धन्वंतरी

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धन्वंतरी को हिन्दू धर्म में देवताओं के वैद्य माना जाता है। ये एक महान चिकित्सक थे जिन्हें देव पद प्राप्त हुआ। हिन्दू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार ये भगवान विष्णु के अवतार समझे जाते हैं। इनका पृथ्वी लोक में अवतरण समुद्र मंथन के समय हुआ था। शरद पूर्णिमा को चंद्रमा, कार्तिक द्वादशी को कामधेनु गाय, त्रयोदशी को धन्वंतरी[4], चतुर्दशी को काली माता और अमावस्या को भगवती लक्ष्मी जी का सागर से प्रादुर्भाव हुआ था। इसीलिये दीपावली के दो दिन पूर्व धनतेरस को भगवान धन्वंतरी का जन्म धनतेरस के रूप में मनाया जाता है। इसी दिन इन्होंने आयुर्वेद का भी प्रादुर्भाव किया था।[5] इन्‍हें भगवान विष्णु का रूप कहते हैं जिनकी चार भुजायें हैं। उपर की दोंनों भुजाओं में शंख और चक्र धारण किये हुये हैं। जबकि दो अन्य भुजाओं मे से एक में जलूका और औषध तथा दूसरे मे अमृत कलश लिये हुये हैं। इनका प्रिय धातु पीतल माना जाता है। इसीलिये धनतेरस को पीतल आदि के बर्तन खरीदने की परंपरा भी है।[6] इन्‍हे आयुर्वेद की चिकित्सा करनें वाले वैद्य आरोग्य का देवता कहते हैं। इन्होंने ही अमृतमय औषधियों की खोज की थी। इनके वंश में दिवोदास हुए जिन्होंने 'शल्य चिकित्सा' का विश्व का पहला विद्यालय काशी में स्थापित किया जिसके प्रधानाचार्य सुश्रुत बनाये गए थे।[7] सुश्रुत दिवोदास के ही शिष्य और ॠषि विश्वामित्र के पुत्र थे। उन्होंने ही सुश्रुत संहिता लिखी थी। सुश्रुत विश्व के पहले सर्जन (शल्य चिकित्सक) थे। दीपावली के अवसर पर कार्तिक त्रयोदशी-धनतेरस को भगवान धन्वंतरि की पूजा करते हैं। कहते हैं कि शंकर ने विषपान किया, धन्वंतरि ने अमृत प्रदान किया और इस प्रकार काशी कालजयी नगरी बन गयी।

आयुर्वेद के संबंध में सुश्रुत का मत है कि ब्रह्माजी ने पहली बार एक लाख श्लोक के, आयुर्वेद का प्रकाशन किया था जिसमें एक सहस्र अध्याय थे। उनसे प्रजापति ने पढ़ा तदुपरांत उनसे अश्विनी कुमारों ने पढ़ा और उन से इन्द्र ने पढ़ा। इन्द्रदेव से धन्वंतरि ने पढ़ा और उन्हें सुन कर सुश्रुत मुनि ने आयुर्वेद की रचना की।[7] भावप्रकाश के अनुसार आत्रेय प्रमुख मुनियों ने इन्द्र से आयुर्वेद का ज्ञान प्राप्त कर उसे अग्निवेश तथा अन्य शिष्यों को दिया।

           
विध्याताथर्व सर्वस्वमायुर्वेदं प्रकाशयन्।
           
स्वनाम्ना संहितां चक्रे लक्ष श्लोकमयीमृजुम्।। [8]

इसके उपरान्त अग्निवेश तथा अन्य शिष्यों के तन्त्रों को संकलित तथा प्रतिसंस्कृत कर चरक द्वरा 'चरक संहिता' के निर्माण का भी आख्यान है। वेद के संहिता तथा ब्राह्मण भाग में धन्वंतरि का कहीं नामोल्लेख भी नहीं है। महाभारत तथा पुराणों में विष्णु के अंश के रुप में उनका उल्लेख प्राप्त होता है। उनका प्रादुर्भाव समुद्रमंथन के बाद निर्गत कलश से अण्ड के रुप मे हुआ। समुद्र के निकलने के बाद उन्होंने भगवान विष्णु से कहा कि लोक में मेरा स्थान और भाग निश्चित कर दें। इस पर विष्णु ने कहा कि यज्ञ का विभाग तो देवताओं में पहले ही हो चुका है अत: यह अब संभव नहीं है। देवों के बाद आने के कारण तुम (देव) ईश्वर नहीं हो। अत: तुम्हें अगले जन्म में सिद्धियाँ प्राप्त होंगी और तुम लोक में प्रसिद्ध होगे। तुम्हें उसी शरीर से देवत्व प्राप्त होगा और द्विजातिगण तुम्हारी सभी तरह से पूजा करेंगे। तुम आयुर्वेद का अष्टांग विभाजन भी करोगे। द्वितीय द्वापर युग में तुम पुन: जन्म लोगे इसमें कोई सन्देह नहीं है।[7] इस वर के अनुसार पुत्रकाम काशिराज धन्व की तपस्या से प्रसन्न हो कर अब्ज भगवान ने उसके पुत्र के रुप में जन्म लिया और धन्वंतरि नाम धारण किया। धन्व काशी नगरी के संस्थापक काश के पुत्र थे।

वे सभी रोगों के निवराण में निष्णात थे। उन्होंने भरद्वाज से आयुर्वेद ग्रहण कर उसे अष्टांग में विभक्त कर अपने शिष्यों में बाँट दिया। धन्वंतरि की परम्परा इस प्रकार है -

        काश-दीर्घतपा-धन्व-धन्वंतरि-केतुमान्-भीमरथ (भीमसेन)-दिवोदास-प्रतर्दन-वत्स-अलर्क।

यह वंश-परम्परा हरिवंश पुराण के आख्यान के अनुसार है। [9] विष्णुपुराण में यह थोड़ी भिन्न है-

       
काश-काशेय-राष्ट्र-दीर्घतपा-धन्वंतरि-केतुमान्-भीरथ-दिवोदास।

महिमा

वैदिक काल में जो महत्व और स्थान अश्विनी को प्राप्त था वही पौराणिक काल में धन्वंतरि को प्राप्त हुआ। जहाँ अश्विनी के हाथ में मधुकलश था वहाँ धन्वंतरि को अमृत कलश मिला, क्योंकि विष्णु संसार की रक्षा करते हैं अत: रोगों से रक्षा करने वाले धन्वंतरि को विष्णु का अंश माना गया।[7] विषविद्या के संबंध में कश्यप और तक्षक का जो संवाद महाभारत में आया है, वैसा ही धन्वंतरि और नागदेवी मनसा का ब्रह्मवैवर्त पुराण [10] में आया है। उन्हें गरुड़ का शिष्य कहा गया है -

       
सर्ववेदेषु निष्णातो मन्त्रतन्त्र विशारद:।
       
शिष्यो हि वैनतेयस्य शंकरोस्योपशिष्यक:।। [11]

मंत्र
भगवाण धन्वंतरी की साधना के लिये एक साधारण मंत्र है:

           
ॐ धन्वंतरये नमः॥[1]

इसके अलावा उनका एक और मंत्र भी है:

        ॐ नमो भगवते महासुदर्शनाय वासुदेवाय धन्वंतराये:
       
अमृतकलश हस्ताय सर्वभय विनाशाय सर्वरोगनिवारणाय
       
त्रिलोकपथाय त्रिलोकनाथाय श्री महाविष्णुस्वरूप
       
श्री धन्वंतरी स्वरूप श्री श्री श्री औषधचक्र नारायणाय नमः॥[1][2][3]

अर्थात
       
परम भगवन को, जिन्हें सुदर्शन वासुदेव धन्वंतरी कहते हैं, जो अमृत कलश लिये हैं, सर्वभय नाशक हैं, सररोग नाश करते हैं, तीनों लोकों के स्वामी हैं और उनका निर्वाह करने वाले हैं; उन विष्णु स्वरूप धन्वंतरी को नमन है।

धन्वंतरी स्तोत्रम

प्रचलि धन्वंतरी स्तोत्र इस प्रकार से है।

               
ॐ शंखं चक्रं जलौकां दधदमृतघटं चारुदोर्भिश्चतुर्मिः।
               
सूक्ष्मस्वच्छातिहृद्यांशुक परिविलसन्मौलिमंभोजनेत्रम॥
               
कालाम्भोदोज्ज्वलांगं कटितटविलसच्चारूपीतांबराढ्यम।
               
वन्दे धन्वंतरिं तं निखिलगदवनप्रौढदावाग्निलीलम॥[1]

संदर्भ

2.      धन्वंतरी मंत्र, आई लव इंडिया

।२६ मार्च, २०१०।भार्गव
5.      दीपावली पूजन का शास्त्रोक्त विधान।आश्रम.ऑर्ग।२८ अक्तूबर, २००८
7.      काशी की विभूतियाँ।वाराणसी वैभव
8.      भावप्रकाश
9.      हरिवंश पुराण (पर्व १ अ २९)
10.  ब्रह्मवैवर्त पुराण (३.५१)
11.  ब्रह्मवैवर्त पुराण३.५१

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रुद्राष्टकम्

रुद्राष्टक (संस्कृत:श्रीरुद्राष्टकम्) स्त्रोत महाज्ञानी लंकेश्वर महाराज रावण द्वारा भगवान शिव की स्तुति हेतु रचित एवं प्रथम गायित है। इसका उल्लेख श्रीरामचरितमानस के उत्तर कांड में आता है।

शिव रुद्राष्टक

शिव की यह उपासना तुलसीदास की रामचरितमानस से है।

नमामिशमीशान निर्वाण रूपं। विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपं॥

निजं निर्गुणं निर्किल्पं निरीहं। चिदाकाशमाकाशवासं भजेहं॥
निराकारमोंकारमूलं तुरीयं। गिरा ज्ञान गोतीतमीशं गिरीशं॥
करालं महाकाल कालं कृपालं। गुणागार संसारपारं नतोहं॥
तुषाराद्रि संकाश गौरं गंभीरं। मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरं॥
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा। लसद्भालबालेंदु कंठे भुजंगा॥
चलत्कुंडलं भ्रू सुनेत्रं विशालं। प्रसन्नाननं नीलकंठ दयालं॥
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं। प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि॥
प्रचंडं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं। अखंडं अजं भानुकोटिप्रकाशं॥
त्रय:शूल निर्मूलनं शूलपाणिं। भजेहं भवानीपतिं भावगम्यं॥
कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी। सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी॥
चिदानंदसंदोह मोहपहारी। प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी॥
न यावद् उमानाथ पादारविन्दं। भजंतीह लोके परे वा नराणां॥
न तावत्सुखं शांति सन्तापनाशं। प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं॥
न जानामि योगं जपं नैव पूजां। नतोहं सदा सर्वदा शंभु तुभ्यं॥
जरा जन्म दु:खौघ तातप्यमानं। प्रभो पाहि आपन्नमाशीश शंभो॥
रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये।
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति॥
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महर्षि अगस्त्

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अगस्त्य (तमिल:அகத்தியர், अगतियार) एक वैदिक ॠषि थे। ये वशिष्ठ मुनि के बड़े भाई थे। इनका जन्म श्रावण शुक्ल पंचमी (तदनुसार ३००० ई.पू.) को काशी में हुआ था। वर्तमान में वह स्थान अगस्त्यकुंड के नाम से प्रसिद्ध है। इनकी पत्नी लोपामुद्रा विदर्भ देश की राजकुमारी थी। इन्हें सप्तर्षियों में से एक माना जाता है। देवताओं के अनुरोध पर इन्होंने काशी छोड़कर दक्षिण की यात्रा की और बाद में वहीं बस गये थे।

दक्षिण भारत में अगस्त्य तमिल भाषा के आद्य वैय्याकरण हैं। यह कवि शूद्र जाति में उत्पन्न हुए थे इसलिए यह 'शूद्र वैयाकरण' के नाम से प्रसिद्ध हैं। यह ऋषि अगस्त्य के ही अवतार माने जाते हैं। ग्रंथकार के नाम परुनका यह व्याकरण 'अगस्त्य व्याकरण' के नाम से प्रख्यात है। तमिल विद्वानों का कहना है कि यह ग्रंथ पाणिनि की अष्टाध्यायी के समान ही मान्य, प्राचीन तथा स्वतंत्र कृति है जिससे ग्रंथकार की शास्त्रीय विद्वता का पूर्ण परिचय उपलब्ध होता है।

भारतीय संस्कृति के प्रचार-प्रसार में उनके विशिष्ट योगदान के लिए जावा, सुमात्रा आदि में इनकी पूजा की जाती है। महर्षि अगस्त्य वेदों में वर्णित मंत्र-द्रष्टा मुनि हैं। इन्होंने आवश्यकता पड़ने पर कभी ऋषियों को उदरस्थ कर लिया था तो कभी समुद्र भी पी गये थे।[1]

महर्षि अगस्त्य के आश्रम

महर्षि अगस्त्य के भारतवर्ष में अनेक आश्रम हैं। इनमें से कुछ मुख्य आश्रम उत्तराखण्ड, महाराष्ट्र तथा तमिलनाडु में हैं। एक उत्तराखण्ड के रुद्रप्रयाग नामक जिले के अगस्त्यमुनि नामक शहर में है। यहाँ महर्षि ने तप किया था तथा आतापी-वातापी नामक दो असुरों का वध किया था। मुनि के आश्रम के स्थान पर वर्तमान में एक मन्दिर है। आसपास के अनेक गाँवों में मुनि जी की इष्टदेव के रुप में मान्यता है। मन्दिर में मठाधीश निकटस्थ बेंजी नामक गाँव से होते हैं।

दूसरा आश्रम महाराष्ट्र के नागपुर जिले में है। यहाँ महर्षि ने रामायण काल में निवास किया था। श्रीराम के गुरु महर्षि वशिष्ठ तथा इनका आश्रम पास ही था। गुरु वशिष्ठ की आज्ञा से श्रीराम ने ऋषियों को सताने वाले असुरों का वध करने का प्रण लिया था (निसिचर हीन करुहुँ महिं)। महर्षि अगस्त्य ने श्रीराम को इस कार्य हेतु कभी समाप्त न होने वाले तीरों वाला तरकश प्रदान किया था।

एक अन्य आश्रम तमिलनाडु के तिरुपति में है। पौराणिक मान्यता के अनुसार विंध्याचल पर्वत जो कि महर्षि का शिष्य था, का घमण्ड बहुत बढ़ गया था तथा उसने अपनी ऊँचाई बहुत बढ़ा दी जिस कारण सूर्य की रोशनी पृथ्वी पर पहुँचनी बन्द हो गई तथा प्राणियों में हाहाकार मच गया। सभी देवताओं ने महर्षि से अपने शिष्य को समझाने की प्रार्थना की। महर्षि ने विंध्याचल पर्वत से कहा कि उन्हें तप करने हेतु दक्षिण में जाना है अतः उन्हें मार्ग दे। विंध्याचल महर्षि के चरणों में झुक गया, महर्षि ने उसे कहा कि वह उनके वापस आने तक झुका ही रहे तथा पर्वत को लाँघकर दक्षिण को चले गये। उसके पश्चात वहीं आश्रम बनाकर तप किया तथा वहीं रहने लगे।

एक आश्रम महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के अकोले में प्रवरा नदी के किनारे है। यहाँ महर्षि ने रामायण काल में निवास किया था। माना जाता है की उनकी उपस्थिति में सभी प्राणी दुश्मनी भूल गये थे।

मार्शल आर्ट में योगदान

महर्षि अगस्त्य केरल के मार्शल आर्ट कलरीपायट्टु की दक्षिणी शैली वर्मक्कलै के संस्थापक आचार्य एवं आदि गुरु हैं।[2] वर्मक्कलै निःशस्त्र युद्ध कला शैली है। मान्यता के अनुसार भगवान शिव ने अपने पुत्र मुरुगन (कार्तिकेय) को यह कला सिखायी तथा मुरुगन ने यह कला अगस्त्य को सिखायी। महर्षि अगस्त्य ने यह कला अन्य सिद्धरों को सिखायी तथा तमिल में इस पर पुस्तकें भी लिखी। महर्षि अगस्त्य दक्षिणी चिकित्सा पद्धति 'सिद्ध वैद्यम्' के भी जनक हैं।
संदर्भ
    काशी की विभूतियाँ-महर्षि अगस्त्य।
    Zarrilli, Phillip B. (1998). When the Body Becomes All Eyes: Paradigms, Discourses and Practices of Power in Kalarippayattu, a South Indian Martial Art. Oxford: Oxford University Press.


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दुर्गाकुण्ड, वाराणसी

 

दुर्गाकुण्ड उत्तर प्रदेश राज्य के वाराणसी नगर में स्थित है। महत्वपूर्ण कुण्डों में 'दुर्गाकुण्ड' का नाम आता है। दुर्गाकुण्ड ही अब तक शेष बचे कुण्डों में सर्वाधिक सुरक्षित व अस्तित्व में है। अस्सी चौराहे से रविन्द्रपुरी होते हुए आगे मार्ग पर दुर्गाकुण्ड है जहाँ बगल में स्थित माँ दुर्गा का भव्य मंदिर भी है। यह स्थल कैण्ट से बनारस हिंदू विश्वविद्यालय वाले मार्ग पर भी स्थित है। नवरात्रि माह में इस मंदिर में दर्शनार्थियों की भीड़ बढ़ जाती है।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार दुर्गा मंदिर में माँ दुर्गा की जो मूर्ति स्थापित है वह दुर्गाकुण्ड से प्राप्त हुई थी। मान्यताओं व मनौतियों के लिये प्रसिद्ध इस मंदिर में तो पूरे वर्ष भर लोगों की भीड़ लगी रहती है। इस कुण्ड पर श्रावण माह में लगभग एक माह तक मेला लगा रहता है।
कुण्डों की मान्यता धार्मिक के साथ तो है ही साथ हीं बरसाती पानी से जल जमाव को रोकने में ये कुण्ड काफी सहायक होते हैं। कुण्डों में मछलियों या कछुओं को डालकर पानी साफ रखा जाने लगा है।
जल कुण्डों से ऐसे स्पष्ट संकेत मिलते हैं कि वाराणसी के नगर क्षेत्र से भू-जल गंगा में आता है जो भू-जल स्तर को गंगा स्तर से ऊपर सिद्ध करता है। प्राचीन काल में लोग कुण्डों व कूपों से ही अपनी पेयजल की समस्या का समाधान करते थे लेकिन आज इनके अस्तित्व पर संकट के कारण ही पेयजल के लिये काशी में हाहाकार मचा है।
वर्तमान समय में सरकार को इन पौराणिक मान्यताओं वाले कुण्डों के रख-रखाव पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है, ताकि जिस श्रद्धा से लोग अपनी मान्यताओं को पूरा करने के लिये आते हैं उन्हें किसी प्रकार की कठिनाई न उठानी पड़े।[1]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कुंड व तालाब (हिंदी) काशी कथा।

 



 

 

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बनारस शिव से कभी मुक्त नही, जब से आये कैलाश न गये। बनारसी की मस्ती को लिखा नही जा सकता अनुभव होता है। अद्भूद है ये शहर जिन्दगी जीनेका तरीका कुछ ठहरा हुआ है पर सुख ठहराव में है द्रुतविलंबित में नही. मध्यम में है इसको जीनेवाला है यह नगर। नटराज यहां विश्वेश्वर के रुप में विराजते है इसलिये श्मशान पर भी मस्ती का आलम है। जनजन् शंकरवत् है। इस का अनुभव ही आनन्द है ये जान कर जीना बनारस का जीना है जीवन रस को बना के जीना है।
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काल हर !! कष्ट हर !! दुख हर !! दरिद्र हर !! हर हर महादेव !! ॐ नमः शिवाय.. वाह बनारस वाह !!