काशी
कहें
या बनारस दोनों का अर्थ एक ही है। काशी से धर्म और आध्यात्म का बोध होता
है और बनारस से यहां की संस्कृति जनजीवन और मौज मस्ती का। भौतिक सुख की
अंधी बेला में, बनारस का बना हुआ रस तो चौपट हो गया, अब स्मृतियां ही शेष
हैं। यह बनारस ही है, जहां गंगा की धारा उलट गई, आम लंगड़ा हो गया, बात
बतरस में बदलकर किस्से और कहावत में बदल गई।
धर्म, ज्ञान और मोक्ष की नगरी में गप्प सच बन गया, सच गप्प
बन गया। सच क्या है, गप्प क्या है - इसका फैसला पाठकवृंद स्वयं कर लें।
यह मेरे लिये और भी मुश्किल है क्योंकि जब मैं देखता हूं कि यहां कहने
वाला और सुनने वाला दोनों एक दूसरे को गुरू का संबोधन करते हैं तो फिर यह
फैसला करना बड़ा मुश्किल है कि इसमें गुरू कौन है और चेला कौन है।
जिस तरह से बनारस का पान, मान, भांग, मिठाई, साड़ी, आम जगत विख्यात है,
उसी तरह यहां की गप्पबाजी भी सारे जहां में प्रसिद्ध है। बनारस के गप्प
में जो मजा है, वह सारे जहां के सच में नहीं है।
बनारस के पुराने रईसों के संदर्भ में डा. रायकृष्ण दास से
बातचीत चल रही थी। मैंने कहा- एक किस्सा प्रचलित है। फक्कड़
साह के जमाने में नौकर से एक झाड़-फड़नूस गिर गया। टूटकर गिरने से
उसकी अजीबोगरीब मनमोहक तरंग की आवाज सुन फक्कड़ साह ने नौकर को बुलाया और
पूछा यह कैसी आवाज थी? वह डर गया, किंतु कोई जवाब देता इसके पहले उनकी
फरमाईश हो गई कि ठीक है - नुकसान के लिये डरों नहीं, उन मोहक तरंगों को
फिर से पैदा करो! नौकर ने एक-एक कर शेष पांच झाड़ फड़नूसों को झाड़-झाड़ कर
गिरा दिया और तरंगित तरंगों को सुन फक्कड़ साह नौकर पर खुश हुए और एक
अशरफी इनाम में दी। इस किस्से को सुन रायकृष्ण दास मुस्करा उठे थे।
उन्होंने कहा-बनारस के गप्प में जो रस है, वह अकबर बीरबल के किस्सों में
नहीं है।
बनारस का आदमी मुंह में पान घुलाये किसी पान की दुकान पर,
घाट किनारे या किसी के बैठक खाने में जब ठेठ बनारसी बोली में धारा प्रवाह
मुखरित होता है तो उसकी वाणी से कई बार साहित्य के नौ रस टप-टप टपकने
लगते हैं। न जाने कौन सी बात है कि बनारस के ही आदमी के मुख से ऐसी बातें
सुनने में अच्छी लगती हैं, वह भी ऐसे आदमी के मुख से और अच्छी लगती हैं,
जो सुबह शाम भांग छानता हो, भयंकर शीत नहली में भी सुबह शाम गंगा की
निर्मल धारा में डुबकी लगाता हो।
लेख का शुभारंभ करने के पूर्व मेरी इच्छा हुई कि मैं किसी
ऐसे ही गहरेबाज का साक्षात्कार करूं। जाड़े की शीत लहरी में सायंकाल के
छः बज रहे थे। गंगा पार की रेत, डूबते सूरज के अंधेरे में डूबती जा रही थी।
सिंधिया घाट पर एक साठा से मुलाकात हुई जो साठा में पाठा लग रहा था।
एक-एक फूट के लंबे-लंबे सफेद बाल और दाढ़ी मूंछों पर बनारस की मस्ती
विद्यमान थी। उसने ज्योंहि कसरत बंद किया मैंने कहा-‘गुरू ई ठिठुरन में भी
तोहार साधना अमर हौ।’ मेरा इतना कहना था कि गुरू शुरू हो गये और उनकी
लच्छेदार बातों का रस लूटने के लिये भीड़ एकत्र हो गई। गुरू की तेज तर्रार
आवाजें और शायरी को सुन, तीन-चार सैलानियों की नावें भी घाट किनारे लग
गईं।
गुरू ने कहा-‘नयका जमाना के नयकी रोशनी में तो सब कुछ
हेराय गयल हव, इतो हमारे निभउले क बात हव कि हर मौसम में भांग छान के गोता
लगाइला अउर साठ बरस के उमिर में भी दंड बैठक लगा के चंगा रहीला। हम उ
जमाना भी देखले, हई जब गंगा पार से कोई गावे ‘कोयल तोरी बोलिया से जिया से
संइयां उठ भागे हो रामा तब रोवां-रोवां फहर उठत रहल। अब त फिल्मी गाना का
जमाना हव, जौने में डूब के नईकी पीढ़ी बार्बाद होत हव। पहले के लोग त
हजार-बारह सौ गायत्री जप करत रहलन। ओन के शरीर में बल और चेहरे पर तेज रहत
रहल एहि घटवा पर जब ऊ लोग कपड़ा कछार के आसमान के तरफ फेकत रहलन तब
सूखत-सूखत नीचे गिरत रहल। का-का हम बताई-डालडा घी क लोगन दिया भी नाही
जलावत रहलन। देसी घी कनस्तर में से निकाले में कलछुल टेढ़ा हो जात रहल।
बारह आना का मुरली मनोहर धोती अउर बीस आना का जयपुरिया डुपट्टा ओढ़ के जे
चले ओके लोग टुकटुकी लगा के देखत रहलन। अब तो इसब गप लगला सच त इ हव क
डालडा घी राशन कार्ड पर बेटे लगल।
एक पौराणिक कथा : विश्व की प्राचीनतम नगरी काशी का महत्व पौराणिक काल में
भी रहा है। शिव पुराण में वर्णित एक कथा के अनुसार, शिवजी से काशी बिना
नहीं रहा गया। शिवजी ने चौंसठ योगिनियों को भेजा तो वह काशी में आकर ही रह
गईं। भगवान शंकर चिंतित हुए और उन्होंने सूर्य नारायन को योगिनियों का
समाचार लेने भेजा तो वह भी बारह शरीर धारण कर यहां के हो गए। तत्पश्चात
गणपति विष्णु स्वयं आए और ब्राह्मण का रूप धारण कर राजा दिवोदास को ज्ञान
का उपदेश दिया।
इस भौतिक युग में भी काशी का ठाट-बाट निराला है और जन-जन
की बोली से जो रस टपकता है, उससे लगता है कि यहां के जनजीवन पर काशी के
घाटों, मंदिरों और वेद मंत्रों के उच्चारण का सदाबहार प्रभाव है। कहते हैं
कि चौसठ योगिनियों, बारह सूर्य, छप्पन विनायक, आठ भैरव, नौ दुर्गा,
बयालीस शिवलिंग, नौ गौरी, महारूद्र, चौदह ज्योर्तिलिंग, काशी में ही हैं।
अतः महाज्ञानी जब तक काशी में अपने ज्ञान की परीक्षा नहीं देता, तब तक
उसका ज्ञान अधूरा रहता है। भगवान बुद्ध, शंकराचार्य, रामानुजाचार्या, गुरू
नानक, गुरू रामदास, क्राइस्ट आदि ने यहां आकर अपने-अपने मतों का प्रचार
किया और कबीर तुलसी जैसे संतों ने दुर्लभ साहित्य की रचना की। पुराण और
महाभारत के रचयिता व्यासजी को काशी में मां अन्नपूर्णा के कोप का भाजन
बनना पड़ा। पौराणिक काल में व्यासजी अपने विद्यार्थियों के साथ काशी वास
की इच्छा से यहां आए। मां अन्नपूर्णा ने परीक्षा ली। तीन दिन तक उन्हें
भिक्षा नहीं मिली तो वह भूख से पीडि़त होकर क्षुब्ध हो गए और श्राप दे
दिया कि काशी में वास करने वाले तीन पीढ़ी तक विद्या, धन और मोक्षहीन
होंगे। अन्नपूर्णा, व्यासजी के अहंकारपूर्ण श्राप से अत्यंत क्रोधित हुईं
और उन्हें नगर से बाहर चले जाने की आज्ञा दी। व्यासजी का अहंकार नष्ट हो
गया। उन्होंने मां अन्नपूर्णा से क्षमा मांगी। गंगा पार बसने और पर्वों के
समय काशी नगरी में आने का आदेश मां अन्नपूर्णा ने उन्हें दिया। व्यासजी
का प्राचीन मंदिर यहां राम नगर में व्यासपुरा में है।
काशी करवट : काशी में जाकर पूजा-पाठ, स्नान-ध्यान और पुण्य
करने पर परीक्षा के लिए तीर्थ-यात्री काशी करवत के मंदिर तक जाता था, जहां
पर शिवलिंग के ऊपर एक आरा रहता था। कहते हैं, आरा के नीचे यात्री अपना
सिर झुका देता था। आरा जिस सिर को स्पर्श करता था, उसकी काशी यात्रा सफल
मानी जाती थी, अन्यथा यह माना जाता था कि अभी उसके किये हुये कर्म का पाप
शेष है। काशी करवत का प्राचीन मंदिर पहले सिंधिया घाट के निकट दत्तात्रेय
मंदिर के पास था, परंतु अब ज्ञानवापी के निकट एक मकान के सूखे कूप में
नया शिवलिंग मंदिर है। नीचे जाने के लिये एक ओर से सीढ़ी गई है, जिसमें
ताला बंद रहता है। जानकारों का कहना है कि पौराणिक महत्व की मीमांसा करते
हुए पण्डा भोले-भाले यात्रियों को कूप में ले जाकर मनगढ़ंत किस्से सुनाकर,
डरा धमकाकर ठग लेते थे, जिससे पुलिस सतर्क हो गई और वह ताले की ताली अपने
कब्जे में रखने लगी थी। प्रत्येक सोमवार को सफाई के लिए थाने से ताली
मंगाई जाती थी।
किसी दूसरे शहर में कोई घटना घट जाती है तो उसके प्रचारित
होने में समय लगता है, किन्तु बनारस एक ऐसा शहर है, जहां आदि काल से आज तक
कौआ कान लेकर उडता है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है- दो सांड़ों के लड़ जाने
पर बलबे का हो जाना।
विदेशी शासकों
को भी बनारस वालों की मौज मस्ती का सहज अंदाज था। उन्हें मालूम
था कि बनारसी गप्प लड़ाने और बात को फैलाने के मामले में अव्वल
दर्जे के हैं, इसलिए यहां के बलवा हड़ताल और विद्रोह को देखते
हुए महारानी विक्टोरिया का एक नवंबर सन् अट्ठारह सौ अठवन को जो
आदेश सुनाया गया, उनमें बहुत सी बातों के साथ इन तथ्य का भी
स्पष्ट उल्लेख था कि जिन लोगों ने खूनियों और मुखियों को अपने
यहां आश्रय दिया है, उनके प्राण की रक्षा नहीं की जायेगी,
किंतु झूंठी खबरें फैलाने वालों के अपराध पर कुछ रियायत की जाएगी।
बनारस वालों का कान कौआ किस तरह से लेकर उड़ता रहा है, उस
संदर्भ में पंद्रह अप्रैल सन् अठारह सौ इक्यानबे की एक घटना सुनिए- दिन
में ग्यारह बजे एक व्यक्ति चौक में खड़ा होकर चिल्लाया कि भदैनी मुहल्ले
में जलकल बैठाने के लिए राम जी का मंदिर खोदा जा रहा है। बस फिर क्या था।
दुकानें बंद होने लगीं और देखते ही देखते समूचा शहर भदैनी के मैदान में
एकत्र हो गया। जलकल के इंजन, पीपे, आदि तोड़ दिये गए। इस घटना को राम हल्ला
के नाम से जाना जाता है।
बात का हौआ खड़ा कर बनारस के लोगों ने सत्रह अगस्त सन्
सत्रह सौ इक्यासी को वारेन हेस्टिंग्स और उसकी फौज को भगा दिया। वारेन
हेस्टिंग्स काशीराम चेतसिंह से पचास लाख रुपया बतौर जुर्माना वसूल करना
चाहता था। राजा चेतसिंह के हर अनुरोध को उसने ठुकरा दिया और बनारस आकर कबीर
चौरा स्थित एक मकान में जो माधोदास के नाम से जाना जाता है, आकर ठहर गया।
शहर में राजा साहब के गिरफ्तार होने की बात फैली। किसी बनारसी ने तुकबंदी
गढ़कर प्रचारित किया तो हर आदमी की जुबान पर एक ही बात सुनाई पड़ने लगी।
घोड़े पे हौदा, हाथी पे जीन।
डर कर भाग वारेन हेस्टिन॥
घोड़े पर हौदा सौर हाथी पे जीन की बात अंग्रेजों
को रहस्यमय प्रतीत हुई। वे इसका अर्थ नहीं समझ सके और यह सोचकर कि भागने
में ही कल्याण है, रातों-रात वारेन हेस्टिंग्स साढ़े चार सौ फौजी साथियों
को लेकर, अपने दलाल बेनी राम की सहायता से भागा और चुनार के किले में जाकर
शरण ली। जो फौजी सिपाही और अधिकारी मारे गए, उन्हें चेतगंज और भदैनी
मुहल्ले में दफना दिया गया।
इतिहास के पृष्ठों पर ही अंकित एक दूसरा किस्सा गौरइया
शाही का है, जो बिना किसी के उकसाए बात-बात में घटित हो गया। सन् 1852 में
बनारस के कुछ गप्पियों ने हॉक दी कि जेल में कैदियों को बलपूर्वक
गोमांस खाने के लिये बाध्य किया जा रहा है। बनारस में भौंसला घाट, नाटी
इमली और बैजनत्था में नागरिकों की एक सभा में उत्तेजना फैल गई। कलेक्टर की
गाड़ी रोककर भीड़ ने मिट्टी के गौरइया (तंबाकू पीने का पात्र) से प्रहार
किया। बैजनत्था की सभा में पुलिस ने घेरे बंदी कर तीन सौ व्यक्तियों को
गिरफ्तार किया। इस घटना को गौरइया शाही के नाम से पुकारा जाने लगा।
टूटा हाथी नौ लाख का :सन् 1797 अवध के नवाब आसफुद्दौला की मृत्यु के बाद, वजीर अली
गद्दी पर बैठा, किन्तु तुरंत ही उसे हटा दिया गया। सहादत अली खां बनारस से
जाकर 17 जनवरी सन् 1798 को नवाब की गद्दी पर बैठ गए। वजीर अली को बनारस
में रहने की आज्ञा मिली। बनारस के माधोदास के बाग में वह डेढ़ लाख रुपये
वार्षिक पेंशन पर रहने लगा। अवध की राजगद्दी से हटाए जाने का प्रतिशोध
उसके मन में था, जिससे वह तरह-तरह के षड़यंत्र रचता ही रहता था। परिणाम
स्वरूप, वजीर अली को बनारस छोड़कर कलकत्ता रहने का फरमान मिला। वह 14
जनवरी सन् 1799 को अपने 200 हथियार बंद साथियों के साथ बनारस के रेजिडेंट
मिस्टर जीएफ चेरी से मिलने गया और उनके सहित कई अंग्रेजों को मार डाला।
अंग्रेज सैनिकों की छावनी में घूम-घूमकर वजीर अली उन्हें मारकाट, लूटपाट
करता हुआ बटोल के जंगल से होता हुआ जयपुर पहुंचा, जहां उसे गिरफ्तार कर
लिया गया। वजीर अली को जब जयपुर से कलकत्ता लाया जा रहा था तो बनारस के
पड़ाव पर तत्कालीन काशी नरेश उदित नारायण सिंह शिष्टाचार का निर्वाह करते
हुए मिलने गये तो वजीर अली ने पन्ना रत्न का बना हुआ हाथी निकालकर फेंका
और काशी नरेश से कहा-‘राजा, मैं तो गिरफ्तार हूं, मेरे पास कुछ बचा नहीं
है, फिर भी मेरी ओर से यह पन्ना का हाथी आप को भेंट है।’ हाथी के जमीन पर
गिरने से उसका एक पैर टूट गया। हाथी का मूल्यांकन नौ लाख रुपए मूल्य में
किया गया। तभी से बनारस में यह कहावत प्रचलित है कि टूटा हाथी नौ लाख का।
रामलीला
के हनुमान : बनारस की प्राचीन रामलीला का अपना महत्व है।
इसे मेघा भगत ने शुरू किया था। यदि राम की प्रतिमूर्ति के
पैर धोकर पीते हुए आप यहां के लोगों को देखेंगे तो आश्चर्य
चकित अवश्य होंगे। क्या हुआ! सन् 1838 के क्वार के महीने
में बनारस के अंग्रेज कलक्टर मिस्टर वाक्सलवरेन्ट और उनके
साथी भी रामलीला देखकर भौंचक्के रह गए। चौकाघाट पर समुंद्र
लंघन की लीला चल रही थी। निकट की वरूणा नदी का जल बाढ़ के
कारण लीला भूमि तक तैर रहा था। घूमते-फिरते अंग्रेज कलक्टर
और पादरी लीला भूमि तक पहुंचे और रामलीला के दृश्यों को
देखर अट्टाहास करते हुए कहा-‘रामायण के हनुमान तो समुंद्र
लांघ गए थे, आप इस बढ़ी हुई नदी का यह पाट लांघ जाएं, तो
समझा जाए कि रामलीला आयोजित करने का कोई सामाजिक-धार्मिक
महत्व है। चमत्कार हुआ कि रामलीला के हनुमान जय बजरंग बली
उद्घोष के साथ एक छलांग में नदी के बढ़े हुये जल को लांघ
गए और उलटकर देख इंसानी एहसास होने पर वह स्वर्गवासी हो
गए। रामलीला के हनुमानजी के स्मारक के रूप में वहां एक
मंदिर स्थापित है। अंग्रेज कलक्टर बहुत प्रभावित हुए और तब
से राजकीय स्तर पर रामलीला को आर्थिक सहायता एवं संरक्षण
प्राप्त है, जिसका निर्वाह वर्तमान सरकार भी करती आ रही
है।
राजा बनारस: इतिहास और वेद-पुराण के किस्सों से आप
ऊब गए होंगे। आइए! अब हम आपको महाराज काशी नरेश से मिलवाएं
जो स्वयं चितेरे और मौजमस्ती के दरिया में डूबे रहने वाले
औघड़ दानी भगवान शंकर के प्रतीक कहे जाने लगे थे। एक दशक
से ज्यादा हुआ तब से लेकर निवर्तमान काशी नरेश तक को देखकर
काशी वासी ‘हर हर महादेव’ का उद्घोष करते हैं। इस उद्घोष
का एक मनोरंजक इतिहास भी है। सन् उन्नीस सौ ग्यारह में
राजधानी में दिल्ली दरबार का आयोजन किया गया था। तत्कालीन
काशी नरेश प्रभु नारायण सिंह, राजा के रूप में दिल्ली
दरबार में आमंत्रित नहीं थे। उन्होंने दिल्ली जाने की
घोषणा की तो काशी के सैकड़ों गहरेबाज भी दिल्ली दरबार का
अवलोकन करने राजधानी गए।
काशी नरेश बाघंबर धारण किए, मस्तक पर भभूत लगाए
जब बग्घी की सवारी से दिल्ली की सड़क पर निकले तो दिल्ली
पहुंचे बनारसियों के हर-हर महादेव के उद्घोष से दिल्ली की
सड़क गूंज उठी। वायसराय, अन्य देशी रियासतों के राजाओं
सहित अन्य लोगों को यह दृश्य आकर्षक लगा। वायसराय ने काशी
नरेश को काशी विश्वनाथ का प्रतीक मानकर उनके लिए दिल्ली
दरबार के समारोह में अंतिम पंक्ति में एक विशेष कुर्सी
लगवाई, जिस पर वह विराजमान हुए। चार अप्रैल सन् उन्नीस सौ
ग्यारह के दिन गवर्नर सर लेसली पोर्टर ने बनारस में एक
दरबार आयोजित कर, काशीराज प्रभुनारायण सिंह को स्वतंत्र
शासक की सनद दी। इसके पूर्व महाराज ईश्वरी प्रसाद नारायण
सिंह को लार्ड लिटन ने दिल्ली दरबार में तेरह तोप की सलामी
से सम्मानित कर महाराज की उपाधि दी थी। कहते हैं, ईश्वरी
नारायण सिंह बड़े गुण ग्राही एवं कला मर्मज्ञ थे।
होली-दीपावली विजय दशमी, जन्माष्टमी और सावन के
दिनों रामनगर पैलेस में गायन-वादन और नृत्य की परंपरा थी।
एक बार राज दरबार में संगीत का आयोजन समाप्त हो चुका था।
महाराज सिंहासन पर बैठे आम चूस रहे थे। अपने ज़माने की नामी
गायिका मैना महफिल में विलंब से पहुंची। महाराज ने कहा-‘तू
काहे, देर से अइलू हव.....अब का बचल हव, कहा त हम तोहें
कोइली दे देई।’
मैना होशियार गायिका थी। उसे मालूम था कि
काशीराज में एक कोइली गांव है। उसने तुरंत कहा- ‘महाराज
हमें कोइली दे दा।’ महाराज ने कहा-‘जाओ तुम्हें दे दिया।’
महाराज का वचन सुन मैना ने कहा-‘आज से कोइली गॉव अब हमार
हो गइल सरकार?’ काशी नरेश ने तुरंत कोइली गांव मैना के नाम
लिख दिया।
महाराज ईश्वरी नारायण सिंह के राज गायक
शिवदासजी प्रयागजी को लेकर भी एक मनोरंजक किस्सा मशहूर है।
ये दोनों गायक आपस में भाई थे और बीस मिनट के अंतर में
पैदा हुए थे। प्रयाग जी बड़े थे। एक दिन ये महाराज के
साथ-साथ गंगा स्नान कर रहे थे। महाराज ने कहा-‘प्रयाग! मैं
आज प्रसन्न हूं!.... चाहता हूं कि आज कुछ मांगो।’
प्रयागजी ने कहा-‘दीजिएगा न! सरकार!’ महाराज ने
कहा - ‘तुरंत मांगिए।’ प्रयागजी ने कहा-‘सरकार मैं यही
मांगता हूं कि आपसे पहले हमारी मृत्यु हो।’
काशीराज ने कहा-‘यह क्या मांगा, यह तो ईश्वर के
हाथ की वस्तु है।’
प्रयागजी ने कहा-‘महाराज! मुझे जो मांगना था,
मांग लिया आप दिल से मुझे यह आशीर्वाद देंगे तो ईश्वर भी
उसे मंजूर कर लेगा।’
ईश्वर ने इसे सुना और प्रयागजी की मृत्यु के
बाद ईश्वरी नारायण सिंह का भी देहांत हो गया। राजा और
राजगायक की राख उसी गंगा की निर्मल धारा में घुल मिल गई
जिसमें खड़ा होकर अंजुलि में जल लिए राजा ने अपने प्रिय
गायक को उनसे कुछ भी मांगने के लिए प्रेरित किया था।
रोम बल:घाटों के किनारे के घाटिया भी
बड़े मजेदार होते हैं। वैसे तो बनारस का आम आदमी गप्पबाजी
के लिये मशहूर होता है। कमर तोड़ महंगाई के इस दौर में भी
आपको बनारस की गप्प का मजा लेना हो तो किसी घाट पर घाटिया
के तख्त पर बैठ जाइए फिर गंगा तट के बयार और बनारस के सुख
से आप तृप्त हो जाएंगे।
गंगा घाट का दृश्य। गर्मी का दिन। सैलानी और
नगरवासी नौका विहार में लीन। इधर गंगा की पांच सीढि़यों के
ऊपर झम्मन गुरू की छतरी के नीचे लोग भांग बूटी छान-छानकर
गप्पबाजी में लीन हैं। एक से बढ़कर एक बतोले बाज अपनी-अपनी
सनक में बहके जा रहे हैं। झम्मन गुरू ने कहा-‘इधर-उधर की
हम बहुत सुन चुके, एक सच्ची घटना हम सुना रहे हैं। इस घटना
का रूद्रकाशिकेय ने अपनी पुस्तक बहती गंगा में रोम-रोम में
बज्रवल के नाम से वर्णन भी किया है।’
बनारस में एक झालर महाराज थे। पेशे से वह पंडा
थे। दूर-दूर तक के यजमान उनके यहां आते थे। संकट मोचन
हनुमानजी का दर्शन करने के बाद ही अन्न ग्रहण करते थे। एक
बार सूर्य ग्रहण के दिन यजमान यात्रियों के चक्कर में झालर
गुरू को हनुमानजी के दर्शन का ध्यान हो आया। पहला ग्रास
हाथ में ही रह गया। वह थाली छोड़कर उठे और मां से कहा-‘मां
मेरी थाली देखती रह, मैं दौड़ते हुए जाऊंगा और दम भर में
दर्शन करके लौट आऊंगा।’ बादल घिरे थे, बूंदे पड़ रही थीं।
रह-रहकर बिजली चमक उठती थी। झालर महाराज इस मौसम को चीरते
हुए अश्वमेध के घोड़े की तरह निर्द्वंद दौड़े चले जा रहे
थे। ‘...कहते-कहते घाटिया गुरू ने गमछे से होंठ से छलकते
पान को पोंछा और फिर शुरू हो गए। उस ज़माने में संकट मोचन
के निकट पड़ने वाले नाले का बड़ा भयानक रूप था। झालर
महाराज ने देखा कि नाला समुद्र की तरह हा-हाकार करता
हुआ उफान ले रहा है। उसे पार करने का साधन जब उन्हें नहीं
मिला तो उन्होंने धोती-दुपट्टा उतार कर पेड़ की डाल पर रख
दिया और लंगोट के ऊपर गमछा कसकर ज्यों ही कूदने के लिए
तैयार हुए कि पीछे से किसी ने उनका हाथ पकड़ लिया। मुड़कर
देखा तो एक हट्टा-कट्टा आदमी उनका हाथ पकड़े हुये था। आदमी
ने पूछा-‘क्या आत्महत्या करना चाहते हो।’
‘नहीं, हनुमानजी का दर्शन करने जा रहा हूं।’
नाले की तीव्र धारा की ओर इशारा करते हुए उस अज्ञात
व्यक्ति ने कहा-‘जिस धारा में हाथी का पैर नहीं टिक सकता,
उस धारा में तुम्हारी हड्डी भी पता नहीं लगेगी। ‘अब चाहे
जो हो, मैं तो हनुमानजी का दर्शन करके ही लौटूंगा।’ अज्ञात
व्यक्ति ने कहा-‘अब समझ लो कि तुम्हें संकट मोचन हनुमान के
दर्शन हो गए और लौट जाओ।’
झालर ने कहा-‘ऐसे कैसे समझ लूं कि हनुमानजी के
दर्शन हो गए, यहां हनुमान जी कहां हैं?’
अज्ञात व्यक्ति ने मुस्कराते हुए कहा ‘समझ लो,
मैं ही हनुमानजी हूं।’ झालर गुरू ने दांत पीसते हुए
कहा-‘सभी ऐरे गैरे हनुमानजी बनने लगे तो हो गया कल्याण।
तुम हनुमान जी हो तो प्रमाण दो।’
‘क्या प्रमाण लोगे?’ ‘वही रूप दिखाओं, जो
उन्होंने सीताजी को दिखाया था।’ ‘डरोगे तो नहीं?’ ‘नहीं।’
अज्ञात व्यक्ति ने शरीर बढ़ाना शुरू कर दिया।
धीरे-धीरे विकराल स्वरूप को देख झालर गुरू डर गए और नत
मस्तक होकर क्षमा मांगी।
साधारण मानव काया में पुनः स्थिर हो उस अज्ञात
व्यक्ति ने झालर गुरू से पूछा-‘बोलो तुम मुझसे क्या चाहते
हो, जो मांगोगे वही मिलेगा।’
झालर को उसी दिन दोपहर की एक घटना स्मरण हो आई,
जब एक पंडा ने झापड़ माकर उनकी मुट्टी से रकम छीन ली थी।
झालर ने कहा-महाराज मुझे अपनी कानी अंगुली का बल दे दीजिए।
हनुमानजी फिर मुस्कराए और कहा- ‘तुम्हारा कलियुगी
कलेवर इतना बल सहन कर सकेगा। तुम अपना मुंह ऊपर उठाकर खोल
दो।’
झालर ने अपना मुंह खोला तो हनुमानजी ने एक रोआं
तोड़कर उसमें डाल दिया। मुंह में रोआं पड़ते ही झालर के
शरीर में बिजली सी दौड़ गई। वह वायुवेग से दौड़ते हुए घर
वापस आए। वह पहले रसोई घर में घुसकर दोनों हाथों से भोजन
ठूंस-ठूंस कर मुंह में भरने लगे। पेट नहीं भरा तो भूख-भूख
कहकर भंडारा में घुस गए और वहां जो सामान मिला सबको भक्षण
करते गए। लोगों को ऊपर फेर का भ्रम हो गया। घर के लोगों ने
उन्हें भंडारे में बंद कर बाहर से सांकल लगा दी। रात भर वह
अन्न बर्बाद करते रहे। सवेरे जब वह घाट पर आए तो उन्हें
देख लोग छींटा-कसी करने लगे। कोई कुछ कहता तो कोई कुछ। एक
ने कहा-‘गुरू तनी सम्हार के कहीं तोहरे भार से मढ़ी न लोट
जाय।’
गुरू को यह बात तीखी लगी। उन्होंने कहा-‘ला जब
ऐहि देखै के हव त देखा।’
इतना कहकर उन्होंने अपने शरीर का दबाव मढ़ी पर
दिया तो वह झुक चली। देखने वाले लोग बाप रे बाप कहकर भागे।
फिर झालर महाराज किलकारी मार-मार, कुछ देर तक घाट की
सीढि़यों पर दौड़ते रहे और एक भयानक गर्जना के साथ गंगा
में कूद पड़े। घाटिया झम्मन गुरू की बात सुनकर लोग आश्चर्य
चकित रह गए। गुरू ने कहा ‘अब सब लोग अपने-अपने घरे जा अउर
मलाई रबड़ी काटा ईहां क बनारसयिन क जेतना बात होत रहल, ऊ
सब त आज कल के लोगन बदे त किस्सा कहानी त बनी गयल हब।’
मुड़ी कट्टा बाबा : एक ओर काशी में साहित्य, संगीत और संस्कृति की
त्रिवेणी का संगम है, तो दूसरी ओर अंधविश्वास भी जनमानस
में पनपता रहता है। मानो तो देव नहीं तो पत्थर की कहावत
यहां पूर्ण रूप से चरितार्थ है। यहां पत्थर की पूजा होती
है, गली-चौराहे की पूजा होती है, तभी तो कहा गया है कि
काशी का एक-एक कंकर शंकर हैं। यहां एक पत्थर रखकर किसी ने
फूल-माला चढ़ा दिया तो दूसरा पथिक भी वहां सिर झुका देता
है, तीसरा गंगाजल अक्षत चढ़ा देता है। इस संदर्भ में मुड़ी
कट्टा बाबा का उल्लेख आवश्यक है। भेलपुर से विश्वविद्यालय
जाने वाली मुख्य सड़क के एक किनारे बलेबरिया में स्थित
मुड़ी कट्टा बाबा सिर रहित मूर्ति के बारे में तरह-तरह की
चर्चाएंं सुनने को मिलती हैं। एक मनोरंजक चर्चा यह है कि
एक व्यक्ति दुर्गाजी का नियमित दर्शन करता था। पहले दुर्गा
मंदिर जाने वाला मार्ग अत्यंत सूनसान रहा करता था। एक दिन
उस व्यक्ति के दुश्मनों ने उसे घेर लिया और तलवार से सिर
काट दिया। लोगों का कहना है कि इस सदी के पूर्वाद्ध में,
जब स्वाधीनता संग्राम का दौर जारी था, तो किसी ने यक्ष की
मूर्ति वहां लाकर रख दी। आस-पास के नियमित दर्शन करने
वालों में तरह-तरह के किस्से तो प्रचलित थे ही, किसी ने यह
मत भी स्थापित कर दिया कि यह वही बाबा प्रकट हुए हैं,
जिनकी दुर्गाजी जाते समय मौत हो गई। फिर क्या था, वहां भजन
कीर्तन और पूजा पाठ होने लगा। गजेड़ी गांजा चढ़ाने लगे।
लोग मनौतियां उतारने लगे और अब तो वह न जाने कितने हाथों
से पूजे जा चुके हैं। उन्हें देव श्रेणी में ही रखना उत्तम
है।
जो मांगों मिलेगा
बनारस औघड़ औलिया और फकीर का शहर भी माना जाता
है। तुलसी ने रामचरित मानस की रचना की तो संत कबीर गृहस्थ
जीवन में रहते हुए महान योगी बने। साधना और तप के बल से
यहां लोगों ने एक से एक अलौकिक कृत्य स्थापित किए हैं,
जिन्हें हम किवदंतियों और कथा कहानियों के रूप में आज भी
सुनते आ रहे हैं। यहां एक बाबा कीना राम हुए हैं, जिनके
प्रताप और औघड़ दान की अगणित कथाएं प्रचलित हैं। वह जो
कहते थे, वही हो जाता था।
काशी के राजा चेतसिंह के ज़माने में एक दिन बाबा
कीनाराम टहलते-टहलते रामनगर पहुंचे तो राजा ने अहंकारवश
उन्हें प्रणाम तक नहीं किया। बाबा ने राजा की परीक्षा लेने
के लिए कहा-‘बाबा को भूख लगी है।’ राजा ने बाबा पर घृणा
भरी दृष्टि से नजर फेरी और अपने एक कर्मचारी की ओर इशारा
करते हुए कहा-‘देखो आज दोपहर में एक सड़ी हुई लाश किले के
किनारे पड़ी है, उसे डोमड़ों से उठवा कर बाबा को दे दो।’
राजा का विचित्र आदेश सुन कर्मचारी ठिठक गया और
हाथ जोड़कर कहा-‘महाराज, बाबा से बैर लेना उचित नहीं।’ पर
सरकार बहादुर ने कर्मचारी की एक भी नहीं सुनी और कहा-‘हम
राजा वह भिखारी, उसने हमें सलाम क्यों नहीं किया?’
कर्मचारी ने राजा के आदेश का पालन किया। मुर्दा लाकर रख
दिया गया। राजा ने कहा-‘बाबा, अब देर काहे, भोग लगाइए।’
बाबा ने अपना सिल्क का दुपट्टा उतार मुर्दे को ढक दिया और
पांच मिनट बाद जब उसे खोला गया तो वह पकवान बन गया।
किस्म-किस्म की मिठाइयां और भोग का सामान मुर्दे के स्थान
पर तैयार था। राजा, बाबा की लीला देखकर थर्र-थर्र कांपने
लगे। बाबा ने श्राप दिया, परंतु राजा के गिड़गिड़ाने से वह
पसीज गए और क्षमादान प्रदान किया। बाबा कीनाराम का स्थल आज
भी शिवाला पर स्थित है और वहां उनके उत्तराधिकारी पदासीन
हैं।
जान बची तो लाखों पाए
एक कहावत बनारस की है-जान बची तो लाखों पाए। जान है तो
जहान है। दुनिया के दो प्राचीनतम नगर हैं-काशी और यरूशलम। यरूशलम तो आजकल
झगड़े का केंद्र बना हुआ है, परन्तु काशी? यह आज भी रक्षा का केंद्र है,
किंतु उसकी पुरातन संस्कृति का क्षरण जरूर हो रहा है। शाह आलम का जमाना
था। बनारस की इस कहावत के तहत ईरान के बादशाह शेख अली हाजी अपनी जान बचाने
के लिए बनारस आए। उन्हें किसी औलिया ने बता दिया था कि आप कल जिस तख्त पर
बैठेंगे, उस पर आपकी लाश नजर आएगी। बेहतर होगा कि सूर्य निकलने के पहले
आप राज्य की सीमा से बाहर चले जाएं। शेख अली हाजी बनारस चले आए और रहमत
अली तख्त पर बैठा। वह अपने साथ काफी धन एवं जवाहरात ले आए थे।
हाजीजी, बनारस के फातामन में ठहरे और एक फीकर बन गए। वह
लंगर चलवाते थे। एक दिन सौदा नाम का एक व्यक्ति उनसे मिलने गया। दरवाजे पर
बैठे कुत्ते ने भौंकना शुरू कर दिया। सौदा ने हाजीजी के पास पंक्ति लिखकर
भेज दी। ‘दरे दरवेश रा दर्बान वायद’। फकीर के दरवाजे पर दरबान की जरूरत
इसलिए पड़ती है कि दुनियां के कुत्ते न आ जाएं।
हाजीजी एक मस्त फकीर थे। इराक की आबोहवा में वह पैदा तो
अवश्य हुये थे, किंतु उनकी रग-रग में बनारस का पानी बहने लगा था। जहां वह
शाह आलम की एक कौड़ी भी इज्जत नहीं करते थे, वहीं महाराज काशी नरेश के लिए
एक चांदी का सिंहासन बनवाया था। हाजीजी ने बनारस के ब्राह्मणों के बारे
में लिखा है-‘यहां का हर ब्राह्मण चलता हुआ इबादत खाना मालूम पड़ता है,
उनमें मुझे राम और लक्ष्मण की सूरत नजर आती है।’
हाजीजी अव्वल दर्जे के फकीर हुए। वह जो कहते वही होता।
आज भी उनकी मजार की पूजा होती है। फातमान स्थित बादशाह बाग में उनकी मजार
के ऊपर एक नीम का पेड़ है। कहते हैं कि उसकी पत्ती चखने पर मीठी मालूम
पड़ती है। नजीर बनारसी ने शेख अली हाजी पर एक पंक्ति लिखी है। आए काशी में
हजीं, काशी के होकर रह गए। आबरू इराक की, मेरे नगर में रह गई। हाजीजी
इरान में रह गए होते पता नहीं क्या होता, बनारस आ गए तो अमर होकर इतिहास
के पन्नों में अंकित हो गए। तभी तो बनारस वाले कहते हैं-जान बची तो लाखों
पाए।
किस्से साहित्यकारों के
बनारस के साहित्यकारों की मौज-मस्ती, बेलौस बातचीत और दो
टूक मजाक में जो रस था, वह रसगुल्ले की चाशनी में कहां। बिना किसी की
पगड़ी उछाले ऐसी-ऐसी बातें कह दी जाती थीं कि ठहाके ही ठहाके लग उठते थे।
तब आज की राजनीतिक चेतना का द्वंद्व अकारण ही नहीं था।
महाकवि जयशंकर प्रसाद अपने नारियल बाजार स्थित दुकान पर
बैठे दो-चार साहित्यकारों के साथ बातचीत में लीन थे कि इसी बीच एक कटी हुई
पतंग आकर गिरी। उनमें से किसी एक ने पतंग उठाकर उन्हें देते हुए कहा
‘लीजिये उड़ाइए।’ प्रसाद जी ने कहा-‘हम उड़ाई हुई नहीं उड़ाते।’
एक बार रामचंद्र शुक्ल इक्के पर सवार दुर्गाकुंड की ओर
से आ रहे थे। रास्ते में किसी रईस के यहां काशी बाई का गाना हो रहा था, जो
सड़क तक सुनाई पड़ रहा था। शुक्ल जी ने अपने मित्रों से कहा - ‘जिसका
बिरहा इतना मीठा है, उसका मिलन कितना सुखद होगा।’
सन् उन्नीस सौ पैंतीस में नागरी प्रचारिणी सभा में एक
संगीत सम्मेलन आयोजित किया गया था, जिसमें रामचंद्र वर्मा, रवींद्र नाथ
टैगोर सहित बनारस तथा बाहर के बहुत से साहित्यकार उपस्थित थे। पं. सीताराम
चतुर्वेदी कार्यक्रम का संचालन कर रहे थे। वह एक-एक कलाकारों का परिचय भी
कराते। उन्होंने मुश्ताक अली का परिचय कराते हुए कहा-‘यह बनारस के ही
हैं, किन्तु एक लंबे अर्से से कलकत्ता में बस गए हैं।’
इस समारोह में काशी बाई और सिद्धेश्वरी भी उपस्थित थीं।
ज्यों ही पं. सीताराम चतुर्वेदी परिचय देकर बैठे, त्यों ही दर्शक दीर्घा
में बैठे मुरारी लाल केडिया ने पूछा-‘ये मुश्ताक अली सिद्धेश्वरी के हैं,
या काशी के।’ केडिया जी की आवाज सुनते ही एक जोरदार ठहाका गूंजा, क्योंकि
सिद्धेश्वरी और काशीपुरा नाम के दो मुहल्ले भी बनारस में हैं। सब तो सब,
सिद्धेश्वरी और काशी बाई भी हंस पड़ी थीं।
बात बेढब की
बेढबजी हास्य रस के अवतार थे। उनके चेहरे से शालीनता,
गंभीरता टपकती थी, तो वाणी से हास्य एवं व्यंग्य धारा प्रवाहित होती थी।
उनकी बातें सुनकर लोग हंस पड़ते थे। किंतु वह नहीं, चश्में के भीतर से
उनकी आंखें हंसती रहती थीं। उनकी कही हुई बातें आज भी लोग चुटकुले और
किस्से के रूप में सुनते-सुनाते रहते हैं।
बेढबजी ही एकमात्र ऐसे विधायक रहे हैं, जो सदन के पटल पर
हास्य एवं व्यंग्य के माध्यम से देश की तस्वीर रखते थे। एक बार लखनऊ
विधान परिषद में कोटा परमिट की बात चल रही थी। नोंक-झोंक में उलझे विधायक
कुर्सी पीट रहे थे। बेढब जी उठे और बोले- ‘अध्यक्ष महोदय, मेरे साथी ने ठीक
ही कहा है। मैंने भी बनारस के कलेक्टर के पास एक बार तोप खरीदने के लिये
अर्जी दी थी। मैंने ऐसा इसलिये किया था कि जब एक बोरा चीनी मांगने पर बीस
किलो का परमिट मिलता है, तो मैंने सोचा तोप की अर्जी दूंगा तो रिवाल्वर की
मंजूरी मिल जाएगी।’
बेढब जी की यह बेढव बात सुनते ही सदन में हंसी के फौव्वारे छूटने लगे।
संपूर्णानंदजी
अक्सर सिर हिलाते रहते थे। एक बार वे किसी समारोह की अध्यक्षता
कर रहे थे। बेढबजी ने कहा-‘बाबूजी के नाक में प्राणायम करते समय छिपकली घुस
गई है और जब वह रेंगती है, तो इनको सिर झटकारना पड़ता है।’
बेढबजी ने अपने गांव जवार के पड़ौसी हरिऔध जी को नहीं
छोड़ा। एक बार उन्होंने कह दिया कि ‘मैं भी हरिऔधजी के गांव का रहने वाला
हूं। मैं अच्छी तरह से जानता हूं कि प्रिय प्रवास हरिऔधजी का नहीं लिखा
हुआ है। प्रिय प्रवास के वास्तविक रचयिता उनके गुरू बाबा सुमेर सिंह हैं’
बेढबजी का यह वाक्य अखबारों और पत्र पत्रिकाओं में छप गया। सबसे आश्चर्य
और उल्लेख की बात तो यह है कि दो-तीन समीक्षकों ने अपनी-अपनी पुस्तकों में
बेढबजी की इस मजाक को सच मानकर उल्लेख कर दिया।
एक बार बनारस के प्रमुख दैनिक समाचार पत्र के संवाददाता
बेढबजी से मिलने गए। बेढबजी ने कहा- ‘आज का सबसे बढि़या समाचार यह है कि दो
सांड़ लड़ते-लड़ते माधोराज के धरहारा पर चढ़ गए और एक ने दूसरे का पीछा
तब तक नहीं छोड़ा, जब तक कि उसने हुरपेंट कर दूसरे को नीचे धकेल नहीं
दिया।’ संवाददाता ने यह समाचार अपने पत्र में छाप दिया। पुलिस के अधिकारी
इस समाचार से अत्यंत चिंतित हुए क्योंकि दोनों साड़ों का नाम दो
संप्रदायों पर रखा गया था। समाचार निराधार निकला और संवाददाता को डांट
सुननी पड़ी।
गप्प गोष्ठी
आकाशवाणी
के इलाहाबाद केंद्र से एक बार गप्प गोष्ठी का आयोजन किया गया।
इस आयोजन में अमृतलाल नागर, भगवतीचरण वर्मा, विजय देव नारायण शाही, भैया जी
बनारसी और बेढब बनारसी आदि ने भाग लिया था। किसी ने चंद्रलोक की सैर का
किस्सा सुनाया तो किसी ने इधर-उधर की हांक दी।
बेढबजी की बारी आई तो उन्होंने कहा-‘मैं एक बार कानपुर
गया था। वहां पर एक जूता बनाने वाली कंपनी के मैनेजर ने आधुनिक यंत्रों से
सुसज्जित कारखाना दिखाया। उसने दिखाया कि एक ओर से भेड़ बकरी का झुंड
मशीन में चला जा रहा है और दूसरी ओर से जूते-चप्पल बनकर तैयार निकलते चले आ
रहे हैं। संयोग से उसने स्टार्टर का बटन उल्टा घुमा दिया तो देखा एक ओर
से जूते चप्पल फिर से मशीन में जाने लगे और दूसरी ओर से भेड़ बकरियों का
झुंड बाहर निकलने लगा था।’
सच कहता हूं, इसे गप्प नहीं मानिएगा, बनारस अपने आप में
एक अंर्तराष्ट्रीय नगर है। इस शहर में हर देश, हर कौम और हर मजहब के लोग
रहते हैं। हर सौ पचास कदम पर एक गली मुड़ती है। गलियों के इस शहर में हर
गली की अपनी एक अलग भाषा है। पंडे-दलालों और व्यापारियों की भाषा को समझना
तो हर बनारसी के लिये संभव भी नहीं। तभी तो कहा गया ‘ठग जाने ठगी की
भाषा’ परन्तु मौजमस्ती की समूचे बनारस वालों की एक भाषा है, एक संस्कृति
है, एक चाल-ढाल है। गप्प लड़ाना यहां के लोगों की संस्कृति है, यह सच है।
यहां मेले तमाशे में जब एक रेवड़ी बेचने वाला चिल्लाता है कि-‘ले लो
बैजूसाब की गुलाबी रेवड़ी, तो दूसरा कहता है कि यह बैजूसाब के बाप की
गुलाबी रेवड़ी यहां गंगा पार भुंटा भूना जाता है, तो इस पार तक सुगंध आती
है। लोग तीतर-बटेर और बुलबुल उड़ाने में रुपया पानी की तरह बहा देते हैं।
एक भंग का गोला छानकर लोग चंद्रलोक की सैर कर जाते हैं।’
बनारस की महिमा का वर्णन कोई खेल नहीं, तभी तो कहा गया
है - रांड़, सांड़, सोढ़ी संन्यासी, इनसे बचे तो से वै काशी। इन पंक्तियों
का अर्थ तो सरल समझ में आता है। परन्तु गहराई में इसका अर्थ अत्यंत जटिल
एवं गूढ़ है। इस गप्प संबंधी लेख का सच तो इन पंक्तियों में से है।
चना चबैना, गंगाजल जो पुरवै कर तार
काशी कबहूं न छोडि़ये विश्वनाथ दरबार।
कमल नयन