'शिवप्रिया
की काशी में बड़ी महिमा है। वह शिव का प्रिय पेय है। मैं भी इस चिन्मय-पेय
का बचपन से ही अनुराग रहा हूं। मेरे दादाजी घर पर ही स्वनिर्मित भांग
छानते रहे हैं। पिताजी जब काशी में होते तो यह जिम्मा वही बखूबी निभाते।
सहयोग के साथ मेरा भी प्रशिक्षण चलता रहा। बादाम, केसरू, खरबूजा-तरबूज के
बीज छीलने जैसे काम मुझे सौंपे जाते। भांग धोने से लगायत सिल-लोढ़ा तक
पहुंचने में कुछेक वर्ष लगे। भांग पिसार्इ में लोढे़ के साथ चिपका सिल
उठाने की कला में पारंगत होने के लिये काफी दंड पेलना पड़ा था। सिल-लोढ़ा
से बना यह रिश्ता पत्रकारिता में भी काम आया। जब आपातकाल में जेल में रहा।
तरल भांग तो वहां उपलब्ध न था लेकिन 'कोफेपोशा' में बंद घड़ी तस्कर मित्र
शशि अग्रवाल मुझे मनुक्के की गोली उपलब्ध करवा देते थे। उसी पीड़ा के दौर
में मैंने सिल-लोढ़ा बनाने वाले कारीगरों पर एक फीचर लिखा। जेल में ही
चंचलजी ने स्केच बनाये थे जो 'दिनमान में कवर स्टोरी के तौर पर छपा। (जिसे
जेल से चोरी छिपे प्राप्त कर आशा भार्गव ने ही 'दिनमान तक पहुंचाया था)।
रघुवीर सहायजी का अतिशय प्रेम था, जोखम भरा। 'विजया से ही जुड़ा आपातकाल से
पहले का एक प्रसंग कवि-संपादक रघुवीर सहायजी के साथ का है। उन्हें अपने
छपास आकांक्षी मित्रों से बचाकर भांग की ठंडार्इ पिलाने के बाद बनारस के
गोपाल मंदिर (जिसके तहखाने की काल कोठरी में गोस्वामी तुलसीदास ने रची थी
विनय पत्रिका) के सामने पखंडु सरदार की रबड़ी खिलाने ले गया था। उसी शाम
काशी पत्रकार संघ में कमलापति त्रिपाठी के लिये आयोजित समारोह में बिना
तयशुदा कार्यक्रम में बोलने के बाद वापसी में एकांत में उन्होंने मुझसे
पूछा था कि, 'बेतुका तो नहीं बोल गया। उनका आशय भांग के असर से रहा था।
मेरे प्रति अतिशय स्नेहवश मेरी नालाकियों में भी वे रस लेते थे। एक बार
भारतेन्दु भवन से बहुत निकट रंगीलदास फाटक वाले पंडित लस्सी वाले के
अनूठेपन का जिक्र किया तो तुरन्त तैयार हो गये। पंडित लस्सीवाले की खासियत
यह थी कि उकड़ु बैठकर मथनी से आधे घंटे में एक मटकी तैयार करते थे। मजाल था
कि क्रम से पहले कोर्इ लस्सी पा जाये, चाहे कितना बड़ा तुर्रम-खां हो।
धैर्य के साथ सहायजी लस्सी की प्रतिक्षा में खड़े रहे। मैं उन्हें बताना
भूल गया था कि पुरवा (कुल्हड़) चांटकर या पानी से धोकर पीने के बाद ही
फैंकना होता है। नतीजन लस्सी पीने के बाद सहायजी ने पुरवा कचरे में फेंक
दिया। नियम के नेमी पंडित 'गोरस की इस दुर्गति से पगला गये। छिनरो-भोसड़ी
से प्रारम्भ होकर मतारी-बहिन तक पहुंचते ही मैंने पकड़ लिऐ पैर कि, 'गलती
हमार हौ, इनके नाही बतउले रहली। इ तड बहुत बड़का संपादक हउवन दिल्ली वाला।
पंडितवा मुझे पहचानता था, इसलिए मुझे दो-तीन करारा झापड़ और भरपूर गाली
देने के बाद शांत हुए थे। हतप्रभ सहायजी ने पूरी बात सुनने के बाद पंडितवा
को सराहा और मुझे मीठी-लताड़ लगार्इ। मैं बकचोद-सा खड़ा चुपचाप सुनता रहा
था। सातवें दशक के उसी दौर में दैनिक 'शांती मार्ग से श्रीप्रकाश शर्मा को
अगवा कर दैनिक 'सन्मार्ग में लिवाने के बाद से ही दोपहर को भी 'शिवप्रिया
सेवन का सिलसिला प्रारम्भ हुआ था। अन्यथा मैं सांयकाल ही भारत रत्न रविशंकर
के बनारसी पीए मिश्राजी के 'मिश्राम्बु पर ही 'विजया ग्रहण करता था।
श्रीप्रकशवा के लिये समय-काल का कोर्इ मायने नहीं था। 'मिश्राम्बु पर जुटने
वालों में अशोक मिसिर, मंजीत चुतुर्वेदी, अजय मिश्रा, गोपाल ठाकुर,
वीरेन्द्र शुक्ल, नचिकेता देसार्इ जैसे भंगेड़ी धुरंधर तो स्थायी सदस्य
सरीखे थे। छायाकार एस. अतिबल, निरंकार सिंह, योगेन्द्र नारायण शर्मा जैसे
'कुजात सूफी भी थे, जो बिना भांगवाली ठंडार्इ पीकर पैसा बर्बाद करते-करवाते
थे। मेरी और श्रीप्रकाश की लाख जतन के बावजूद निरंकरवा अंत तक बिदकता ही
रहा। अतिबलजी असमय संसार छोड़ गये लेकिन अब बुढ़ौती में योगेन्द्र शर्मा
'विजया-पंथी' हुए हैं। आपातकाल से चौतरफा मुकाबला मैंने और नचिकेतवा ने
भांग छानकर ही किया था। उन्हीं दिनों जब प्रशासन ने तरल भांग पर रोक लगाने
की कोशिश की थी तब संभवत: सिर्फ मैंने ही दैनिक 'सन्मार्ग में संपादकीय
टिप्पणी लिखकर विरोध प्रकट किया था। आपातकाल में किए गये इस कारनामे के
लिये मुझे 'भंग-भूषण' की उपाधि दी जानी चाहिए। काशी से छोटी काशी (जयपुर)
पहुंचने पर औघड़ स्वभाव वाले नेता माणकचंद कागदी ने पहले-पहल तरल भांग
छनवाया, जो मुझे नहीं पचा था। मैं साफ-सुथरी शुद्ध घरेलू या मिश्राम्बु की
तासीर का आदी था। जबकि कागदीजी ने जौहरी बाजार स्थित गोपालजी के रास्ते के
मुहाने पर स्थित ठेले वाली छनवा दी। मिजाज उखड़ गया। हालाकि बनारस से
श्रीप्रकाश शर्मा के जयपुर आने से पहले मैंने बड़ी चौपड़ पर मेंहदी वाले
चौक की आधी बनारसी ठाठ वाली भांग की दुकान तलाश ली थी। उस दुकान पर ठंडार्इ
नदारद , सिर्फ सूखी बर्फी की विविधता थी। मेरी खोज वाले 'काना-मामा की धज
में साफ-सफार्इ-स्वाद से लेकर पहरावे तक बनारसीपन की झलक पाकर मन चंगा हो
गया था। लेकिन जौहरी बाजार के ग्रह बनारसवालों से सदा वक्री रहे हैं। तभी
एक बनारसी संत संपूर्णानन्दजी पर 'गोली कांड़ का दाग लगाा था और मुझ निरीह
पर 'मदन-कांड का धब्बा लगा था। हुआ यूं था कि आज के 'पत्रकारों के थानेदार
आनन्द जोशी उन दिनों जौेहरी बाजार की एक गली में और मैं सुभाष चौक पर रहता
था। एक होली के दिन बड़ी चौपड़ पर मिलना तय हुआ। बर्फी खाकर बम-बम भोले
किया। अंतत: मेरे लाख मना करने के बावजूद आनंदजी ने भांग की पकौड़ी
खा-खिलाकर 'मदन-कांड की नीवं रख ही दी थी। परिक्रमा के बाद आंनद के उनके
पांच बत्ती सिथत 'दाक्षयानी-गृह' छोड़कर घर पहुंचा ही था। नहाने की तैयारी
कर ही रहा था कि 'भैरवी चक्र के रसिया ओम थानवी और वारूणी - प्रेमी आनंद
जोशी के इकलौते साले मदन पुरोहित 'परशुराम की मुद्रा में अवतरित हुए जबकि
कंठी-टीकाधारी मदनजी वैष्णव परम्परा के आकंठ ध्वजावाहक रहे हैं। मेरी
नालायकी के कारण ही आनंदजी ने 'दाक्षायानी' में उत्पात मचा रखा है। मैं
स्वयं असंतुलित स्थिति में था फिर भी 'कोप से बचने के लिए जाना ही पड़ा। न
जाता तो मदनजी पिटार्इ भी कर सकते थे। जब पहुंचा तो आनंदजी एक चक्र तांड़व
पूरा कर दूसरे चक्र पर आमादा थे। इमली-गुड़ पानी, नींबू, अचार का घरेलू
इलाज एक तरफ, मदनजी के शब्द बाणों की बौछार से बचता-बचता घर पहुंचा था कैसे
याद नहीं। भांग कफशामक, पित्त कोपक दवा है। संतुलित सेवन आनंद प्रदान करता
है असंतुलित निरानंद। 'सन्मार्ग' कालीन दौर का एक किस्सा अब तक याद है।
पत्रकारिता में भाषा के प्रति चौकन्ना-पहरेदार बनारसी कमर वहीद नकवी, ओम
थानवी, राहुलदेव विशेष ध्यान से पढे़। एक दिन अस्पताली संवाददाता को एक खास
खबर का शीर्षक नहीं सूझ रहा था। खबर थी कि कबीर चौरा अस्पताल में एक मरीज
ऐसा भर्ती हुआ है जिसका 'कामायुध केलिक्रिया की कर्इ चक्रीय दौर के बाद भी
पूर्व सिथति पर नहीं आ रहा है। हमें 'ज्ञान वलिलका (वकौल अशोक चतुर्वेदी)
सेवन के बाद भी छापने लायक शीर्षक नहीं सूझा। तब श्रीप्रकाश के साथ दैनिक
'गांडीव में कार्यरत 'वारुणि-संत गरिष्ठ पत्रकार रमेश दूबे की शरण में जा
पहुंचे। उन्होंने शीर्षक सुझाया - 'सतत ध्वजोत्थान से पीडि़त अस्पताल में
भर्ती।
और अंत में सालों पहले अशोक शास्त्री से 'साढे़ छह की चरचा करने वाले कलम-कूंची के सिद्धात्मा विनोद भरद्वाज यदि मेरी खांटी सलाह मानकर 'वारुणी के बजाय 'विजया का सेवन करने लगें तो अब भी 'पौने सात की संभावना है। महादेव! अब तो मसाने के खेलब होली और छानव भांग, गुरु! ब्म-बम भोले!
और अंत में सालों पहले अशोक शास्त्री से 'साढे़ छह की चरचा करने वाले कलम-कूंची के सिद्धात्मा विनोद भरद्वाज यदि मेरी खांटी सलाह मानकर 'वारुणी के बजाय 'विजया का सेवन करने लगें तो अब भी 'पौने सात की संभावना है। महादेव! अब तो मसाने के खेलब होली और छानव भांग, गुरु! ब्म-बम भोले!
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