शान्तिरंजन गंगोपाध्याय

काशीखंड, स्कंद महापुराण का एक खंड जिसमें काशी का परिचय, माहात्म्य तथा उसके आधिदैविक स्वरूप का विशद वर्णन है। काशी को आनंदवन एंव वाराणसी नाम से भी जाना जाता है। इसकी महिमा का आख्यान स्वयं भगवान विश्वनाथ ने एक बार भगवती पार्वती जी से किया था, जिसे उनके पुत्र कार्तिकेय (स्कंद) ने अपनी माँ की गोद में बैठे-बैठे सुना था। उसी महिमा का वर्णन कार्तिकेय ने कालांतर में अगस्त्य ऋषि से किया और वही कथा स्कंदपुराण के अंतर्गत काशीखंड में वर्णित है।
बनारसीपन यानी मौज- मस्ती का दूसरा नाम..। शायद ही वर्तमान समय की इस दौड़भाग भरी जिंदगी में कहीं लोगों को मौज मस्ती के लिए भरपूर फुर्सत मिलती हो लेकिन काशीवासी इस मामले में धनी हैं। तमाम काम के बावजूद लोग अपने और दूसरों के लिए समय निकाल ही लेते हैं। वहीं, काम के दौरान माहौल को हल्का फुल्का बनाने की कला बनारसियों का स्वाभाविक गुण है। महादेव की नगरी में बिना भांग खाये भी लोगों के बातचीत का लहजा अल्हड़पन लिए रहता है। एक बात जो बनारसियों के मौजमस्ती का ट्रेडमार्क बन गयी है वह है गंभीर से गंभीर मसले पर भी मुंह में पान घुलाते हुए बात करना।

काशी जितनी महान नगरी है, उतने ही महान यहाँ के कलाकार हैं। जिस नगरी के बादशाह (शिव) स्वयं नटराज (कलागुरु) हों, उस नगरी में कलाकार और कला पारखियों की बहुलता कैसे न हो? बनारस का लँगड़ा इंडिया में ‘सरनाम’ (प्रसिद्ध) है,

ठीक उसी प्रकार बनारस का प्रत्येक कलाकार अपने क्षेत्र में ‘सरनाम’ है। बनारस में यदि कलाकारों की मर्दुम-शुमारी की जाए तो हर दस व्यक्ति पीछे कोई-न-कोई एक संगीतज्ञ, आलोचक, कवि, सम्पादक, कथाकार, मूर्त्तिकार,उपन्यासकार, नाट्यकार और नृत्यकार अवश्य मिलेगा। पत्रकार तो खचियों भरे पड़े हैं। कहने का मतलब यह कि यहाँ का प्रत्येक व्यक्ति कोई-न-कोई ‘कार’ है, बेकार भी अपनी मस्ती की दुनिया का शासक-सरकार है। काशी ही एक ऐसी नगरी है जहाँ प्रत्येक गली-कूचे में कितने महान और अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त कलाकार बिखरेपड़े हैं। सब एक-से-एक दिग्गज और विद्वान हैं। इनका पूर्ण परिचय समाचार पत्रों, मकानों में लगी ‘नेमप्लेटों’ और लेटरपैड पर छपी उपाधियों से ज्ञात होता है। वैसे ही गुदरी में लाल खोजने की अपनी प्राचीन परंपरा का निर्वहन करते हुए आज हमने जिस लाल को खोजा है वो अपनी संपूर्ण हुलिया से आचार्य रजनीश के बाऊ लगते हैं इनका चश्मा उतार दे तो आसाराम बापू और टोपी उतार दे लकड़सुंघवा लगने लगेंगे . दिखने में ये कुछ भी लगें लेकिन सच तो यह है की इनकी कलई खोलना शुरू की जाय तो भोर हो जायगी, उसके लिए एक अभिन्दन पत्र नाकाफी होगा, कई टन कागज लग जाएंगे, विस्तार में आप चित्रकार,शिल्पकार, दार्शनिक, कवि, चिंतक, वैज्ञानिक और सार में चैंपियन आफ आल भी हैं, आपका शुभ नाम है  शान्तिरंजन गंगोपाध्याय .












पिता कालिपद गंगोपाध्याय और माता कमल कामिनी देवी के सौजन्य से उनके कनिष्ठ पुत्र के रूप के में आप १५ जनवरी १९३० को बिहार के पुर्णिया जिले की  भूमि पर टपके थे . बचपन में आप इतनी जोर से पादते- हगते थे कि जल्दी आपको कोई गोदी में नहीं लेता था . लेकिन एक कहावत है न, होनहार बिरवान के होत चिकने पात ,सो बचपन से ही आपने अपने अन्दर धधक रही कई प्रतिभाओं  को हवा देना शुरू कर दिया . सोने में सुहागा यह कि शांतिनिकेतन में आपको दुनिया भर में नाम कमाए शिल्पाचार्य श्री नंदलाल बसु , प्रोफेसर धीरानंद,संतोष भाजा और हीरालाल मुखर्जी जैसे महान कलाकारों का सानिध्य मिला जिन्होंने आपके अन्दर किलोलें मार रही चित्रकला, मूर्तिकला, पात्रकला, टेक्स्टाइल  पेंटिंग आदि हुनरों को हवा देकर तराशा,उन्हें नए तेवर दिए .




इसके बाद आप निकल पड़े अपनी साधना यात्रा पर . देश में कई स्थानों पर प्रदर्शनीयों  की सजावट काम  किया जिससे नेहरु जी और राजेंद्र प्रसाद जैसी बरी हस्तियों से भी आपकी निकटता बनी .सर्वोदयी नेता जयप्रकाश नारायण ने  आपको अपने आश्रम बुला लिया जहाँ आपने उनके विचारो को अपने  शिल्प  में उतार कर अनेक ऐसी कालजई कृतियाँ बनाई जो आज तक वहाँ  की शोभा बढ़ा रही हैं और आप उन्हीं को अपने जीवन की श्रेष्ठ कृतियाँ भी मानते हैं .आपकी लाइफ में बरा टर्निंग प्वाईंट तब आया जब १९५८ में आपने राजस्थान में एक प्रदर्शनी की सजावट की .उसे वहां पहुंचे एक जपानी प्रतिनिधि मंडल ने खास पसंद किया  और आपसे जापान चलने को कहा . लेकिन आप ठहरे पक्के बनारसी मस्ती के बनारस वाले , तब केवल नाम ही कमाया था,खर्चा-पानी के मामले में सिफर थे. सो जेपी से निकटता के चलते उन्होंने आपकी जापान यात्रा का सारा जुगाड़ करवा दिया. इमेदा सांग ने आपको जापानी सिखाई और आप उड़ चले जापानवहां आपने मुशाशितों फाईन आर्ट्स यूनिवर्सिटी में शिक्षा ग्रहण की, कई प्रदर्शनियां भी लगाई जिनसे आपकी चर्चाएँ टीवी तक पहुंच गई .आज अपनी सफेद दाढ़ी में ये भले ही आपको लकरदाता लगे पर उस जबानी में काली फ्रेंच कट दाढ़ी में कातिलाना आशिक भी लगते थे .जापान में के इक इंस्टेंट खाध पदार्थ की दुकान पर अपना पेट पूजने जाना शुरू किया .वहां दुकान मालिक की बिटिया कुमको जो आपको पहले से ही  टीवी पर देख-जान चुकी थी, आप पर लट्टू हो गई बस फिर क्या था, उसके परिवार में लाख विरोध होता रहा लेकिन आप उसे विधिवत ब्याह कर, भारत लाकर ही माने .

बाबा के इस हेड आफिस काशी में आकर आपने माँ गंगा के किनारे पांडेघाट पर अपना स्थाई डेरा जमाया, क्षेत्रीयजनों के सामूहिक श्रमदान से घाट साफ करके उसे नया कलेवर दिया. दो संताने पैदा की और वहीँ एक नन्हा सा जापानी होटल भी खोल दिया.इस होटल में घाट की तरफ एक हैंगिंग गार्डन भी लटका दिया जिसे पर्यटक आज भी उसी अजूबे की तरह तजबिजते जैसी टीवी पर राखी सावंत को तजबिजा जाता है .
यहाँ आकर भी आपने अपने हुनर विराम देकर मोर्चा अंत में नहीं लगने दिया.बसंत कालेज, राजघाट में कला प्रवक्ता, ब्रज्पालदास जी के प्रतिष्ठान में साड़ीयों पर कलात्मक छपाई के निर्देशक के रूप में प्रशंसनिय कार्य किए .
अनेक संस्थाओं में कला सलाहकार और पर्यटन गाइड का भी काम किया आप कलम के खासे शातिर है .
कविताई का भूत भी आप पर १९५२ से ही सवार हो गया था जब आपकी पहली कविता बंगाली की ‘सुचित्रा पत्रिका’ में छपी थी इसके बाद अब तक, आगुन’, प्रीति बौल, तत्व बोध नामक तीन काव्य संग्रह, प्रकाशित हो चूके हैं ‘द आर्ट आफ ‘शांतिरंजन गंगोपाध्याय’ शीर्षक से एक पुस्तक भी जापान में छप चुकी है इसकेअलावा आप देश-विदेश के अनेक विधालयों में कला के प्रतिष्ठत प्रशिक्षकों के पद पर समानपुर्वक कार्य भी कर चुके है १९७१ में आपने विप्पति काल में हवाई जहाज को बचाने की ऐसी विधि प्रस्तुति की थी जिसे तत्कालीन अखबारों ने प्रमुखता से छपा  था लेकिन कापिराईट के मामले पर सहमती न बन पाने के कारण इसका प्रदर्शन न हो सका आपकी सैकड़ो अन्य योग्यताएं एक लेकिन बतौर बनारसी मस्ती के बनारस वाले ठलुआ , आपकी कोटि अत्यंत उच्च है ठलुआ चरित्र को प्रमाणित और चरितार्थ करता आपका नाम ही है –शांति ,रंजन (अर्थात मनोरंजन ),गंगो (यानि गंगा) और यानि उपरांत का अध्याय ठलुआ को और क्या चाहिए यहाँ तो खता-पिता परिवार, बाल बच्चे, गंगा का किनारा, टंच स्वास्थ और एक ‘फारेन’ की वाइफ भी मौजुद है आपका दर्शन है की मां-बाप ने आपको संभोग द्वारा यहाँ भोगने के लिए  पैदा किया है सो भोगना ही अपनी नियति है चाहे वह राजभोग हो या कष्ठभोग जो अच्छा बुरा किया या करना बाकी है सब का श्रेय ऊपर वाला को जाता है ..

बनारसी मस्ती का दल जब आपके निवास पर आप का साक्षात् दशन करने पहुंचा तो यह देख कर दंग रह गया की आप जिस रजाई को हटा कर उठे उसमे से एक अदद पिल्ला भी निकला, एक अदद बिल्ली भी ऐसे समरसी और जिवंत बनारसी मस्ती करते हुए हम खुद को भी गौरवान्वित अनुभव कर रहे है गंगा मैया से प्रार्थना है  की आपकी जीवन ज्योति ऐसे ही जलती रहे, दाढ़ी ऐसे ही फलती रहे, बारी ऐसे ही चलती रहे, मृत्यु हाथ मलती रहे, मिजाज में मस्ती हलती रहे ऐसी ही भर-भर खचिया शुभकामनाओं के साथ कागज ख़त्म होने के चलते हम यह संवाद भी ख़त्म करते  हैं और अंत  में चलते-चलते आपको ‘ठलुआ माहर्षि’ की दुर्लभ उपाधि से विभूषित करते है,आपकी जय-जय  करते हैं  .




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Banaras Talkies (बनारस टाकिज)

.... कमाल का लिखते हैं Satya Vyas  उनकी ताजा किताब बनारस टाकिज मेरे सामने है। अभी कुछ ही पन्‍ने पढ़े हैं लेकिन एक बार में ही पूरी किताब खत्‍म करने का मन कर रहा है....गटागट पीते जाओ, किताब का प्‍लाट और भाषा गजब है। हिंदी युग्म पब्लिशर्स को खुश होना चाहिए कि सत्य व्यास सरीखे प्रतिभा संपन्‍न लेखक उसके पास हैं।

बवाल है गुरू बनारस टाकीज मज़ा आ रहा है ... जियो जिया दिये पूरा बी एच यु अपने कलम से.


अपने बनारसी मित्र और बनारसी अंदाज के लेखक सत्य व्यास जी की किताब 'बनारस टाकीज़' आज कल खूब चर्चा में हैं, अमेज़न और फ्लिपकार्ट पर इसकी प्रीबुकिंग बहुत तेज हुई,आप भी इस लिंक से
(http://bit.ly/btflipkart or  http://bit.ly/btamazonin) ये किताब मंगाइए और बताइये कि आपको ये किताब कैसी लगी ,प्रस्तुत है किताब के कुछ अंश -

BHU में स्टुडेंट/ प्रोफेसर रिलेशन पर भी बनारस और उसकी फक्कड़ संस्कृति का प्रभाव है। यहां आदर है, आवरण नहीं । यहां दोनों एक दूसरे से सीखते हैं। क्योंकि यहां सभी यह मानते हैं कि सीखता सतत प्रक्रिया है। स्टुडेंट/प्रोफेसर रिलेशन देख कर कोई भी बाहरवाला इसे अशिष्टता करार सकता है। जैसा कहा ना कि यहां आदर है, छद्म आवरण नहीं कुछ ऐसे ही वाकये ज़ेहन मे आ रहे है जो ‘बनारस टॉकीज़’ मे नहीं है, आपसे साझा कर रहा हूँ :

1) प्रोफेसर: आज हमने रीतिकालीन कवियों को पढा। क्या आपका कोई सवाल है?

स्टूडेंट : जी गुरु जी।

प्रोफेसर: पूछिये।

स्टूडेंट: देशी मुर्गा कैसे किलो ?

प्रोफेसर चुप।

2) प्रोफेसर: बेटा, इंटरनेट का कुछ ज्ञान है ?

स्टुडेंट : (चौड़े होकर) यस सर।

प्रोफेसर: तो बताओ,खाता जी मेल में खोलें कि ई मेल में?

स्टुडेंट चुप।

3) छात्र नेता: (पांव छूते हुए) गुरु जी आसीर्वाद हौ ना?

प्रोफेसर: आ जे ना हो तब?

छात्र नेता चुप।

4) प्रोफेसर: राम अवधेश, बेटा ई रिया सेन मुनमुन सेन के बेटी हव?

राम अवधेश: (लजाते हुए) जी।

प्रोफेसर: बतावा ! माई त अईसन ना रहे हो ?

राम अवधेश चुप॥

बनारस टॉकीज भी ऐसी ही समय से गुजरते हुए तीन वर्षों की यात्रा है। यदि पसन्द आये तो लिंक आप जानते ही है..


किताब: बनारस टॉकीज (पेपरबैक, उपन्यास)
लेखक: सत्य व्यास
पन्ने: 192
प्रकाशक: हिंद युग्म, दिल्ली


शायर नजीर बनारसी लिखते हैं, गर स्वर्ग में जाना हो तो जी खोल के ख़रचो/मुक्ति का है व्यापार बनारस की गली में. बनारस वह शहर है जिसकी रगों में घुमक्कड़ी, बेफिक्री और मस्तमौला अंदाज गंगा के आवेग की तरह निरंतर बहा करता है. इसी शहर में है बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी, जिसके एक होस्टल की एक कहानी को नए नजरिये संग ला रहे हैं लेखक सत्य व्यास अपने उपन्यास 'बनारस टॉकीज' में. किताब अगले साल 12 जनवरी से ऑनलाइन उपलब्ध होगी. हालांकि प्री-बुकिंग अभी शुरू हो चुकी है. पढ़िए किताब का एक्सक्लूसिव हिस्सा, सिर्फ आपके लिए.

ये भगवानदास है बाउ साहब. 'भगवानदास होस्टल'. समय की मार और अंग्रेजी के भार से, जब काशी हिन्दू विश्वविद्यालय सिमटकर बीएचयू हुआ; ठीक उसी समय 'भगवानदास होस्टल' सिमटकर बी.डी. होस्टल हो गया. समय की मार ने इसके नेम में कटौती भले ही की हो; इसके फेम में कटौती नहीं कर पाई. इसके 120 कमरे में 240 'बीडीजीवी' आज भी सोए हैं.

'क्या!! बी.डी.जी.वी. कौन-सा शब्द है?'

'इसीलिये कहते हैं बाउ साहब कि जरा इधर-उधर भी देखा कीजिये! होस्टल में घुसने से पहले जो बरगद है ना; उस पर का Graffiti पढ़िए. जिस पर लिखा है-

'कृपया बुद्धिजीवी कहकर अपमान न करें. यहां बी.डी.जीवी रहते हैं.'

'अब आप पूछेंगे कि ये बी.डी.जीवी क्या बला हैं? रूम नम्बर-73 में जाइए और जाकर पूछिये कि भगवानदास कौन थे? जवाब मिलेगा-‘घंटा!!' ये हैं 'जयवर्धन जी.' ‘लेक्चर - घंटा, लेक्चरर - घंटा, भगवान - घंटा, भगवानदास – घंटा. सबकुछ घंटे पर रखने के बावजूद, इतने नंबर तो ले ही आते है कि पढ़ाकुओं और प्रोफेसरों के आंख की किरकिरी बने रहते हैं. ग़लत कहते हैं कहने वाले, कि दुनिया किसी त्रिशूल पर टिकी है. यह दरअसल जयवर्धन शर्मा के ‘घंटे’ पर टिकी है; और वो ख़ुद अपनी कहावतों पर टिके हैं. हर बहस की शुरुआत और अंत एक कहावत के साथ कर सकते हैं.

'आगे बढ़िये तो रूम नम्बर-79 से धुआं निकलता दिखाई देगा. अरे भाई, डरिये मत! आग नहीं लगा है. भगवानदास के एकमात्र विदेशी छात्र ‘अनुराग डे’ फूंक रहे होंगे. अब ये ‘विदेशी’ ऐसे हैं कि इनके पुरखे बांग्लादेशी थे; लेकिन अब दो पुश्तों से मुगलसराय में पेशेवर हैं. अरे...!! 'पेशेवर मतलब- पेशेवर वकील बाउ साहब!' आप भी उलटा दिमाग़ दौड़ाने लगते हैं! ख़ैर, एक बात और जान लीजिये कि ये बंगाली होने के कारण पूरे भगवानदास के ‘दादा’ हैं. कुछ जूनियर्स के तो ‘दादा भइया’ भी हैं. ससुर टोला भर का सब बात क़्रिकेटे में करते हैं और क्रिकेट के क्या कहा जाता है....Encyclopedia हैं -

'अगर फलाना प्रोफेसर सचिन के फ्लो में पढ़ाता, तब बात बनती.'

'अरे! साला का लेक्चर है कि गार्नर का बाउंसर है?'

'लड़की देखी नहीं बे! साला ग्लांसे मार लेती.'

पिंच-हिटिंग और हार्ड-हिटिंग के अंतर पर घंटा भर लेक्चर दे सकते हैं. मार्क ग्रेटबैच को 'फादर ऑफ पिंच हिटिंग' का ख़िताब इन्हीं का दिया हुआ है. डकवर्थ-लुईस मेथड का ‘द विंची कोड’ देश भर में सिर्फ अनुराग डे समझते हैं. 1987 वर्ल्ड कप के सेमीफ़ाइनल में जब फ़िलिप डेफ्रिट्स के पहले ही ओवर में सुनील गावस्कर बोल्ड हो गए तो 6 साल के अनुराग डे चिल्लाने लगे- Fix है! Fix है! उनके पिताजी को लगा कि बेटा चिल्ला रहा है- Six है! Six है! काश! पिताजी उस दिन समझ गए होते! पिताजी की नासमझी से मैच फिक्सिंग जैसा अपराध फैल गया.


'अच्छा, अच्छा... आपको क्रिकेट में इंटरेस्ट नहीं है!' Girls Hostel में तो है ना? तो रूम नम्बर-79 में ही अनुराग डे के रूम पार्टनर ‘सूरज’ से मिलिये. हालांकि, इनके क्या, इनके बाप के नाम से भी पता नहीं चलता कि वो ब्राह्मण है; लेकिन जानकारों की कमी, कम-से-कम भगवानदास में तो नहीं ही है. फौरन उनकी सात पीढ़ियों का पता चल गया और वो होस्टल के ‘बाबा’ हो गए. फैकल्टी में 'सूरज' और दोस्तों में 'बाबा'. लड़कियों में विशेष रुचि है बाबा की. B.H.U के girls hostel की पूरी ख़बर रखते हैं बाबा. हर खुली खिड़की पर दस्तक देते हैं. खिड़कियों से झिड़कियां मिलने पर उदास नहीं होते; दुगुने जोश से अगली लीड की तलाश में लग जाते हैं. शरीफ लगने और दिखने की कोशिश करते हैं. और हां! दुनिया का सबसे साहसिक कार्य करते हैं... कविताएं लिखते हैं.

'ले बाउ साहब....!!' आपको क्या लग रहा है कि भगवानदास में पढ़ाई-लिखाई साढ़े-बाइस है? इसीलिये तो कह रहे है कि पूरी बात सुनिये-

'किस तरह से पढ़ना चाहते है?'

‘रात भर में पढ़ के कलक्टरी करना है? तो दूबे जी को खोजिये. ‘रामप्रताप नारायण दूबे. जितना लम्बा इनका नाम, उतना ही लम्बा इनका चैनल. हर सेमेस्टर से पहले, पेपर आउट होने की पक्की वाली अफ़वाह फैलाते हैं और हर एग्जाम के बाद अपने reliable source को दमपेल गरियाते हैं. रूम नम्बर-85. हां! तो रात भर में कलक्टरी करना है तो दूबे जी को धर लीजिए. ज़्यादा खर्चा नहीं होगा; केवल रात भर जागने के लिए चाय पिलाइये; मन हो तो दिलीप के दुकान का ब्रेड-पकोड़ा खिला दीजिये. दूबे जी ऐसा बूटी देंगे कि बस जा के कॉपी पर उगल दिजिये; बस पास... गारंटी.’



'क्या!! कैसा बूटी?'

‘अरे! वो उनका पेटेंट है. कहते हैं कि अगर देश उनसे खरीद ले तो देश का एजुकेशन सिस्टम सुधर जाये. फॉर्मुला वन नाम है उसका. फॉर्मुला वन मतलब - एक चैप्टर पढ़ो और पांचो सवाल में वही लिखो. और लॉजिक यह कि सवाल तो कुछ भी पूछा जा सकता है; लेकिन इंसान लिखेगा वही, जो उसने पढ़ा है. सो, दूबे जी एक सवाल तैयार करते हैं, और परीक्षा में पांचों सवाल कर आते हैं.

‘ओहो! क्या? आपको खाली पास नहीं होना है; नॉलेज बटोरना है? अरे! तो पहले बोलते! झुठो में एक कहानी सुन लिये- जाइये, जाकर ज्वाइन कीजिये 'राजीव पांडे' की क्लास. रूम नम्बर-86 में चलता है उनका क्लास. पढ़ा तो ऐसा देंगे कि लेक्चरर लोग उंगली चूसने लगेंगे. यूपीएससी के सब attempt ख़त्म हो जाने पर इन्हें ‘कैवल्य’ की प्राप्ति हुई और पांडे जी लॉ करने आ गये. खूब पढ़ते हैं और उतना ही लिखते हैं. परीक्षा में अक्सर question इसीलिये छूट जाता है कि उनको पता ही नहीं लग पाता कि कितना लिखें? इसीलिये गलती से भी से उनका नम्बर मत पूछियेगा! खिसिया जाएंगे. परीक्षा हाल में ससुर को खैनी नहीं मिलता है तो लिखिये नहीं पाते है.

और अब, जब पूछ ही लिये हैं, तो सुनिये, ‘पढ़ाई’ के बारे में बी.डी.जीवीयों के विचार:

अनुराग उर्फ दादा - कीनीया-हॉलैंड मैच (वक़्त की बर्बादी)

राजीव पांडे - A representation or rendering of any object or scene intended, not for exhibition as an original work of art, but for the information, instruction, or assistance of the maker; as, a study of heads or of hands for a figure picture. बाप रे बाप!!!

जयवर्धन- ‘घंटा..!!’

सूरज 'बाबा' – ‘ABCDEFG- A Boy Can Do Everything For Girls.’

दूबे जी – सिस्टम के लिये नौकर पैदा करने वाली मशीनरी.

ज्ञान तो बिखरा पड़ा है भगवान दास होस्टल में. बस देखने वाली आंखे चाहियें. आँखें से याद आया-

'फ़िल्म देखते हैं बाउ साहेब?'

'क्या? क्या कहे? आपके जैसा फ़िल्म का ज्ञान कम ही लोगों को है?'

'अच्छा तो बताइये कि ‘डॉली ठाकुर’ किस फ़िल्म में पहली बार आई थी?'

'क्या...? दस्तूर?'

'अरे, बाउ साहेब...!! इसिलिये ना कहते हैं कि डॉली ठाकुर और डॉली मिन्हास में अंतर समझिये और भगवानदास आया-जाया कीजिये.'

'कमरा नम्बर-88 में नवेन्दु जी से भेंट कीजिये. भंसलिया का फिलिम, हमारा यही भाई एडिट किया था. जब ससुरा, इनका नाम नहीं दिया तो भाई आ गये ‘लॉ’ पढ़ने कि ‘वकील बन के केस करूँगा.’ देश के हर जिला में इनके एक मौसा जी रहते है.

डॉक्टर-मौसा, प्रॉक्टर-मौसा, इलेक्ट्रिशियन-मौसा, पॉलिटिशियन-मौसा. घोड़ा-मौसा, गदहा-मौसा. ख़ैर, मौसा महात्मय छोड़ दें तो भी नवेन्दु जी का महत्व कम नहीं हो जाता. फ़िल्म का ज्ञान तो इतना है कि पाक़ीज़ा पर क़िताब लिख दें. शोले पर तो नवेन्दु जी डाक्टरेट ही हैं. अमिताभ के जींस का नाप, धन्नो का बाप, बुलेट पर कम्पनी का छाप और बसंती के घाघरा का माप तक; सब उनको मालूम है. गब्बरवा, सरईसा खैनी खाता था, वही पहली बार बताए थे. अमिताभ बच्चन को याद नहीं होगा कि कितना फ़िल्म में उनका नाम ‘विजय’ है. अमिताभ बोलेंगे - 17, तो नवेन्दु बोलेंगे ‘नहीं सर - 18. आप ‘नि:शब्द’ को तो भूल ही गये. ‘गदर’ के एक सीन में सनी देओल के नाक पर मक्खी बैठी तो नवेन्दु जी घोषणा कर दिये कि ‘फ़िल्म ऑस्कर के लिये जाएगी; क्योंकि आदमी को तो कोई भी डायरेक्ट कर सकता है; लेकिन मक्खी को डायरेक्ट करना...बाप रे बाप! क्या डायरेक्शन है! ऐसे ज्ञानी हैं नवेन्दु जी.

'अच्छा, तो कहानी में interest आ रहा है? पूरी कहानी सुननी है? तो बैठिये; थोड़ा टाइम लगेगा. पेप्सी और चिप्स मँगवा लीजिये.'

अब आपसे क्या छुपाना बाऊ साहब. जब कहानी सुनानी ही है तो कहानी शुरू करने से पहले बता दूँ कि इस कहानी का सूत्रधार मैं हूं- मैं यानी सूरज. अरे वही! Girl’s hostel and all that. किसी से कहियेगा मत! कसम से, अपना समझ के बता रहे हैं आपको.

तारीख़ी तौर पर बंधी इस कहानी का दौर इक्कीसवीं सदी का पहला दशक है. कहानी उन दिनों शुरू होती है जब तेरह टांगों वाली सरकार जा चुकी थी. सुनामी के लहरों से कहर दिखा दिया था और देश की आर्थिक राजधानी मुम्बई बम विस्फोटों के बीच जीना सीख रही थी.

लेकिन यह कहानी तो देश के सांस्कृतिक राजधानी की है- बनारस. और बनारस की भी क्या है साहब! यह तो भगवानदास होस्टल की कहानी है; जो बनारस के हृदय बीएचयू का छत्तीसवां होस्टल है. वकीलों का होस्टल.

हां! तो भगवानदास होस्टल जाने के लिये आपको बनारस चलना होगा. अरे, वहीं है ना- सर्व विद्या की राजधानी. बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी; जिसे आप बी.एच.यू. भी कहते हैं. आइए चलें :
Banaras Talkies  by Satya Vyas
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बनारस शिव से कभी मुक्त नही, जब से आये कैलाश न गये। बनारसी की मस्ती को लिखा नही जा सकता अनुभव होता है। अद्भूद है ये शहर जिन्दगी जीनेका तरीका कुछ ठहरा हुआ है पर सुख ठहराव में है द्रुतविलंबित में नही. मध्यम में है इसको जीनेवाला है यह नगर। नटराज यहां विश्वेश्वर के रुप में विराजते है इसलिये श्मशान पर भी मस्ती का आलम है। जनजन् शंकरवत् है। इस का अनुभव ही आनन्द है ये जान कर जीना बनारस का जीना है जीवन रस को बना के जीना है।
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काल हर !! कष्ट हर !! दुख हर !! दरिद्र हर !! हर हर महादेव !! ॐ नमः शिवाय.. वाह बनारस वाह !!