उपर्युक्त शीर्षक में काशी और वाराणसी के साथ बनारस नाम को जोड़ने का आशय नगर के आधुनिक सन्दर्भ को परिलक्षित कराना है। क्या ‘बनारस’ काशी और वाराणसी के नामगत विशेषता से कुछ या किसी रूप में आन्वित होता है या नहीं? यही होता है तो किस रूप में उसकी सार्थकता निरूपित की जा सकती है यद्यपि यह स्पष्टतः ज्ञात है कि वाराणसी का ही भाषान्तर बनारस है जो सम्भवतः अंग्रेजों द्वारा अपने शासन काल में बेनारसे से पुनः उच्चारण सौकर्य से बनारस के रूप में प्रसिद्ध हुआ है, किन्तु इस नाम में ‘वाराणसी’ की नामगत विशेषता का बोध नहीं होता बल्कि जिसमें रस-मौज-मस्ती-जोश ताजा मिज़ाज हमेशा बना रहे, कभी कम न हो-इस अर्थ में ‘बनारस’ नाम की अन्विति या व्यवहार होता है। यहाँ के लोगों की प्रकृति (स्वभाव) का बोधक विशेषता ‘बनारस’ नाम है। अपने मूल शब्द (वाराणसी) के अर्थ से बिल्कुल अलग-थलग। रस शब्द अनेकार्थक है-मौज-मस्ती, खुशी के साथ यहाँ के पान, भाँग, ठँडई आदि भी रस से जुड़े हैं। बनारसवाला पान, बनारस की ठंडई और बनारस का लँगड़ा आम ये सब ‘बनारस’ इस नाम को चरितार्थ करते हैं। इस अनेक कारणों से यहाँ का ‘रस’ हमेशा बना रहता है। दुनिया बदल रही है तो बदले, बनारसी लोग अपने ‘रस’ में ही बने रहते हैं- कल आज और आगे भी बने रहेंगे अपने रस में अपनी मस्ती के वश में। सांख्यदर्शन में “मूलप्रकृतिरविकृतिः” कहा गया है। अर्थात् मूल-प्रधान (सहजात) प्रकृति में कोई विकृति परिवर्तन नहीं होता-यह वाक्य यद्यपि उक्त दर्शन में संसार के निर्माण सम्बन्धित प्रकृति के विषय में कहा गया है, किन्तु यह पूर्णतः बनारसी प्रकृति के विषय में अर्थसंगत है। आज भी खांटी बनारसी लोगों का स्वभाव यथावत् है-प्रतिदिवस परिवर्तनशील सामाजिक परिस्थिति में भी। यहाँ के रचनाकारों ने भी इस बनारसी मूल प्रकृति का विस्तार से वर्णन किया है-जो उपर्युक्त दार्शनिक वाक्यार्थ से सार्थ समन्वित होता है। ‘सुबह-ए-बनारस’ यह उक्ति केवल ‘बनारस’नाम से ही जुड़कर उपर्युक्त अर्थ की संगति को सम्पुष्ट करती है। इस नगर के अनेक नामों में से किसी एक नाम में भी यहाँ के ‘सुबह’ का ऐतिहासिक, पौराणिक या धार्मिक सम्बन्ध नहीं मिलता केवल बनारस से ही इसका खास सम्बन्ध है और प्रसिद्धि है। अतः ‘सुबह-ए बनारस’ भी यहाँ के रस के हमेशा बने रहने की ज्वलन्त उदाहरणात्मक मौद्रिक वाक्योक्ति है। दुनिया में दूर-दूर तक और गाँव-गिरांव जन-जन में सब जगह ‘बनारस’ की मूल प्राकृतिक विशेषता का विविध रूपों में आख्यान, बखान है। उन सबकी चर्चा करना सम्भव नहीं केवल संकेत मात्र ही पर्याप्त है-इतने से ही विद्वान ‘बनारस’ को जानते हैं, जान लेंगे। ‘सदा बनारस रसभरा बान बानगी देख। एक बान एक तान है- एक शान एक टेक।।’-बनारस के विषय में मेरे बचपन में सुना हुआ यह ‘दोहा’ उसकी यथास्थिति मूल प्रकृति का पूर्ण प्रमाण है।
लेख के शीर्षक में काशी-वाराणसी-बनारस यह क्रम है किन्तु प्रतिक्रम से पहले ‘बनारस’ पर ही विमर्श प्रस्तुत कर दिया है- यह सहज ही हो गया, भूल से नहीं संज्ञान से ऐसा किया गया है। तीनों नामों में दो सजातीय संस्कृत के नाम है-काशी-वाराणसी है। ‘बनारस’ भाषान्तरीय विजातीय है और आधुनिकता से विशेष सन्दर्भित है-इसलिये उस पर विमर्श के पश्चात् अब काशी-वाराणसी इन दोनों नामों की शास्त्र संगति एवं अर्थ संगति पर विमर्श अपेक्षित है। इनमें भी प्रतिक्रम से ‘वाराणसी’ शब्द के नाम वैशिष्टय का निरूपण किया जा रहा है। मेरी दृष्टि ‘वाराणसी’ नाम पुराणकालीन प्रतीत होता है- वारणा (वरुणा) और असी के संयोग (सन्धि) से वाराणसी निष्पन्न है-यह तो सुविदित ही है। इन दोनों शब्दों से बना हुआ वाराणसी वरुणा नदी और असी नदी क्षेत्र के अन्तराल का बोधक है-इसी को वाराणसी कहा गया है-शेष क्षेत्रों को वाराणसी का बाह्य क्षेत्र माना गया-यह वस्तुत लोग प्रसिद्धि (जनश्रुति) है, शास्त्र प्रसिद्धि इसमें प्रमाण नहीं है। इन दोनों शब्दों में ‘गंगा’ असम्बद्ध हैं अर्थात् गंगा का क्षेत्र भी शब्दद्वय परिभाषित वाराणसी का बाह्य क्षेत्र है। कुछ लोग ‘असी’ शब्द से ‘गंगा’ को जोड़ लेना मानते हैं जो युक्ति संगत नहीं है, ‘असी’ नगर एक क्षेत्र (भाग) है जिसके नाम से गंगा का घाट प्रसिद्ध है, ‘घाट’ का संकेत ‘असी’ शब्द से मान लेने पर भी वह सम्पूर्ण गंगा का बोधक नहीं हो सकता। तो क्या गंगा को वाराणसी क्षेत्र से बाह्य मानकर ‘वाराणसी’ की परिभाषा अर्थसंगत हो सकती है? यहाँ के सुधीजनों के लिये विचारणीय विषय है। मेरे विचार से उक्त दोनों शब्दों की संधि से बना वाराणसी शब्द क्षेत्र की सीमा में आबद्ध नहीं है प्रत्युत् सम्पूर्ण नगर का एक नाम है जिसमें वरुणा नदी और नदी (प्रायः लुप्त) दोनो क्षेत्र स्थित है। अन्यथा गंगा को वाराणसी से बाह्य मानने पर जो परिभाषा के स्थूल अर्थ द्वारा ज्ञात होता है, वाराणसी का तीर्थ रूप, धार्मिक रूप और व्यक्ति विशेष से अनेक नगरों और देशों का नामकरण किया जाता है-यह परम्परा है-ऐसा ही वाराणसी के विषय में समझना चाहिये।
बौद्ध ग्रन्थों में विशेषकर जातक कथाओं में वाराणसी का शतशः उल्लेख मिलता है। सारनाथ में भगवान् बुद्ध के द्वारा जो अपने चार शिष्यों को प्रथम देशना (उपदेश) देने का उल्लेख है वह भी वाराणसी के अन्तर्गत उल्लिखित है। यद्यपि उक्त ग्रन्थों में काशी की भी चर्चा है किन्तु विरलतर, वाराणसी बहुल रूप से चर्चित है- इसमंऔ वरूणा और असी की सीमाबद्धता का निषेध सिद्धि होता है क्योंकि परिभाषा के अनुसार सारनाथ वाराणसी के अन्तर्गत नहीं माना जायेगा। पुराणों में काव्यों में एवं स्मृतियों दर्शनों में भी वाराणसी का बहुशः उल्लेख पाया जाता है। परन्तु यह नाम प्राचीन होकर भी इस नगरी की सनातनता का बोधक नहीं है- ऐसा इसकी नामव्युत्पत्ति और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की समीक्षा करने से प्रमाणित होती है। वाल्मीकि, व्यास, भास, कालिदास आदि प्राचीनतम महाकवियों के काव्यों में काशी की चर्चा बहुलतर है। बाद के श्रीहर्ष, भारवि, जयदेवादि के काव्यों में वाराणसी का वर्णन प्राप्त होता है। महाकवि श्रीहर्ष ने तो अपने नैषधीय महाकाव्य में वाराणसी वसुन्धरा में नहीं अपितु स्वर्ग में अवस्थित मुक्तिदायी नगरी है- इस माहात्म्य का वर्णन किया है। श्रीहर्ष ने इसी काव्य-प्रमाण के द्वारा प्रयाग में एक उत्सव में आयोजित वादप्रसंग में (शास्त्रार्थ में) तीर्थराज के रूप में वाराणसी से श्रेष्ठ प्रयाग को सिद्ध करने वाले विद्वान् के कथन का खण्डन वाराणसी के एक विद्वान् ने किया था जिसका सभी ने अनुमोदन किया था प्रसंगत वह चर्चा यहाँ करनी आवश्यक है। प्रयागवासी विद्वान् ने अपना पक्ष प्रस्तुत करते हुए कहा था कि- “तीर्थेषु श्रेष्ठता बिभ्रतीर्थराजो विशिष्टयते” अर्थात् तीर्थों में श्रेष्ठता को वहन करने वाला तीर्थराज प्रयाग विशिष्ट है- इस पौराणिक उक्ति प्रमाण से तीर्थराज प्रयाग वाराणसी तीर्थ की अपेक्षा श्रेष्ठ है- वाराणसी केवल तीर्थ है प्रयाग तीर्थराज है, सभी तार्थों का राजा……..।
प्रयागवासी विद्वान् का यह प्रश्न वस्तुतः युक्तिसंगत था और वाराणसी के विद्वानों को तात्कालिक रूप से अनुत्तरित करने के लिये पर्याप्त था। किन्तु कुछ समय बाद काव्यशास्त्र के मर्मज्ञ-वाराणसी वासी एक विद्वान् ने महाकवि श्रीहर्ष के नैषधमहाकाव्य के पद्य को उद्वृत करके उक्त प्रश्न का बड़ा ही उपयुक्त समाधान किया, वह पद्य उल्लेखनीय है-
वाराणसी निविशते न वसुन्धरायां
तत्र स्थितिर्मुखीभुजा भुवने निवासः।
तत्तीर्थमुक्त वपुशामत एव मुक्तिः,
स्वर्गात्परं पदमुदेतु मुदे तु कीदृक्।।
वाराणसी वसुन्धरा में निविष्ट (स्थित) नहीं है, प्रत्युत् वहाँ (वाराणसी में) स्थित होना देवताओं के लोग (स्वर्ग) में निवास करना है। इसलिये ही वाराणसी (स्वर्गपुरी तीर्थ में) शरीर छोड़ने वालों की मुक्ति हो जाती अर्थात् पुनः उनका संसार में आगमन नहीं होता। स्वर्ग से बढ़कर कौन पद (स्थान) आनन्द के लिए हो सकता-स्वर्ग प्राप्ति ही परमानन्द (मुक्ति) है।
इस पद्य से प्रयागवासी विद्वान् के प्रश्न का यथार्थ समाधान इस प्रकार हो जाता है कि-वाराणसी स्वर्गपुरी है- स्वर्गलोकस्थ तीर्थ है प्रयाग मृत्युलोक में तीर्थराज है, अतः यहाँ (मृत्युलोक के) तीर्थों में श्रेष्ठ है, वाराणसी की अपेक्षा प्रयाग की श्रेष्ठता सिद्ध नहीं होती। इस समाधान का सभी ने करतल ध्वनि से अनुमोदन किया और प्रयागवासी विद्वान् तथा वहाँ की जनता को भी मानना पड़ा। इस प्रकार वाराणसी प्राचीन-अधुनातन उभयनिष्ठ वैशिष्टय और महत्व से ओत-प्रोत इस नगरी की नाम गरिमा को धारण करती है।
अन्त में इस नगरी के ‘काशी’ नाम के महत्त्व पर विचार, महार्ह एवं मननीय है। मेरी दृष्टि से इस नगरी की सनातन अस्मिता, मुक्तिदायिनी अर्हता और शंकर की त्रिशूल-स्थितिशीलता तथा मंगल के रूप में मरण (मृत्यु) की मान्यता इत्यादि इसी काशी-नाम के महत्त्व से सन्दर्भित होता है। इस नगरी के अन्य नाम जैसे-आनन्दकानन, मुक्तिपुरी, शिवपुरी, मर्णिकर्णी इत्यादि गुणवत्ता तथा विशेषतामूलक हैं। इन सभी नामों का साक्षात् सम्बन्ध काशी के सन्दर्भ से गतार्थ होता है। वस्तुतः यह नाम श्रुतिकालीन है। “काश्यां मरणान्मुक्तिः” यह श्रुति वचन है। “ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः” यह अनुपूरक श्रुतिवचन है। इन दोनों श्रौत वाक्यों पर काशी में एवं काशी के बाहर भी विद्वान्ों के बीच परस्पर बहुधा विचार-विमर्श होता रहा है। काशी में मरणमात्र से मुक्ति होती है या ज्ञान प्राप्ति करके काशी में मरण से मुक्ति होती है- इन दोनों पक्षों पर विद्वानों ने गहनतम शास्त्र-सम्मत विचार किया है। दोनों पक्षों में युक्तियाँ और शास्त्र प्रमाण दिये जाते हैं। उभय पक्ष यथार्थ यथोचित और शास्त्रभिमत है। इस पर विस्तृत विचार करना यहाँ सम्भव नहीं है। काशी नाम का निहितार्थ और गूढ़ाशय-मुक्ति-ज्ञान-ध्यान-साधना तथा सिद्धि इन पाँचों शब्दार्थों से समन्वित है। काशते-प्रकाशते या सा काशी, अर्थात् जो काशित प्रकाशित है वह काशी है-इससे उक्त पाँचों मुक्ति-ज्ञान-ध्यान साधना और सिद्धि का प्राकश अभिप्रेत है। ‘काशी खण्ड’ एवं अन्य स्मृति पुराणादि ग्रंथी में भी काशी-अर्थात् स्वतः प्रकाशमान-मुक्ति ज्ञान ध्यान साधना सिद्धि स्वरूपा-काभूरिशः वर्णन प्राप्त होता है। अनेक उक्तियों शास्त्रयुक्तियों एवं सिद्ध साधकमनीषि व्यक्तियों ने काशी के अनन्त माहात्म्य का निरूपण किया है। ‘मरण मंगलं यत्र सा कशी सेव्यते न कैः’, “काशी मुक्ति प्रदायिनी”, “आनन्दकाननं नाम काशी लोकातिशायिनी” “काशीयं साधनभूमिः” “काशी सिद्धिसमेधिनी” “काश्यां ज्ञानं च मुक्तिश्च युगपत् प्रतिपद्यते” इत्यादि काशी के स्वरूप महत्त्व के प्रख्यापक असंख्य प्राक्तन उदाहरण उपलब्ध होते हैं- जिनसे ‘काशी’ नाम के सनातन-संज्ञान की प्रमाणिकता सिद्ध होती है। लोकोक्ति में भी काशी का महत्त्व अपने निराले अन्दाज में दिखाया गया है- ‘
चना चबैना गंगजल जो पुरवै करतार।
काशी कबहुँ न छोड़िये विश्वनाथ दरबार।।”
काशी कबहुँ न छोड़िये विश्वनाथ दरबार।।”
सर्वा विद्याः कला सर्वा साधनाः सिद्धयस्तथा।
काश्यामेव प्रकाशन्ते वैराग्यज्ञानमुक्तयः।।
‘काशी, वाराणसी और बनारस’ शीर्षकीय इन तीन नामों से यह विचारात्मक लघु लेख इस नगरी की गरिमा के सन्दर्भ में कुछ संदर्भ में कुछ नवीन बिन्दुओं को उन्मीलित करता है जिस पर विचारक विद्वज्जन चिन्तन कर अपने आशय को व्यक्त कर सकते हैं। उपसंहार के रूप में काशी नाम से इस नगरी के ज्ञान भक्ति धर्म दर्शन साधना सिद्धि आदि स्वरूप का तथा वाराणसी नाम से संगीत कलासंस्कृति शिष्टता शालीनता आदि सम्भाव का एवं बनारस से आधुनिकता सहजता विलक्षण स्वभावशील इत्यादि गुण वैशिष्टय का सम्बन्ध प्रस्फुटित होता है। अन्त में यदि कहें तो यही कह सकते हैं कि काशी काशी है, वाराणसी वाराणसी है और बनारस है-एकदम अनन्वय अतुलनीय एवं अनाकलनीय/वस्तुतः काशी मुक्ति, वाराणसी-मुक्ति और बनारस-पुष्टि का निदर्शन है तथा यही इस त्रिलोक न्यारी नगरी का दर्शन है-इत्यलं विस्तरेण।
मंदिरों का शहर कहा जाने वाला बनारस अपनी खूबसूरती के लिए और लाइफस्टाइल के लिए जाना जाता है। बनारस की सुबह और शाम अलग छटा बिखेरती है। बनारस की कुछ खूबसूरत तस्वीरों के जरिए पेश सुबह ए बनारस...
साभार : गूगल