Nag Nathaiya Festival Varanasi 2013

नाग नथैया: नौ बुड़वन क खेल हौ भइया

अपने आप में अनोखी कृष्ण लीला का जीवंत उदाहरण प्रस्तुत करती नागनथैया लीला। वर्षो से चली आ रही इस लीला का ढंग, उसका आधार आज भी पारंपरिक है।

भक्त प्रवर गोस्वामी तुलसी दास जी द्वारा शुरू की गई लीला के दौरान पूरे समय तक काशी की गंगा यहां यमुना की भूमिका में आ जाती हैं। भक्त की टेक निभती हैं। वर्षो बीते, रहन-सहन बदला, लोग बदले लेकिन इस लीला की परंपरा आज भी उतनी ही पारंपरिक और प्राचीन है।

जिस दिन नागनथैया लीला होती है उस दिन कृष्ण जी का कदंब के पेड़ पर चढ़ना, कंस का संवाद, गीत सब कुछ लोगों के मन-मस्तिष्क में बस गया है लेकिन इस लीला के पीछे की जो तैयारी होती है, वह कोई नहीं जानता। लीला को जीवंत बनाने के लिए पीढि़यों से लेाग इसमें स्वरूप बनते आ रहे हैं। सखा, बकासुर, कं स का किरदार निभाने वाले लोगों के यहां उनके पूर्वजों की बनाई परंपरा को आज भी उनकी पीढ़ी उसी श्रद्धाभाव से निभा रही है।

तकरीबन 20 वर्षो से कंस का किरदार निभाने वाले भगवानपुर निवासी फूल- माला व्यवसायी कृष्ण शंकर सिंह बताते हैं, पिताजी को तुलसीघाट की लीलाओं में अपार श्रद्धा थी। वह उसमें रावण व कंस का पात्र बनते थे। बहुत छोटा था उनके साथ लीला देखने जाता था। उसमें मैं कभी सखा, तो कभी श्री दामा बनता था। वक्त के साथ कब यहां की लीला से जुड़ता चला गया पता नहीं चला। मेरी आगे की पीढ़ी भी अब इसमें रूचि लेती है।

एक तरफ जहां पात्रों में लीला के प्रति अपार श्रद्धा है। वहीं उनके आगे की पीढ़ी भी इस परंपरा का निर्वाह उसी तरह कर रही है जैसे उनके पिता, दादा ने किया। लीला के दिन भोर में श्री संकटमोचन मंदिर के बागीचे में कदंब का जंगल है, वहीं पर कदंब के वृक्ष से प्रार्थना करके ऐसे पेड़ को काटा जाता है जिस पर चढ़कर भगवान श्री कृष्ण यमुना (गंगा) में कूद सकें। ये पेड़ सभी भक्त मिलकर अपने कांधे पर लादकर तुलसी घाट लाते हैं। जहां से वृक्ष काटा जाता है उसी दिन वहां एक और कदंब का नया पौधा लगा दिया जाता है।

सुबह ही गंगा जी में दो बांस गाड़कर 2 कमलपुष्प के प्रतीक रूप में उसी बांस के सहारे पेड़ लगा दिया जाता है। दूसरी ओर लगभग 20 फुट लंबा नाग कपड़े की खोली में पुआल भरकर बना दिया जाता है और मुंह पर सात फन वाले नाग का ढांचा बैठा दिया जाता है। पेड़ गड़ने के बाद नाग को पानी में डुबो दिया जाता है जिसकी रस्सी घाट पर गड़े खूंटे से बंधी रहती है और उसे कमल वाले बांस के सहारे बांध दिया जाता है। आश्चर्य की बात है नागनथैया के दिन जो कृष्ण जी गंगा में कूदते हैं उनका चयन उसी दिन सुबह किया जाता है।

महंत जी खुद आठ साल तक बने श्री कृष्ण : संकटमोचन मंदिर के महंत और लीला के संरक्षक प्रो. विश्वंभर नाथ मिश्र कालीय दमन की विशेष लीला के लिए स्वयं आठ वर्षो तक कृष्ण की भूमिका निभा चुके है।

अपार भीड़ के समक्ष सखाओं संग गेंद खेल रहे भगवान श्री कृष्ण श्रीदामा की गेंद को लाने के लिए यमुना (गंगा) में कूद जाते हैं। इधर गंगा जी में खड़े निषाछ लोग कमल को श्री कृष्ण के नीचे कर देते हैं जिसके सहारे नाग बंधा रहता है। बस दो ही मिनट बाद भगवान श्री कृष्ण नाग के फन पर बंसी बजाते हुए निकल आते हैं। 1लाखों देशी-विदेशी लोग इस दृश्य को देखकर भावविह्वल हो जाते हैं। परंपरा के अनुसार काशी नरेश लीला में अपने पार्षदों समेत स्वयं उपस्थित रहते हैं। समूचा क्षेत्र 'वृन्दावन बिहारी लाल की जय' के जयकारे से मुखरित हो उठता है।


लीला का सारा संजाल सदियों पुरानी तकनीक का कमाल फिर भी जारी है यह परंपरा । गंगा, यमुना बन जाती हैं तुलसी का धर्म निभाती हैं लीला आज

नाग नथैया लीला काशी की अनूठी परंपराओं की एक और कड़ी।
Image courtesy: Sankat Mochan Sangeet Samaroh








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बनारस शिव से कभी मुक्त नही, जब से आये कैलाश न गये। बनारसी की मस्ती को लिखा नही जा सकता अनुभव होता है। अद्भूद है ये शहर जिन्दगी जीनेका तरीका कुछ ठहरा हुआ है पर सुख ठहराव में है द्रुतविलंबित में नही. मध्यम में है इसको जीनेवाला है यह नगर। नटराज यहां विश्वेश्वर के रुप में विराजते है इसलिये श्मशान पर भी मस्ती का आलम है। जनजन् शंकरवत् है। इस का अनुभव ही आनन्द है ये जान कर जीना बनारस का जीना है जीवन रस को बना के जीना है।
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