसुन्धरा में नहीं अपितु स्वर्ग में अवस्थित मुक्तिदायी नगरी है- इस माहात्म्य का वर्णन किया है। श्रीहर्ष ने इसी काव्य-प्रमाण के द्वारा प्रयाग में एक उत्सव में आयोजित वादप्रसंग में (शास्त्रार्थ में) तीर्थराज के रूप में वाराणसी से श्रेष्ठ प्रयाग को सिद्ध करने वाले विद्वान् के कथन का खण्डन वाराणसी के एक विद्वान् ने किया था जिसका सभी ने अनुमोदन किया था प्रसंगत वह चर्चा यहाँ करनी आवश्यक है। प्रयागवासी विद्वान् ने अपना पक्ष प्रस्तुत करते हुए कहा था कि- “तीर्थेषु श्रेष्ठता बिभ्रतीर्थराजो विशिष्टयते” अर्थात् तीर्थों में श्रेष्ठता को वहन करने वाला तीर्थराज प्रयाग विशिष्ट है- इस पौराणिक उक्ति प्रमाण से तीर्थराज प्रयाग वाराणसी तीर्थ की अपेक्षा श्रेष्ठ है- वाराणसी केवल तीर्थ है प्रयाग तीर्थराज है, सभी तार्थों का राजा……..।

प्रयागवासी विद्वान् का यह प्रश्न वस्तुतः युक्तिसंगत था और वाराणसी के विद्वानों को तात्कालिक रूप से अनुत्तरित करने के लिये पर्याप्त था। किन्तु कुछ समय बाद काव्यशास्त्र के मर्मज्ञ-वाराणसी वासी एक विद्वान् ने महाकवि श्रीहर्ष के नैषधमहाकाव्य के पद्य को उद्वृत करके उक्त प्रश्न का बड़ा ही उपयुक्त समाधान किया, वह पद्य उल्लेखनीय है-
वाराणसी निविशते न वसुन्धरायां
तत्र स्थितिर्मुखीभुजा भुवने निवासः।
तत्तीर्थमुक्त वपुशामत एव मुक्तिः,
स्वर्गात्परं पदमुदेतु मुदे तु कीदृक्।।

वाराणसी वसुन्धरा में निविष्ट (स्थित) नहीं है, प्रत्युत् वहाँ (वाराणसी में) स्थित होना देवताओं के लोग (स्वर्ग) में निवास करना है। इसलिये ही वाराणसी (स्वर्गपुरी तीर्थ में) शरीर छोड़ने वालों की मुक्ति हो जाती अर्थात् पुनः उनका संसार में आगमन नहीं होता। स्वर्ग से बढ़कर कौन पद (स्थान) आनन्द के लिए हो सकता-स्वर्ग प्राप्ति ही परमानन्द (मुक्ति) है।

इस पद्य से प्रयागवासी विद्वान् के प्रश्न का यथार्थ समाधान इस प्रकार हो जाता है कि-वाराणसी स्वर्गपुरी है- स्वर्गलोकस्थ तीर्थ है प्रयाग मृत्युलोक में तीर्थराज है, अतः यहाँ (मृत्युलोक के) तीर्थों में श्रेष्ठ है, वाराणसी की अपेक्षा प्रयाग की श्रेष्ठता सिद्ध नहीं होती। इस समाधान का सभी ने करतल ध्वनि से अनुमोदन किया और प्रयागवासी विद्वान् तथा वहाँ की जनता को भी मानना पड़ा। इस प्रकार वाराणसी प्राचीन-अधुनातन उभयनिष्ठ वैशिष्टय और महत्व से ओत-प्रोत इस नगरी की नाम गरिमा को धारण करती है।

अन्त में इस नगरी के ‘काशी’ नाम के महत्त्व पर विचार, महार्ह एवं मननीय है। मेरी दृष्टि से इस नगरी की सनातन अस्मिता, मुक्तिदायिनी अर्हता और शंकर की त्रिशूल-स्थितिशीलता तथा मंगल के रूप में मरण (मृत्यु) की मान्यता इत्यादि इसी काशी-नाम के महत्त्व से सन्दर्भित होता है। इस नगरी के अन्य नाम जैसे-आनन्दकानन, मुक्तिपुरी, शिवपुरी, मर्णिकर्णी इत्यादि गुणवत्ता तथा विशेषतामूलक हैं। इन सभी नामों का साक्षात् सम्बन्ध काशी के सन्दर्भ से गतार्थ होता है। वस्तुतः यह नाम श्रुतिकालीन है। “काश्यां मरणान्मुक्तिः” यह श्रुति वचन है। “ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः” यह अनुपूरक श्रुतिवचन है। इन दोनों श्रौत वाक्यों पर काशी में एवं काशी के बाहर भी विद्वान्ों के बीच परस्पर बहुधा विचार-विमर्श होता रहा है। काशी में मरणमात्र से मुक्ति होती है या ज्ञान प्राप्ति करके काशी में मरण से मुक्ति होती है- इन दोनों पक्षों पर विद्वानों ने गहनतम शास्त्र-सम्मत विचार किया है। दोनों पक्षों में युक्तियाँ और शास्त्र प्रमाण दिये जाते हैं। उभय पक्ष यथार्थ यथोचित और शास्त्रभिमत है। इस पर विस्तृत विचार करना यहाँ सम्भव नहीं है। काशी नाम का निहितार्थ और गूढ़ाशय-मुक्ति-ज्ञान-ध्यान-साधना तथा सिद्धि इन पाँचों शब्दार्थों से समन्वित है। काशते-प्रकाशते या सा काशी, अर्थात् जो काशित प्रकाशित है वह काशी है-इससे उक्त पाँचों मुक्ति-ज्ञान-ध्यान साधना और सिद्धि का प्राकश अभिप्रेत है। ‘काशी खण्ड’ एवं अन्य स्मृति पुराणादि ग्रंथी में भी काशी-अर्थात् स्वतः प्रकाशमान-मुक्ति ज्ञान ध्यान साधना सिद्धि स्वरूपा-काभूरिशः वर्णन प्राप्त होता है। अनेक उक्तियों शास्त्रयुक्तियों एवं सिद्ध साधकमनीषि व्यक्तियों ने काशी के अनन्त माहात्म्य का निरूपण किया है। ‘मरण मंगलं यत्र सा कशी सेव्यते न कैः’, “काशी मुक्ति प्रदायिनी”, “आनन्दकाननं नाम काशी लोकातिशायिनी” “काशीयं साधनभूमिः” “काशी सिद्धिसमेधिनी” “काश्यां ज्ञानं च मुक्तिश्च युगपत् प्रतिपद्यते” इत्यादि काशी के स्वरूप महत्त्व के प्रख्यापक असंख्य प्राक्तन उदाहरण उपलब्ध होते हैं- जिनसे ‘काशी’ नाम के सनातन-संज्ञान की प्रमाणिकता सिद्ध होती है। लोकोक्ति में भी काशी का महत्त्व अपने निराले अन्दाज में दिखाया गया है-

चना चबैना गंगजल जो पुरवै करतार। 
काशी कबहुँ न छोड़िये विश्वनाथ दरबार।।”
सर्वा विद्याः कला सर्वा साधनाः सिद्धयस्तथा।
काश्यामेव प्रकाशन्ते वैराग्यज्ञानमुक्तयः।।
‘काशी, वाराणसी और बनारस’ शीर्षकीय इन तीन नामों से यह विचारात्मक लघु लेख इस नगरी की गरिमा के सन्दर्भ में कुछ संदर्भ में कुछ नवीन बिन्दुओं को उन्मीलित करता है जिस पर विचारक विद्वज्जन चिन्तन कर अपने आशय को व्यक्त कर सकते हैं। उपसंहार के रूप में काशी नाम से इस नगरी के ज्ञान भक्ति धर्म दर्शन साधना सिद्धि आदि स्वरूप का तथा वाराणसी नाम से संगीत कलासंस्कृति शिष्टता शालीनता आदि सम्भाव का एवं बनारस से आधुनिकता सहजता विलक्षण स्वभावशील इत्यादि गुण वैशिष्टय का सम्बन्ध प्रस्फुटित होता है। अन्त में यदि कहें तो यही कह सकते हैं कि काशी काशी है, वाराणसी वाराणसी है और बनारस है-एकदम अनन्वय अतुलनीय एवं अनाकलनीय/वस्तुतः काशी मुक्ति, वाराणसी-मुक्ति और बनारस-पुष्टि का निदर्शन है तथा यही इस त्रिलोक न्यारी नगरी का दर्शन है-इत्यलं विस्तरेण।


मंदिरों का शहर कहा जाने वाला बनारस अपनी खूबसूरती के लिए और लाइफस्टाइल के लिए जाना जाता है। बनारस की सुबह और शाम अलग छटा बिखेरती है। बनारस की कुछ खूबसूरत तस्वीरों के जरिए पेश सुबह ए बनारस...

साभार : गूगल




























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बनारस शिव से कभी मुक्त नही, जब से आये कैलाश न गये। बनारसी की मस्ती को लिखा नही जा सकता अनुभव होता है। अद्भूद है ये शहर जिन्दगी जीनेका तरीका कुछ ठहरा हुआ है पर सुख ठहराव में है द्रुतविलंबित में नही. मध्यम में है इसको जीनेवाला है यह नगर। नटराज यहां विश्वेश्वर के रुप में विराजते है इसलिये श्मशान पर भी मस्ती का आलम है। जनजन् शंकरवत् है। इस का अनुभव ही आनन्द है ये जान कर जीना बनारस का जीना है जीवन रस को बना के जीना है।
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काल हर !! कष्ट हर !! दुख हर !! दरिद्र हर !! हर हर महादेव !! ॐ नमः शिवाय.. वाह बनारस वाह !!