सुबहे बनारस _ हमारी काशी

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शिव भक्तों से रंगी काशी, ऊँ नम: शिवाय

बनारस आज ( शिव भक्तों से रंगी काशी, ऊँ नम: शिवाय , ऊँ नम: शिवाय ,हर हर बोलो नम: शिवाय..)


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सुबहे बनारस _ हमारी काशी

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संकट मोचन मंदिर -वाराणसी


जिंदगी जब तक रहेगी ,फुर्सत न होगी काम से,
कुछ समय ऐसा निकालो,प्रेम कर लो श्री राम से !!

Sankat Mochan temple is one of the sacred temples of Varanasi. It is located in the southern part of Varanasi, near the Banaras Hindu University. It is dedicated to the Hindu God, Hanuman. The word "Sankat Mochan" means one who helps in removing sufferings i. e. Lord Hanuman. Tulsidas, the author of the famous Hindu epic Ramacharitamanasa, founded the Sankat Mochan temple. According to Hindu mythology, one who visits the Sankat Mochan temple regularly, his wishes get fulfilled.

Every Tuesday and Saturday, thousands of devotees queue up in front of the Sankat Mochan temple to offer prayers to Lord Hanuman. According to Vedic Astrology, Hanuman protects human beings from the anger of planet Saturn and those who have ill placed Saturn in their horoscope visit the Sankat Mochan temple to get remedy. People put "Sindoor" on the statue and offer "laddoos" to Lord Hanuman. The "Sindoor", from the statue of Lord Hanuman is put on the foreheads of devotees.
 
 
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सुबहे बनारस _ हमारी काशी

जैसे भारत का नक्शा उदय हो रहा हो

काल हर !! कष्ट हर !! दुख हर !! दरिद्र हर !! हर हर महादेव !! ॐ नमः शिवाय.. वाह बनारस वाह..

सुप्रभात .. बनारस▬●Good Morning.. Banaras▬● সুপ্রভাত .. কাশী▬●મોર્નિંગ સારા .. બનારસ▬● ಮಾರ್ನಿಂಗ್ ಗುಡ್ .. ಬನಾರಸ್▬●

नमस्ते बनारस.. महादेव .. जय श्री कृष्ण.. राधे राधे.. सत श्री आकाल.. सलाम वाले कुम.. जय भोले ...



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सुबहे बनारस _ हमारी काशी

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सुबहे बनारस _ हमारी काशी

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ऐतरनी-वैतरणी तालाब, वाराणसी

ऐतरनी-वैतरणी तालाब उत्तर प्रदेश राज्य के वाराणसी नगर में स्थित है। यह तालाब कज्जाकपुरा से कोनिया जाने वाले रास्ते पर है। रेलवे लाइन का निर्माण होने के बाद यह तालाब दो भागों में हो गया है। पहले हिन्दू तीर्थ यात्री इस तालाब में स्नान-ध्यान, पूजा और आचमन भी करते थे। मान्यता है कि काशी के सारे कुण्डों में स्नान करके इस तालाब में स्नान करने पर व्यक्ति के मरने के बाद वैतरणी नदी पार कर स्वर्ग पहुंच जाता है। तालाब के तट पर वैतरणी महादेव का प्राचीन मंदिर भी था। जो जमीन में धंस गया। बाद में लोगों ने दूसरा वैतरणी महादेव का मंदिर बनाया। काशी के अष्ट कूपों में बृद्धकाल कूप, चन्द्रकूप, कलश कूप, धर्मकूप, शुक्रकूप, गोकरण कूप, कर्दम कूप तथा शुभोदक कूप है।[1]


  

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कुंड व तालाब (हिंदी) काशी कथा।

 

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रामकटोरा कुण्ड

<<--मुख्य पेज "वाराणसी एक परिचय " 

 

रामकटोरा कुण्ड उत्तर प्रदेश राज्य के वाराणसी नगर में स्थित है। जगतगंज क्षेत्र में सड़क किनारे रामकटोरा कुण्ड स्थित है। इसी कुण्ड के नाम पर ही मोहल्ले का नाम रामकटोरा पड़ा। यह कुण्ड कटोरे के आकार का है। कुण्ड के पास राम, लक्ष्मण, जानकी और बजरंग बली का मंदिर भी है। मंदिर के प्रवेश द्वार पर एक शिलालेख भी लगा हुआ है। जिसके अनुसार मंदिर का निर्माण दो सौ वर्ष पहले जगतगंज के जमींदार इन्द्र नारायण सिंह ने कराया था। कहा जाता है कि हिन्दी साहित्य के कालजयी रचनाकर जयशंकर प्रसाद और भारतेन्दु हरिश्चन्द्र इसी कुण्ड के तट पर बैठकर लेखन किया करते थे। इस कुण्ड में पांच भूजल स्रोत भी हैं। जिसकी वजह से यह कभी नहीं सूखता है। सही रख रखाव नहीं होने से इस कुण्ड की दशा भी खराब है।[1]

 टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कुंड व तालाब (हिंदी) काशी कथा।

 

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अघोराचार्य बाबा कानीराम



अघोराचार्य बाबा कानीराम (जन्म:१६९३-१७६९, काशी) अघोर सम्प्रदाय के अनन्य आचार्य थे। इनका जन्म सन् १६९३ भाद्रपद शुक्ल को चंदौली के रामगढ़ गाँव में अकबर सिंह के घर हुआ। बारह वर्ष की अवस्था में विवाह अवश्य हुआ पर वैराग्य हो जाने के कारण गौना नहीं कराया। ये देश के विभिन्न भागों का भ्रमण करते हुए गिरनार पर्वत पर बस गये। कानीराम सिद्ध महात्मा थे और इनके जीवन की अनेक चमत्कारी घटनाएं प्रसिद्ध हैं। सन् १७६९ को काशी में ही इनका निधन हुआ।

संदर्भ

  1. काशी की विभूतियाँ।वाराणसी वैभव
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लक्ष्मीबाई


१९ नवंबर १८३५-१८जून १८५९

भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में केवल पुरुषों ने ही अपने जीवन का बलिदान नहीं किया बल्कि यहाँ की वीरांगनाएँ भी घर से निकलकर साहस के साथ युद्ध-भूमि में शत्रुओं से लोहा लिया।  उन वीरांगनाओं में अग्रणी थीं झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई।

१९ नवंबर, १८३५ ई. के दिन काशी के भदैनी क्षेत्र में मोरोपन्त जी की पत्नी भागीरथी बाई ने एक पुत्री को जन्म दिया।  पुत्री का नाम मणिकार्णिक रखा गया परन्तु प्यास से मनु पुकारा जाता था।  मनु की अवस्था अभी चार-पाँच वर्ष ही थी कि उसकी माँ का देहान्त हो गया।  मनु के पिता मोरोपन्त जी मराठा पेशवा बाजीराव की सेवा में थे।  चूँकि घर में मनु की देखाभाल के लिए कोई नहीं था इसलिए पिता मनु को अपने साथ बाजीराव के दरबार में ले गए जहाँ चञ्चल एवं सुन्दर मनु ने सबका मन मोह लिया।  लोग उसे प्यार से "छबीली" बुलाने लगे।

पेशवा बाजीराव के बच्चों को पढ़ाने के लिए शिक्षक आते थे।  मनु भी उन्हीं बच्चों के साथ पढ़ने लगी।  मनु ने पेशवा के बच्चों के साथ-साथ ही तीर-तलवार तथा बन्दूक से निशाना लगाना सीखा।  इस प्रकार मनु अल्पवय में ही अस्र-शस्र चलाने में पारंगत हो गई।  अस्र-शस्र चलाना एवं घुड़सवारी करना मनु के प्रिय खेल थे।

समय बीता और मनु विवाह योग्य हो गयी।  झाँसी के राजा गंगाधार राव के साथ मनु का विवाह बड़े ही धूम-धाम से सम्पन्न हुआ।  विवाह क पश्चात् मनु का नाम लक्ष्मीबाई रखा गया।  इस प्रकार काशी की कन्या मनु झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई बन गई।

रानी बनकर लक्ष्मीबाई को पर्दे में रहना पड़ता था।  स्वच्छन्द विचारों वाली रानी को यह रास नहीं आया।  उन्होंने किले के अन्दर ही एक व्यायामशाला बनवाई और शस्रादि चलाने तथा घुड़सवारी हेतु आवश्यक प्रबन्ध किए।  उन्होंने स्रियों की एक सेना भी तैयार की।

राजा गंगाधर राव अपनी पत्नी की योग्यता से अतीव प्रसन्न ते।

रानी अत्यन्त दयालु भी थीं  एक दिन जब कुलदेवी महालक्ष्मी की पूजा करके लौट रही थीं, कुछ निर्धन लोगों ने उन्हें घेर लिया।  उन्हें देखकर महारानी का हृदय द्रवित हो उठा।  उन्होंने नगर में घोषणा करवा कर एक निश्चित दिन गरीबों में वस्रादि का वितरण कराया।

कुछ समय पश्चात् रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया।  सम्पूर्ण झाँसी आनन्दित हो उठा एवं उत्सव मनाया गया किन्तु यह आनन्द अल्पकालिक ही था।  कुछ ही महीने बाद बालक गम्भीर रुप से बीमार हुआ और उसकी मृत्यु हो गयी।  झाँसी शोक के सागर में डूब गई।  शोकाकुल राजा गंगाधर राव भी बीमार रहने लगे एवं मृतप्राय हो गये।  दरबारियों ने उन्हें पुत्र गोद लेने की सलाह दी।  अपने ही परिवार के पाँच वर्ष के एक बालक उन्होंने गोद लिया और उस अपना दत्तक पुत्र बनाया।  इस बालक का नाम दामोदर राव रखा गया।  गोद लेने के दूसरे दिन ही राजा गंगाधर राव की दु:खद मृत्यु हो गयी।

इसी के साथ रानी पर शोक का पहाड़ टूट पड़ा।  झाँसी का प्रत्येक व्यक्ति रानी के दु:ख से शोकाकुल हो गया।

उस समय भारत के बड़े भू-भाग पर अंग्रेजों का शासन था।  वे झाँसी को अपने अधीन करना चाहते थे।  उन्हें यह एक उपयुक्त अवसर लगा।  उन्हें लगा रानी लक्ष्मीबाई स्री है और हमारा प्रतिरोध नहीं करेगी।  उन्होंने रानी के दत्तक-पुत्र को राज्य का उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया और रानी के पत्र लिख भेजा कि चूँकि राजा का कोई पुत्र नहीं है, इसीलिए झाँसी पर अब अंग्रेजों का अधिकार होगा।  रानी यह सुनकर क्रोध से भर उठीं एवं घोषणा की कि मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी।  अंग्रेज तिलमिला उठे।  परिणाम स्वरुप अंग्रेजों ने झाँसी पर आक्रमण कर दिया।  रानी ने भी युद्ध की पूरी तैयारी की।  किले की प्राचीर पर तोपें रखवायीं।  रानी ने अपने महल के सोने एवं  चाँदी के सामान तोप के गोले बनाने के लिए दे दिया।

रानी के किले की प्राचीर पर जो तोपें थीं उनमें कड़क बिजली, भवानी शंकर, घनगर्जन एवं नालदार तोपें प्रमुख थीं।  रानी के कुशल एवं विश्वसनीय तोपची थे गौस खाँ तथा खुदा बक्श।  रानी ने किले की मजबूत किलाबन्दी की।  रानी के कौशल को देखकर अंग्रेज सेनापित ह्यूरोज भी चकित रह गया।  अंग्रेजों ने किले को घेर कर चारों ओर से आक्रमण किया।

अंग्रेज आठ दिनों तक किले पर गोले बरसाते रहे परन्तु किला न जीत सके।  रानी एवं उनकी प्रजा ने प्रतिज्ञा कर ली थी कि अन्तिम श्वाँस तक किले की रक्षा करेंगे।  अंग्रेज सेनापति ह्यूराज ने अनुभव किया कि सैन्य-बल से किला जीतना सम्भव नहीं है।  अत: उसने कूटनीति का प्रयोग किया और झाँसी के ही एक विश्वासघाती सरदार दूल्हा सिंह को मिला लिया जिसने किले का दक्षिणी द्वार खोल दिया।  फिरंगी सेना किले में घुस गई और लूटपाट तथा हिंसा का पैशाचिक दृश्य उपस्थित कर दिया।

घोड़े पर सवार, दाहिने हाथ में नंगी तलवार लिए, पीठ पर पुत्र को बाँधे हुए रानी ने रणचण्डी का रुप धारण कर लिया और शत्रु दल संहार करने लगीं।  झाँसी के वीर सैनिक भी शत्रुओं पर टूट पड़े।  जय भवानी और हर-हर महादेव के उद्घोष से रणभूमि गूँज उठी।  किन्तु झाँसी की सेना अंग्रेजों की तुलना में छोटी थी।  रानी अंग्रेजों से घिर गयीं।  कुछ विश्वासपात्रों की सलाह पर रानी कालपी की ओर बढ़ चलीं।  दुर्भाग्य से एक गोली रानी के पैर में लगी और उनकी गति कुछ धीमी हुई।  अंग्रेज सैनिक उनके समीप आ गए।

रानी ने पुन: अपना घोड़ा दौड़ाया।  दुर्भाग्य से मार्ग में एक नाला आ गया।  घोड़ा नाला पार न कर सका।  तभी अंग्रेज घुड़सवार वहां आ गए।  एक ने पीछे से रानी के सिर पर प्रहार किया जिससे उनके सिर का दाहिना भाग कट गया और उनकी एक आँख बाहर निकल आयी।  उसी समय दूसरे गोरे सैनिक ने संगीन से उनके हृदय पर वार कर दिया।  अत्यन्त घायल होने पर भी रानी अपनी तलवार चलाती रहीं और उन्होंने दोनों आक्रमणकारियों का वध कर डाला।  फिर वे स्वयं भूमि पर गिर पड़ी।  पठान सरदार गौस खाँ अब भी रानी के साथ था।  उसका रौद्र रुप देख कर गोरे भाग खड़े हुए।

स्वामिभक्त रामराव देशमुख अन्त तक रानी के साथ थे।  उन्होंने रानी के रक्त रंजित शरीर को समीप ही बाबा गंगादास की कुटिया में पहुँचाया।  रानी ने व्यथा से व्याकुल हो जल माँगा और बाबा गंगादास ने उन्हें जल पिलाया।

रानी को असह्य वेदना हो रही थी परन्तु मुखमण्डल दिव्य कान्त से चमक रहा था।  उन्होंने एक बार अपने पुत्र को देखा और फिर वे तेजस्वी नेत्र सदा के लिए बन्द हो गए।  वह १८ जून १८५९ का दिन था जब क्रान्ति की यह ज्योति अमर हो गयी।  उसी कुटिया में उनकी चिता लगायी गई जिसे उनके पुत्र दामोदर राव ने मुखाग्नि दी।  दानी का पार्थिव शरीर पंचमहाभूतों में विलीन हो गया और वे सदा के लिए अमर हो गयीं।  आज भी उनकी वीरता के गीत प्रसिद्ध हैं -

       
बुन्देले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी।

       
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थीं।।

 

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बनारस शिव से कभी मुक्त नही, जब से आये कैलाश न गये। बनारसी की मस्ती को लिखा नही जा सकता अनुभव होता है। अद्भूद है ये शहर जिन्दगी जीनेका तरीका कुछ ठहरा हुआ है पर सुख ठहराव में है द्रुतविलंबित में नही. मध्यम में है इसको जीनेवाला है यह नगर। नटराज यहां विश्वेश्वर के रुप में विराजते है इसलिये श्मशान पर भी मस्ती का आलम है। जनजन् शंकरवत् है। इस का अनुभव ही आनन्द है ये जान कर जीना बनारस का जीना है जीवन रस को बना के जीना है।
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काल हर !! कष्ट हर !! दुख हर !! दरिद्र हर !! हर हर महादेव !! ॐ नमः शिवाय.. वाह बनारस वाह !!