शान्तिरंजन गंगोपाध्याय

काशीखंड, स्कंद महापुराण का एक खंड जिसमें काशी का परिचय, माहात्म्य तथा उसके आधिदैविक स्वरूप का विशद वर्णन है। काशी को आनंदवन एंव वाराणसी नाम से भी जाना जाता है। इसकी महिमा का आख्यान स्वयं भगवान विश्वनाथ ने एक बार भगवती पार्वती जी से किया था, जिसे उनके पुत्र कार्तिकेय (स्कंद) ने अपनी माँ की गोद में बैठे-बैठे सुना था। उसी महिमा का वर्णन कार्तिकेय ने कालांतर में अगस्त्य ऋषि से किया और वही कथा स्कंदपुराण के अंतर्गत काशीखंड में वर्णित है।
बनारसीपन यानी मौज- मस्ती का दूसरा नाम..। शायद ही वर्तमान समय की इस दौड़भाग भरी जिंदगी में कहीं लोगों को मौज मस्ती के लिए भरपूर फुर्सत मिलती हो लेकिन काशीवासी इस मामले में धनी हैं। तमाम काम के बावजूद लोग अपने और दूसरों के लिए समय निकाल ही लेते हैं। वहीं, काम के दौरान माहौल को हल्का फुल्का बनाने की कला बनारसियों का स्वाभाविक गुण है। महादेव की नगरी में बिना भांग खाये भी लोगों के बातचीत का लहजा अल्हड़पन लिए रहता है। एक बात जो बनारसियों के मौजमस्ती का ट्रेडमार्क बन गयी है वह है गंभीर से गंभीर मसले पर भी मुंह में पान घुलाते हुए बात करना।

काशी जितनी महान नगरी है, उतने ही महान यहाँ के कलाकार हैं। जिस नगरी के बादशाह (शिव) स्वयं नटराज (कलागुरु) हों, उस नगरी में कलाकार और कला पारखियों की बहुलता कैसे न हो? बनारस का लँगड़ा इंडिया में ‘सरनाम’ (प्रसिद्ध) है,

ठीक उसी प्रकार बनारस का प्रत्येक कलाकार अपने क्षेत्र में ‘सरनाम’ है। बनारस में यदि कलाकारों की मर्दुम-शुमारी की जाए तो हर दस व्यक्ति पीछे कोई-न-कोई एक संगीतज्ञ, आलोचक, कवि, सम्पादक, कथाकार, मूर्त्तिकार,उपन्यासकार, नाट्यकार और नृत्यकार अवश्य मिलेगा। पत्रकार तो खचियों भरे पड़े हैं। कहने का मतलब यह कि यहाँ का प्रत्येक व्यक्ति कोई-न-कोई ‘कार’ है, बेकार भी अपनी मस्ती की दुनिया का शासक-सरकार है। काशी ही एक ऐसी नगरी है जहाँ प्रत्येक गली-कूचे में कितने महान और अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त कलाकार बिखरेपड़े हैं। सब एक-से-एक दिग्गज और विद्वान हैं। इनका पूर्ण परिचय समाचार पत्रों, मकानों में लगी ‘नेमप्लेटों’ और लेटरपैड पर छपी उपाधियों से ज्ञात होता है। वैसे ही गुदरी में लाल खोजने की अपनी प्राचीन परंपरा का निर्वहन करते हुए आज हमने जिस लाल को खोजा है वो अपनी संपूर्ण हुलिया से आचार्य रजनीश के बाऊ लगते हैं इनका चश्मा उतार दे तो आसाराम बापू और टोपी उतार दे लकड़सुंघवा लगने लगेंगे . दिखने में ये कुछ भी लगें लेकिन सच तो यह है की इनकी कलई खोलना शुरू की जाय तो भोर हो जायगी, उसके लिए एक अभिन्दन पत्र नाकाफी होगा, कई टन कागज लग जाएंगे, विस्तार में आप चित्रकार,शिल्पकार, दार्शनिक, कवि, चिंतक, वैज्ञानिक और सार में चैंपियन आफ आल भी हैं, आपका शुभ नाम है  शान्तिरंजन गंगोपाध्याय .












पिता कालिपद गंगोपाध्याय और माता कमल कामिनी देवी के सौजन्य से उनके कनिष्ठ पुत्र के रूप के में आप १५ जनवरी १९३० को बिहार के पुर्णिया जिले की  भूमि पर टपके थे . बचपन में आप इतनी जोर से पादते- हगते थे कि जल्दी आपको कोई गोदी में नहीं लेता था . लेकिन एक कहावत है न, होनहार बिरवान के होत चिकने पात ,सो बचपन से ही आपने अपने अन्दर धधक रही कई प्रतिभाओं  को हवा देना शुरू कर दिया . सोने में सुहागा यह कि शांतिनिकेतन में आपको दुनिया भर में नाम कमाए शिल्पाचार्य श्री नंदलाल बसु , प्रोफेसर धीरानंद,संतोष भाजा और हीरालाल मुखर्जी जैसे महान कलाकारों का सानिध्य मिला जिन्होंने आपके अन्दर किलोलें मार रही चित्रकला, मूर्तिकला, पात्रकला, टेक्स्टाइल  पेंटिंग आदि हुनरों को हवा देकर तराशा,उन्हें नए तेवर दिए .




इसके बाद आप निकल पड़े अपनी साधना यात्रा पर . देश में कई स्थानों पर प्रदर्शनीयों  की सजावट काम  किया जिससे नेहरु जी और राजेंद्र प्रसाद जैसी बरी हस्तियों से भी आपकी निकटता बनी .सर्वोदयी नेता जयप्रकाश नारायण ने  आपको अपने आश्रम बुला लिया जहाँ आपने उनके विचारो को अपने  शिल्प  में उतार कर अनेक ऐसी कालजई कृतियाँ बनाई जो आज तक वहाँ  की शोभा बढ़ा रही हैं और आप उन्हीं को अपने जीवन की श्रेष्ठ कृतियाँ भी मानते हैं .आपकी लाइफ में बरा टर्निंग प्वाईंट तब आया जब १९५८ में आपने राजस्थान में एक प्रदर्शनी की सजावट की .उसे वहां पहुंचे एक जपानी प्रतिनिधि मंडल ने खास पसंद किया  और आपसे जापान चलने को कहा . लेकिन आप ठहरे पक्के बनारसी मस्ती के बनारस वाले , तब केवल नाम ही कमाया था,खर्चा-पानी के मामले में सिफर थे. सो जेपी से निकटता के चलते उन्होंने आपकी जापान यात्रा का सारा जुगाड़ करवा दिया. इमेदा सांग ने आपको जापानी सिखाई और आप उड़ चले जापानवहां आपने मुशाशितों फाईन आर्ट्स यूनिवर्सिटी में शिक्षा ग्रहण की, कई प्रदर्शनियां भी लगाई जिनसे आपकी चर्चाएँ टीवी तक पहुंच गई .आज अपनी सफेद दाढ़ी में ये भले ही आपको लकरदाता लगे पर उस जबानी में काली फ्रेंच कट दाढ़ी में कातिलाना आशिक भी लगते थे .जापान में के इक इंस्टेंट खाध पदार्थ की दुकान पर अपना पेट पूजने जाना शुरू किया .वहां दुकान मालिक की बिटिया कुमको जो आपको पहले से ही  टीवी पर देख-जान चुकी थी, आप पर लट्टू हो गई बस फिर क्या था, उसके परिवार में लाख विरोध होता रहा लेकिन आप उसे विधिवत ब्याह कर, भारत लाकर ही माने .

बाबा के इस हेड आफिस काशी में आकर आपने माँ गंगा के किनारे पांडेघाट पर अपना स्थाई डेरा जमाया, क्षेत्रीयजनों के सामूहिक श्रमदान से घाट साफ करके उसे नया कलेवर दिया. दो संताने पैदा की और वहीँ एक नन्हा सा जापानी होटल भी खोल दिया.इस होटल में घाट की तरफ एक हैंगिंग गार्डन भी लटका दिया जिसे पर्यटक आज भी उसी अजूबे की तरह तजबिजते जैसी टीवी पर राखी सावंत को तजबिजा जाता है .
यहाँ आकर भी आपने अपने हुनर विराम देकर मोर्चा अंत में नहीं लगने दिया.बसंत कालेज, राजघाट में कला प्रवक्ता, ब्रज्पालदास जी के प्रतिष्ठान में साड़ीयों पर कलात्मक छपाई के निर्देशक के रूप में प्रशंसनिय कार्य किए .
अनेक संस्थाओं में कला सलाहकार और पर्यटन गाइड का भी काम किया आप कलम के खासे शातिर है .
कविताई का भूत भी आप पर १९५२ से ही सवार हो गया था जब आपकी पहली कविता बंगाली की ‘सुचित्रा पत्रिका’ में छपी थी इसके बाद अब तक, आगुन’, प्रीति बौल, तत्व बोध नामक तीन काव्य संग्रह, प्रकाशित हो चूके हैं ‘द आर्ट आफ ‘शांतिरंजन गंगोपाध्याय’ शीर्षक से एक पुस्तक भी जापान में छप चुकी है इसकेअलावा आप देश-विदेश के अनेक विधालयों में कला के प्रतिष्ठत प्रशिक्षकों के पद पर समानपुर्वक कार्य भी कर चुके है १९७१ में आपने विप्पति काल में हवाई जहाज को बचाने की ऐसी विधि प्रस्तुति की थी जिसे तत्कालीन अखबारों ने प्रमुखता से छपा  था लेकिन कापिराईट के मामले पर सहमती न बन पाने के कारण इसका प्रदर्शन न हो सका आपकी सैकड़ो अन्य योग्यताएं एक लेकिन बतौर बनारसी मस्ती के बनारस वाले ठलुआ , आपकी कोटि अत्यंत उच्च है ठलुआ चरित्र को प्रमाणित और चरितार्थ करता आपका नाम ही है –शांति ,रंजन (अर्थात मनोरंजन ),गंगो (यानि गंगा) और यानि उपरांत का अध्याय ठलुआ को और क्या चाहिए यहाँ तो खता-पिता परिवार, बाल बच्चे, गंगा का किनारा, टंच स्वास्थ और एक ‘फारेन’ की वाइफ भी मौजुद है आपका दर्शन है की मां-बाप ने आपको संभोग द्वारा यहाँ भोगने के लिए  पैदा किया है सो भोगना ही अपनी नियति है चाहे वह राजभोग हो या कष्ठभोग जो अच्छा बुरा किया या करना बाकी है सब का श्रेय ऊपर वाला को जाता है ..

बनारसी मस्ती का दल जब आपके निवास पर आप का साक्षात् दशन करने पहुंचा तो यह देख कर दंग रह गया की आप जिस रजाई को हटा कर उठे उसमे से एक अदद पिल्ला भी निकला, एक अदद बिल्ली भी ऐसे समरसी और जिवंत बनारसी मस्ती करते हुए हम खुद को भी गौरवान्वित अनुभव कर रहे है गंगा मैया से प्रार्थना है  की आपकी जीवन ज्योति ऐसे ही जलती रहे, दाढ़ी ऐसे ही फलती रहे, बारी ऐसे ही चलती रहे, मृत्यु हाथ मलती रहे, मिजाज में मस्ती हलती रहे ऐसी ही भर-भर खचिया शुभकामनाओं के साथ कागज ख़त्म होने के चलते हम यह संवाद भी ख़त्म करते  हैं और अंत  में चलते-चलते आपको ‘ठलुआ माहर्षि’ की दुर्लभ उपाधि से विभूषित करते है,आपकी जय-जय  करते हैं  .




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Banaras Talkies (बनारस टाकिज)

.... कमाल का लिखते हैं Satya Vyas  उनकी ताजा किताब बनारस टाकिज मेरे सामने है। अभी कुछ ही पन्‍ने पढ़े हैं लेकिन एक बार में ही पूरी किताब खत्‍म करने का मन कर रहा है....गटागट पीते जाओ, किताब का प्‍लाट और भाषा गजब है। हिंदी युग्म पब्लिशर्स को खुश होना चाहिए कि सत्य व्यास सरीखे प्रतिभा संपन्‍न लेखक उसके पास हैं।

बवाल है गुरू बनारस टाकीज मज़ा आ रहा है ... जियो जिया दिये पूरा बी एच यु अपने कलम से.


अपने बनारसी मित्र और बनारसी अंदाज के लेखक सत्य व्यास जी की किताब 'बनारस टाकीज़' आज कल खूब चर्चा में हैं, अमेज़न और फ्लिपकार्ट पर इसकी प्रीबुकिंग बहुत तेज हुई,आप भी इस लिंक से
(http://bit.ly/btflipkart or  http://bit.ly/btamazonin) ये किताब मंगाइए और बताइये कि आपको ये किताब कैसी लगी ,प्रस्तुत है किताब के कुछ अंश -

BHU में स्टुडेंट/ प्रोफेसर रिलेशन पर भी बनारस और उसकी फक्कड़ संस्कृति का प्रभाव है। यहां आदर है, आवरण नहीं । यहां दोनों एक दूसरे से सीखते हैं। क्योंकि यहां सभी यह मानते हैं कि सीखता सतत प्रक्रिया है। स्टुडेंट/प्रोफेसर रिलेशन देख कर कोई भी बाहरवाला इसे अशिष्टता करार सकता है। जैसा कहा ना कि यहां आदर है, छद्म आवरण नहीं कुछ ऐसे ही वाकये ज़ेहन मे आ रहे है जो ‘बनारस टॉकीज़’ मे नहीं है, आपसे साझा कर रहा हूँ :

1) प्रोफेसर: आज हमने रीतिकालीन कवियों को पढा। क्या आपका कोई सवाल है?

स्टूडेंट : जी गुरु जी।

प्रोफेसर: पूछिये।

स्टूडेंट: देशी मुर्गा कैसे किलो ?

प्रोफेसर चुप।

2) प्रोफेसर: बेटा, इंटरनेट का कुछ ज्ञान है ?

स्टुडेंट : (चौड़े होकर) यस सर।

प्रोफेसर: तो बताओ,खाता जी मेल में खोलें कि ई मेल में?

स्टुडेंट चुप।

3) छात्र नेता: (पांव छूते हुए) गुरु जी आसीर्वाद हौ ना?

प्रोफेसर: आ जे ना हो तब?

छात्र नेता चुप।

4) प्रोफेसर: राम अवधेश, बेटा ई रिया सेन मुनमुन सेन के बेटी हव?

राम अवधेश: (लजाते हुए) जी।

प्रोफेसर: बतावा ! माई त अईसन ना रहे हो ?

राम अवधेश चुप॥

बनारस टॉकीज भी ऐसी ही समय से गुजरते हुए तीन वर्षों की यात्रा है। यदि पसन्द आये तो लिंक आप जानते ही है..


किताब: बनारस टॉकीज (पेपरबैक, उपन्यास)
लेखक: सत्य व्यास
पन्ने: 192
प्रकाशक: हिंद युग्म, दिल्ली


शायर नजीर बनारसी लिखते हैं, गर स्वर्ग में जाना हो तो जी खोल के ख़रचो/मुक्ति का है व्यापार बनारस की गली में. बनारस वह शहर है जिसकी रगों में घुमक्कड़ी, बेफिक्री और मस्तमौला अंदाज गंगा के आवेग की तरह निरंतर बहा करता है. इसी शहर में है बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी, जिसके एक होस्टल की एक कहानी को नए नजरिये संग ला रहे हैं लेखक सत्य व्यास अपने उपन्यास 'बनारस टॉकीज' में. किताब अगले साल 12 जनवरी से ऑनलाइन उपलब्ध होगी. हालांकि प्री-बुकिंग अभी शुरू हो चुकी है. पढ़िए किताब का एक्सक्लूसिव हिस्सा, सिर्फ आपके लिए.

ये भगवानदास है बाउ साहब. 'भगवानदास होस्टल'. समय की मार और अंग्रेजी के भार से, जब काशी हिन्दू विश्वविद्यालय सिमटकर बीएचयू हुआ; ठीक उसी समय 'भगवानदास होस्टल' सिमटकर बी.डी. होस्टल हो गया. समय की मार ने इसके नेम में कटौती भले ही की हो; इसके फेम में कटौती नहीं कर पाई. इसके 120 कमरे में 240 'बीडीजीवी' आज भी सोए हैं.

'क्या!! बी.डी.जी.वी. कौन-सा शब्द है?'

'इसीलिये कहते हैं बाउ साहब कि जरा इधर-उधर भी देखा कीजिये! होस्टल में घुसने से पहले जो बरगद है ना; उस पर का Graffiti पढ़िए. जिस पर लिखा है-

'कृपया बुद्धिजीवी कहकर अपमान न करें. यहां बी.डी.जीवी रहते हैं.'

'अब आप पूछेंगे कि ये बी.डी.जीवी क्या बला हैं? रूम नम्बर-73 में जाइए और जाकर पूछिये कि भगवानदास कौन थे? जवाब मिलेगा-‘घंटा!!' ये हैं 'जयवर्धन जी.' ‘लेक्चर - घंटा, लेक्चरर - घंटा, भगवान - घंटा, भगवानदास – घंटा. सबकुछ घंटे पर रखने के बावजूद, इतने नंबर तो ले ही आते है कि पढ़ाकुओं और प्रोफेसरों के आंख की किरकिरी बने रहते हैं. ग़लत कहते हैं कहने वाले, कि दुनिया किसी त्रिशूल पर टिकी है. यह दरअसल जयवर्धन शर्मा के ‘घंटे’ पर टिकी है; और वो ख़ुद अपनी कहावतों पर टिके हैं. हर बहस की शुरुआत और अंत एक कहावत के साथ कर सकते हैं.

'आगे बढ़िये तो रूम नम्बर-79 से धुआं निकलता दिखाई देगा. अरे भाई, डरिये मत! आग नहीं लगा है. भगवानदास के एकमात्र विदेशी छात्र ‘अनुराग डे’ फूंक रहे होंगे. अब ये ‘विदेशी’ ऐसे हैं कि इनके पुरखे बांग्लादेशी थे; लेकिन अब दो पुश्तों से मुगलसराय में पेशेवर हैं. अरे...!! 'पेशेवर मतलब- पेशेवर वकील बाउ साहब!' आप भी उलटा दिमाग़ दौड़ाने लगते हैं! ख़ैर, एक बात और जान लीजिये कि ये बंगाली होने के कारण पूरे भगवानदास के ‘दादा’ हैं. कुछ जूनियर्स के तो ‘दादा भइया’ भी हैं. ससुर टोला भर का सब बात क़्रिकेटे में करते हैं और क्रिकेट के क्या कहा जाता है....Encyclopedia हैं -

'अगर फलाना प्रोफेसर सचिन के फ्लो में पढ़ाता, तब बात बनती.'

'अरे! साला का लेक्चर है कि गार्नर का बाउंसर है?'

'लड़की देखी नहीं बे! साला ग्लांसे मार लेती.'

पिंच-हिटिंग और हार्ड-हिटिंग के अंतर पर घंटा भर लेक्चर दे सकते हैं. मार्क ग्रेटबैच को 'फादर ऑफ पिंच हिटिंग' का ख़िताब इन्हीं का दिया हुआ है. डकवर्थ-लुईस मेथड का ‘द विंची कोड’ देश भर में सिर्फ अनुराग डे समझते हैं. 1987 वर्ल्ड कप के सेमीफ़ाइनल में जब फ़िलिप डेफ्रिट्स के पहले ही ओवर में सुनील गावस्कर बोल्ड हो गए तो 6 साल के अनुराग डे चिल्लाने लगे- Fix है! Fix है! उनके पिताजी को लगा कि बेटा चिल्ला रहा है- Six है! Six है! काश! पिताजी उस दिन समझ गए होते! पिताजी की नासमझी से मैच फिक्सिंग जैसा अपराध फैल गया.


'अच्छा, अच्छा... आपको क्रिकेट में इंटरेस्ट नहीं है!' Girls Hostel में तो है ना? तो रूम नम्बर-79 में ही अनुराग डे के रूम पार्टनर ‘सूरज’ से मिलिये. हालांकि, इनके क्या, इनके बाप के नाम से भी पता नहीं चलता कि वो ब्राह्मण है; लेकिन जानकारों की कमी, कम-से-कम भगवानदास में तो नहीं ही है. फौरन उनकी सात पीढ़ियों का पता चल गया और वो होस्टल के ‘बाबा’ हो गए. फैकल्टी में 'सूरज' और दोस्तों में 'बाबा'. लड़कियों में विशेष रुचि है बाबा की. B.H.U के girls hostel की पूरी ख़बर रखते हैं बाबा. हर खुली खिड़की पर दस्तक देते हैं. खिड़कियों से झिड़कियां मिलने पर उदास नहीं होते; दुगुने जोश से अगली लीड की तलाश में लग जाते हैं. शरीफ लगने और दिखने की कोशिश करते हैं. और हां! दुनिया का सबसे साहसिक कार्य करते हैं... कविताएं लिखते हैं.

'ले बाउ साहब....!!' आपको क्या लग रहा है कि भगवानदास में पढ़ाई-लिखाई साढ़े-बाइस है? इसीलिये तो कह रहे है कि पूरी बात सुनिये-

'किस तरह से पढ़ना चाहते है?'

‘रात भर में पढ़ के कलक्टरी करना है? तो दूबे जी को खोजिये. ‘रामप्रताप नारायण दूबे. जितना लम्बा इनका नाम, उतना ही लम्बा इनका चैनल. हर सेमेस्टर से पहले, पेपर आउट होने की पक्की वाली अफ़वाह फैलाते हैं और हर एग्जाम के बाद अपने reliable source को दमपेल गरियाते हैं. रूम नम्बर-85. हां! तो रात भर में कलक्टरी करना है तो दूबे जी को धर लीजिए. ज़्यादा खर्चा नहीं होगा; केवल रात भर जागने के लिए चाय पिलाइये; मन हो तो दिलीप के दुकान का ब्रेड-पकोड़ा खिला दीजिये. दूबे जी ऐसा बूटी देंगे कि बस जा के कॉपी पर उगल दिजिये; बस पास... गारंटी.’



'क्या!! कैसा बूटी?'

‘अरे! वो उनका पेटेंट है. कहते हैं कि अगर देश उनसे खरीद ले तो देश का एजुकेशन सिस्टम सुधर जाये. फॉर्मुला वन नाम है उसका. फॉर्मुला वन मतलब - एक चैप्टर पढ़ो और पांचो सवाल में वही लिखो. और लॉजिक यह कि सवाल तो कुछ भी पूछा जा सकता है; लेकिन इंसान लिखेगा वही, जो उसने पढ़ा है. सो, दूबे जी एक सवाल तैयार करते हैं, और परीक्षा में पांचों सवाल कर आते हैं.

‘ओहो! क्या? आपको खाली पास नहीं होना है; नॉलेज बटोरना है? अरे! तो पहले बोलते! झुठो में एक कहानी सुन लिये- जाइये, जाकर ज्वाइन कीजिये 'राजीव पांडे' की क्लास. रूम नम्बर-86 में चलता है उनका क्लास. पढ़ा तो ऐसा देंगे कि लेक्चरर लोग उंगली चूसने लगेंगे. यूपीएससी के सब attempt ख़त्म हो जाने पर इन्हें ‘कैवल्य’ की प्राप्ति हुई और पांडे जी लॉ करने आ गये. खूब पढ़ते हैं और उतना ही लिखते हैं. परीक्षा में अक्सर question इसीलिये छूट जाता है कि उनको पता ही नहीं लग पाता कि कितना लिखें? इसीलिये गलती से भी से उनका नम्बर मत पूछियेगा! खिसिया जाएंगे. परीक्षा हाल में ससुर को खैनी नहीं मिलता है तो लिखिये नहीं पाते है.

और अब, जब पूछ ही लिये हैं, तो सुनिये, ‘पढ़ाई’ के बारे में बी.डी.जीवीयों के विचार:

अनुराग उर्फ दादा - कीनीया-हॉलैंड मैच (वक़्त की बर्बादी)

राजीव पांडे - A representation or rendering of any object or scene intended, not for exhibition as an original work of art, but for the information, instruction, or assistance of the maker; as, a study of heads or of hands for a figure picture. बाप रे बाप!!!

जयवर्धन- ‘घंटा..!!’

सूरज 'बाबा' – ‘ABCDEFG- A Boy Can Do Everything For Girls.’

दूबे जी – सिस्टम के लिये नौकर पैदा करने वाली मशीनरी.

ज्ञान तो बिखरा पड़ा है भगवान दास होस्टल में. बस देखने वाली आंखे चाहियें. आँखें से याद आया-

'फ़िल्म देखते हैं बाउ साहेब?'

'क्या? क्या कहे? आपके जैसा फ़िल्म का ज्ञान कम ही लोगों को है?'

'अच्छा तो बताइये कि ‘डॉली ठाकुर’ किस फ़िल्म में पहली बार आई थी?'

'क्या...? दस्तूर?'

'अरे, बाउ साहेब...!! इसिलिये ना कहते हैं कि डॉली ठाकुर और डॉली मिन्हास में अंतर समझिये और भगवानदास आया-जाया कीजिये.'

'कमरा नम्बर-88 में नवेन्दु जी से भेंट कीजिये. भंसलिया का फिलिम, हमारा यही भाई एडिट किया था. जब ससुरा, इनका नाम नहीं दिया तो भाई आ गये ‘लॉ’ पढ़ने कि ‘वकील बन के केस करूँगा.’ देश के हर जिला में इनके एक मौसा जी रहते है.

डॉक्टर-मौसा, प्रॉक्टर-मौसा, इलेक्ट्रिशियन-मौसा, पॉलिटिशियन-मौसा. घोड़ा-मौसा, गदहा-मौसा. ख़ैर, मौसा महात्मय छोड़ दें तो भी नवेन्दु जी का महत्व कम नहीं हो जाता. फ़िल्म का ज्ञान तो इतना है कि पाक़ीज़ा पर क़िताब लिख दें. शोले पर तो नवेन्दु जी डाक्टरेट ही हैं. अमिताभ के जींस का नाप, धन्नो का बाप, बुलेट पर कम्पनी का छाप और बसंती के घाघरा का माप तक; सब उनको मालूम है. गब्बरवा, सरईसा खैनी खाता था, वही पहली बार बताए थे. अमिताभ बच्चन को याद नहीं होगा कि कितना फ़िल्म में उनका नाम ‘विजय’ है. अमिताभ बोलेंगे - 17, तो नवेन्दु बोलेंगे ‘नहीं सर - 18. आप ‘नि:शब्द’ को तो भूल ही गये. ‘गदर’ के एक सीन में सनी देओल के नाक पर मक्खी बैठी तो नवेन्दु जी घोषणा कर दिये कि ‘फ़िल्म ऑस्कर के लिये जाएगी; क्योंकि आदमी को तो कोई भी डायरेक्ट कर सकता है; लेकिन मक्खी को डायरेक्ट करना...बाप रे बाप! क्या डायरेक्शन है! ऐसे ज्ञानी हैं नवेन्दु जी.

'अच्छा, तो कहानी में interest आ रहा है? पूरी कहानी सुननी है? तो बैठिये; थोड़ा टाइम लगेगा. पेप्सी और चिप्स मँगवा लीजिये.'

अब आपसे क्या छुपाना बाऊ साहब. जब कहानी सुनानी ही है तो कहानी शुरू करने से पहले बता दूँ कि इस कहानी का सूत्रधार मैं हूं- मैं यानी सूरज. अरे वही! Girl’s hostel and all that. किसी से कहियेगा मत! कसम से, अपना समझ के बता रहे हैं आपको.

तारीख़ी तौर पर बंधी इस कहानी का दौर इक्कीसवीं सदी का पहला दशक है. कहानी उन दिनों शुरू होती है जब तेरह टांगों वाली सरकार जा चुकी थी. सुनामी के लहरों से कहर दिखा दिया था और देश की आर्थिक राजधानी मुम्बई बम विस्फोटों के बीच जीना सीख रही थी.

लेकिन यह कहानी तो देश के सांस्कृतिक राजधानी की है- बनारस. और बनारस की भी क्या है साहब! यह तो भगवानदास होस्टल की कहानी है; जो बनारस के हृदय बीएचयू का छत्तीसवां होस्टल है. वकीलों का होस्टल.

हां! तो भगवानदास होस्टल जाने के लिये आपको बनारस चलना होगा. अरे, वहीं है ना- सर्व विद्या की राजधानी. बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी; जिसे आप बी.एच.यू. भी कहते हैं. आइए चलें :
Banaras Talkies  by Satya Vyas
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वाराणसी देव दीपावली

वाराणसी देव दीपावली
The Dev Deepavali ("the Diwali of the Gods" or "Festival of Lights of the Gods) is the festival of Kartik Poornima celebrated in Varanasi, Uttar Pradesh, India. It falls on the full moon of the Hindu month of Kartika (November - December) and takes place fifteen days after Diwali. The steps of all the ghats on the riverfront of the Ganges River, from Ravidas Ghat at the southern end to Rajghat, are lit with more than a million earthen lamps (diyas) in honour of Ganga, the Ganges, and its presiding goddess. The gods are believed to descend to Earth to bathe in the Ganges on this day. The festival is also observed as Tripura Purnima Snan. The tradition of lighting the lamps on the Dev Deepawali festival day was first started at the Panchganga Ghat in 1985.

During Dev Deepawali, houses are decorated with oil lamps and colored designs on their front doors. Firecrackers are burnt at night, processions of decorated deities are taken out into the streets of Varanasi, and oil lamps are set afloat on the river.















Rituals
The main rituals performed by devotees consist of kartik snan (taking a holy bath in the Ganges during Kartika) and deepdan (offering of oil lighted lamps) to Ganga in the evening. The Ganga aarti is also performed in the evening.
The 5 day festivals starts on Prabodhini Ekadashi (11th lunar day of Kartika) and concludes on Kartik Poornima. Besides a religious role, the festival is also the occasion when the martyrs are remembered at the ghats by worshipping Ganga and lighting lamps watching the aarti. This is organized by Ganga Seva Nidhi when wreaths are placed at Amar Jawan Jyoti at Dashashwamedh Ghat and also at the adjoining Rajendra Prasad Ghat by police officials of the Varanasi District, 39 Gorkha Training Centre, 95 CRPF battalion, 4 Air Force Selection Board and 7 UP battalion of NCC (naval), Benares Hindu University (BHU). The traditional last post is also performed by all the three armed forces (Army, Navy and Air force), followed by a closing ceremony, where sky lamps are lit. Patriotic songs, hymns, and bhajans are sung and the Bhagirath Shourya Samman awards are presented.
The festival is a major tourist attraction, and the sight of a million lamps (both floating and fixed) lighting the ghats and river in vivid colors have often been described by visitors and tourists as a breathtaking sight. On the night of the festival, thousands of devotees from the holy city of Varanasi, surrounding villages, and across the country gather in the evening on the ghats of the Ganges to watch the aarti. The local government makes several intensive security arrangements to ensure order during the festival.
Apart from the aarti at the Dashameshwar Ghat, all buildings and houses are lit with earthen lamps. Nearly 100,000 pilgrims visit the riverfront to watch the river aglitter with lamps. The aarti is performed by 21 young Brahmin priests and 24 girls. The rituals involve chanting hymns, rhythmic drum beating, conch shell blowing, and brazier burning.
Boat rides (in boats of all sizes) along the riverfront in the evening are popular among tourists, when all the ghats are lit with lamps and aarti is being performed.

Ganga Mahotsav
Ganga Mahotsav is a tourist-centric festival in Varanasi, which is celebrated over five days every year, starting from Prabodhani Ekadashi to Kartik Poornima during the months of October and November. It showcases the rich cultural heritage of Varanasi. With its message of faith and culture, the festival features popular cultural programs, classical music, a country boat race, a daily shilp mela (arts and crafts fair), sculpture displays, and martial arts. On the final day (Poornima), which coincides with the traditional Dev Deepawali (light festival of the Gods), the ghats on the Ganga River glitter with more than a million lit-up earthen lamps.

A ghat on the Ganges lit on the festival of Dev Dipawali, 2014
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पैट्रिक पंचतत्व में विलीन, अंतिम दर्शन को बड़ी संख्या में लोग मौजूद रहे

  • उनके पार्थिव शरीर का अंतिम क्रियाकर्म दोपहर बाद चर्च कैन्ट के समीप संपंन हो गया 
  • 1970 वाराणसी धर्मप्रांत के विशप रहे, 37 वर्षो बाद 2007 में सेवा निवृत हुए 
  • पूर्वांचल के कई जिला में दर्जनों मिशनरी स्कूलों की स्थापना, मैत्री भवन, नेत्रहीन बच्चों के लिए जीवन ज्योति वि़द्यालय, मूकबधिर बच्चों के लिए नववाणी स्कूल सहित कई अस्पतालों की भी की स्थापना 
वाराणसी कैथलिक धर्म प्रांत के विशप डाॅ पैट्रिक पाॅल डिसूजा का पार्थिव शरीर शनिवार दोपहर बाद पूरी श्रद्धा व अकीदत के साथ परंपरागत तरीके से पंचतत्व में विलीन हो गया। उनके अंतिम दर्शन को भारी संख्या में लोग मौजूद रहे। वाराणसी समेत, भदोही, मिर्जापुर, बलिया, गाजीपुर, सोनभद्र, चंदौली, जौनपुर सहित कई जिलों के मिशनरी स्कूलों के फादर, टीचर, स्टाफ कर्मचारियों के अलावा रीजनल विशप्स कांफे्रेस के अध्यक्ष सहित देश व विदेश के अनके धर्मगुरु मौजूद रहे। 
उनका गत 16 अक्टूबर को सुबह साढ़े नौ बजे निधन हो गया था। उनके पार्थिव शरीर को तब तक के लिए छवनी चर्च में ही रखा था। जहां उनके अंतिम दर्शन के लिए लोगों का तांता लगा रहा। उनका जन्म 28 अप्रैल 1928 को कर्नाटक के मैंगलोर-बंगलूर गांव में हुआ था। पिता मेरीयन डिसूजा व माता हुलसीन पिन्टों ने परवरिश की। वह वर्ष 1953 में फादर बने। इसके बाद वर्ष 1970 वाराणसी धर्मप्रांत के विशप बने। वे इस पद पर 37 वर्षो तक बने रहे। उनकी उम्र 86 वर्ष थी। वह इन दिनों बीमार चल रहे थे। उनका इलाज मउ के एक अस्पताल में कराया जा रहा था। इस दौरान उन्होंने कई मिशनरी स्कूलों की स्थापना कर राष्टीय स्तर पर पहचान बनाई। सर्वधर्म समभाव को समर्पित वाराणसी के भेलूपुर स्थित मैत्री भवन, काशी नगरी में अंतरधर्म परिसंवाद के लिए समर्पित होकर शांति व सद्भाव को जन-जन तक पहुंचाया। नेत्रहीन बच्चों के लिए सारनाथ में जीवन ज्योति वि़द्यालय, मूकबधिर बच्चों के लिए हरउवा स्थित कोईराजपुर में नववाणी स्कूल, मउ के ताजोपुर गांव अमरवाणी शिक्षण संस्थान, फातिमा अस्पताल, सिकरौल स्थित आशा निकेतन की स्थापना, की। भदोही, जौनपुर, चंदौली, वाराणसी, मउ, गाजीपुर सहित कई जिलों में मिशनरी स्कूलों की स्थापना के साथ भदोही में करुणालय, लोहता में सेंट मेरी अस्पताल की स्थापना की, जहां भारी संख्या में दीन-हीन लाभान्वित हो रहे है। शिवपुर स्थित नवसाधना पाॅस्टोरल सेंटर, नवसाधना पीजी कालेज, नवसंचार केन्द्र की स्थापना की। उन्होंने नवसाधना कला केन्द्र नृत्य डिग्री कालेज-शिवपुर की स्थापना की। इसके जरिए भरतनाट्यम व दक्षिण भारतीय नृत्य की शिक्षा की देकर बालिका शिक्षा को बढ़ावा दिया जा रहा है। वाराणसी धर्म प्रांत से पूर्व बिशप श्रधेय डाॅ पैट्रिक पाॅल डिसूजा 30 अप्रैल 2007 को सेवानिवृत हुए थे। उन्होंने राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय स्तर पर चर्च के

पुरोहितों के लिए कई विषयों व मौकों पर सेमिनार का आयोजन भी कराया। उन्होंने वाराणसी धर्मप्रांत में निःस्वार्थ सेवाभक्ति और विकास के लिए क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया और दुसरों को भी प्रेरित किया। इस मौके पर सेंट जाॅस स्कूल मढौली फादर थाॅमस, सेंट मेरी स्कूल भदोही फादर  अजय पाॅल, जौनपुर-शाहगंज के फादर रोड्रिग्स, गाजीपुर के हर्टमैन इंटर कालेज के फादर पी विक्टर सहित सभी स्कूलों के फादर, सिस्टर, टीचर व अन्य स्टाफ कर्मचारियों व समस्त सामाजिक व राजनीतिक हलकोें के लोग मौजूद रहे। सभी कार्यक्रम कैंट चर्च विशप हाउस के वाराणसी धर्म प्रांत के प्रशासक फादर यूजीन जोसेफ की अगुवाई में संपंन हुआ। 

Rajneesh K Jha

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विशेष : काशी के अस्सी नदी के अस्तित्व को खतरा

  • इसकी गरिमा व अस्तित्व बचा रहे, इसको लेकर मुखर हुआ साझा संस्कृति मंच 
  • मंच के बैनरतले स्वयंसेवी संगठनों ने किया सत्याग्रह और साफ-सफाई 
  • भगवान भोले को साक्षी मानकर हाथ में जल हाथ में लेकर संकल्प लिया कि यह लड़ाई तब तक जारी रहेगी जब तक अस्सी स्वच्छ नहीं हो जाता 
धर्म की नगरी काशी की अस्सी एवं वरुणा नदी अब मृतप्राय हो चली हैं। प्रदूषण व उपेक्षा की मार झेल रही इन नदियों के सूखने एवं अतिक्रमण से तो अब इसके अस्तित्व पर ही संकट आ खड़ा हो गया है। जबकि वरुणा एवं असि (अस्सी) के संगम से ही काशी को वाराणसी कहा जाता है। कहा जा सकता है कि पूरी दुनिया में जिस
वाराणसी की इन दो नदियों से पहचान मिली है, अब दोनों गंदे नाले के रूप में परिवर्तित हो चुकी हैं। हालांकि काशी के स्वयंसेवी संगठन इन दोनों नदियों की अस्तित्व व गरिमा बची रहे इसके लिए जनांदोलन छेड़ दिए है। 18 अक्टूबर को साझा संस्कृति मंच के बैनरतले बड़ी संख्या में स्वयंसेवियों ने सत्याग्रह कर अस्सी नदी की साफ-सफाई की। इसके बाद अस्सी का जल हाथ में लेकर संकल्प लिया कि यह लड़ाई अस्सी को मुक्त करने तक जारी रहेगी। अंत में असि और वरुणा को प्रदूषण और अतिक्रमण से मुक्त करने के लिए सैकड़ों लोगो द्वारा हस्ताक्षरित ज्ञापन पत्र नगर निगम, जिलाधिकारी, मंडलायुक्त और मुख्यमंत्री को भेजा गया। इसके पहले वरुणा नदी की सफाई व कूड़ा से पाटे जाने को लेकर साफ-सफाई की जा चुकी है। 
बता दें, शहर के अधिकांश मुहल्लों की आबादी का मल-मूत्र सीधे इन्हीं नदियों से होकर गंगा में सीधे गिर रहा है, जो गंगा में प्रदूषण का मुख्य कारण है। नदी के दोनों किनारों पर लोगों ने कब्जा कर बड़ी-बड़ी इमारतें बना ली हैं। प्रदूषण व गंदगी के चलते वरुणा एवं अस्सी के जलजीव लगातार मरकर उतराते रहते है। मरे मछली एवं कछुआ के दुर्गंध व सडांध से गंभीर बीमारी का खतरा बना रहता है। नदियों के पर्यावरण संतुलन बिगड़ने का मतलब मानव जीवन के लिए खतरे का संकेत है। क्योंकि नदियों का सीधा संबंध वायुमंडल से होता है। अत्यधिक जलदोहन एवं मल-जल की मात्रा बढ़ने से नदियों के जल में लेड, क्रोमियम, निकेल, जस्ता आदि धातुओं की मात्रा बढ़ती जाती है, जो मानव जीवन के लिए चिंताजनक है। पीने के पानी की किल्लत एक अलग समस्या होगी। हालांकि कुछ हद तक गंदा ही सही लेकिन वरुणा का अस्तित्व तो है, पर अस्सी नदी पर सवाल पूछिए तो शायद ही कोई संतोषप्रद जवाब सुनने को मिलेगा। अस्सी की स्थान पर चैड़ाई कागजो पर  25 मीटर तक है लेकिन प्रशासनिक चूक और संवेदनहीनता के कारण यह सिमट कर मात्र  2-4 फीट हो गयी है। हां, अस्सी घाट से थोड़ी दूर बढ़ें तो बड़ा गंदा नाला गंगा में जाता साफ दिखेगा। 
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के संसदीय क्षेत्र के स्वयंसेवी संगठनों ने उनके गंगा निर्मलीकरण और अविरल प्रवाह के अभियान की सार्थकता को दुहराते हुए संकल्प लिया कि अब गंगा के साथ उसकी सहायक नदी वरुणा व अस्सी को भी स्वच्छ और निर्मल बनाना ही होगा, क्योंकि इन्हीं दोनों नदियों के नाम से वाराणसी अस्तित्व में आया और जब इनका ही अस्तित्व नहीं रहेगा तो फिर काशी की गरिमा को ठेस लगना स्वभाविक हैं। इसी संकल्प के साथ साझा संस्कृति मंच द्वारा पिछले 28 सितम्बर को वरुणा नदी के किनारे और 9 अक्टूबर को अस्सी में एक सांकेतिक सत्याग्रह किया गया था। इसी क्रम में 18 अक्टूबर को मंच व समग्र विकास समिति सहित अनेक जन संगठनों से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों, कलाकारों और छात्रों ने कचरा और मल युक्त असि नदी में 1 घंटे तक खड़े होकर सत्याग्रह किया। इस सत्याग्रह में गाजीपुर, चंदौली, भदोही तक से सत्याग्रही जुटे थे। सत्याग्रहियों द्वारा अस्सी नदी मुक्ति अभियान की शुरुआत की घोषणा की गयी। 
कहा गया कि अतिक्रमणकारियों, प्रदूषणकारियों और भूमाफियाओं के कुकर्मो से आज दोनों नदियाँ संकट में है। वाराणसी विकास प्राधिकरण और जिला प्रशासन की नाक के नीचे नदी क्षेत्र में अवैध लगातार निर्माण होते जा रहे हैं और नदी सिकुड़ती चली जा रही है। नगर निगम की उदासीनता से इन दोनों नदियों में लगातार कूड़ा डंपिंग की जा रही है, साथ ही तमाम नाले सीधे असि और वरुण में प्रवाहित किये जा रहे हैं। प्रदूषित पानी अंततः
गंगा में ही जाकर मिलता है। ऐसे में गंगा निर्मलीकरण की परियोजनाओं का औचित्य बेमानी है। राजस्व के अभिलेखों और प्राचीन पुस्तको में असि नदी के अस्तित्व होने के प्रमाण मिलते हैं। बीएचयु के अवकाश प्राप्त नदी वैज्ञानिक प्रो यूके चैधरी ने सारे प्रमाण प्रदेश और केंद्र सरकार तक उपलब्ध कराये हैं फिर भी कोई सार्थक प्रयास इस नदी को संरक्षित करने की दिशा में नही हो सका, जो चिंतनीय है। 
सत्याग्रहियों ने नदी में और नदी के बाहर जमा प्लास्टिक ढेर और पानी में बहते कचरे को निकाल कर बाहर किया। सत्याग्रह के दौरान प्रेरणा कला मंच के कलाकारों ने गीत और नुक्कड़ नाटक के माध्यम से नदी और जल स्रोतों के सरक्षण के लिए जनता को स्वयं आगे आने के लिए प्रेरित किया। कार्यक्रम में प्रमुख रूप से फादर आनंद, डा आनंद प्रकाश तिवारी, ब्रज भूषण दूबे, नंद्लाल मास्टर, प्रदीप सिंह, धनंजय त्रिपाठी, तपन कुमार, शोभनाथ यादव, प्रेम प्रकाश पाण्डेय, दीनदयाल सिंह, सूरज पाण्डेय, मुकेश झांझरवाला, अवनीश गौतम, कन्हैयालाल हिन्दुस्तानी, संजीव सिंह, विनय सिंह, हर्षित शुक्ल, अमित यादव, राजकुमार पाण्डेय, रवि सोनकर, सौरभ मौर्या, विवेकानंद पाण्डेय आदि ने कहा किऐसा नहीं कि वरुणा की दुर्दशा के बारे में अधिकारियों एवं मंत्रियों को जानकारी नहीं है। जिले के अधिकारी वरुणा की सफाई एवं उसमें गिर रहे नालों को रोकने, नौका विहार एवं वृक्षारोपण जैसी योजना भी बनाते हैं लेकिन ये प्लान कागजों तक ही सीमित हैं। जिस वरुणा एवं असि के योग से काशी का नाम वाराणसी पड़ा उसमें गंदे नाले बेरोकटोक गिर रहे हैं। वरुणा एवं अस्सी में पानी की मात्रा कम कचरा ज्यादा नजर आता है।

Rajneesh K Jha
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साँड़ बनारसी

इलाहाबादी, मुरादाबादी और बनारसी आदि शब्दों के आगे-पीछे यदि अमरूद, लोटा, लँगड़ा आम जैसे शब्द न जोड़े जाएँ तो इसका अर्थ होगा - इन शहरों के निवासी। उत्तर प्रदेश एक ऐसा राज्य है जहाँ के शहरों के नाम के  पीछे ‘ई’ लगा देने से उसका अर्थ वहाँ के निवासी से हो जाता है जैसे बनारसी, मलीहाबादी, आजमगढ़ी, सहारनपुरी, गोरखपुरी, रामपुरी, इलाहाबादी, मिरजापुरी और फर्रुखाबादी आदि। किसी शहर में बस जाने का यह मतलब नहीं कि उस व्यक्ति को उस शहर का निवासी मान लिया जाए। अक्सर आपने लोगों को कहते सुना  होगा - ‘भाई, गाँव जाना है।’ ‘देश में बहिन की शादी है’ ‘घर पर हालत ठीक नहीं, रुपये भेजने हैं’ आदि। इससे यह स्पष्ट है कि वह व्यक्ति मौजूदा समय जहाँ है, उसे अपना शहर नहीं मानता और न वहाँ का रजिस्टर्ड बाशिन्दा हो गया है - इसे स्वीकार करता है, रोजी-रोजगार के लिए टिका हुआ है। भले ही वह बाहर जाकर अपने को उस शहर का निवासी घोषित करे, लेकिन मन, वचन और कर्म से वह उस शहर का निवासी नहीं है। ठीक इसी प्रकार बनारस में रहनेवाले सभी बनारसी नहीं हैं।

बनारसी कौन?
आखिर असली बनारसी है कौन? उनकी पहचान क्या है? पहले आपको यह जान लेना चाहिए कि बनारसी कहना किसे चाहिए। बनारस में पैदा होने या पैदा होकर मर जाने से बनारसी कहलाने का हक हासिल नहीं होता। इस प्रकार के अनेक बनारसी नित्य पैदा होते हैं और मरते हैं। क्या वे सभी बनारसी हैं? कभी नहीं। बनारस में पैदा होना, बनारस में आकर बस जाना या बनारसी बोली सीख लेना भी बनारसी होने का पक्का सबूत नहीं है। हिन्दुस्तान को इस बात का फख़्र है
कभी कभी पढ़ते पढ़ते कोई विचार दिमाग में छा जाता है और उस पर चिंतन मनन करना ही पड़ता है . रांड सांड सीढ़ी सन्यासी, इनसे बचो तो कबहु न होई हानि ... ये वाक्य मैंने कहीं पढ़े हैं पर याद नहीं आ रहा है की मैने किस पुस्तक में पढ़ा है और कौन इसके लेखक हैं .

 
काशी के बारे में एक उक्ति है... रांड सांड सीढ़ी सन्यासी इनसे बचे तो सेवे काशी.

तो ये सीढ़ी काशी की सीढ़ी है...
काशी तीन लोक से न्यारी है। वह शेषनाग के फन पर अथवा शंकर के त्रिशूल पर स्थित है। चूँकि काशी बाबा की राजधानी है, जाड़े के दिनों में वे यहीं रहते हैं, गर्मी में पहाड़ पर आबोहवा बदलने चले जाते हैं, इसलिए यह जरूरी है कि साँड़ अपने मालिक के राज्य में काफी तादाद में रहें, क्योंकि ज़माना तटस्थ रहते हुए भी गुर्राहट और हमले की आशंका से भयभीत है। ऐसी हालत में पता नहीं, कब किसकी और कितनी संख्या में जरूरत पड़ जाए। यही कारण है कि काशी को अपना अस्तबल समझकर साँड़ इतनी आजादी से रहते हैं।


ऐसे ही बनारसी साँड़ के ब्याख्या में बनारस के संस्कारो के संरक्षक श्री सुदामा तिवारी (साँड़ बनारसी ) जिनका एक छोटा सा परिचय 


जौनपुर से २२ कि.मी. दक्षिण और पश्चिम के कोने पर ग्राम-गहलाईं,  वर्तमान में पोस्ट- तेजगढ़,  जिला-जौनपुर में एक साधारण किसान पिता स्वं. विश्वनाथ तिवारी,  माता स्व. नर्मदा तिवारी के परिवार में १३ अप्रैल १९४२ को जन्म हुआ था । ६ वर्ष की  अवस्था मे उनके पिता का देहांत हो गया था । उसी वर्ष उनके बडे भाई का भी अल्पायु में निधन हो गया |

उनकी बुआ उन्हें  १९४६- ४७ में बनारस ( वाराणसी ) लेकर आ गईं और अगस्तकुंड मुहल्ले में रहते हुये टेढीनीम से प्राइमरी स्कूल और उसके बाद सनातन धर्म इंटर कालेज मे पढना प्रारंभ किया । प्रतिकूल परिस्तिथियों के कारण पढाई रुक-रुक कर होती रही |

उनके पिता के स्वर्गवास के बाद उनके पिता के चाचा स्वं. रांमानन्द तिवारी उनके पिता की खेती बारी देखने लगे,  और उन्हें पुत्रवत स्नेह देकर कार्य करने लगे और वह अन्त तक उनके साथ रहे और १९९१ में उनका स्वर्गवास हो गया |

१९६५ मैं उनकी माता जी का भी स्वर्गवास हो गया और उसी समय उनकी शादी भी हो गई लेकिन उनका गाव से भी बरांबर आना-जाना रहता था |


कविता और पैरोडी लिखने की आदत उनकी सनातन धर्म इण्टर कालेज से प्रारम्भ हो गई थी । उन्होंने नौकरी  के साथ-साथ काशी विद्यापीठ से शास्वी एवं एम.ए. समाजशास्त्र बिषय से किया केवल ज्ञान बढाने के लिये । तब तक वो काफी चर्चित हो चुके थे । चकाचक बनारसी एवं स्व. चन्द्रशेखर मिश्र , भइया जी बनारसी,  श्री धर्मशील जी के सहयोग से वाराणसी में लोग जानने सुनने लगे थे । एक कबि सम्मेलन के दौरान गोरखपुर में स्वं. श्याम नारायण पाण्डेय जी  ने उनके डील-डौल एवं शरीर को देखने के बाद कविता सुनकर कहा कि तुम तो साँड़ की तरह लग रहे हो । उस समय स्वं. रूप नारायण त्रिपाठी , स्व. क्षेम , स्व. सुड़ फैजाबादी , स्वं. चन्द्रशेखर मिश्र आदि सबने उनका समर्थम किया और उनका कवि उपनाम साँड़ बनारसी रख दिया गया |  

धीरे- धीरे यह नाम प्रचलित होता गया । मंचों पर कविता पढने का अवसर व उन्हें आगे बढाने में स्वं. चन्द्रशेखर मिश्र एवं स्व. सुड़ फैजाबादी ज्यादा थे । बनारस में चकाचक बनारसी, श्री धर्मशील चतुर्वेदी जी एवं साँड़ बनारसी जी की ही तिकडी ज्यादा सक्रिय रही । अब बनारस में सिर्फ  श्री धर्मशीत्न जी श्री साँड़ बनारसी जी ही है,  उनको धीरे- धीरे लगभग सभी शहरों में काव्य पाठ का अवसर प्राप्त हुआ | कवितायें उस समय दैनिक आज में छपने लगीं जिसे भइया जी बनारसी ने काफी प्रोत्साहित किया |

अभी वो जे.ईं॰ पद से अवकाश ग्रहण कर चुके है । उन्होंने १९५९ में आई.टी.सी. (बी.एच.यू. से इंडस्ट्रियल  ट्रेनिग सेन्टर से ) ट्रेनिग करके डी.एल.डब्लू में अपरेन्टिस में भर्ती हो गए और दो वर्ष के बाद वो कर्मचारी के रूप में स्थाई रूप से काम करने लगे |

श्री साँड़ बनारसी जी बिहार एवं प्रदेश के लगभग सभी शहरों में काव्य पाठ कर चुके है | प्रदेशों में राजस्थान, पजाब, कश्मीर, म.प्र., गोवा, गुजरात, महाराष्ट्र ( मुम्बई ), कोलकाता, उडीसा, हरियाणा, नैनीताल, अल्मोड़ा, देहरादून यानि पूरे भारत में केवल केरल को छोडकर । बाद में दो चार बार अमेरिका भी जाने का अवसर प्राप्त हुआ |

उनकी कविता का अंदाज वो जिस स्वर में पढते है उसे श्रोता पसंद भी करते है, वो हमेशा स्वान्तः सुखाय सवैया और कवित्त, पैरोडी, हास्य लिखने का महारथ हासिल है, समय के अनुसार उनके मन में जो भी उद्गार आते है वो लिख डालते है |


वो अपने माता-पिता की पाँच सन्तानों में चार बहनों एबं एक मात्र में ही पुत्र है | आज उनके दो पुत्र एवं दो पुत्रियाँ हैं बड़ा पुत्र रेलवे में एवं छोटा एडवोकेट हैं । आज के परिवेश में सिर्फ चुनिन्दा कवि सम्मलेन ही करते है लेकिन अपनी संस्था का ही आयोजन परिश्रम के साथ करते है |

मान सम्मान में उन्हें चकल्लस सम्मान, ठहाका सम्मान, सुड़ फैजाबादी सम्मान, चकाचक बनारसी सम्मान, शारदा सम्मान, हुडदंग सम्मान,  स्वं. कैलाश गौतम रजत मुकुट सम्मान जैसे कितने सम्मान से आप अलंककृत है आज भी आप आकाशवाणी से दूरदर्शन तक अपने चहेतों के बीच में अपने काब्य पाठ के माध्यम से हमारे दिल में बैठे है |



काशी में बनारस की सभ्यता के अनुरूप वो हर आयोजन से जुड़े रहते है , वो अत्यंत भावुक, संवेदशील और सहृदय ब्यक्ति है , साँड़ बनारसी जी गीत, पैरोडी, भले ही लिखी हो , परन्तु मूलतः प्राचीन छंद के ही इर्द गिर्द रहते है |


काब्य की विविधता के साथ ही बेलाग प्रस्तुतीकरण में महारथ हासिल करने के कारण श्रोताओ का भरपूर सहयोग और स्नेह मिलता रहा है , दो बार तो अमेरिका में भी अपनी हनक पहुचाने वाले साँड़ बनारसी काशी की हास्य परंपरा से लोगो को आनंदित किया है |

विषय वस्तु में भी वैश्विध्य इनकी विशेषता है , किसी भी अवसर पर झटपट रचना कर लेना आप का कौशल है, आप अमेरिका में भी अपने मित्रो के साथ वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की उची ईमारत के अवलोकन के बाद उनकी ये रचना की दिल को छु जाती है |




आज मनोरंजन के जिस संस्कार को विकार रहित, दूषण रहित , साहित्य को जिन्दा रखे है, ब्यंजना तथा अन्य अलंकारो में इतनी सजावट है की वो मुर्दा दिलो को भी गुदगुदा सकते है |

पता :
श्री सुदामा तिवारी (साँड़ बनारसी )
डी . ३६/१९८ , अगस्त कुंड, गौदोलिया
वाराणसी
मोबाईल : ९४५०५२८७७७  
 

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बनारस शिव से कभी मुक्त नही, जब से आये कैलाश न गये। बनारसी की मस्ती को लिखा नही जा सकता अनुभव होता है। अद्भूद है ये शहर जिन्दगी जीनेका तरीका कुछ ठहरा हुआ है पर सुख ठहराव में है द्रुतविलंबित में नही. मध्यम में है इसको जीनेवाला है यह नगर। नटराज यहां विश्वेश्वर के रुप में विराजते है इसलिये श्मशान पर भी मस्ती का आलम है। जनजन् शंकरवत् है। इस का अनुभव ही आनन्द है ये जान कर जीना बनारस का जीना है जीवन रस को बना के जीना है।
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काल हर !! कष्ट हर !! दुख हर !! दरिद्र हर !! हर हर महादेव !! ॐ नमः शिवाय.. वाह बनारस वाह !!