काशी / वाराणसी की संगीत परम्परा (काशी संगीत समाज )_2

अनेक ब्राह्मण - परिवारों में विवाह के अवसर पर वरपक्ष कन्यापक्ष के विद्वानों के मध्य परस्पर विद्वत्तापूर्ण शास्रार्थ की परम्परा विद्यामान है. आज से कुछ वर्षों पूर्व तक काशी में पण्डित हीराचन्द्र भट्टाचार्या एवं पण्डित पूर्णचन्द्राचार्य के बाच व्याकरण आदि शास्रों के विषय में वाद - विवाद, शास्रार्थ की प्रौढ़ता एवं विद्वता दर्शनीय थी.
काशी प्राचीनकाल से ही संगीत नगरी के रुप में देश की सांस्कृतिक - राजधानी के गौरव को प्राप्त रही. यहाँ संगीतकला की उन्नति के लिए शिक्षालयों की व्यवस्थाका वर्णन बौद्धकालीन जातक कथाओं में वर्णित काशिराज ब्रह्मदत्त के शासनकाल में प्राप्त है. साहित्य, दर्शन, न्याय, व्याकरण आदि की भाँति ही संगीत - कला के प्रदर्शन हेतु प्रतियोगिता का आयोजन प्राप्त है, जिसमें यहाँ के प्रख्यात वीणावादक 'गुप्तिल' ने उज्जैन की अपने समकालीन वीणावादक 'मुसिल' को वीणावादन की प्रतियोगिता में पराजित किया था. तानसेन - परम्परा के अद्वितीय प्रतिनिधि रबाब वादक एवं सुर सिंगार वाद्य के अविष्कारक जाफर खाँ एवं संगीत सम्राट तानसेन के दामाद, ध्रुपद की डागुट एवं खण्डहार बाणी एवं वीणावादन में पारंगत, मिश्री सिंह की परम्परा में सुप्रसिद्ध वीणावादक निर्मलशाह के वीणा - रबाब के युगलबन्दी कार्यक्रम अनेक बार गुणग्राही नरेश काशिराज उदितनारायण सिंह के दरबार में आयोजित हुए, जिनमें दोनों ही विद्वानों की विद्वता से सारा दरबार प्रभावित हुआ. भारतीय संगीत के उत्थान के लिए पूर्ण समर्पित विद्वान श्री विष्णु नारायण भारतखण्डे एवं संगीत मनीषा श्री विष्णु दिगम्बर पलुस्कर जैसे उत्कृष्ट विद्वानों से, काशी के पूर्धन्य विद्वानों में संगीत शास्र, गायकी, नायकी सभी विधाओं के सुयोग्य प्रतिनिधि श्री दरगाही मिश्र आदि के मध्य काशी के ठठेरी बाजार मुहल्ले में 'काशी संगीत - समाज' की सभी में संगीतविषयक अनेक प्रचलित - अप्रचलित रागों, तालों, बन्दिशों एवं शास्रों में वर्णित अनेक धारणाओं पर विशद विचार - विनिमय, तर्क वितर्क, खण्डन - मण्डन आदि का परस्पर आदान प्रदान किया गया. अनेक भ्रान्तियों के उन्मूलन हुए और इन विद्वानों की ज्ञानगरिमा से भातखण्डेजी, विष्णु दिगम्बरजी भी विशेष प्रभावित हुए.
इस प्रकार अध्ययन, अध्यापन, साधना, चिन्तन, मनन के साथ - साथ अपने - अपने विषय में शास्रार्थ - कला - निपुणता काशी के विद्वानों का मानस - मनोरंजन थी, जिसमें काशीस्थ - विद्वानों को अपूर्व निपुणता - सफलता प्राप्त थी. देश के अनेक प्रान्तों से काशी आ बसे विद्वानों का एकमात्र ध्येय शास्रों का घवेषणापूर्ण अधाययन ही थी. तमिल, तेलगु, कन्नड़, मलयालम, गुजराती, मराठी, मैथिली, बंगला, पंजाबी ही जिनकी मातृभाषा थी, उन विद्वानों ने भी संस्कृत में अध्ययन कर अपने ग्रन्थों का प्रणयन किया. संस्कृत भाषा इनके विचारों के प्रकाशन की वाणी और संस्कृत ही इनके जीवन की प्रक्रिया थी, जिसका निर्वाह यावज्जीवन इन विद्वानों ने किया. काशी के नागरिकों में शस्र विद्या, मल्लविद्या, शास्र - अध्ययन, काव्य, नाट्य, साहित्य, संगीत कला के प्रति सहज अभिरुचि, गौसेवा, दीन दु: खियों के प्रति मानवीय दृष्टिकोण, देवभाषा, राष्ट्रभाषा, देश भक्ति, अन्याय के प्रति विरोध प्रकट करने की तत्परता एवं काशी की प्राचीन परम्परा एवं मर्यादा के लिए पूर्ण समर्पित भावना विशेषरुप से विद्यमान रही. मन, वाणी, कर्म में नैतिक शुद्धता की भावना एवं पूर्ण मर्यादा एवं परम संतोष के साथ प्रसन्नतापूर्वक जीने की कला शैली का आज भले ही अभाव दिखाई देतै है, किन्तु अतीत में इन मर्यादित गुणों के साथ ही काशई वासियों की अपनी विशिष्ट जीवन्त पहचान थी. पीतल, हाथी दाँत, लकड़ी, स्वर्ण, रजत आदि पर विशिष्ट, सुगन्धियों, इत्रों के निर्माण - विधिकी परिपक्कता, अनेक कलाओं में पूर्ण पटुता आदि गुणों के साथ सरलता, सौम्यता, वनम्रता, धार्मिक निष्ठा, स्वाभिमान के साथ पुण्य पावनी गंगा की धारा में नित्य स्नान, नटराज शिव, पराम्बा पार्वती के दर्शन पूजन का अभिलाषी, सभी कलाओं की विज्ञता में निमग्न, मर्यादित प्राचीन अमोद प्रमोद की कलात्म् परम्पराओं द्वारा सुरुचिसम्पन्न मानस मनोरंजन कर आनन्दमय जीवन जीना काशी की विशिष्ट पहचान रही है.
संगीत के प्रति विशेष आदर - प्रेम काशीवासियों में प्राचीनकाल से अविच्छिन्न चला आ रहा है, जिसके कारण लोक संगीत में प्रचलित अनेक शैलियाँ यहाँ के विद्वानों के सत्प्रयास से
शास्रीय संगीत की परिधि में न केवल प्रतिष्ठित हुई, अपितु उन्होंने अपना विशेष स्थान बनाया. अभि जात्य वर्ग तक सीमित शास्रीय संगीत, संगीत गोष्ठी एवं सम्मेलनों के माध्यम से सार्वजनिक रुप में समस्त काशी के संगीत प्रेमियों के उत्कृष्ट मनोरंजनार्थ गंगा की सायंकालीन धारा में बड़ी - बड़ी सुसज्जित, झाड़ - फानूशों के प्रकाश से आलोकित नाव पर होली के बाद पड़ने वाले प्रथम मंगलवार से आरम्भ प्रसिद्ध संगीत - मेला 'बुढ़वामंगल' की उत्कृष्ट कल्पना काशी की ही देन है, जिसमें धीरे - धीरे काशिराज के अतिरिक्त देश के अन्य नरेशों, संगीत प्रेमी रईसों, जमीनदारों, ताल्लुकेदारों ने भी बढ़ चढ़कर भाग लिया और सारी - सारी रात गंगा के तटों पर एवं नावों पर बैठकर देश के सुप्रसिद्ध कल विदों की संगीत साधना का तन्मयता से आनन्द प्राप्त किया. चैत मास में गुलाब की पंखुड़ियों से सुगन्धित, गुलाबी, परिधानों, आवरणों, गुलाब इत्र, गुलाब जल से सिंचित गुलाबी वातावरण में चैती गायन शैली की लोक परम्परा की परिधि में समेटने का श्रेय 'गुलाब बाड़ी समारोह' के माध्यम से साकार करने की मधुर कल्पना भी काशी ही की देन है, जो महाकवि कालिदासकालीन मदनोत्सव, हिण्डोलोतस्व, ऊदुमंगल आदि उत्सवों का नवीन रुप हैं.
इस प्रकार प्राचीनकालीन परम्पराओं से रससित अमोद - प्रमोद एवं मनोरंजन की विविध कलात्मक - वैशिष्टय विज्ञ काशी नगरी अपने मर्यादित आचरणों के साथ उच्च सुरुचिपूर्ण मनोरंजन में ही भावज्जीवन आनन्दमग्न जीवन जीने की आदी रही है, जिसके कारण उसे यहाँ की गरिमापूर्ण जीवनधारा से हटकर, अन्यत्र जीवन यापन के लिए जाना अत्यन्त कष्टमय प्रतीत होता है, यहाँ की सुखद, सन्तोषप्रद दैनन्दिन जीवन चर्या ही उसे पूर्ण सन्तुष्टि
प्रदान करती है। इस प्रकार की जीवनधारा को निरन्तर गतिमान बनाये रखने में राजा से लेकर जन सामान्य तक, विद्वानों से लेकर साधारण शिक्षित तक, धन श्रेष्ठी से लेकर अलमस्त, फक्कड़ त्रिकालदर्शी फकीर तक, काशीस्थ, विद्वानों के साथ ही काशई में बाहर से आये एवं आ बसे संगीत आदि कलाओं के मूरधन्य विद्वानों तक के काशी की प्राचीन गरिमा एवं सांस्कृतिक चेतना को गतिशीलता प्रदान कर अपना अमूल्य योगदान दिया है.
भारतवर्ष की प्रसिद्ध ऐतिहासिक नगरी काशी को अति प्राचीनकाल से ही देश की सांस्कृतिक केन्द्रस्थली होने का सौभाग्य मिला है. शिल्प हो अथवा कला, धर्म हो अथवा दर्शन, साहित्य हो अथवा संगीत - सभी क्षेत्रों में इस अप्रतिम नगरी की अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका रही, जिसने सम्पूर्ण विश्व को अपने पाण्डित्य की गरिमा से विमुग्ध कर मार्गदर्शक होने का गौरव अर्जित किया है. संगीत के विगत तीन - चार सौ वर्षों के प्राप्त आधे - अधूरे अवशिष्ट इतिहास के अवलोकन से यह स्पष्ट विदित होता है कि सरस्वती की अजस्त नाद - धारा निरन्तर प्रवाहित होकर आज भी इस नगरी एवं यहाँ के संगीतज्ञों के वर्च को गौरव प्रदान करती चली आ रही है. संगीत - जगत के जाज्वल्यमान नक्षत्रों के रुप में इस नगरी के प्रसिद्ध - मनोहर मिश्र, शिवदास - प्रयाग मिश्र, ननकूलाल मिश्र, शिवा - पशुपति, मौजुद्दीन खाँ बड़े रामदास मिश्र, छोटे रामदास मिश्र, सरजूप्रसाद मिश्र, बीरु मिश्र, हरिशंकर मिश्र, दाऊजी मिश्र , प. श्री चन्द्र मिश्र, अनोखे लाल मिश्र, उस्ताद मुश्ताक अली खाँ, उस्ताद विसमिल्ला खाँ, प. रविशंकर, सिदाए देवी, गुदई महाराज, प. किश्न महाराज, गोपाल मिश्र बैजनाथ मिश्र, सिद्देश्वरी देवी, रसूलन बेगम, प. महादेव प्रसाद मिश्र, श्रीमती गिरिजा देवी सरीखे अनगिनत सशक्त हस्ताक्षर अपने जीवन काल में ही संगीत - जगत् की गौरव - गाथा बन चुके हैं.
काशी नगरी के जीवन काल में एक समय ऐसा भी था, जब घरानेदार संगीतज्ञों के गढ़ के रुप में काशी का सम्पूर्ण क्षेत्र चार भागों में विभाजित था. इसमें से एक घराना 'तेलियानाला घराना' (बीनकार, सितारपादक उस्ताद आशिक अली खाँ) दूसरा 'पियरी घराना' (प्रसिद्ध मनोहर मिश्र), तीसरा 'रामा पुरा मुहल्ले का घराना' शिवदास प्रयाग मिश्र (जो बाद में कबीर चौरा मुहल्ले में आ बसे) और चौथा सबसे विराट घराने के रुप में सम्पूर्ण 'कबीर चौरा मुहल्ला' जहाँ के पग - पग पर पूरी काशी के लब्ध - प्रतिष्ठ, विश्व - विश्रुत गुणी - गन्धर्वों § का दो तिहाई से अधिक समुदाय निवास करता था. इस मुहल्ले में गायन - क्षेत्र में श्री गजदीप मिश्र (अप्रतिम ठुमरी गायक, मौजुद्दीन खाँ के आदर्श एवं गुरु) जयकरण मिश्र (मूर्धन्य - विद्वान एवं बड़े रामदास मिश्र के श्वसूर) श्री ठाकुर प्रसाद मिश्र (पं. छोटे रामदास मिश्र के नाना), सारंगी वादन क्षेत्र में पं. शम्भूनाथ मिश्र, सुमेरु मिश्र, बिहारी मिश्र, बिरई मिश्र, बड़े गणेश मिश्र, शीतल मिश्र तबलावादन - क्षेत्र में पं. बनारस बाज एवं घराने के प्रवर्तक पं. रामसहायजी, एवं उनकी शिष्य - परम्परा में प्रताप महाराज, शरणजी, बैजूजी, सितार - क्षेत्र में विलक्षण लयभास्कर पं. ननकूलाल मिश्र, नृत्य - क्षेत्र में पं. शुकदेव महाराज आदि के घरानेदार विद्वानों के अतिरिक्त कुछ ऐसे भी चतुर्मुखी प्रतिभा सम्पन्न विद्वान थे, जो गायन, बीन,
सारंगी, सितार, तबला एवं नृत्य के समुचित पारंगत एवं मान्य विद्वान थे. ऐसे पारंगत विद्वानों में पियरी - घराना एवं श्री दरगाही मिश्र पूर्ण पटु मान्य विद्वान, माने जाते थे.
काशी का कबीरचौरा मुहल्ला सदियों से अब तक प्रमुख संगीतज्ञों का निर्विवाद मान्य गढ़ रहा है, जहाँ जन्म लेकर न जाने कितने विश्व विश्रुत विद्वानों ने इस मुहल्ले और नगर की ख्याति और गरिमा को विश्व में महत्वपूर्ण स्थान दिलाया है. इस मुहल्ले के संगीतज्ञों का कोई ऐसा परिवार शायद ही हो जिसमें किसी - न - किसी समय किसी विश्व विख्यात कलाकार ने जन्म न लिया हो. सारांश यह कि हर परिवार की किसी न किसी महान संगीत - विभूति का अपने समय में संगीत - क्षेत्र में विशिष्ट एवं सहत्वपूर्ण स्थान अवश्य रहा और आज भी मान्य है. हर घरानों की अपनी निजी एवं मौलिक विशेषता रही. किसी घराने में ध्रुपद, धमार, होरी का वर्च था, तो कोई ख्याति शैली का कोई टप्पा - ठुमरी अंग में कोई सुरीलेपन - मिठास में कोई लयकारी प्रधान अंग में सुदक्ष, कोई स्वतंत्रवादन में अनुपम तो कोई - संगीत में बेजोड़ स्थान रखता था. कोई - कोई घराना ऐसा विशिष्टतम रहा, जो चारों पटकी गायकी एवं वादन शैली में पूर्ण पटु एवं पारंगत था. सभी घरानों ने अपनी मौलिकता एवं विशेषता से अपनी अलग पहचान बना रखी थी और सभी घरानेदार एक दूसरे की सौलिक विशेषताओं का हृदय से पूर्ण सम्मान करते थे तथा परस्पर प्रगाढ़ प्रेमबन्धन में बँधे थे. एक दूसरे की कला - साधना के प्रशंसक और आपसी ईर्ष्या - द्वेष से कोसों दूर धुरन्धर विद्वान् संगीतकाश के देदीप्यमान नक्षत्र के रुप में काशी नगरी की ख्याति में चार चाँद लग रहे थे. संगीत - जगत् में व्याप्त आज जैसी स्थिति उस समय नहीं थी.
काशी के घरानेदार संगीतज्ञों में एक ओर जहाँ ध्रुपद, धमार, होरी, ख्याल अंग के अनेक विशिष्ट कलाकार थे, वही कुछ अधकचरे संगीतज्ञों की टिप्पणी के अनुसार शुद्र गायन शैली की संज्ञा प्राप्त ठुमरी - टप्पा गायकी के ऐसे - ऐसे रससिद्ध कलाकार थे, जिनकी सूझबूझ पैनेपन और मधुकरी गायकी का सिक्का कलाकारों से लेकर जनसामान्य तक सभी पर जमा था. यही कारण है कि सभी प्रकार की गायन - वादन शैली की समुचित शिक्षा देने वाले विशिष्ट विद्वानों की जितनी विशाल संख्या इस नगरी को प्राप्त रही, उतनी संख्या में किसी अम्य नगर में सूर्धन्य विद्वान कलाकारों का मिलना दुष्कर रहा, जिसके कारण नगर का साधारण संगीत श्रोता भी गायन - वादन - नर्तन की प्रत्येक शैलियों के कार्यक्रमों को बराबर देखते - सुनते उनकी बारीकियों से परिचित रहा और अपने क्षेत्र के निष्णात, परिपक्क
कलाकार ही काशी में कार्यक्रम प्रस्तुत करके यश लूट पाते थे, अधकचरे संगीतज्ञ काशी में सार्वजनिक प्रदर्शन करने में संकोच का अनुभव करते थे. देश के अन्य स्थानों के कलाकारों के हृदय में काशी में सफल कार्यक्रम देकर जनता और विद्वानों की प्रशंसा पाने की तीव्र लालसा बनी रहती है. उनकी धारणा है कि जब तर काशई के संगीत प्रेमियों एवं विद्वानों द्वारी उनकी कला - साधना प्रशंसित नहीं होगी तब उनकी साधना मानो अधूरी से है.
काशी की जनता ने अपने नगर के प्रतिष्ठित कलाकारों के साथ ही अन्य नगरों के मान्य एवं लब्धप्रतिष्ठ अनेक कलाकारों की कला - साधना का पूर्ण तन्मयता से रसास्वादन करते हुए जितना आदर और अविस्मरणीय मधुर अनुभव उनके मानसपटल को आज भी झेकृत करता रहता है, जिससे वे कलाकार बार - बार काशी में अपना सफल कार्यक्रम देने के लिए उत्सुक रहते हैं. वर्तमान परिप्रेक्ष्य में समाज की विषमताओं एवं अनेक विसंगतियों के बावजूद संगीत जगत् के अनेक गायक, वादक, नर्तक, यहाँ कार्यक्रम देने में गौरव का अनुभव करते है औ काशई नगरी को संगीत - जगत् के लिए कसौटी मानकर यहाँ की मिट्टी को विशेष सम्मान एवं प्यार देते हैं तथा बनारस के संगीत प्रमियों की बारीक पकड़ की प्रशंसा करते अघात नही
है. नगर में शास्रीय संगीत - समारोह के सुरुचि सम्पन्न पोषक वर्ग में जो उत्साह और चलचित्र संगीत अथवा किसी शुद्र स्तर के आयोजन पर दिखाई नहीं देता. शहर का सुरुचि सम्पन्न प्रतिष्ठित वर्ग ऐसे आयोजनों में सम्मिलित भी नहीं होता, केवल नई पीढ़ी की भीड़ इन आयोजनों में अधिक रुचि लेती है. शास्रीय संगीत के प्रति ऐसी दृढ़ आस्था, सद्भावना, सम्मान और प्रेम इस नगरी की सुरुचि - सम्पन्नता एवं गरिमा का परिचायक है.

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काशी / वाराणसी की संगीत परम्परा (काशी संगीत समाज )_1


वाराणसी, बनारस या काशी भी कहलाता है। वाराणसी दक्षिण-पूर्वी उत्तर प्रदेश राज्य, उत्तरी-मध्य भारत में गंगा नदी के बाएँ तट पर स्थित है और हिन्दुओं के सात पवित्र नगरों में से एक है। इसे मन्दिरों एवं घाटों का नगर भी कहा जाता है। वाराणसी का पुराना नाम काशी है। वाराणसी विश्व का प्राचीनतम बसा हुआ शहर है। यह गंगा नदी के किनारे बसा है और हज़ारों साल से उत्तर भारत का धार्मिक एवं सांस्कृतिक केन्द्र रहा है। दो नदियों वरुणा और असि के मध्य बसा होने के कारण इसका नाम वाराणसी पड़ा। बनारस या वाराणसी का नाम पुराणों, रामायण, महाभारत जैसे अनेकानेक ग्रन्थों में मिलता है। वेदों में भी काशी का उल्लेख है। संस्कृत पढ़ने प्राचीन काल से ही लोग वाराणसी आया करते थे। वाराणसी के घरानों की हिन्दुस्तानी संगीत में अपनी ही शैली है।
मस्तमौलाओं-फक्कड़ों के शहर बनारस
एहि काशी नगरिया क जोड़ नाहीं बा/ 
कंकड़-कंकड़ शंकर कोई तोड़ नाहीं

काशी में हर विधा के कलाकार है..  इसी क्रम में वाराणसी लंबे समय से दुनिया के लिए दार्शनिक और सांस्कृतिक परंपराओं के पहचान के लिए जाना जाता है  जिसमे संगीत, नृत्य और कला के महान कलाकारों के अनगिनत नाम है काशी से , जिसके संरक्षण में एक नाम आता है काशी से श्री कृष्ण कुमार रस्तोगी जी का
प्रस्तुत है एक खास मुलाकात संगीत लौ के रक्षक पुराने शहर के चौखम्बा क्षेत्र में
आज, वाराणसी की संगीत लौ के रक्षक पुराने शहर के चौखम्बा क्षेत्र में स्थित काशी संगीत समाज (बनारस संगीत सोसायटी), के नाम से भी जाना जाता है  . यह संगठन 2006 में 100 वर्ष पूरे कर लिए. आज इस संगीत समाज में विलक्षण दुर्लभ रिकॉर्डिंग का संग्रह, प्राचीन वाद्ययंत्र और अतीत संगीतकारों की उल्लेखनीय तस्वीरें..
सौ साल से भी पुराना ये संगीत संगठन 'काशी संगीत समाज' संगीत की महफ़िल के पूजा करने के लिए प्रयोग किया जाता है पुराने और दुर्लभ संगीत वाद्ययंत्र अब विलुप्त होने के कगार पर है जिन्हे सदियों से सांस्कृतिक शहर वाराणसी के चौखम्बा क्षेत्र स्थित काशी संगीत समाज के पास अभी भी सुरक्षित हैं.
'इसराजसहित 150 से अधिक साल पुरानी दुर्लभ 18 संगीत वाद्ययंत्र, 'कश्यप वीणा', 'रुद्रवीणा', 'दिलरुबा', 'मजीरा', 'सुरभारती' संस्था के संग्रहालय की शोभा बड़ा रहे है .
मशहूर संगीतकार पंडित विष्णुनारायण भातखंडे और पंडित विष्णु दिगंबर पुलस्कर जी ने 1906 में स्थापित किया गया था इन उपकरणों के अलावा, महाराज काशी राज की अदालत में गाया करते थे मगरमच्छ चेहरा, सुरबहार और इसराज तरह संरचित एक दुर्लभ तानपुरा भी शामिल है जो प्रसिद्ध कलाकार लखपत यादव द्वारा किए गए तीन उपकरणों रहे हैं.
जीसी कंपनी के पेरिस ईख और हारमोनियम भी इस संस्था के संग्रह में  है. जिसे ग्वालियर गणपत राव भैयाजी, श्याम लाल खत्री (कोलकाता) और कई अन्य प्रसिद्ध गायकों और संगीतकारों के प्रसिद्ध कलाकारों इस हारमोनियम में प्रदर्शन किया है.
"कई प्रसिद्ध कलाकारों को इस संस्था के साथ संबद्ध किया गया है और उनमें से कुछ को अन्य स्रोतों से खरीदा गया है इन उपकरणों की रक्षा करना भी एक बहुत बड़ा महाभारत है. इसका रखरखाव भी बहुत महंगा है, सरकार की ओर से कोई समर्थन न होने के बावजूद, काशी संगीत समाज अभी भी  संगीत शो आयोजित करता है.
"बहुत जल्द, संगठन 'धरोहर' के नाम से भारत कला भवन, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में साधन संग्रह का प्रदर्शन करने की योजना बना रहा है.
चौखम्भा के निवासी श्री कृष्ण कुमार रस्तोगी जी ..
जो की बनारस की संगीत परंपरा को आज भी जीवित रखे है..
बाप रे बाप.. उनका घर है या साक्षात संग्रहालय क्या कोई बनारस की संस्कृति को जागृत करने के लिए इतना तप क़र सकता है ?
ग्वालियर घराने से संगीत की शिक्षा .. पुराने ज़माने के वाध्य संगीत यंत्रो का संग्रह.. कितनी पुरानी फोटो का संग्रह.. ये तो बनारसी बौड़म ही है..
बनारस की संगीत सभ्यता में एक नाम “ लखपत “ जिसकी जानकारी अभी तक बनारस के किसी भी संगीत साहित्य कार ने नहीं बताई... लेकिन प्रमाण स्वरुप लखपत का वाद्य यन्त्र आज भी एक धोरोहर की तरह की तरह सुरक्षित है
वैसे संगीत के बारे में  तो हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का बनारस घराना वाराणसी में ही जन्मा एवं विकसित हुआ है। वाराणसी, भारत के कई दार्शनिकों, कवियों, लेखकों, संगीतज्ञों एवं कलाकारों की जन्मस्थली एवं कर्मस्थली रहा है, जिनमें कबीर, रविदास, स्वामी रामानंद, तैलंग स्वामी, मुंशी प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, भारत रत्न पंडित रविशंकर, गिरिजा देवी, पंडित हरि प्रसाद चैरसिया एवं भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खां जैसे विश्वविख्यात नाम हैं।
इनके अलावा गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानसभी यहीं लिखा था और गौतम बुद्ध ने अपना प्रथम प्रवचन बनारस के ही सारनाथ में दिया था।
वैसे भी काशी के बारे में कहा जाता है की ...
काशी नगरी की दिनचर्या में कुछ ऐसी विशेषताएँ परम्परागत रुप से मान्य रहीं, जो काशीराज से लेकर जन - सामान्य तक में समान रुप से पाई जाती रही हैं. सादा जीवन, उच्च विचार, धार्मिक निष्ठा, स्वभाव में सहजता, स्वाभिमान, अक्खड़पन एवं परम संतोष के साथ एक मस्ती, व्यवहार कुशलता में कृत्रिमता का अभाव, एक विशेष खुलेपन के साथ सहज आत्मायता, सच्चरित्रता, धार्मिक सहिष्णुता एवं प्रत्येक कलाओं तथा प्रत्येक क्षेत्र के प्रति पूर्ण आदर एवं स्नेह की भावना आदि गुण सभी के हृदय पर अपनी अमिट छाप अंकित कर देने वाले रहे, जिससे स्थानीय या अन्य प्रदेशों से काशी आये विद्वान् ही नहीं, अपितु विदेशी यात्री, विद्वान् एवं सामान्य पर्यटक तक प्रभावित रहें है. उत्तरवाहिनी पुण्यसलिला गंगा के तट पर बसी इस नगर की प्रात: कालीन अनुपम छटा को देखकर अमीर खुसरो, मिर्जा गालिब से लेकर काशई के कबीर, सुप्रसिद्ध शायर नजीर बनारसी तक ने अपनी कलम से 'सबहे बनारस' उक्ति को न्नकर अपनी लेखनी को पवित्र किया है . काशी की अनुपम गंगाधारा से अठखेलियाँ करती सूर्यरिश्मयाँ क्रमश: बालरवि, प्रखर सूर्य एवं थकित प्रकाश देवता के साथ - साथ क्रमश: रक्तवर्णी, रजत रश्मि एवं स्वर्ण रश्मियों का मान कराती हुई सायंकालीन शोभा यात्रा के स्वागत के लिए प्रस्थान करती हैं. काशई के घाटों की इस मीलों लम्बी अपूर्व शोभा यात्रा ता वर्णन सहृदय कवियों, लेखकों की लेखनी द्वारा अनेक संदर्भों में व्यक्त किया जाता रहा है. ब्राह्ममुहूर्त में काशिराज एवं अन्य नरेशों के घाटों पर अवस्थित विशाल अट्टालिकाओं, शिवालयों, देवमंदिरों के सिंहद्वार के ऊपर 'नौबत खानों' से आती शहनाई की मंगलध्वनि से प्रात: कालीन रागों ललित, जोगिया, कालिंगड़ा, रामकली, भैरव, भैरवी की अनुपम स्वर लहरियों एवं मंदिरों, शिवालयों के कंगूरों से मंगल आरती की देवस्तुति, शंख, घण्टा, घड़ियाल की पवित्र ध्वनि, वेदाध्यायी विद्वानों के आवासी पाठशालाओं से आती वेदध्वनी, संगीतज्ञों के निवास - स्थानों से संगीत साधनारत साधकों के द्वारा तंत्रीनाद, कंठसंगीत एवं नूपुरों की झंकृत स्वरवल्लरियों के साथ काशी के समान्य नागरिकों के झुण्ड़ों द्वारा उच्चारित हर - हर महादेव शम्भो, काशी - विश्वनाथ गंगे, के उद्घोष के साथ पुण्य - सलिला माँ गंगा की पवित्रतम लहरों में स्नान करने की उत्फुल्लता के साथ इस नगरी का सवेरा अनेक शताब्दियों से निरन्तर जीवन्त होता आया है .
आमोद - प्रमोद की विभिन्न कलात्मक परम्परा के संदर्भ में इस नगर की दैनिक दिनचर्या में धार्मिक आस्था, वाणी की उदारता, शास्रार्थपटुता, लेखनपटुता में निर्भीकता, संस्कृति, परम्परा एवं देशप्रेम, आस्था, नि: शुल्क विद्यादान, गोदान, अन्नदान, संकटकालीन स्थितियों में उदारता की पराकाष्ठा आदि चारित्रिक, धार्मिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक गुणों से ओतप्रोत इस नगर की गतिशीलता अन्य नगरों से सर्वथा मिला रही है. 'चना चबैना गंगाजल जो पुरवै करतार, काशी कबहुँ न छोड़िए विश्वनाथ दरबार' उक्ति को चरितार्थ करती काशीवासियों में वे सभी मानवीय गुण विद्यमान रहे है, जिनसे किसी नगरी की विशिष्टता बनती है. यहाँ का नागरिक ब्राह्ममुहूर्त में निद्रादेवी की गोद से उठकर दैनिक कृत्यों से निवृत होकर माँ गंगा भी धारा में स्नान कर, अपनी झारी - कमण्डल में गंगाजल लेकर बाबा विश्वनाथ, माँ अन्नपूर्णा एवं अन्य देवालयों के देवी देवताओ का गंगाजल, पुष्प, अक्षत, विल्वपत्र से अभिषेक, दर्शन, अथवा दूर के सिसी उपवन, सरोवर अथवा गंगा के पार ढढ़ाई - बादाम - विजया भवानी के सेवन के उपरान्त कुछ काल शारीरिक व्यायाम के बाद सुगन्धित पुष्प, इत्र आदि से सज्जित होकर भगवती दर्शन, इक्का - घोड़ा दौड़, गंगातट की सैन अथवा सुरुचिसम्पन्न आमोद - प्रमोद पण्डि सभा, शास्रार्थ सभा, काव्य गोष्ठी अथवा संगीत गोष्ठी में भाग लेकर सुखद उच्चस्तरीय मनोरंजन में भाग लेने का व्यसनी रहा है. यहाँ के विद्वान् सरस्वती की गम्भीर उपासना में ही स्वाध्याय करते हुए अधीत शास्रों का नि: शुल्क अध्ययन - अध्यापन का वाग्वेवी की दिव्य आराधना में ही अपना सम्पूर्ण जीवन व्यतीत कर हर्ष का अनुभव करते रहे हैं. काशीराज एवं देश के अन्य नरेशों की ओर से भारतीय धर्म, आचार विचार संस्कृति की रक्षा एवं उन्नति के लिए काशी में अनेक पाठशालाओं की स्थापना की गई थी, जिनका सम्पूर्ण व्यय उन नरेशों के राजकोष से दिया जाता था, जो विद्वानों के लिए उनका जीविका और स्थायी रुप से काशी में निवास करने का एक विशिष्ट प्रयोजन और प्रलोभन था. गंगातट पर पक्के घाटों का निर्माण एवं विभिन्न मतमतान्तरो के देवी - देवताओं, आचार्यों के मंदिरों, देवालयों, मठो, आश्रमें में विधिवत् पूजन, अर्चन, दर्शन, नि: शुल्क आवास एवं भोजन की सुन्दर व्यवस्था भी उन्हीं राजाओं के राजकोष अथवा सम्पन्न धनाढ्यों के द्वारा स्थापित न्यासों के द्वारा सुचारु रुप से सम्पादित होती थी. पाठशालाओं में विद्वानों एवं विद्यार्थियों के लिए नि: शुल्क शिक्षा, आवास, वस्र, भोजन आदि की समुचित व्यवस्था से लाभान्वित अत्यन्त मन्दबुद्धि विद्यार्थी भी विद्वानों की सत्संगति में अध्ययनरत रहकर कालान्तर में विशिष्ट विद्वान् बन जाता था और अपने कुल, वंश, ग्राम, नगर के यश को उज्जवल करता था. विद्वानों की विशिष्ट विद्वत्ता का जन - सामान्य पर प्रभाव डालने के लिए समय - समय पर विद्वत् गोष्ठई, पाण्डित सभा, शास्रार्थ, संगीतगोष्ठी आदि एवं विद्यार्थियों के स्वाध्याय की परीक्षा के लिए विद्वत्, परिषद द्वारा शलाकापरीक्षा - प्रतियोगिता परीक्षाओं की परम्परा, राजा, धनीमानी, समाज सेवी संस्थाओं,
नागरिकों द्वारा आयोजित होती थी. बिना जय - पराजय की भावना से विद्वानों के आपसी मनोरंजनार्थ इस प्रकार के विद्वञ्जन - विनोद के आयोजन काशी की सरिमा के अनुकूल थे, जिनमें सम्मिलित विद्वानों को समान रुप से दक्षिण, अंग वस्र, मिष्ठान आदि देकर सत्कार करने की विशिष्ट परम्परा सदियों तक विशेष रुप से विजयादशमी, दीपावली, होली, नवरात्र, नागपंचमी आदि पारम्परिक त्योहारों पर नगर के धनी मानी गुणग्राहक सम्भ्रान्त नागरिकों एवं सामाजिक संस्कृतिक चेतना केलिए समर्पित संस्थानों के माध्यम से आयोजित होती रही है, जिससे काशीस्थ विद्वानों की बुद्धचातुर्य, शास्रीय चिन्तन, दार्शनिक अनुशीलन के विकास के लिए किए कार्यों से सामाजिक चेतना का मार्ग उद्बुद्ध होता गया. ऐसे ही आयोजन यहाँ के विद्वानों की बुद्धि की उत्तरोत्तर चमत्कारिणी अभिवृद्धि की उपादेयता के लिए सशक्त माध्यम एवं अपरिहार्य माधन थे.
यहाँ के विद्वान न केवल समस्त कलाओं में ही नहीं, अपितु व्याकरण, वेदान्त, न्याय, कर्मकाण्ड, दर्शन, धर्मशास्र आदि के शास्रार्थ में भी अत्यन्त प्रवीण एवं पटु थे. सुप्रसिद्ध वैयाकरण केसरी महामहोपाध्याय पं. दामोदर शास्री एवं मैथिली विद्वान पं. बच्चा झा के बीच हुआ प्रचण्ड ऐतिहासिक शआस्रार्थ अब इतिहास की वस्तु है जिनके शास्रार्थ को देखने सुनने के लिए विद्वानों सहित हजारों की सँख्या में जनसाधारण की उपस्थिति थी. आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती से काशी के मूर्धन्य विद्वानों में प्रसिद्ध पं. बालशास्री का शास्रार्थ आर्यसमाज के इतिहास की विशिष्ट घटना है. सर्वत्र विजयश्री प्राप्त स्वामी दयानन्दजी को काशी के विद्वानों के सम्मुख पराजय स्वीकार करनी पड़ी. काशी के स्वनामधन्य विद्वान महामहोपाध्याय गंगाधर शास्री का बल्लम सम्प्रदाय के विलक्षण विद्वान प्रज्ञाचक्षु श्री गट्टूलालजी से काशी स्थित गोपाल मंदिर में जो प्रसिद्ध शास्रार्थ हुआ था,
वह आज भी विद्वानों में चर्चित है जिसमें महामहोपाध्याय श्री गंगाधर शास्री को विजय श्री प्राप्त हुई. इस प्रकार की शास्रार्थ सभा आये दिन काशी में होती रहती थी. जिसमें अनेक महत्वपूर्ण शास्रों मत - मतान्तरों के खण्डन - मण्डन एवं शास्रीय उद्धरणों का सर्व सम्मति से प्रतिपादन विद्वानों द्वारा होता था. आज भी नागपंचमी के दिन नागकुआँ पर विद्वानों एवं संस्कृतनिष्ठ, अध्ययन - अध्यापनरत छात्रों के बाच शास्रार्थ की परम्परा अविच्छिन रुप में चल रही है.

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बनारस शिव से कभी मुक्त नही, जब से आये कैलाश न गये। बनारसी की मस्ती को लिखा नही जा सकता अनुभव होता है। अद्भूद है ये शहर जिन्दगी जीनेका तरीका कुछ ठहरा हुआ है पर सुख ठहराव में है द्रुतविलंबित में नही. मध्यम में है इसको जीनेवाला है यह नगर। नटराज यहां विश्वेश्वर के रुप में विराजते है इसलिये श्मशान पर भी मस्ती का आलम है। जनजन् शंकरवत् है। इस का अनुभव ही आनन्द है ये जान कर जीना बनारस का जीना है जीवन रस को बना के जीना है।
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काल हर !! कष्ट हर !! दुख हर !! दरिद्र हर !! हर हर महादेव !! ॐ नमः शिवाय.. वाह बनारस वाह !!