त्रलोक्य से न्यारी काशी नगरी की होली बाबा विश्वनाथ दरबार से शुरु होती है। रंग भरनी एकादशी के दिन सभी लोग बाबा संग अबीर-गुलाल खेलते हैं। इसके साथ ही सभी होलियाना माहौल में रंग जाते हैं। होली का यह सिलसिला बुढ़वा मंगल तक चलता है। इस दौरान जगह-जगह होली मिलन समारोहों की धूम देखने को मिलती है, जहां पर अबीर-गुलाल के बीच सभी एक-दूसरे से गले मिलते हैं। बनारस में सब कुछ बदलने के बाद भी लोग होली की मस्ती में डूबना नहीं भूलते। होली के दिन पूरे शहर की गलियों व नुक्कड़ों पर होलिका दहन के साथ ही युवकों की टोलियां फाग गाती हुई रात भर हुड़दंग करती है। कई स्थानों पर ढोल- नगाड़ों की थाप व भोजपुरी फिल्मी गीतों पर डांस होता है। दूसरे दिन पूरा शहर रंगोत्सव में डूब जाता है। मुकीमगंज से बैंड-बाजे के साथ निकलने वाली होली बारात में बाकायदा दूल्हा रथ पर सवार होता है। बारात जब अपने नीयत स्थल पर पहुंचती है तो महिलाएं परंपरागत ढंग से दूल्हे का परछन भी करती है। मंडप में दुल्हन भी आती है, लेकिन वर-वधू के बीच बहस शुरू होती है और दुल्हन शादी से इंकार कर देती है। बारात रात में लौट जाती है। होली वाले दिन काशी में चौसट्टी देवी का दर्शन करना लोग नहीं भूलते। हालांकि अब पहले की अपेक्षा लोगों की भीड़ कम हो गई है। बनारस की होली में कभी अस्सी का चर्चित कवि सम्मेलन भी था। मशहूर हास्य कवि स्व. चकाचक बनारसी, पं. धर्मशील चतुर्वेदी, सांड़ बनारसी, बदरी विशाल आदि शरीक होते थे। चकाचक के निधन के बाद अस्सी के हास्य कवि सम्मेलन पर विराम लग गया। अब इसका स्थान टाउनहाल मैदान में होने वाले हास्य कवि सम्मेलन ने ले लिया है। यहां भी रात तक लोग इसका आनंद लेते हैं।
जी हा बनारस कि गालिया भी काफी मशहूर है यहाँ होली वाले दिन एक कवि सम्मलेन होता है जिसमे माइक का प्रयोग नहीं होता और वह सिर्फ गलियों की कविता कही जाती है एक उदहारण है सांड बनारसी का ................. चर्चौन्धी का मेला पहुचे पेले गुरु और चेला काफी मशहूर कविता है यहाँ किसी को अगर शब्द उत्तम लगे तो वह वाह वाह नहीं कहा जाता है बल्कि बनारसी तरीके से कहा जाता है भाग भाग भाग भोसड़ी के
बाक़ी कवियों को छोड़ दें और सिर्फ़ चकाचक बनारसी की ही बात करें। साल के ३६४ दिन चकाचक की पहचान एक हास्य कवि की ही बनी रही। ये भी पता चला है कि वे दूसरा कोई काम नहीं करते थे और कवि सम्मेलनों में हुई आमदनी के ज़रिये ही अपना खर्चा चलाते थे। लेकिन एक होली के दिन उनका रूप बदल जाता और वे सारी वर्जनाओं को छोड़ कर भाषा को खुला छोड़ देते। और फिर ऐसी कोई चीज़ निकलती जो बड़े-बड़े विद्वानों को किए जा रहे सम्मान को बहुत हुआ बताकर उनकी माता जी से सम्बन्ध स्थापित करने की घोषणा होती :
बड़े-बड़े विद्वान, तुम्हारी...
बहुत हुआ सम्मान, तुम्हारी... !
@#$%^&*()_+
इस सम्मेलन में पढ़ी गई कविताओं का एक संकलन भी निकलता जो पढ़ना तो हर कोई चाहता लेकिन घर में रखना कोई न चाहता। इस सम्मेलन में भाग लेने वाले कवि आम तौर पर हास्य कवि ही होते और कविता की मुख्य धारा से उनका कोई सीधा सम्बन्ध नहीं होता ..
देखे विडियो : वाराणसी में अस्सी कवि सम्मेलन (होली )
0 comments:
आपके स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा देती हैं जिसके लिए हम आप के आभारी है .
Post a Comment