Comedy Nights With Kapil

Comedy Nights With Kapil : Sania Mirza - Full Episode - 22nd December 2013
Kapil starts the show with his wisecracks and jokes on political parties and politics. Later, he  
questions the audience about their views on politics. Kapil announces that he has been given a ticket for the next elections. He tries to give the good news to his family members, who ridicule the same. Rajni, who is Raju's wife comes from the village, to meet Raju. Sania Mirza joins Kapil on the show. Watch the episode and have a funny and rollicking time.

Renowned, actor-comedian Kapil Sharma makes his debut as a TV show producer with his new show Comedy Nights With Kapil. He will be seen multiple roles of an actor, scriptwriter and producer in his production debut. Already famous for his amazing comic timing and his talent to dig humor out of any situation, he is ready present everyday life in a fresh ad unique way.

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Comedy Nights With Kapil

Comedy Nights With Kapil : Govinda - Full Episode - 15th December 2013
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Comedy Nights With Kapil

Comedy Nights With Kapil : Shahid Kapoor, Sonakshi Sinha - Full Episode - 8th December 2013
The episode starts with Kapil speaking about the generation being born now a days. He speaks about the over smart children of this generation. Kapil's wife again comes and complains about Dadi asking for a child. Later, Prabhu Deva, Shahid Kapoor, Sonakshi Sinha and Sonu Sood join Kapil onstage for the promotion of the movie, R...Rajkumar. Watch the episode and have a hearty laugh.

Renowned, actor-comedian Kapil Sharma makes his debut as a TV show producer with his new show Comedy Nights With Kapil. He will be seen multiple roles of an actor, scriptwriter and producer in his production debut. Already famous for his amazing comic timing and his talent to dig humor out of any situation, he is ready present everyday life in a fresh ad unique way.
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देव दीपावली- २०१३




"बनारसी मस्ती के बनारस वाले" पूरी ऐल्बम देखने के लिए

देव दीपावली POST LINK _1
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Nag Nathaiya Festival Varanasi 2013

नाग नथैया: नौ बुड़वन क खेल हौ भइया

अपने आप में अनोखी कृष्ण लीला का जीवंत उदाहरण प्रस्तुत करती नागनथैया लीला। वर्षो से चली आ रही इस लीला का ढंग, उसका आधार आज भी पारंपरिक है।

भक्त प्रवर गोस्वामी तुलसी दास जी द्वारा शुरू की गई लीला के दौरान पूरे समय तक काशी की गंगा यहां यमुना की भूमिका में आ जाती हैं। भक्त की टेक निभती हैं। वर्षो बीते, रहन-सहन बदला, लोग बदले लेकिन इस लीला की परंपरा आज भी उतनी ही पारंपरिक और प्राचीन है।

जिस दिन नागनथैया लीला होती है उस दिन कृष्ण जी का कदंब के पेड़ पर चढ़ना, कंस का संवाद, गीत सब कुछ लोगों के मन-मस्तिष्क में बस गया है लेकिन इस लीला के पीछे की जो तैयारी होती है, वह कोई नहीं जानता। लीला को जीवंत बनाने के लिए पीढि़यों से लेाग इसमें स्वरूप बनते आ रहे हैं। सखा, बकासुर, कं स का किरदार निभाने वाले लोगों के यहां उनके पूर्वजों की बनाई परंपरा को आज भी उनकी पीढ़ी उसी श्रद्धाभाव से निभा रही है।

तकरीबन 20 वर्षो से कंस का किरदार निभाने वाले भगवानपुर निवासी फूल- माला व्यवसायी कृष्ण शंकर सिंह बताते हैं, पिताजी को तुलसीघाट की लीलाओं में अपार श्रद्धा थी। वह उसमें रावण व कंस का पात्र बनते थे। बहुत छोटा था उनके साथ लीला देखने जाता था। उसमें मैं कभी सखा, तो कभी श्री दामा बनता था। वक्त के साथ कब यहां की लीला से जुड़ता चला गया पता नहीं चला। मेरी आगे की पीढ़ी भी अब इसमें रूचि लेती है।

एक तरफ जहां पात्रों में लीला के प्रति अपार श्रद्धा है। वहीं उनके आगे की पीढ़ी भी इस परंपरा का निर्वाह उसी तरह कर रही है जैसे उनके पिता, दादा ने किया। लीला के दिन भोर में श्री संकटमोचन मंदिर के बागीचे में कदंब का जंगल है, वहीं पर कदंब के वृक्ष से प्रार्थना करके ऐसे पेड़ को काटा जाता है जिस पर चढ़कर भगवान श्री कृष्ण यमुना (गंगा) में कूद सकें। ये पेड़ सभी भक्त मिलकर अपने कांधे पर लादकर तुलसी घाट लाते हैं। जहां से वृक्ष काटा जाता है उसी दिन वहां एक और कदंब का नया पौधा लगा दिया जाता है।

सुबह ही गंगा जी में दो बांस गाड़कर 2 कमलपुष्प के प्रतीक रूप में उसी बांस के सहारे पेड़ लगा दिया जाता है। दूसरी ओर लगभग 20 फुट लंबा नाग कपड़े की खोली में पुआल भरकर बना दिया जाता है और मुंह पर सात फन वाले नाग का ढांचा बैठा दिया जाता है। पेड़ गड़ने के बाद नाग को पानी में डुबो दिया जाता है जिसकी रस्सी घाट पर गड़े खूंटे से बंधी रहती है और उसे कमल वाले बांस के सहारे बांध दिया जाता है। आश्चर्य की बात है नागनथैया के दिन जो कृष्ण जी गंगा में कूदते हैं उनका चयन उसी दिन सुबह किया जाता है।

महंत जी खुद आठ साल तक बने श्री कृष्ण : संकटमोचन मंदिर के महंत और लीला के संरक्षक प्रो. विश्वंभर नाथ मिश्र कालीय दमन की विशेष लीला के लिए स्वयं आठ वर्षो तक कृष्ण की भूमिका निभा चुके है।

अपार भीड़ के समक्ष सखाओं संग गेंद खेल रहे भगवान श्री कृष्ण श्रीदामा की गेंद को लाने के लिए यमुना (गंगा) में कूद जाते हैं। इधर गंगा जी में खड़े निषाछ लोग कमल को श्री कृष्ण के नीचे कर देते हैं जिसके सहारे नाग बंधा रहता है। बस दो ही मिनट बाद भगवान श्री कृष्ण नाग के फन पर बंसी बजाते हुए निकल आते हैं। 1लाखों देशी-विदेशी लोग इस दृश्य को देखकर भावविह्वल हो जाते हैं। परंपरा के अनुसार काशी नरेश लीला में अपने पार्षदों समेत स्वयं उपस्थित रहते हैं। समूचा क्षेत्र 'वृन्दावन बिहारी लाल की जय' के जयकारे से मुखरित हो उठता है।

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सुबहे बनारस _ हमारी काशी

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काल हर !! कष्ट हर !! दुख हर !! दरिद्र हर !! हर हर महादेव !! ॐ नमः शिवाय.. वाह बनारस वाह..
सुप्रभात .. बनारस▬●Good Morning.. Banaras▬● সুপ্রভাত .. কাশী▬●મોર્નિંગ સારા .. બનારસ▬● ಮಾರ್ನಿಂಗ್ ಗುಡ್ .. ಬನಾರಸ್▬●
नमस्ते बनारस.. महादेव .. जय श्री कृष्ण.. राधे राधे.. सत श्री आकाल.. सलाम वाले कुम.. जय भोले ...






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विश्व प्रसिध्द चेतगंज की नक्कैट्या ( २३ अक्तूबर २०१३ )

चेतगंज की नक्कटैया - बनारस की सर्वाधिक मशहूर नक्कटैया चेतगंज की मानी जाती है। काशी में चेतगंज की रामलीला कार्तिक में होती है। विजयादशमी के एक सप्ताह बाद कार्तिक कृष्ण चतुर्थी (करवा-चौथ) की रात चेतगंज मुहल्ले में लाखों की भीड़ वाला 'लक्खी मेला' अर्थात चेतगंज की नक्कटैया सम्पन्न होती है। यह लीला केवल भारत में ही नहीं बल्कि विश्वप्रसिद्ध मानी जाती है। भारत के कोने-कोने से भक्तगण भगवान के दर्शन के लिए
आते हैं। इस दिन पूरा मेला क्षेत्र बिजली की रंग-बिरंगी झालरों एवं स्थान-स्थान पर बने स्वागत तोरणों से सजा होता है। दुकानें सजी होती हैं। मिट्टी के बर्तनों से लेकर घर-गृहस्थी के समान तक बिकते हैं। घरों की छतों-बाजारों पर महिलाओं एवं बच्चों की भीड़ देखते ही बनती है।

इस लीला का प्रारम्भ लगभग ११५ वर्ष पहले सन १८८७ ई. में राम के अनन्य भक्त बाबा फतेहराम ने किया था। बताते हैं कि बाबा फतेहराम नगर में यायावर वृत्ति से निरंतर भ्रमण किया करते थे। जहाँ कहीं भी लीला होती थी उनका आसन जम जाता था। अन्त में इसी भक्तिभाव से प्रेरित होकर बाबा ने चेतगंज में एक नई शुरुआत "चेतगंज रामलीला समिति" की स्थापना करके की। प्रारंभ में इस लीला की व्यवस्था चन्दे पर आधारित थी किन्तु बाद में बाबा ने एक अनूठी तरकीब निकाली कि मेला क्षेत्र का प्रत्येक दुकानदार प्रतिदिन एक-एक पैसा देगा। इस प्रकार वर्ष भर में लीला की व्यवस्था के लिए काफी धन एकत्रित होने लगा। बाद में बाबा के इस निस्पृह जीवन से अभिभूत होकर नगर के सेठ-साहुकार भी इस लीला में उत्साह के साथ भाग लेने लगे। उनकी तरफ से लाग-विमानों की व्यवस्था होने लगी।

नक्कटैया लीला में, मूलत: तुलसीकृत मानस पर आधारित रामलीला के श्रृंखलाबद्ध प्रदर्शन के क्रम में, लक्ष्मण अमर्यादित सुपर्णखा की नाक काटकर रावण की आसुरी शक्ति को चुनौती देते हैं, जिसके प्रत्युत्तर में राम-लक्ष्मण के विरुद्ध सुपर्णखा एवं उसके भाई खर-दूषण द्वारा आसुरी सैन्य-शक्ति प्रदर्शन और राम से युद्ध की यात्रा का जुलूस ही नक्कटैया मेले का आकर्षण बनता है। यह जुलूस पिशाच मोचन मुहल्ले से आधी रात तो चलकर लीला स्थल चेतगंज तक (लगभग २ कि.मी.) प्राय: ४ बजे तक पहुँचता है।

राम के विरुद्ध सुपर्णखा के सैन्य अभियान को प्रदर्शित करने के लिए लोग, स्वाँग, चमत्कृत और डरावने दृश्यों के माध्यम से समाज और देश की विभिन्न अव्यवस्था जनित कुरीतियों को खुले मंच पर दिखाने की परम्परा रही है। इस बात के उल्लेख भी मिलते हैं कि राष्ट्रीय चेतना जागृत करने वाले और समकालीन समस्याओं से सम्बन्धित दृश्य भी लोग के माध्यम से दिखलाए जाते थे जैसे पुलिस अत्याचार, सत्याग्रह, नमक आन्दोलन, दांडी यात्रा, जलियांवालाबाग हत्याकांड इत्यादि।

सामाजिक कुरीतियों में शराबी, राक्षस, गौनहारिन, बहुस्री प्रथा आदि के दृश्य भी लोगों और स्वाँगों के माध्यम से प्रदर्शित होते हैं। दर्शकों के मनोरंजन हेतु राक्षसों की चमत्कृत करने वाली युक्तियों को भी दर्शाया जाता था, जैसे मोमबत्ती की रोशनी में पंख फड़फड़ाते कबूतर के ऊपर एक आदमी, जिसके हाथ में तार के सहारे लटकते बच्चे, जीभ के आर-पार सलाख और टपकती खून की बूँदें, पेट के आप-पार तलवार आदि। इन सब दृश्यों के आगे चलती नाककटी सुपर्णखा और उसके पीछे राक्षसी सेना के डरावने दृश्य होते हैं।

इसके अतिरिक्त विभिन्न देवी-देवताओं की झाँकी, हरिशचन्द्र प्रसंग तथा पौराणिक प्रसंगों आदि की झाँकियाँ भी निकाली जाती है। मेले में दुर्गा व काली के मुखौटे, मुकुट व वस्र धारण किए हुए सैकड़ों की संख्या में पात्र जुलूस के साथ चलते हैं। इनके अनोखे करतब जैसे तलवार की धार पर माँ काली द्वारा नृत्य
थाली को कोर पर नृत्य का प्रदर्शन आदि बीच-बीच में किया जाता है जो आश्चर्यजनक व मनोरंजक होते हैं। विशेष आकर्षक बात यह है कि इस मेले के लिए विशेष रुप से तैयार किए गए मँहगे से मँहगे भाग व विमान बाहर से, आस-पास के जिलों से ही नहीं बल्कि दूसरे प्रदेशों से भी प्रदर्शन के लिए आते हैं। इस मेले की सबसे प्रमुख विशेषता यह है कि इसे "सामप्रदायिक एकता का प्रतीक" माना जाता है। उत्कृष्ट भाग को रामलीला समिति द्वारा पुरस्कृत किया जाता है।

दो-तीन दशक पूर्व नक्कटैया मेले का उद्देश्य व्यंगयातमक अभिव्यक्तियों का खुले मंच पर प्रदर्शन या धार्मिक वातावरण के निर्माण तक सीमित न रहकर जन जागरण एवं राष्ट्रीय भावनाओं का निर्माण तथा विकास भी रहा है। बदलते परिवेश में नक्कटैया का मेला फैन्सी शो बन गया है। बिजली-बत्ती की सजावट, कथानक के प्रसंग से अलग-थलग दृश्यों का समावेश तथा विकृत स्वांग आज की नक्कटैया का स्वरुप है इसमें धर्म की जगह धीरे-धीरे व्यावसायिकता का समावेश होता जा रहा है।

इस साल विश्व पटल पर स्थापित चेतगंज के नक्कटैया जुलूस में इस बार जेल में बंद लालू यादव को चारा खाते दिखने वाला लॉग आकर्षण का केन्द्र है..
देशभर में घटित चर्चित घटनाओं एवं भ्रष्टाचार पर आधारित लॉग,स्वांग व विमान ही इस नक्कटैया की प्रसिद्धि का मूल कारण है।
नक्कटैया में इलाहाबाद, फूलपुर, जौनपुर, मुंगराबादशाहपुर, भदोही आदि क्षेत्रों से आए आकर्षक लॉग विमान शामिल है । लगभग पांच किमी. की परिधि में आने वाले मेला क्षेत्र में विद्युत उपकरणों से आकर्षक सजावट है।मेला क्षेत्र में 11 स्वागत द्वार बनाये गये हैं। नक्कटैया जुलूस पिशाचमोचन क्षेत्र से उठकर चेतगंज थाने के सामने आयेगा, जहां डीएम प्रांजल यादव उद्घाटन करेंगे तथा विशिष्ट अतिथि के रुप में एसएसपी अजय मिश्र मौजूद रहेंगे। इसके पश्चात जुलूस लहुराबीर, सेनपुरा, चाउरछंटवा, मंशाराम फाटक, हबीबपुरा होकर चेतगंज चौराहे के समीप रामलीला मंच के पास पहुंचकर समाप्त होगा। उन्होंने बताया कि आयोजन का यह 126वां वर्ष है।






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लोलार्क कुण्ड

<<--मुख्य पेज "वाराणसी एक परिचय " 


लोलार्क कुण्ड, वाराणसी
वर्तमान समय में स्थिति यह है कि अधिकांश कुण्ड मानव आवश्यकता की बलि चढ़ गये और इन्हें पाटकर उँची-उँची इमारतों और आलीशान कालोनियों ने अपना अस्तित्व कायम कर लिया है। इसके बावजूद काशी की धर्म प्राण जनता के लिये आज भी उसका महत्व बरकरार है। इन कुण्डों पर समय विशेष पर मेले लगते हैं और श्रद्धालु वहाँ जाकर अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिये पूजन-अर्चन करते हैं। यह कुण्ड भदैनी मुहल्ले में है। यहाँ भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को एक विशाल मेला लगता है। लोलार्क छठ के नाम से प्रचलित है। भदैनी क्षेत्र में स्थित प्रसिद्ध राम मंदिर के बगल में स्थित लोलार्क कुण्ड लोलार्क छठ के नाम से भी जाना जाता है। कुण्ड की अनेक मान्यताओं में यह भी शामिल है कि इसमें स्नान करने से बांझ (संतानोत्पत्ति में असमर्थ) महिलाओं को भी संतानोत्पत्ति होती है और चर्म रोगियों को लाभ मिलता है। शास्त्रकारों के अनुसार अकबर और जहांगीर के युग में इस कुण्ड को वाराणसी का नेत्र माना जाता था। ऐसी कल्पना की जाती है कि उस युग में यहाँ लोलार्क नाम का एक मुहल्ला भी था। पुरातत्वविदों के अनुसार यहाँ स्थित मंदिर का उल्लेख गाहड़वाल ताम्रपत्रों में मिलता है। बावड़ी का मुंह दोहरा है, एक में पानी इकट्ठा होकर दो कुओं में जाता है। यह कुएं पत्थर के बने हैं और उन पर जगत बना हुआ है। दोनों जगतों के मध्य प्रदक्षिणा पथ है जिसे कहा जाता है कि अहिल्याबाई, अमृतराव तथा कूच विहार के महाराजा ने बनवाया था। इस कुण्ड के एक ताखे पर भगवान सूर्य का प्रतीक चक्र बना हुआ है।)
पुरातत्वविदों का यह मानना है कि इस स्थान पर कई वर्षों पूर्व आकाश से भयानक आवाज करते हुये एक उल्का पिंड गिरा था। आग की लपटों में घिरी उल्का ऐसा भान करा रही थी कि मानों सूर्य पिंड ही पृथ्वी पर गिरा रहा है। उल्का पिंड के पृथ्वी पर गिरने के कारण ही लोलार्क-कुण्ड का निर्माण हुआ था।
बहरहाल कुण्ड के अस्तित्व में आने के कारण कुछ भी हो, लोगों का इस सम्बन्ध में जो भी तर्क हो किन्तु वर्तमान समय में यह लोगों के आस्था और विश्वास का केन्द्र है। मान्यताओं के अनुसार गंगा के सीधे सम्पर्क में होने से गंगा स्नान का महत्व है। लोलार्क षष्ठी के दिन स्नान से पुत्र प्राप्ति सम्भव और शादी के बाद भी लोग यहाँ पूजन-दर्शन करने आते हैं। इसका उल्लेख-स्कन्द पुराण के काशी खण्ड में, शिवरहस्य, सूर्य पुराण में और काशी दर्शन में विस्तार से है।
खेद है कि प्रचलित लोलार्क कुण्ड धीरे-धीरे बर्बादी के कगार पर जा रहा है। अपने तरह का अनोखा दिखने वाला कुण्ड चारों ओर से घरों से घिर गया है। इससे जाने अनजाने में भी लोगों के घरों का कचरा कुण्ड में आता है। कुण्ड के नीचे स्नान करने के लिये बनी सीढ़ियों की दीवारों पर लगे पत्थर परत-दर परत उखड़ रहे हैं। चारों ओर से घिरी दीवारों का भी यही हाल है। कई दशक पुराने इस कुण्ड की दशा अत्यन्त दयनीय है, कुण्ड को घेरने के लिये बनी बाउन्डरी की ईटें भी कमजोर पड़ गयी हैं।

 टीका टिप्पणी और संदर्भ
  1. कुंड व तालाब (हिंदी) काशी कथा।

 




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नाटीइमली मौनीबाबा भरतमिलाप




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मस्ती हव...

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जिया राजा बनारस ……


गुरु चल दिए समधियाने
— ;)


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सुबहे बनारस _ हमारी काशी

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Comedy Nights with Kapil


Comedy Nights with Kapil : Sunidhi Chauhan - 28th September 2013 - Full Episode (HD)
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लिंगाष्टकम – Sri Shiva Lingashtakam

ब्रह्ममुरारि सुरार्चित लिङ्गं
निर्मलभासित शॊभित लिङ्गम् ।
जन्मज दुःख विनाशक लिङ्गं
तत्-प्रणमामि सदाशिव लिङ्गम् ॥ 1 ॥

दॆवमुनि प्रवरार्चित लिङ्गं
कामदहन करुणाकर लिङ्गम् ।
रावण दर्प विनाशन लिङ्गं
तत्-प्रणमामि सदाशिव लिङ्गम् ॥ 2 ॥

सर्व सुगन्ध सुलॆपित लिङ्गं
बुद्धि विवर्धन कारण लिङ्गम् ।
सिद्ध सुरासुर वन्दित लिङ्गं
तत्-प्रणमामि सदाशिव लिङ्गम् ॥ 3 ॥

कनक महामणि भूषित लिङ्गं
फणिपति वॆष्टित शॊभित लिङ्गम् ।
दक्ष सुयज्ञ निनाशन लिङ्गं
तत्-प्रणमामि सदाशिव लिङ्गम् ॥ 4 ॥

कुङ्कुम चन्दन लॆपित लिङ्गं
पङ्कज हार सुशॊभित लिङ्गम् ।
सञ्चित पाप विनाशन लिङ्गं
तत्-प्रणमामि सदाशिव लिङ्गम् ॥ 5 ॥

दॆवगणार्चित सॆवित लिङ्गं
भावै-र्भक्तिभिरॆव च लिङ्गम् ।
दिनकर कॊटि प्रभाकर लिङ्गं
तत्-प्रणमामि सदाशिव लिङ्गम् ॥ 6 ॥

अष्टदलॊपरिवॆष्टित लिङ्गं
सर्वसमुद्भव कारण लिङ्गम् ।
अष्टदरिद्र विनाशन लिङ्गं
तत्-प्रणमामि सदाशिव लिङ्गम् ॥ 7 ॥

सुरगुरु सुरवर पूजित लिङ्गं
सुरवन पुष्प सदार्चित लिङ्गम् ।
परात्परं परमात्मक लिङ्गं
तत्-प्रणमामि सदाशिव लिङ्गम् ॥ 8 ॥

लिङ्गाष्टकमिदं पुण्यं यः पठॆश्शिव सन्निधौ ।
शिवलॊकमवाप्नॊति शिवॆन सह मॊदतॆ ॥

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Comedy Nights with Kapil


Comedy Nights with Kapil : Ranbir Kapoor & Pallavi Sharda - 21st September 2013 - Full Episode (HD)
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Baba Thandai ( मैदागिन के बाबा ठंडई )

बनारस एक तीर्थ नगर है। पण्डे-पुजारिओं, मन्दिरों-देवालयों का। यहाँ गली का कोई भी नुक्कड़ नहीं जहाँ एक मूर्ति अपने छोटे देवालय में पतिष्ठित न हो। यहाँ सारे रास्ते घूम-फिरकर गंगा की ओर जाते लगते हैं। सभी रास्ते यहीं गंगा किनारे आकर खतम हो जाते हैं। जिन्दगी का चक्कर भी तो यहीं खतम होता है - महाश्मशान पर। जी हाँ, मणिकर्णिका नाम है इस शहर के महाश्मशान का। इस महाश्मशान की आग कभी ठण्डी नहीं होती।

शिव नगरी काशी के तीन प्रसिद्ध तीर्थ हैं - काशी विश्वनाथ (ज्योतिर्लिंग) मन्दिर, काल-भैरवजी का मन्दिर और गंगा तट - मुख्यतः पञ्चगंगा से अस्सी घाट तक। यह विश्वनाथ क्षेत्र ही वाराणसी का हृदय प्रदेश है। अन्नपूर्णा सहित विश्वनाथ की परिक्रमा में रचा-बसा यह शताब्दियों से ऐसा ही है। हाँ एक बहुत बड़ा परिवर्तन कभी नजरंदाज नहीं किया जा सकता। यहाँ एक मस्जिद भी है - विश्वनाथ मन्दिर के ठीक पीछे उतर की ओर लगे हाथ। कहते यह हैं कि मुगल सैनिकों ने पूर्व-स्थापित विश्वनाथ मन्दिर को तोड़कर उसकी जगह मस्जिद बना दिया। भूतभावन विश्वनाथ पास के कुएँ में कूद गए। वहीं से लाकर उन्हें अहल्या बाई होलकर द्वारा बनवाए गए आज के स्वर्ण मन्दिर में प्रतिष्ठित किया गया। विश्वनाथ मन्दिर के बाद चलें इस शहर के कोतवाल काल भैरव के मन्दिर की ओर। इसे मात्र संयोग ही नहीं मानना चाहिए कि उनका मन्दिर वर्तमान कोतवाली से कुछ दूर पर ही है। मुझे याद है मेरी माँ बचपन में हमेशा भैरवजी का दर्शन कराकर डंडे लगवाती थी। पंडों को दक्षिणा देती थी। एकाध बार मेरे बालों की कटाई भी हुई है यहाँ। पहले बकरों की बलि भी लेते थे भैरव बाबा। अब तो संभवतः लोगों की बुद्धि पर तरस खाते हए उन्होंने ऐसी बलि लेनी बन्द कर दी है। फिर भी आप जाइए और सुबह से शाम तक अगर बाबा के मन्दिर पर धरना दीजिए तो आपका दूसरा लोक तो उनके आशीष से संवर ही जाएगा, इस लोक के लंद-फंद से जूझने की ताकत भी मिलेगी।





काशी सेवन का एक दूसरा अंदाज भी है। यह बनारस का चौथा सत्य है-

चना, चबेना गंग जल जो पुरवै करतार।

कासी कभी न छोड़िए विश्वनाथ दरबार।।

मैं इसका एक दूसरा ही संसकरण प्रस्तुत करना चाहूँगा -

चना भंग गंगा-जल पाना।

विश्वनाथपुर छोड़ न आना।












अगर भगवान विश्वनाथ की कृपा से चना, भांग, गंगा-जल और पान मिलता रहे तो बनारस छोड़ कहीं और जाने का जोखिम कोई क्यों उठाए। यही एक शहर है जहाँ अकेला चना भी भाड़ झोंकने की अहमियत रखता है। रही भोजन के लिए चना ही काफी है की बात - तो इस पर बहस की गुंजाइश हो सकती है। जिसकी गांठ में नामा हो वह चने की कीमत नहीं आंक सकता। जिसका गरूर यह हो कि वह चने खाकर भी ताल ठोकता हुआ काशी में ही रहने का जोखिम उठाएगा ऐसा ही आदमी चना खाकर अकेले भाड़ झोंकने की हिमाकत कर सकता है। यहीं भांग के बारे में भी कुछ कहना जरूरी हो जाता है। अगर नहीं तो इस तरह यह सारी दुनियाँ पर क्यों हावी हो जाता। बनारस मस्त शहर है और इस म्स्ती के लिए भांग एक निहायत जरूरी चीज है। सुनते हैं कि जापानी लोग चाय-पान के पहले चाय-संस्कार करते हैं। भांग पीने या गोला निगलने के पहले उसका संस्कार जरूरी हो जाता है। पहले गंगा के किनारे या गंगा पर तिरती हुई नावों में सिलबटे पर भांग पीसने का रियाज हुआ करता था। यही रियाज इस संस्कारी शहर का भंग संस्कार पर्व बन गया था। एक ऐसा पर्व जो साल के हर दिन मनाया जाता था। संस्कृत भांग विजया की संज्ञा पाकर संस्कर्ता के लिए विजया-पर्व बन जाता था। एक ऐसा पर्व जिसका धर्म मस्ती से अलग और कुछ हो ही नहीं सकता। आज यह भंग-पर्व महा-शिवरात्रि और होली के दो विशेष दिनों तक ही सीमित होकर रह गया है। होली का भंग-पर्व बहुत हद तक आधुनिक सुरा पर्व बन गया है। बुढवा-मंगल, यानी गए साल के आखिरी मंगल की रात, गंगा के वक्ष पर बजरों पर खनकती घुंघरुओं की आवाज पर रूपाजीवाओं की थिरकन, भंग की तरंग में बहकते रईसों की आन-बान अब याददाश्त की बात भर रह गई है। बनारस की रईसी मर चुकी है, ठीक वैसे ही जैसे यहाँ की गुण्डा संस्कृति। महाराज बनारस श्री चेत सिंह के जमाने तक वाराणसी की गुण्डा-संस्कृति सदाबहार रही। वारेन हेस्टिंगज़ को इसी संस्कृति ने धूल चटाई। तब गुंडा शब्द का अर्थ ही अलग हुआ करता था।




हाँ, भांग घोटने और ठंडई छानने की बात घरों से उठ कर मैदागिन के बाबा ठंडाई । अब आपको छानना 
हो तो मैदागिन के बाबा ठंडई  जाइए, उससे आगे जा सकें तो बांस-फाटक की ढाल पर कन्हैया चित्र-मन्दिर से आगे बाईं ओर गली में जाइए। मेरी दृष्टि में छान-पर्व का दिव्य तीर्थ यही है। भांग-ठंडाई के साथ, खासतौर पर बनारसी (मगही) पान का योग मणि-काञ्चन योग की तरह ही मान्य होना चाहिए। पान की महिमा आयुर्वेद से लेकर संस्कृत काव्यों तक सर्वत्र चर्चित है। पान फेरा जाता है, कत्था जमाया जाता है, और चूना लगाया जाता है। यही फेरने, जमाने और लगाने की लयात्मक प्रक्रिया मगही पान के पत्तों पर उतर कर रसानुभूति बन जाती है। इस रसानुभूति का सद्यः उद्रेक जर्दे के बिना कुछ विशेष रियाज से ही संभव है। यही पान है जिसके दो बीड़े महाराज श्री हर्ष के कर कमलों से पाकर अतीत का कवि जीवन का सर्वस्व प्राप्त कर लेता था। अब तो केशव का पान बनारस की शान बना लंका तिराहे पर धूनी रमा कर बैठ गया है।
बनारस का अपना खानपान है। उत्तर भारत के प्रसिद्ध व्यंजनों के साथ ही यहां देश-दुनिया के प्रसिद्ध खाने सुलभ हैं। वैसे बनारस की खासियत है यहां की लस्सी और दूध। सुबह के समय कचौरी और जलेबी खाएं और दोपहर में सादा खाना। शाम को लौंगलता के साथ समोसा और गुलाब जामुन ले सकते हैं। इसके बाद बनारस की प्रसिद्ध ठंडई पीना और पान खाना न भूलें।
हा तो मै बात कर रहा था  मैदागिन के बाबा ठंडई की, दुकान तो शायद १६-१७ साल पुरानी है, हा पर उस
समय से देख रहा हु , जब काशी में भांग ठंडाई, बड़े लोगो का शौख होता था, उस ज़माने में पैसा जूता कर ठंडाई पिने जाता था, उम्र बहुत छोटी थे , डर से भांग मागता था

"संध्या समय छनै ठंडाई, हो शरबत का पान|| तरी भरी है तरबूजों में , खूब उड़ाओ , आम || अजी न लगते खरबूजों के, लेने में कुछ ... लगती थी अति ऊब || बजा रहे चिमटा बाबा जी , करते सीता राम || पहन लंगोटा पड़े हुए हैं , कम्बल का क्या काम "

आज भी उस दुकान को देखता हु तो अपना बचपन याद आ जाता है..  वैसे तो काशी में गाँजा और भाँग के सेवन के साथ कई नियमों का चलन है । निपटना , नहाना , रियाज और गीजा - पानी ग्रहण करना इनमें प्रमुख हैं । इनाके पालन में व्यतिक्रम हुआ तब ही शिव के इन प्रसाद से नुक़सान होता है यह मान्यता है । मलाई , रबड़ी जैसे गरिष्ट - पौष्टिक तत्व गीजा कहलाते हैं । यह धारणा प्रचलित है कि गीजा तत्वों को ग्रहण कर लेने से गाँजा- भाँग के नुकसानदेह प्रभाव खत्म हो जाते हैं और सकारात्मक प्रभाव शेष रह जाते हैं । बहरहाल , दरजा नौ की होली में इन नियमों को ताक पर रख कर मैंने एक प्रयोग किया । उन दिनों दस पैसे में चार गोलगप्पे ( पानी पूरी, बताशा या पुचका ) मिला करते थे । भाँग की सोलह गोलियाँ , सोलह गोलगप्पों में डालकर ग्रहण कर गए । कुछ दिनों तक संख्या कुछ घटा कर क्रम चलता रहा । यूँ तो काशी में विजया कई रूपों में उपलब्ध है - ठण्डई , कुल्फ़ी , नानखटाई और माजोम या मुनक्का के अलावा सरकारी ठेके पर पिसी-पिसाई गोली । इस प्रयोग का परिणाम मुझे करीब तीन महीने भुगतना पड़ा । अब काशी जाते ही पहले मृतुन्जय महादेव, फिर कल भरो दर्शन के बाद गौरी की कचौड़ी फॉर दूसरा काम, इतजार रहता है गोधुली बेला का फिर मैदागिन के जैन धर्मशाला के सामने बाबा ठंडई, २ गोला बाबा के प्रसाद के बाब १ बड़का पुरवा ठंडई, लगता है स्वर्ग का अहसास ..


बाब बम अलख ! खोल दा पलक ! दिखा दा दुनिया के झलक ! ' , 'बमबम ,लगे दम,मिटे गम,खुशी रहे - हरदम ' , ' बम चण्डी ,फूँक दे दालमण्डी , ना रहे कोठा , ना नाचे रण्डी


Baba Thandai
St Kabir Rd
Maidagin Crossing, Maidagin, Bisweshwarganj
Varanasi, Uttar Pradesh 221001
India

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  1. 10:00 am – 10:00 pm

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बनारस शिव से कभी मुक्त नही, जब से आये कैलाश न गये। बनारसी की मस्ती को लिखा नही जा सकता अनुभव होता है। अद्भूद है ये शहर जिन्दगी जीनेका तरीका कुछ ठहरा हुआ है पर सुख ठहराव में है द्रुतविलंबित में नही. मध्यम में है इसको जीनेवाला है यह नगर। नटराज यहां विश्वेश्वर के रुप में विराजते है इसलिये श्मशान पर भी मस्ती का आलम है। जनजन् शंकरवत् है। इस का अनुभव ही आनन्द है ये जान कर जीना बनारस का जीना है जीवन रस को बना के जीना है।
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काल हर !! कष्ट हर !! दुख हर !! दरिद्र हर !! हर हर महादेव !! ॐ नमः शिवाय.. वाह बनारस वाह !!