बनारस कि होली ख़तम हो गयी .. Vineet Sharma's Click जी के वाल पर देखा होली बनारस की याद आ गया वो मेरा बनारस ..
मणिकर्णिका से दायें है दशाश्वमेध . मालिश का शौक हो तो यहाँ की मालिश वालो को खिदमत का मौका दें . शरीर का एक एक जोड़ ऐसा बजायेंगे की एक हफ्ते तो लगेगे की शरीर में किसी ने स्प्रिंग लगा दी हो . एक और मस्त चीज़ है घाट पर होने वाला क्रिकेट . शॉट मरते समय इस बात का तो ख्याल ही नहीं रहता की बाल मान मंदिर महल की छत पे जाएगी या गंगा मैया की गोद में . एक दो ‘मिला’ (बन्दे ) तो तैयारे खड़े रहते हैं कूदी मारने को . वहाँ से बाहर निकलें तो सीधा गोदौलिया चौक जाएँ और वहाँ भोले बाबा का प्रसाद, यानी ठंढाई जरूर पियें . गोला एक्कै ठे डलवाईयेगा नहीं तो पहुचना होगा लहुराबीर तो पहुच जाएँगे कलकत्ता ......
घाट तो सैकड़ो हैं … मगर हमारा मनपसंद घाट था अस्सी घाट . एक चीज़ होती है बनारस की हवा , जिसे लग गई …समझिये उसे लग गयी . वो हवा आपको अस्सी घाट पे मिलेगी . और एक चीज मशहूर है बनारस की … फुर्सत . ये भी आपको अस्सी घाट पर ही मिलेगी
अब नहीं.. ये सब सोच के रोना आ जाता है.. सिर्फ कह ही सकता हु.. बना रहे मेरा बनारस..
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मुझे अक्सर याद आती है वो बचपन की बनारसी होली.. जिसकी आने का एहसास एक हफ्ते पहले
ही हो जाया करता था..हर तरफ एक अलग सा खुमार…बसंत का सन्देश वाहक ये पर्व
राग और रंग में झूम उठता था… बनारस की हर छोटी छोटी सकरी गलियों का माहौल
बदल जाता था और फिर होलिका दहन की तय्यारी… लकडियां, घास-फूस, गोबर के
बुरकलों का बडा सा ढेर लगाकर पूजा पाठके बाद सम्मत (होलिका) जलाया जाता
था…ना किसी मज़हब की पाबन्दी ना ना कोई दिल में द्वेष…बस एक ही वेष…रंग
गुलाल. बस ये अब यादे ही है
बनारस एक अनोखा शहर है, इसके घाटों पर दुनिया भर के लोग मिल जाते हैं जो
निर्वाण की तलाश में कई बार गाँजे की चिलम को अपना हमराही बना लेते हैं।
इन्ही घाटों को को देख कर रामकृष्ण परमहंस ने कहा था कि इस शहर के लोगों का
हाज़मा बहुत अच्छा है, घाट पर ही निवृत्त होकर भगत लोग गंगा नहाने चले जाते है ।
सुबहे बनारस की बात करें तो हर शहर की तरह बनारस में भी सुबह सूरज ही
निकलता है । तो फिर अलग क्या है ? अलग ये है की हर शहर गंगा किनारे नहीं
बसा होता, हर शहर में सूरज की गोल थाली गंगा के झिलमिलाते पानी के
पीछे के सुर्ख आसमान में उस नाज़ से नहीं चढ़ती जैसे की बनारस में चढ़ती है
….हौले हौले, धीरे से . मजा लेना है तो तो भोर फूटने के पहले चले जाइये
अस्सी घाट, एक नाव किराये पर लीजिये और नाव वाले से कहिये की गंगा के
बीचोबीच ले जा कर नाव पानी की धार पर छोड़ दे. कसम बता रहा हूँ , संसार का
सारा ब्रम्हज्ञान गंगा के पानी की उस उस धार पर बहती नाव में बैठ कर उगते
हुए सूरज को देख कर ही मिल जाएगा . और जो रह गया हो…तो उसके लिए घाट पर
उतर कर एक कप चाय पी लीजिये, उस से मिल जाएगा .
हमारे और आपके लिए ये सब ब्रम्हज्ञान की बातें हो सकती हैं , मगर पक्के
महाल पर रहने वाले लोगों के लिए असली ब्रह्मज्ञान होता है ‘ओह पार’.. .
मने की नदी के उस पार . असली बनारसी लोग तडके ही उठ कर ‘ओह पार’ निकल जाते
हैं. असल में ‘ ओह पार’ है खुला मैदान जहाँ रात भर पेट- शरीफ की की हुई
मेहनत को सुपुर्देखाक कर देने की प्रक्रिया बड़ी शिद्दत से पूरी की जाती
है. अब समझे असली ब्रह्मज्ञान का मतलब ? उसके बात वही किसी पेड़ से एक दतुअन
तोडा जाता है और चबाते हुए लौट पड़ते हैं . जिस दिन पूरा ब्रह्मज्ञान
अच्छे से नहीं मिल पाया तो समझिये की दिन खराब।
अच्छा , बात बनारस की हो रही हो और गलियों में ना भटक जाए तो फिर बात क्या हुई . कहते हैं,
गलियाँ हों तो शहरे बनारस कि… और आवारा हो तो बनारस की गलियों का .
गलियों के नाम भी उन्ही चीज़ों पर जो वहाँ मिलती हैं, या किसी
जमाने में मिला करती थीं …कचौड़ी गली, खोवा गली , ठठेरी गली इत्यादि. और
हर गली के हर कोने में कुछ न कुछ अफ़साने बिखरे ही हुए हैं . किसी गली में
आपको मरहूम बिस्मिल्लाह खान साहब के किस्से मिलेंगे … किसी गली
में गौहर जान की अदाओं के सदके देते लोग मिल जाएँगे … तमाम ठुमरियाँ ,
कजलियाँ, दादरे इन गलियों की बूढी हवा में तैरते मिलेंगे . वो कहानी है की
बिस्मिल्लाह खान बचपान में किसी बाई जी के कोठे पर चुप चुप के उनकी कजली
सुनने जाया करते थे …घर पे पता चला तो पुष्ट कुटाई हुई . और एक किस्सा वो
भी है की जब इंग्लैंड की महारानी बनारस आयीं थी तो तो बनारस के सबसे मशहूर
कारीगरों ने मिल कर चालीस चीज़ें दाल कर एक मिठाई तियार की और उसमे सबसे मजे
की चीज थी जाड़े में पड़ने वाली ओस . जब मिठाई रानी के सामने पेश की गयी तो
उस भारीपन देखते हुए हुए रानी ने खाने से मना कर दिया . तमाम मान मनुहार
के बाद रानी ने चम्मच की छोर पर एक दाने के बराबर टुकड़ा ले कर मुह को
लगाया . उसके बाद तो बात की बात में कटोरी ख़तम हो गयी किसी को हवा न लगी .
यहाँ तो खाया ही, बांध कर घर भी ले गयीं . बंगाल स्वीट हाउस जा कर पता
करें, आज भी वो मिठाई मिल ही जाएगी , हाँ जरा महंगी जरूर पड़ेगी . वैसे चौक
पर मलईओ भी मिलता है, और वो भी जाड़े की ओस में ही बनाया जाता है. वो सस्ता
मिलेगा .
हाँ तो बात गलियों की हो रही थी . बात का क्या है…. एक तरफ निकल गयी तो
उधर ही चल देती है. खैर हम जिस दिन पहली बार बनारस घूमने निकले उसी दिन वो
कर गुजरे जो हर घुमक्कड़ का सपना होता है. गलियों में खो गये. निकले थे बाबा
विश्वनाथ का दर्शन कर के और सोचा था की घाट पर जाएँगे , मगर एक बार जो खोए
तो फिर कोई छोर ही नहीं मिला . कुछ देर चलने के बाद एक नया तजुर्बा
हुअ…हर तरफ से, हर गली से, हर दो या तीन मिनट पर कोई लाश अर्थी पर जा रही
थी और उसके पीछे लोगों का हुजूम राम नाम सत्य है का ग़मज़दा कोरस बोलते .
पहले तो डर लगा …मगर उनके पीछे चलते हुए हम जो चले तो निकले सीधा
मणिकर्णिका घाट पे. इसे महाश्मशान भी कहा जाता है. जिंदगी कैसे ख़ाक में
मिलती है ये समझना हो तो यहाँ चले आएं . कहते हैं यहाँ की चिताओं में जो
आग जलती है वो आठ सौ सालों से लगातार जलते आ रही है .
मणिकर्णिका के आगे ही एक मंदिर है जो की एक ओर झुका हुआ है और साल के
तीन चौथाई वक्त पानी के अन्दर ही डूबा रहता है . एक बार फुर्सत में ही जब
हम नाव पर चल रहे थे तो नाव वाले ने उस मंदिर का किस्सा सुनाया था . वो
किस्सा कुछ यूं है की कलकत्ते के एक सेठ ने मंदिर बनवाया और अपनी माँ का
नाम उस मंदिर की दीवार पर दर्ज करवाया . उससके बाद जनाब माँ के पास पहुंचे
और फरमाते हैं की माँ , देख मैंने तेरा सारा क़र्ज़ उतार दिया . माँ बेचारी
के आंसू निकल पड़े …वो बोली कुछ नहीं . अगले दिन सेठ जी पहुचते हैं और
देखते हैं की मंदिर में से मूर्ति गायब है, मंदिर आधा पानी में धंस गया है
और एक तरफ झुक गय है . मनहूसियत की मिसाल वो मंदिर आज भी खामोश खड़ा इस बात
की गवाही देता है की माँ का प्यार दौलत से नहीं तौला जा सकता .
मणिकर्णिका से दायें है दशाश्वमेध . मालिश का शौक हो तो यहाँ की मालिश वालो को खिदमत का मौका दें . शरीर का एक एक जोड़ ऐसा बजायेंगे की एक हफ्ते तो लगेगे की शरीर में किसी ने स्प्रिंग लगा दी हो . एक और मस्त चीज़ है घाट पर होने वाला क्रिकेट . शॉट मरते समय इस बात का तो ख्याल ही नहीं रहता की बाल मान मंदिर महल की छत पे जाएगी या गंगा मैया की गोद में . एक दो ‘मिला’ (बन्दे ) तो तैयारे खड़े रहते हैं कूदी मारने को . वहाँ से बाहर निकलें तो सीधा गोदौलिया चौक जाएँ और वहाँ भोले बाबा का प्रसाद, यानी ठंढाई जरूर पियें . गोला एक्कै ठे डलवाईयेगा नहीं तो पहुचना होगा लहुराबीर तो पहुच जाएँगे कलकत्ता ......
घाट तो सैकड़ो हैं … मगर हमारा मनपसंद घाट था अस्सी घाट . एक चीज़ होती है बनारस की हवा , जिसे लग गई …समझिये उसे लग गयी . वो हवा आपको अस्सी घाट पे मिलेगी . और एक चीज मशहूर है बनारस की … फुर्सत . ये भी आपको अस्सी घाट पर ही मिलेगी
पता चला की दो लोग बैठ के शतरंज की बाजी लगाए हुए
हैं, और उनको घेर कर बीस लोग खड़े हैं और अपने दिमाग की भी पुरजोर वर्जिश कर
रहे हैं . आप बैठे रहो, और बगल वाला बैठ के आप ही की स्केच बना रहा है.
कुछ देर बाद आपका ध्यान जाता है की तस्वीर में दिखने वाला आदमी तो अपनी ही
तरह दिख रहा है और आप खुद बखुद ही मुस्कुरा पड़ते हो . कही कोई बैठ के
बांसुरी बजा रहा है और अस्सी की अड़ी की हाफ कट चाय पे ही कोई अंकल पूरी
कायनात के जम्हूरी मसले हल करने पर तुले हुए हैं . बैठिये, मजा लीजिये …मगर
ये हवा लगने मत दीजियेगा अपने आप को . इस फुर्सत की आदत बड़ी खतरनाक है .
हमारी तरफ कहते हैं , पढ़ल लिखल सब गईले , पोथी मोरा छुटले बनारस . बनारस आ के पता चला की इस बात का मतलब क्या है, क्यों लोगों की पोथियाँ बनारस में ही छूट जाती हैं .
मगर सबसे पते की बात बताता हूँ आखिर में . अगर कभी थक जाओ , लगे की
अकेले हो … दिल भारी हो रहा हो … तो अस्सी के आगे है तुलसी घाट . वहां
जाएं, बड़ी चौड़ी सीढियां हैं. सबसे आखिर की सीढ़ी पे बैठ कर पाँव घुटने तक
गंगा के पानी में डाल दें .
अब नहीं.. ये सब सोच के रोना आ जाता है.. सिर्फ कह ही सकता हु.. बना रहे मेरा बनारस..
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