अस्सी का बनारस

अरे नहीं! अस्सी बरस का नहीं हुआ बनारस। यह तो और भी पुराना है। बनारस सिर्फ एक शहर नहीं बल्कि एक मिजाज का नाम है। हर प्रकार की समस्याओं से घिरे रहने के बावजूद खुश रहने का मिजाज, समय के दबाव को ठेंगे पर रखने वाला अल्हड़ मिजाज।
मोबाइल फोन वाले वक्ती दौर में ट्रंक काल बुक करने वाला मिजाज, एक बड़ा सा कद्दू कंधे पर रख लेने के बाद अपने आप को जहांपनाह समझने वाला मिजाज। पान मुंह में दबाये पूरी रामायण-महाभारत बांच देने वाला मिजाज इस शहर को पूरी दुनिया में अलग स्थान दिलाता है। 
सिर्फ एक गमछे में जिन्दगी गुजार लेने के बाद भी अपने आप को काशी नरेश से कम न समझने के अंदाज वाले इस शहर को जाना कम, जिया ज्यादा गया है। इस शहर में गंगा के बहने की दिशा भी बदल जाती है। पश्चिम से पूर्व की ओर बहती गंगा बनारस पहुंचने पर उत्तर से दक्षिण की ओर बहती है। आम बोल चाल की भाषा में ‘उल्टी गंगा बहना’ कहें तो यह गलत नहीं होगा। 

इस शहर के अल्हड़पन को समेटे एक नहीं हजार जगह होगी पर एक जगह ऐसी भी है जहाँ अल्हड़पन रोज अपनी परिभाषा गढ़ता है। इस जगह का नाम है अस्सी! अस्सी सिर्फ एक स्थान नहीं है, यह मोहल्ला, घाट, सड़क, चौराहा और विचित्र किस्म के चल-अचल प्राणियों, वस्तुओं और इमारतों का अनोखा गठजोड़ है।
अस्सी - नाम सुन कर आजकल के नौजवान चौंक जाते हैं कि भला ये कैसा नाम हुआ? लेकिन इस मायावी फेसबुकी, इंटरनेटी दुनिया में गूगल पर जाने की जरुरत नहीं। यहां के जीवन की लय साध लेने के बाद ही आप इस शहर की धड़कन अपने अंदर सुन सकते हैं। यहां जीवन की लय मिलेगी, यहाँ की गलियों में, घाटों पर, मोहल्लों में और चाय की दुकानों पर चर्चाओं में, पान की दुकानों पर होने वाली माथापच्ची में। 
इन्हें यहां अड़ीबाजी के रूप में भी जाना जाता है। यहां लोग सुबह घर से निकलते हैं और इन्हीं अड़ियों से गुजरते हुए मात्र 1 या 2 किलोमीटर की दूरी तय करने में शाम या कभी-कभी रात भी हो जाती है। यह महिमा है इन अड़ियों की।
इन अड़ियों पर होने वाली चर्चा को यदि गौर से सुना जाये तो बड़े-बड़े विचारक, थिंक टैंक सब फेल होते नजर आयेंगे। संसद में क्या बवाल होगा जो इन अड़ियों पर राजनैतिक माथापच्ची के दौरान ही हो जाता है। संसद भवन के केन्द्रीय हॉल की तरह यहां चाय की दुकानों में सेंट्रल हॉल सरीखा माहौल सांस्कृतिक कम राजनैतिक ही ज्यादा होता है।
अस्सी नगर में दक्षिण के रास्ते या पूरब और दक्षिण के कोने के रास्ते घुसने का दरवाजा भी है। बस यहीं से गड़बड़ी की शुरुआत भी हो जाती है!!! ऐसी गड़बड़ी जिसने अब तक किसी का नुकसान तो नहीं किया, लेकिन फायदा भी नहीं ही किया।

नुकसान को फायदा मानकर जीने वाले लोगों के लिए तो यह जगह किसी विश्वविद्यालय से कम नहीं। यहाँ प्राइमरी स्तर पर दाखिला लेने के बाद क्रमशः हाई स्कूल, इंटरमीडिएट, स्नातक, परास्नातक, एम्फिल डी.फिल और पीएचडी के बाद भी शोध पूरा नहीं हो पाता और लोग सिर्फ शोधार्थी बन कर रह जाते हैं।
यह बात अलग है कि शोध का विषय अच्छा-बुरा, काला-सफेद और न जाने कितने तरह का होता है। यहाँ के नियम कानून भी अलग हैं जो शायद किसी सरकारी नियमावली के मातहत नहीं हैं। यहां चाय पीते, पान खाते हुए ही छोटी सी पंचायत के बाद वाटर आन्दोलन की रूपरेखा बन गयी और बवाल कट गया।
यह ऐसा इलाका है जहाँ आत्मीयता जाहिर करने के लिए सभ्य भाषा का इस्तेमाल नहीं होता। यहां सचिन तेंदुलकर को सैंकड़ा ठोकने के बाद सैंकड़ों नहीं हजारों गालियाँ मिलती हैं। मुख्यमंत्री से लेकर स्थानीय पार्षद तक से अपनी नजदीकी बताने के लिये गालियां ही माध्यम होती हैं। 
सिपाही दरोगा की क्या बिसात यहां तो आईजी से कम पर कोई बात ही नहीं होती। कई थानेदारों को यहां नियम कानून बघारने वाले नजरिये के कारण तत्काल प्रभाव से ट्रांसफर का मुंह देखना पड़ा। यहां बुश से लेकर लादेन तक या किसी ऐसे व्यक्ति का जो बेचारा आज इस दुनिया में नहीं, सब का पुतला पांच मिनट में फूंक देना बांये हाथ का खेल है। मुख्यमंत्री तक को अपना लंगोटिया यार बताने वाले लोग अक्सर ही ठसक के साथ आपसे इन्हीं अड़ियों पर टकरा सकते हैं।
अस्सी बागी है, निरंकुश है, मायावी है, धार्मिक है, मौलिक है, सामाजिक है, राजनीतिज्ञ है और सब मिलाकर कहें तो विशुद्ध बनारसी है। अजीब से शब्द और अभिवादन का तरीका भी। दोस्ती हो या दुश्मनी, सब कुछ दो रुपये की चाय के साथ शुरु और खत्म। 
चुनाव चाहे तमिलनाडु में हों या मणिपुर में या फिर गुजरात में। सरकार बनाना-गिरना सब कुछ चाय पान के साथ अस्सी पर दो मिनट में सम्पन्न हो जाता है। यहां भाजपा, सपा, कांग्रेस, बसपा, माकपा-भाकपा सहित तमाम राष्ट्रीय वे क्षेत्रीय दलों के स्थानीय नेता राष्ट्रीय प्रवक्ता की भूमिका में दिख जाते हैं। पर किसी ने थोड़ी भी लीक से हटकर चांय-चूंई की तो फिर सारे विद्वान मिलकर उसका बौद्धिक कचूमर भी निकालने में देर नहीं लगाते। 
वास्तुशास्त्र के विद्वानों के मुताबित अग्नि कोण पर बसे काशी के इस इलाके में अलग तरह की आग जलती रहती है। साहित्यिक चर्चा से लेकर राजनैतिक विश्लेषण, चर्चाओं से लेकर ज्वलंत मुद्दों पर बातचीत और धर्म के बीच अपराध शास्त्र का विश्लेषण भी।
इसके अलावा चाय के गिलास में चिपकी हुयी भांग, सील लोढ़े पर पीसी हुयी गाढ़ी हरी भांग का गोला नये आदमी के लिये किसी परमाणु बम से कम ना होगा। घाट पर दगी हुई चिलम से चौंकिएगा मत।
इन्ही क्रियाकलापों के बीच सस्वर वेदपाठ, संस्कृत की पाठशालाएं, फिरंगियों और अन्य देशों के पर्यटकों को रिझाते हुए रेस्टोरेंट, साड़ी की दुकाने, कचौड़ी, जलेबी, समोसा-छोला, लौंगलता, रबडी,  मलाई, लस्सी, ठंडाई, गिल्लौरी के साथ जोड़ा, चौखड़ा, साँची, जगन्नाथी, मगही नाम के पान मन और दिमाग को तरोताजा बनाये रखता है और दिमागी कसरत की ताकत भी देता हैं।

यहाँ ऐसे बिरले भी हैं जो अगर यह दंभ भरें कि वे लोहिया और जयप्रकाश जी के बचपन के साथी हैं और उनके साथ गुल्ली-डंडा खेलते थे, तो भाई साहब गप मत समझिएगा! क्यूंकि वो फिर आपके मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए काफी नुकसान का कारण होगा। 
अस्सी सिर्फ विचित्र नहीं, महाविचित्र जगह है। इतिहास के पन्नो में खो चुके अस्सी के होलीयाना कवि सम्मेलन और स्वर्गीय चकाचक बनारसी की याद सबके सर माथे है। सभ्य लोग इसे अश्लील कहते थे, लेकिन होलियाना अंदाज के बनारसीपन में सब मिली-जुली चीजें थीं। 
होली साहित्य के संपादक को तो पुलिस आज तक खोज नहीं पायी। कविता को फास्ट फूड की तर्ज पर तुरंत तैयार करके परोस जात था, जिसमें राजनीतिक, सामाजिक ताने-बाने पर करारा व्यंग होता था। भांग के नशे में झूमती भीड़ को संभालते हुए लाउडस्पीकर से यह अलौकिक काव्य पाठ सुनने के लिए बच्चे, बूढ़े, जवान, वकील, पुलिस, परिचितों से नजर बचाते अधिकारी सभी एक दूसरे के पीछे खड़े रहते। भीड़ भी इतनी कि कोई राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टी देखकर तुरंत जल-भुन जाये। 
अस्सी मानव शास्त्र , समाज शास्त्र, राजनीति शास्त्र और न जाने कितने प्रकार के शास्त्रों का समन्वय है। अस्सी निवासी सिर्फ अस्सी का है। असम, बिहार, झारखंड, महाराष्ट, बंगाल या कहीं और का नहीं। 
बनारस किसी भी नये यात्री के लिए पूरा तिलिस्म है और तिलिस्म भी कुछ ऐसा वैसा नहीं, शायद देवकीनंदन खत्री के चन्द्रकान्ता संतति की ऐय्यारी से भी बड़ा तिलिस्म, जिसके भीतर आते ही विदेशी हो या देशी सब पागल होकर यहीं बसना चाहते है। फिर यह तिलिस्म धीरे-धीरे खुलता है और खुलते-खुलते हर दिन एक नई सीख देता है। 
अब काशीनाथ सिंह की कालजयी कृति ‘काशी का अस्सी’ आने के बाद और डा चंद्रप्रकाश द्विवेदी की फिल्म ‘मोहल्ला अस्सी’ के आने के बाद भले ही लोगों को अस्सी का कुछ मतलब समझ में आ जाये। लेकिन फिर भी इस जगह को समझने के लिए यहाँ आकर रहना बहुत जरुरी है।
क्या कभी आपने सेवानिवृत्त अधिकारियों, प्रोफेसरों, डॉक्टरों आदि आदि... को पतंग-मांझा और पटाखों पर बात करते सुना है? नवयुवकों को तंत्र और प्राच्य विद्या पर हाथ में सिगरेट लेकर बहस करते देखा है? अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्यातिलब्ध वैज्ञानिकों, समाजशास्त्रियों, राजनीतिज्ञों को सब्जीवाले से एक-एक, दो-दो रुपये के लिए किच-किच करते देखा है? 
यदि नहीं देखा है और देखना हो तो फिर आप तुरंत वाराणसी का टिकट लीजिये और अस्सी इलाके में आ जाईये। सब देखने को मिलेगा।

By : डॉ. मनोज झुनझुनवाला
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1 comments:

Amit Singh said...

वाह गुरु मजा आ गयल पड़ के.. हर हर महादेव... वास्तव में गुरु बनारस छोड़े के बाद सबकर इहइ हाल हव..

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बनारस शिव से कभी मुक्त नही, जब से आये कैलाश न गये। बनारसी की मस्ती को लिखा नही जा सकता अनुभव होता है। अद्भूद है ये शहर जिन्दगी जीनेका तरीका कुछ ठहरा हुआ है पर सुख ठहराव में है द्रुतविलंबित में नही. मध्यम में है इसको जीनेवाला है यह नगर। नटराज यहां विश्वेश्वर के रुप में विराजते है इसलिये श्मशान पर भी मस्ती का आलम है। जनजन् शंकरवत् है। इस का अनुभव ही आनन्द है ये जान कर जीना बनारस का जीना है जीवन रस को बना के जीना है।
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काल हर !! कष्ट हर !! दुख हर !! दरिद्र हर !! हर हर महादेव !! ॐ नमः शिवाय.. वाह बनारस वाह !!