काशी के शिव मन्दिर
रामेश्वर
रामेश्वर द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से है।
इनका मूल स्थान तमिलनाडु में है। काशी में प्रसिद्ध रामेश्वर मंदिर पंचक्रोशी
यात्रा मार्ग पर है। इस मंदिर परिसर में कई देवी देवता स्थापित हैं। मान्यता के
अनुसार श्रीराम ने अपने भाइयों के साथ पंचक्रोशी यात्रा किया था। सभी ने एक-एक
शिवलिंग की स्थापना की थी। यह मंदिर विशिष्ट दक्षिण भारतीय शैली में निर्मित किया
गया है। कार्तिक पूर्णिमा को श्रद्धालु वरूणा नदी को हिन्द महासागर की पाल्क खाड़ी
मानकर विशेष पूजा अर्चना करते हैं।
मध्यमेश्वर
हिमालय के पहाड़ पर स्थित शिवलिंग का प्रतिरूप मध्यमेश्वर
स्वयंभू लिंग हैं। जो काशी क्षेत्र के नाभि केन्द्र के रूप में वर्णित हैं।
पद्यपुराण के अनुसार मध्यमेश्वर वह केन्द्र हैं जिसके पांच कोश लगभग 17.600 किलोमीटर वृत्त बनता है वह क्षेत्र काशी है।
मणिकर्णिकेश्वर
काशी में शिव मणिकर्णिकेश्वर मणिकर्णिका घाट के पास हैं। यह
शिव के नृत्य और विष्णु को आशीष प्रदान करने के रूप में हैं। काशी में होने वाली
सभी धार्मिक तीर्थ यात्राओं में इस लिंग का वर्णन मिलता है।
तिलभाण्डेश्वर
माना जाता है कि काशी के कंकड-कंकड़ में
शिवशंकर वास करते हैं। काशी के महात्म्य में स्वयंभू शिवलिंगों का अदितिय स्थान है, जिन्हें देखने से अदभुत अनुभव होता है; उन्हीं
स्वयंभू शिवलिंगों में से एक हैं- तिलभाण्डेश्वर महादेव। काशी के प्राचीन मंदिरों
में से एक तिलभाण्डेश्वर का मंदिर शहर के भीड़भाड़ वाले इलाके मदनपुरा के बी.17/42 तिलभाण्डेश्वर गली में स्थित है। तिलभाण्डेश्वर शिवलिंग की विशिष्टता यह
है कि इनका आकार काशी के तीन सबसे बड़े शिवलिंगों में से एक है और हर वर्ष इसमें
तिल भर की वृद्धि होती है। इस स्वयंभू शिवलिंग के बारे में वर्णित है कि प्राचीन
काल में इस क्षेत्र की भूमि पर तिल की खेती होती थी। एक दिन अचानक तिल के खेतों के
मध्य से शिवलिंग उत्पन्न हो गया। जब इस शिवलिंग को स्थानीय लोगों ने देखा तो
पूजा-अर्चन करने के बाद तिल चढ़ाने लगे। मान्यता है कि तभी से इन्हें
तिलभाण्डेश्वर कहा जाता है। काशीखण्डोक्त इस शिवलिंग में स्वयं भगवान शिव विराजमान
हैं। बताया जाता है कि मुस्लिम शासन के दौरान मंदिरों को ध्वस्त करने के क्रम में
तिलभाण्डेश्वर को भी नुकसान पहुंचाने की कोशिश की गयी। मंदिर को तीन बार मुस्लिम
शासकों ने ध्वस्त कराने के लिए सैनिकों को भेजा लेकिन हर बार कुछ न कुछ ऐसा घट गया
कि सैनिकों को मुंह की खानी पड़ी। अंगेजी शासन के दौरान एक बार ब्रिटिश अधिकारियों
ने शिवलिंग के आकार में बढ़ोत्तरी को परखने के लिए उसके चारो ओर धागा बांध दिया जो
अगले दिन टूटा मिला। कई जगह उल्लेख मिलता है कि माता शारदा इस स्थान पर कुछ समय के
लिए रूकी थीं। वहीं, कर्नाटक राज्य से विभाण्डक ऋषि
काशी आये तो यहीं रूककर पूजा-पाठ करने लगे। मंदिर निर्माण के बारे में बताया जाता
है कि विजयानगरम के किसी राजा ने इस भव्य एवं बड़े मंदिर को बनवाया था। तीन तल
वाले इस मंदिर में मुख्य द्वार से अंदर जाने पर दाहिनी ओर नीचे गलियारे में जाने
पर विभाण्डेश्वर शिवलिंग स्थित हैं। इस शिवलिंग के उपर तांबे की धातु चढ़ायी गयी
है। मान्यता के अनुसार विभाण्डेश्वर के दर्शन के उपरांत तिलभाण्डेश्वर का दर्शन
करने पर सारी मनोकामना पूर्ण हो जाती है। बनारसी एवं मलयाली संस्कृति के उत्कृष्ट
स्वरूप वाले इस मंदिर में भगवान अइप्पा का भी मंदिर स्थित है जिसकी दीवारों पर
मलयाली भाषा में जानकारियां लिखी हुई हैं। इस मंदिर के आगे उपर सीढ़ियां चढ़ने पर
बायीं ओर स्थित हैं- स्वयंभू शिवलिंग तिलभाण्डेश्वर। सुरक्षा की दृष्टि से गर्भगृह
को लोहे की जाली से बंद कर दिया गया है। काशी के इस सबसे बड़े शिवलिंग को देखकर
भक्त सहज ही आकर्षित हो जाते हैं। गर्भगृह के बायीं ओर की दीवार पर भोलेनाथ की
योगदृष्टणा मुद्रा में मूर्ति है। दाहिनी ओर दीवार पर भी शिवलिंग स्थापित हैं।
वहीं, गर्भगृह के दाहिनी ओर छोटे से मंदिर में मां
पार्वती की दिव्य मूर्ति स्थापित है। इसी मंदिर के बगल में ही विशालकाय करीब 18 फीट उंचा शिवकोटिस्तूप भी है। जिसे आन्ध्र प्रदेश के भक्तों ने बनवाया है।
इस स्तूप में वहां से आने वाले भक्त एक कागज पर शिव-शिव दो बार लिखकर डालते हैं।
मंदिर में रहने वाले पुजारियों के मुताबिक अब तक करीब 10 करोड़ से ज्यादा शिव का नाम लिखकर भक्त स्तूप में डाल चुके हैं।
तिलभाण्डेश्वर मंदिर में वर्ष में चार बड़े आयोजन होते हैं। महाशिवरात्रि के दिन
शिव के पंचमुखेश्वर रूप को जो कि तांबे का बना हुआ है तिलभाण्डेश्वर शिवलिंग के
उपर रखा जाता है; जिसके दर्शन के लिए काफी संख्या में
भक्त उमड़ते हैं। वहीं मकर संक्रांति वाले दिन बाबा का चंदन श्रृंगार किया जाता
है। सावन महीने में मंदिर में रूद्राभिषेक होता है जबकि दीपावली पर अन्नकूट का
आयोजन किया जाता है। इस दौरान भजन-कीर्तन का सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होता है।
मंदिर खुलने का समय सुबह 5 बजे से रात्रि साढ़े 9 बजे तक है। वहीं दिन में 1 से 4 बजे के बीच गर्भगृह बंद रहता है। प्रतिदिन आरती सुबह 6 बजे होती है। मंदिर परिसर में ही तिलभाण्डेश्वर मठ भी स्थित है। जिसमें
साधु संत रहते हैं। जबकि मंदिर की गतिविधियों को देखने की जिम्मेदारी केरला के
साधु संत निभा रहे हैं।
व्यासेश्वर
गंगा जी के उस पार रामनगर के ऐतिहासिक किले
के परिसर में शिवालय भी हैं। जिन्हें व्यासेश्वर कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि
इस शिवलिंग की स्थापना वेदों के रचयिता वेदव्यास ने की थी। माघ महीने के हर सोमवार
को इस शिवलिंग दर्शन पूजन के लिए दर्शनार्थियों की भीड़ लगी रहती है।
कर्दमेश्वर
कर्दमेश्वर महादेव मंदिर – अर्द्धचन्द्राकार रूप में प्रवाहित उत्तरवाहिनी माँ गंगा के किनारे स्थित
विद्या और संस्कृति की राजधानी काशी नगरी अपनी धार्मिक और पौराणिक स्थानों की
विशाल संख्या और उनमें व्याप्त विविधता के लिए विश्वविख्यात है, काशी की महिमा का उल्लेख अनेक पुराणों में मिलता है; जिसमें स्कन्द पुराण का काशी खण्ड में है। सामान्य जनजीवन हो या आस्था का
केन्द्र स्थल मंदिर, सभी स्वयं में एक विस्तृत प्रभाव
समेटे हुए है। काशी की धार्मिक परम्पराओsं में यात्रा तथा
यात्रा के दौरान काशी खण्ड में स्थित देवालयों में दर्शन-पूजन का विशेष महत्व है।
इसी क्रम में पंचक्रोशी यात्रा में पहले विश्राम के रूप में प्रसिद्ध है
कर्दमेश्वर महादेव मंदिर। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से करीब 5 किलोमीटर की दूरी पर दक्षिण-पश्चिमी दिशा में यह मंदिर स्थित है। एक बड़े
चतुर्भुजाकार तालाब के पश्चिमी ओर स्थित यह मंदिर उड़ीसा के विकसित मंदिरों सा
प्रतीत होता है। साथ ही मूर्तिकला की सम्पन्नता लिए यह चंदेल इतिहास का प्रतीक है।
एक अभिलेख के अनुसार तालाब के घाटों का निर्माण रानी भवानी (1720-1810) द्वारा 1751 या 1757 में कराया गया है।
इतिहास व कालक्रम
कर्दमेश्वर मंदिर का उल्लेख पंचक्रोशी
महात्म्य में कर्दमेश के तौर पर है। यहीं पर पंचक्रोशी यात्री अपना पहला पड़ाव या
विश्राम करते है। स्कन्द पुराण का काशीखण्ड स्पष्ट रूप से कर्दमेश्वर का उल्लेख
नहीं करता बल्कि एक कथा कर्दमेश्वर से अवश्य जुड़ी है। इस कथा के अनुसार एक बार जब
प्रजापति कर्दम शिव पूजा में ध्यानमग्न थे। उनका पुत्र कुछ मित्रों के साथ तालाब
में नहाने गया स्नान के दौरान उसे एक घड़ियाल ने खिंच लिया। डरे हुए मित्रों ने यह
बात कर्दम को बतायी कर्दम बिना बाधित हुए ध्यानमग्न रहे परन्तु ध्यानावस्था में ही
वह पूरे विश्व के घटनाक्रम को देख सकते थे। उन्होंने देखा कि उनका पुत्र एक जल
देवी द्वारा बचाकर समुद्र को सौंप दिया गया है। जिसे समुद्र में गहनों से सजाकर
शिव के गण को सौप दिया शिवगण ने शिव आज्ञा से बालक को उसके घर पहुंचाया।
ध्यानावस्था से उठने पर कर्दम ने अपने पुत्र को सम्मुख पाया कर्दम का यहीं पुत्र
कर्दमी के नाम से जाने गये तथा पिता की आज्ञा से वाराणसी चले आये। कर्दमी ने एक
शिवलिंग स्थापित कर पांच हजार वर्षों तक अत्यन्त कठोर तप किया। शिव ने प्रसन्न
होकर उन्हें वरूणा के पश्चिमी क्षेत्र के धन, माणिक्य, समुद्र, नदी, तालाब, वापी जल के प्रत्येक स्रोत का स्वामी घोषित किया एक अन्य वरदान ने शिव ने
कहा कि मणिकर्णेश के दक्षिण-पश्चिम स्थित जो लिंग है वह वरूणेश के नाम से जाना
जायेगा दिये गये वर्णन का सही स्थान पता लगाने पर इस बात पर सहमति बनती है कि
बताया गया मंदिर वरूणेश मंदिर ही कर्दमेश्वर मंदिर है। काशीखण्ड तथा तीर्थ विवेचन
खण्ड यह दर्शाते है कि वरूणेश लिंग गहड़वाल काल का है। जिसका सम्बन्ध कर्दम से है।
जो बाद में कर्दमेश्वर नाम से जाना गया।
वर्तमान कर्दमेश्वर मंदिर के निर्माण के सही
समय का निर्णय कर पाना वस्तुतः जटिल है। हैवेल के अनुसार यह मुस्लिम आक्रमण के
पहले का बना हुआ है। प्रो0 अग्रवाल के अनुसार यह गहड़वाल वंश का
एकमात्र अवशेष है। वर्तमान मंदिर की दीवारों को देखकर यह प्रतीत होता है कि यह
मंदिर 12वीं शताब्दी के बाद बना है। मंदिर के शेषभाग
अपने स्थापत्य विशेषता में मध्यकालीन स्थापत्य को दर्शाता है। इस प्रकार यह भी हो
सकता है कि सम्पूर्ण मंदिर का निर्माण 12वीं शताब्दी के
बाद किसी पुराने मंदिर के ध्वंसावशेष पर बना हो इस प्रकार का काशीखण्ड कथा में
वर्णित पंचक्रोशी महात्म्य में कर्दमेश्वर तथा वरूणेश्वर की व्याख्या हो सकती है
कि इसी समय दोनों शिवलिंग अस्तित्व में रहे हों और समय के साथ कर्दमेश्वर
महत्वपूर्ण होता गया और वरूणेश्वर अज्ञात रह गया।
वास्तु योजना
कर्दमेश्वर मंदिर पंचरथ प्रकार का मंदिर है
इसकी तल छंद योजना में एक चौकोर गृर्भगृह अन्तराल तथा एक चतुर्भुजाकार अर्द्धमण्डप
है। मंदिर का निचला भाग अधिष्ठान, मध्यभित्ति क्षेत्र माण्डोवर भाग है
जिस पर अलंकृत तांखे बने हुए है। ऊपरी भाग में नक्काशीदार कंगूरा वरांदिका व आमलक
सहित सजावटी शिखर है। मंदिर का पूर्वाभिमुख मुख्य द्वार तीन फीट पांच इंच चौड़ा
तथा छः फीट ऊँचा है। मंदिर का गर्भगृह जिसका बाहरी माप 12×12 फीट तथा भीतरी माप 8 फीट 8 इंच चौड़ा तथा 8 फीट लम्बा है। इसी
गर्भृगृह के मध्य ही कर्दमेश्वर शिवलिंग अवस्थित है। गर्भगृह के ही उत्तर-पश्चिमी
कोने में छः फीट की ऊचाई पर एक जल स्रोत है। जिससे शिवलिंग पर लगातार जलधारा गिरती
रहती है।
वास्तुशिल्प और मूर्तिशिल्प के आधार पर यह
मंदिर बहुत ही रोचक है। मंदिर के विखण्डित कुर्सी या खम्भों की स्थिति को देखकर यह
प्रतीत होता है कि मंदिर का अर्द्धमण्डप एक बेहतर निर्माण रहा होगा शिखर में भी
आधुनिक तरह का छत तथा लकड़ियों के आधार पर सादे पत्थरों द्वारा तैयार शिखर भी इस
तथ्य को और स्पष्ट करते है। आधार की अपेक्षा खम्भे काफी हद तक सादे है। पत्तियों
या अर्द्ध हीराकार नक्काशी सजावट खम्भों पर पन्द्रहीं शताब्दी में पाये जाते थे।
कर्दमेश्वर मंदिर के अर्द्धमण्डप के दो स्तम्भों पर अभिलेख है। जो 14वीं-15वीं शताब्दी से है। जिनसे पुष्ट होता है कि
अर्द्धमण्डप के निर्माण में पुरानी सामग्री को पुनः प्रयोग में लाया गया है।
कर्दमेश्वर मंदिर पर बनी मूर्तियां शिल्प के दृष्टिकोण से सामान्य प्रकृति की है।
परन्तु कुछ आकृतियां जैसे दक्षिण भित्ती पर बनी उमा महेश्वर की मूर्ति खजुराहों की
मंदिरों पर बनी आकृतियों की तरह है। लेकिन उनमें आकर्षण और मोहित करने वाली
सुन्दरता का अभाव है। इसी प्रकार उत्तरी तरफ निर्मित रेवती और ब्रम्हा की मूर्ति
के केश सज्जा से स्पष्ट रूप से गुप्तकालीन मूर्ति कला का प्रभाव दिखता है। मंदिर
पर बनी आकृतियां पुष्ट और मृदु साथ ही चेहरे पर प्रभावकारी मुस्कान है। जबकि नाग
और शेर का चित्र अपरिपक्व व भावहीन है। कुछ चित्रों में गोल पत्तीनुमा या लम्बवत
आंख की संरचना वाली बिन्दी लगाये चित्र भी हैं। वामन तथा विष्णु की मूर्तियों में
बने आभूषणों में घुँघरू की उपस्थिति भी बहुत बाद की मूर्ति शिल्प विशेषता है। ऐसे
ही पश्चिमी भाग पर खड़ी मुद्रा में विष्णु की मूर्ति के माथे पर यू आकार का चिन्ह
है जो वर्तमान समय में भी प्रचलित है। निःसंदेह कर्दमेश्वर मंदिर पर उत्कीर्ण
मूर्तियां तेजस्वी है परन्तु उनमें आकर्षण व जीवंतता का अभाव है। उनके चेहरे पर
मुस्कान बाहर से थोपी गयी प्रतीत होती है। भले ही इन चित्रों खजुराहो के मंदिरों
पर उत्कीर्ण चित्रों जैसा लालित्य मिश्रित तथा जीवंत भाव न हो परंतु मंदिर की
भित्तियों पर उनकी स्थिति तथा मूर्ति विध्वन्स के विवरण यह प्रमाणित करते हैं कि
कुछ मूर्तियां बेहतर स्थिति में रही होंगी।
वर्तमान में मंदिर के सम्पूर्ण देख-रेख का
जिम्मा उत्तर प्रदेश राज्य पुरातत्व विभाग का है। पुरातत्व विभाग द्वारा मन्दिर पर
किये गये कृत्रिम रंगों के प्रयोग से पत्थरों हुए नुकसान के मद्देनजर सफाई एवं
संरक्षण का कार्य किया जा रहा है। हाल ही में धार्मिक और ऐतिहासिक दृष्टि से
महत्वपूर्ण इस मंदिर के गर्भगृह के अष्टधातु से निर्मित अरघे का एक हिस्सा विगत
महीने में चोरों द्वारा काट लिया गया था। हालांकि कुछ ही दिनों बाद पुलिस प्रशासन
ने अरघे को बरामद कर लिया।
गौतमेश्वर महादेव
वाराणसी की पहचान भगवान शिव हैं। काशी के
कण-कण में वास करने वाले भगवान भोले के यहां हर स्थान पर मंदिर मिल जायेंगे। काशी
खण्डोक्त शिवालयों की बात की जाये तो गौतमेश्वर महादेव का मंदिर महत्वपूर्ण है।
इनका मंदिर गोदौलिया चौराहे से चौक की ओर बढ़ते ही कुछ कदम की दूरी पर दाहिने तरफ
भव्य द्वार के भीतर काशीराज काली मंदिर के बगल में स्थित है। बेहद छोटे से इस
मंदिर में गौतमेश्वर महादेव हैं। मान्यता के अनुसार गौतम ऋषि ने इनको स्थापित किया
था। जिसके बाद से श्रद्धालु यहां दर्शन-पूजन करने लगे। इनका मंदिर प्रातःकाल 4 बजे से पूर्वाह्न 10 बजे तक एवं शाम को 4 से रात 9 बजे तक खुला रहता है। बाबा की
आरती सुबह 5 बजे एवं शाम को 7 बजे मन्+त्रोच्चारण के बीच सम्पन्न होती है। महाशिवरात्रि पर्व पर इनके
मंदिर पर काफी संख्या में श्रद्धालु पहुंचकर जलाभिषेक करते हैं। इस दौरान बाबा का
भव्य श्रृंगार भी होता है। वहीं सावन महीने में भी कावंरियों सहित आम श्रद्धालु
गौतमेश्वर महादेव का दर्शन करते हैं। मान्यता के अनुसार इनके दर्शन से आयु में
वृद्धि होने के साथ ही सुख समृद्धि बढ़ती है।
सोमेश्वर महादेव
भारत में काशी एक ऐसा स्थान है जहां द्वादश
ज्यातिर्लिंगों के प्रतिरूप स्थित हैं। बाबा विश्वनाथ यहां द्वादश ज्योतिर्लिंगों
में से एक हैं देश में स्थित अन्य स्थानों के मूल ज्योतिर्लिंगों के प्रतिरूप काशी
में विराजमान हैं। यहां स्थित इन्हीं प्रतिरूप ज्योतिर्लिंगों में से एक हैं
सोमनाथ के प्रतिरूप सोमेश्वर महादेव। इनका छोटा सा मंदिर मान मंदिर घाट के ऊपर
चढ़ने पर यात्रियों के ठहरने के लिए संचालित होने वाले एक गेस्ट हाउस के दाहिने
तरफ मुड़ी गली में कुछ कदम पर ही दाहिनी ओर है। आस-पास के निवासियों के अनुसार
मंदिर में कोई नियमित पुजारी नहीं है। स्थानीय लोग ही मंदिर खोलकर पूजा-पाठ करते
हैं। वैसे मंदिर सुबह 5 से 8 बजे एवं शाम 6 से रात 8 बजे तक खुला रहता है। वहीं, दिन में भी मंदिर
में बनी खिड़कियों से बाबा का दर्शन किया जा सकता है। मान्यता के अनुसार इनके
दर्शन से सोमनाथ के दर्शन के बराबर ही पुण्य फल प्राप्त होता है। लोगों के अनुसार
महाशिवरात्रि एवं सावन में काफी संख्या में श्रद्धालु बाबा का जलाभिषेक कर
आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। इस मंदिर के पास ही वाराही देवी का प्रसिद्ध मंदिर भी
है। सोमेश्वर महादेव के दर्शन के लिए दशाश्वमेध घाट से मानमंदिर घाट होते हुए
पहुंचा जा सकता है।
बैजनाथेश्वर महादेव
भारत के 12 ज्योतिर्लिंगों
में से एक बैजनाथ जी का मुख्य मंदिर बिहार में स्थित है। इस महत्वपूर्ण मंदिर में
सावन माह में देश के कोने-कोने से श्रद्धालु दर्शन करने आते हैं। कहा जाता है कि
इनका दर्शन करने से सभी कष्ट दूर हो जाते हैं और भक्त मोह माया के बंधनों से मुक्त
हो जाता है। काशी में बैजनाथ जी के ही प्रतिरूप ज्योतिर्लिंग बैजनाथेश्वर महादेव
हैं। इनका प्राचीन मंदिर बैजनत्था क्षेत्र में स्थित है। मान्यता के अनुसार
बैजनाथेश्वर महादेव स्वयंभू हैं। इन्हीं के नाम पर बैजनत्था मोहल्ले का नाम पड़ा है।
मान्यता के अनुसार बैजनाथेश्वर महादेव के दर्शन से वही फल प्राप्त होता है जो
मुख्य बैजनाथ जी के दर्शन से मिलता है। बैजनाथेश्वर मंदिर का निर्माण इंदौर की
महारानी अहिल्या बाई होल्कर ने करवाया था। बाद में इस मंदिर का जीर्णोद्धार
श्रद्धालुओं के सहयोग से हुआ। मंदिर परिसर में ही एक कुंआ है। साथ ही परिसर में
अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियां भी हैं। इस मंदिर में बड़ा आयोजन महाशिवरात्रि एवं
सावन महीने में होता है। महाशिवरात्रि के अवसर पर मंदिर में महाआरती होती है। साथ
ही रूद्राभिषेक एवं मंगला आरती की जाती है। जबकि सावन महीने में इस मंदिर में
जलाभिषेक करने काफी संख्या में कावंरिया आते हैं। पूरे सावन माह में मंदिर में
जमकर श्रद्धालु दर्शन-पूजन के लिए उमड़ते हैं। इस माह में बाबा का अलग-अलग ढंग से
श्रृंगार किया जाता है। साथ ही प्रत्येक सोमवार को भी इस मंदिर में दर्शनार्थियों
की संख्या अधिक रहती है। यह मंदिर दर्शनार्थियों के लिए सुबह 4 से दोपहर साढ़े 12 बजे तक एवं सायं 4 से रात 10 बजे तक खुला रहता है। इनकी आरती
प्रातः 6 बजे दोपहर 12 बजे एवं सायं साढ़े 7 बजे सम्पन्न होती
है। मंदिर के वर्तमान पुजारी राम सुबेदी हैं। यह बैजनत्था क्षेत्र में बी0
37/1 ए0 में यह मंदिर स्थित है।
कमच्छा होते हुए इस मंदिर तक पहुंचा जा सकता है।
जोगेश्वर महादेव
गंगा तरंग-रमणीय-जटाकलापं गौरी निरंतर विभूषित वामभागम्
नारायण-प्रिय मनंग-मदापहारं वाराणसीपुरपत्भिज विश्वनाथम
यह श्लोक भगवान शिव के वाराणसी के कण-कण में
विद्यमान होने का साक्ष्य देता है। वैसे भगवान शिव व वाराणसी के विषय में किसी
साक्ष्य की जरूरत नहीं क्योंकि यह शाश्वत सत्य है। काशी में ऐसा कोई स्थान नहीं
होगा जहां शिवलिंग के रूप में देवाधिदेव महादेव विराजमान न हों। इस पावन देवभूमि
पर आकार की दृष्टि से सबसे बड़े तीन शिवलिंगों में जोगेश्वर महादेव एक हैं।
मान्यता के अनुसार जोगेश्वर महादेव के आकार में वर्ष भर में एक जौ के बराबर वृद्धि
होती है। जिससे यह शिवलिंग काफी विशाल है। कहा जाता है कि इनका लगातार तीन साल तीन
महीने दर्शन-पूजन करने से योग की प्राप्ति होती है और मनुष्य सभी बंधनों से मुक्त
होकर परमसुख को प्राप्त करता है। जोगेश्वर महादेव स्वयंभू शिवलिंग हैं। इनका
प्राचीन नाम जैगीषश्वेर था। कथा के अनुसार जिस स्थान पर वर्तमान में जोगेश्वर
महादेव हैं। वहां प्राचीनकाल में एक गुफा थी जिसमें जैगीष नाम के ऋषि तपस्या में
लीन थे। जब भगवान शिव अपने पूरे परिवार के साथ काशी छोड़कर मन्दराचल पर्वत जाने
लगे तो तपस्यारत जैगीष ऋषि ने शिव जी से काशी को छोड़कर नहीं जाने की विनती की।
लेकिन शिव जी नहीं माने और मन्दाराचल पर्वत चले गये। अपने ईष्ट देव के जाने से
उद्वेलित जैगीष +ऋषि उसी गुफा में हठ योग करते हुए तपस्या में लीन हो गये। तपस्या
करते हुए जैगीष ऋषि को सदियों बीत गया जिससे उनका शरीर जीर्ण-शीर्ण हो गया। उधर जब
भगवान शिव को जैगीष ऋषि के बारे में ध्यान आया तो उन्होंने अपने गण नंदी को तुरंत एक
लीलारूपी कमल देकर जैगीष ऋषि को स्पर्श कराने के लिए भेजा। गुफा में पहुंचकर नंदी
ने भगवान शिव के दिए कमल को तपस्यारत जैगीष ऋषि से स्पर्श कराया। कमल के छूते ही
जैगीष +ऋषि का शरीर फिर से सुन्दर और कांतिमय हो गया। इसके बाद जैगीष ऋषि गुफा से
बाहर निकले तो साक्षात भगवान शिव का दर्शन पाया। शिव जी के दर्शन से भावविभोर हुए
जैगीष ऋषि उनकी स्तुति करने लगे। अपने भक्त के असीम भक्ति से प्रसन्न शिव जी ने
जैगीष ऋषि से वरदान मांगने को कहा। इस पर ऋषि ने भगवान शिव से उनके प्रतिदिन दर्शन
का वरदान मांगा। उसी दौरान उस स्थान पर शिवलिंग प्रकट हुआ। मान्यता के अनुसार यही
शिवलिंग जोगेश्वर महादेव हैं। जोगेश्वर महादेव का मंदिर ईश्वरगंगी मोहल्ले में
आदर्श इण्टर कालेज के पास स्थित है। पहले इस स्थान पर जंगल था। जंगज के बीच
विद्यमान शिवलिंग के दर्शन के लिए भक्त आते थे। हाल ही में जोगेश्वर महादेव मंदिर
का भव्य निर्माण किया गया है। बड़े से मंदिर परिसर में एक कुंआ भी है कहा जाता है
कि इस कुंए का पानी हमेशा मीठा रहता है और इसके पानी को पीने से कई रोग दूर हो
जाते हैं। जोगेश्वर महादेव मंदिर में महाशिवरात्रि पर्व पर बड़ा आयोजन होता है। इस
दिन जोगेश्वर महादेव का रूद्राभिषेक किया जाता है। इसके बाद भजन-कीर्तन चलता रहता
है। वहीं रात को रात्रि जागरण किया जाता है। साथ ही भण्डारा भी होता है। इस मौके
पर भोर से ही दर्शनार्थियों का तांता दर्शन-पूजन के लिए लग जाता है। सावन महीने
में भी इस मंदिर में काफी संख्या में श्रद्धालु दर्शन-पूजन के लिए आते हैं और
जलाभिषेक करते हैं। महाशिवरात्रि और सावन में जोगेश्वर महादेव का विशेष श्रृंगार
किया जाता है। इनका मंदिर प्रातः 4 से दोपहर 1 बजे तक एवं सायंकाल 3 से रात 10 बजे तक खुला रहता है। जबकि आरती सुबह 5 बजे
एवं सायं 7 बजे सम्पन्न होती है। वर्तमान में
मंदिर के मुख्य पुजारी स्वामी मधुर कृष्ण हैं।
शिव ज्योतिर्लिंग: भारत एवं काशी
क्रमांक शिव ज्योतिर्लिंग भारत में मूल-स्थान काशी
में अवस्थिति
1. सोमेश्वर सोमनाथ, गुजरात सोमेश्वर, मानमन्दिर घाट के समीप डी 16/34
2. मल्लिकार्जुन
श्रीशैल, आन्ध्र प्रदेश
त्रिपुरान्तकेश्वर, सिगरा (शिवपुरवा) टीला, डी 59/95
3. महाकालेश्वर
उज्जैन, मध्य प्रदेश
वृद्धकालेश्वर, महामृत्युंजय,के 52/39
4. ओंकारेश्वर
मान्धाता, मध्यप्रदेश आंकारेश्वर, पठानी टोला, ए 33/23
5. वैद्यनाथ
देवघर, झारखण्ड
वैद्यनाथेश्वर, कमच्छा, बी 37/1
6. भीमशंकर पुणे, महाराष्ट्र भीमेश्वर, काशीकरवट,सी के 32/12
7. रामेश्वर
रामेश्वरम्, तमिलनाडु रामेश्वर, कुण्ड डी 54/45
8. नागेश्वर
द्वारका के समीप, गुजरात नागेश्वर, भोंसला घाट, सी के 2/1
9. विश्वेश्वर
वाराणसी विश्वनाथ जी ज्ञानवापी,सी के 35/19
10. न्न्यम्बकेश्वर
नासिक, महाराष्ट्र न्न्यम्बकेश्वर, बड़ादेव, डी 38/21
11. केदारेश्वर चमोली (हिमालय में), उत्तरांचल केदारेश्वर, केदार घाट, डी 6/102
12. घुष्मेश्वर एलोरा, महाराष्ट्र घुश्र्णीश्वर
कमच्छा, बी 21/123
शिव स्वयंभूलिंग: भारत एवं काशी
क्रमांक शिव ज्योतिर्लिंग भारत में मूल-स्थान काशी में अवस्थिति
1. अविमुक्तेश्वर चमोली (हिमालय में), उत्तरांचल ज्ञानवापी, राधाकृष्ण धर्मशाला,सी के 30/1
2. ओंकारेश्वर मान्धाता, मध्य प्रदेश ओंकारेश्वर, पठानी, टोला,ए 33/23
3. ज्येष्ठेश्वर ज्येष्ठस्थान, गुजरात सप्तसागर, कर्णघण्टा, के 62/144
4. मध्यमेश्वर चमोली (हिमालय में), उत्तरांचल मैदागिन, दारानगर, के 53/62
5. महादेव वृन्दारक क्षेत्र आदि महादेव, त्रिलोचन, ए 3/92
6. विश्वेश्वर वाराणसी, उ0 प्र0 विश्वनाथ जी, ज्ञानवापी,सी के 35/19
7. वृषभध्वज गंगा सागर,पश्चिम बंगाल कपिलेश्वर, कपिलधारा
8. केदारेश्वर चमोली (हिमालय में), उत्तरांचल केदार घाट, बी 6/102
9. कर्पदीश्वर छागलन्द तीर्थ पिसाचमोचन, सी 21/40
10. स्वयंभू लिंग नकुलीश्वर क्षेत्र महालक्ष्मीश्वर
के समीप,डी 54/114
11. भूर्भूवः लिंग गन्धमादन पर्वत भूत भैरव, के 62/26
12. (आत्मा) वीरेश्वर उज्जैन, मध्य प्रदेश सिन्धिया घाट
सी के 7/158
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