भादो की पहली शाम रस घोलते जलेबा के नाम और गांव गलियों में गूंज उठा ऋतु गान। महिलाओं ने भी ढोलक की थाप पर कजरी की तान छेड़ी और मनोविनोद में पूरी रात काट दी। मौका था लोकमानस से जुड़े पर्व रतजगा का जो द्वितीय लोप होने से भाद्रपद के पहले ही दिन आज सोमवार को मनाया गया।
झूलै बनारस सावन में
Labels: बनारसी मस्ती
आस्था, अध्यात्म और मौजमस्ती के शहर बनारस में सावन का आलम ही कुछ और होता है । इस जीवंत शहर में सावन की फुहारें जीवन में नया रंग भर देती हैं। आषाढ़ पूर्णिमा से श्रावण पूर्णिमा तक मेले त्योहारोंधार्मिक उत्सवों की धूम के बीच सारा शहर ही मानो हिंडोले झूलता है । मंदिरों में झूला-हिंडोला श्रृंगार, भिन्न-भिन्न फूलों, पत्तियों और फलों से मंदिर में आराध्य की सजावट और पूजा-अर्चना विशेष वातावरण की सृष्टि करते हैं ।
'सात वार, नौ त्यौहार' की कहावत वाराणसी के लिए है लेकिन शायद सावन के महीने में ही इसके विविध रूप और छटाएँ दिखाई पड़ती हैं। सिर्फ मंदिरों में ही नहीं, सावन में घर-घर श्रृंगार-सजावट की परंपरा काशी में अब भी सावन में पूरे शबाब पर होती है। सावन का झूला धार्मिक एकता और महोत्सवों के माध्यम से हर वर्ग-हर जाति और अलग-अलग धार्मिक मान्यताओं के लोगों को भावना के स्तर पर एकाकार कर देता है।
काशी के विश्वनाथ हों या काली, सत्यनारायण हों या बीसू जी (अग्रवालों का मंदिर) या फिर महामृत्युंजय या दुर्गा सभी सावन में झूला झूलते हैं। यह सावन झूला महोत्सव मंदिरों की अपनी खासियत है। कहीं केवड़ा, कहीं गुलाब, कहीं अशोक की पत्ती और तुलसी, कहीं बेला, चमेली, चंपा, जूही या मौलिश्री और न जाने कितने ही तरह के फूलों से सजा भगवान का झूला और फूलों की डोर के साथ मंदिरों के पारंपरिक रागों में ढला भगवद् भक्ति का संगीत सभी सावन को बनारस में नए रूप में जीवंत करते हैं।
मंदिरों के इस शहर में पूरे महीने चलने वाला यह सावनी रंग महोत्सव शहर के पुराने हिस्से की गली-गली को अपने खास रंग में रंग देता है। 'काशी का कंकर-कंकर, शंकर समान' कहावत सावन में शिव की आराधना में लीन इस शहर में चरितार्थ होती देखी जा सकती है। कहीं शिवजी झूला झूल रहे हैं, पार्वती झूला रही हैं तो कहीं विन्ध्यावासिनी, विशालाक्षी, दुर्गा, काली, बंदिनी, गंगा संकठा और भैरों के मंदिरों में इन देवी-देवताओं के गण इन्हें झूले झुलाते दिखाई पड़ेंगे।
इन नयनाभिराम झांकियों की खासियत हैं सावन में अलग-अलग मंदिरों में सजने वाली जलविहार झाकियाँ और संगीत कार्यक्रम। सावन को बनारस में नया आयाम मिलता है। भारतेंदु हिंदी साहित्य आकाश के नक्षत्र थे। उन्होंने भी काशी के इस सावन महोत्सव का वर्णन करते हुए कजरी लिखी। गलियों में हर रोज झुंडों में बँटकर कजरी गाने वाली विवाहिताओं और कुवांरियों के स्वर अब प्रायः नहीं सुनाई पड़ते पर शहर के आसपास के कस्बों-गांवों में 'पिया हमहूं चलब दुर्गाजी के मेला में, देखब घुसके ढेलीढेला में ना ....' जैसे कजरी स्वर सुनाई पड़ते हैं।
नागपंचमी, कजरी तीज, रक्षाबंधन जैसे बड़े त्योहारों के अतिरिक्त छोटे-मोटे दो दर्जन त्योहारों से सजी बनारस के सावनी महोत्सव में जगह-जगह शास्त्रीय संगीत की महफिलें भी सारी-सारी रात 'रतजगा' की परंपरा को जीवंत रूप देती हैं। नामी-गिरामी कलाकार-संगीतकार बिना कुछ लिए-दिए सावन के स्वागत में संगीत के सुर पिरो देते हैं।
श्रावण पूर्णिमा के दिन वेद मंत्रोच्चार के बीच श्रावणी उपाकर्म और ऋषिपूजन करते लोग गंगा की धारा में कमर तक पानी में रहकर घंटों पूजन-अर्चन करते हैं। सावन के सोमवार को पूरा बनारस शिवमय हो जाता है। प्रसिद्ध काशी विश्वनाथ मंदिर में डेढ़-दो लाख शिवभक्त और पदयात्रा कर पहुँचे कांवरिए घंटों बोल-बम और हर-हर महादेव का उद्घोष करते पंक्तिबद्ध प्रतीक्षा करते हुए मंदिर की ओर रवि-सोम की आधीरात से ही बढ़ने लगते हैं।
आस्था और विश्वास की फुहारों के साथ सावन के बरसते बादल और भींगने को उत्सुक लालायित लोगों को तृप्त करती बूंदें किसानों-कामकारों सभी को बनारस की सांस्कृतिक संपन्नता का संदेश देती हैं। काशी विश्वनाथ मंदिर, करपात्री विश्वनाथ मंदिर, बी.एच.यू. विश्वनाथ मंदिर, संकटमोचन और खासकर तुलसी मानस मंदिर में सावनी मेले की चहल-पहल पूरे मास चलती है।
तुलसी मानस मंदिर की झांकियों और 15 दिन चलने वाले दुर्गाजी के मेले में बहरी अलंग यानी शहर की भीड़भाड़ से दूर पकाते-खाते खुशियाँ मनाते लोगों को धर्म और आस्था के जरिए खुशिओं की सौगात-सी मिल जाती है। रामअगर और सारनाथ के खुले स्थान, मंदिर परिसर और दोनों जगहों के तालाब के किनारे हजारों-लाखों लोगों के झुंड पूरे महीने दर्शन-पूजन और खाने-पकाने के साथ ही पिकनिक का आनंद लेते दिखाई देते हैं।
सावन में बनारसी मौज-मस्ती का यह उत्सव जाति-वर्ग, अमीरी-गरीबी, उम्र जैसे अंतर या भेदभाव को भूलकर एक साथ सावन मनाने का मौका प्रदान करता है। यह सावन महोत्सव सिर्फ बारिश और मेघों के स्वागत का या धार्मिक अवसर का नहीं बल्कि पूरे समाज को जोड़ने का अभूतपूर्व अवसर बन जाता है।
प्रसिद्ध साहित्यकार धर्मवीर भारती ने ठीक ही लिखा था - सावन में तो पूरा बनारस ही हिंडोले झूलता है। एक बार सावन के इस हिंडोले की पींगें महसूस करने के लिए बनारस आने का बहुत मन है। देखें, कब संयोग बनता है।
वाकई सावन में पूरे शहर में लगने वाले दर्जनों छोटे-बड़े मेलों में चरखी पर सवार कजरी गाती महिलाएँ ही नहीं, मंदिरों के झूले ही नहीं, झूलनोत्सव ही नहीं, बारिश की फुहारों को मनाने अपनाने का बनारसी रंग और अंदाज ही कुछ अनूठा है जो शायद ही और कहीं देखने को मिल सके। तभी तो एक प्रसिद्ध कजरी में महिलाएँ गाती हैं- झूलै बनारस सावन में...............!
- अभितांशु पाठक
'सात वार, नौ त्यौहार' की कहावत वाराणसी के लिए है लेकिन शायद सावन के महीने में ही इसके विविध रूप और छटाएँ दिखाई पड़ती हैं। सिर्फ मंदिरों में ही नहीं, सावन में घर-घर श्रृंगार-सजावट की परंपरा काशी में अब भी सावन में पूरे शबाब पर होती है। सावन का झूला धार्मिक एकता और महोत्सवों के माध्यम से हर वर्ग-हर जाति और अलग-अलग धार्मिक मान्यताओं के लोगों को भावना के स्तर पर एकाकार कर देता है।
काशी के विश्वनाथ हों या काली, सत्यनारायण हों या बीसू जी (अग्रवालों का मंदिर) या फिर महामृत्युंजय या दुर्गा सभी सावन में झूला झूलते हैं। यह सावन झूला महोत्सव मंदिरों की अपनी खासियत है। कहीं केवड़ा, कहीं गुलाब, कहीं अशोक की पत्ती और तुलसी, कहीं बेला, चमेली, चंपा, जूही या मौलिश्री और न जाने कितने ही तरह के फूलों से सजा भगवान का झूला और फूलों की डोर के साथ मंदिरों के पारंपरिक रागों में ढला भगवद् भक्ति का संगीत सभी सावन को बनारस में नए रूप में जीवंत करते हैं।
मंदिरों के इस शहर में पूरे महीने चलने वाला यह सावनी रंग महोत्सव शहर के पुराने हिस्से की गली-गली को अपने खास रंग में रंग देता है। 'काशी का कंकर-कंकर, शंकर समान' कहावत सावन में शिव की आराधना में लीन इस शहर में चरितार्थ होती देखी जा सकती है। कहीं शिवजी झूला झूल रहे हैं, पार्वती झूला रही हैं तो कहीं विन्ध्यावासिनी, विशालाक्षी, दुर्गा, काली, बंदिनी, गंगा संकठा और भैरों के मंदिरों में इन देवी-देवताओं के गण इन्हें झूले झुलाते दिखाई पड़ेंगे।
इन नयनाभिराम झांकियों की खासियत हैं सावन में अलग-अलग मंदिरों में सजने वाली जलविहार झाकियाँ और संगीत कार्यक्रम। सावन को बनारस में नया आयाम मिलता है। भारतेंदु हिंदी साहित्य आकाश के नक्षत्र थे। उन्होंने भी काशी के इस सावन महोत्सव का वर्णन करते हुए कजरी लिखी। गलियों में हर रोज झुंडों में बँटकर कजरी गाने वाली विवाहिताओं और कुवांरियों के स्वर अब प्रायः नहीं सुनाई पड़ते पर शहर के आसपास के कस्बों-गांवों में 'पिया हमहूं चलब दुर्गाजी के मेला में, देखब घुसके ढेलीढेला में ना ....' जैसे कजरी स्वर सुनाई पड़ते हैं।
नागपंचमी, कजरी तीज, रक्षाबंधन जैसे बड़े त्योहारों के अतिरिक्त छोटे-मोटे दो दर्जन त्योहारों से सजी बनारस के सावनी महोत्सव में जगह-जगह शास्त्रीय संगीत की महफिलें भी सारी-सारी रात 'रतजगा' की परंपरा को जीवंत रूप देती हैं। नामी-गिरामी कलाकार-संगीतकार बिना कुछ लिए-दिए सावन के स्वागत में संगीत के सुर पिरो देते हैं।
श्रावण पूर्णिमा के दिन वेद मंत्रोच्चार के बीच श्रावणी उपाकर्म और ऋषिपूजन करते लोग गंगा की धारा में कमर तक पानी में रहकर घंटों पूजन-अर्चन करते हैं। सावन के सोमवार को पूरा बनारस शिवमय हो जाता है। प्रसिद्ध काशी विश्वनाथ मंदिर में डेढ़-दो लाख शिवभक्त और पदयात्रा कर पहुँचे कांवरिए घंटों बोल-बम और हर-हर महादेव का उद्घोष करते पंक्तिबद्ध प्रतीक्षा करते हुए मंदिर की ओर रवि-सोम की आधीरात से ही बढ़ने लगते हैं।
आस्था और विश्वास की फुहारों के साथ सावन के बरसते बादल और भींगने को उत्सुक लालायित लोगों को तृप्त करती बूंदें किसानों-कामकारों सभी को बनारस की सांस्कृतिक संपन्नता का संदेश देती हैं। काशी विश्वनाथ मंदिर, करपात्री विश्वनाथ मंदिर, बी.एच.यू. विश्वनाथ मंदिर, संकटमोचन और खासकर तुलसी मानस मंदिर में सावनी मेले की चहल-पहल पूरे मास चलती है।
तुलसी मानस मंदिर की झांकियों और 15 दिन चलने वाले दुर्गाजी के मेले में बहरी अलंग यानी शहर की भीड़भाड़ से दूर पकाते-खाते खुशियाँ मनाते लोगों को धर्म और आस्था के जरिए खुशिओं की सौगात-सी मिल जाती है। रामअगर और सारनाथ के खुले स्थान, मंदिर परिसर और दोनों जगहों के तालाब के किनारे हजारों-लाखों लोगों के झुंड पूरे महीने दर्शन-पूजन और खाने-पकाने के साथ ही पिकनिक का आनंद लेते दिखाई देते हैं।
सावन में बनारसी मौज-मस्ती का यह उत्सव जाति-वर्ग, अमीरी-गरीबी, उम्र जैसे अंतर या भेदभाव को भूलकर एक साथ सावन मनाने का मौका प्रदान करता है। यह सावन महोत्सव सिर्फ बारिश और मेघों के स्वागत का या धार्मिक अवसर का नहीं बल्कि पूरे समाज को जोड़ने का अभूतपूर्व अवसर बन जाता है।
प्रसिद्ध साहित्यकार धर्मवीर भारती ने ठीक ही लिखा था - सावन में तो पूरा बनारस ही हिंडोले झूलता है। एक बार सावन के इस हिंडोले की पींगें महसूस करने के लिए बनारस आने का बहुत मन है। देखें, कब संयोग बनता है।
वाकई सावन में पूरे शहर में लगने वाले दर्जनों छोटे-बड़े मेलों में चरखी पर सवार कजरी गाती महिलाएँ ही नहीं, मंदिरों के झूले ही नहीं, झूलनोत्सव ही नहीं, बारिश की फुहारों को मनाने अपनाने का बनारसी रंग और अंदाज ही कुछ अनूठा है जो शायद ही और कहीं देखने को मिल सके। तभी तो एक प्रसिद्ध कजरी में महिलाएँ गाती हैं- झूलै बनारस सावन में...............!
- अभितांशु पाठक
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