काशी के देवी मंदिर

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दुर्गा मंदिर, दुर्गाकुण्ड
वाराणसी में जहां हर गली मोहल्ले में शिव मंदिर स्थित हैं वहीं इस पावन भूमि पर कई देवी मंदिरों का भी बड़ा महात्म्य है। जिनके दरबार में भक्त अपना मत्था टेकते हैं। काशी के प्रसिद्ध देवी मंदिरों में से एक दुर्गा मां का मंदिर दुर्गाकुण्ड के पास स्थित है। गाढ़े लाल रंग के इस मंदिर में मां दुर्गा की भव्य प्रतिमा स्थापित है। माना जाता है कि इस मंदिर का निर्माण 1760 0 में रानी भवानी ने कराया था। उस समय मंदिर निर्माण में पचास हजार रूपये की लागत आयी थी। मान्यता के अनुसार शुम्भ-निशुम्भ का वध करने के बाद मां दुर्गा ने थक कर दुर्गाकुण्ड स्थित मंदिर में ही विश्राम किया था। दुर्गाकुण्ड क्षेत्र पहले वनाच्छादित था। इस वन में उस समय काफी संख्या में बंदर विचरण करते थे। धीरे-धीरे इस क्षेत्र में आबादी बढ़ने पर पेड़ों के साथ बंदरों की संख्या भी घट गयी। मां दुर्गा का यह मंदिर नागर शैली में निर्मित किया गया है। मुख्य मंदिर के चारो ओर भव्य बरामदे का निर्माण बाजीराव पेशवा द्वितीय ने कराया था। कहा जाता है कि मंदिर के मण्डप को भी बाजीराव ने ही बनवाया था। जबकि मंदिर से सटे विशाल कुण्ड का निर्माण इंदौर की महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने कराया था। मंदिर में लगे दो बड़े घण्टों को नेपाल नरेश ने लगवाया है। मुख्य मंदिर के चारों ओर बने बड़े से बरामदे में नियमित रूप से श्रद्धालु बैठकर मां का जाप करते रहते हैं। मंदिर में प्रवेश के लिए दो द्वार है। मुख्य द्वार ठीक मां के गर्भगृह के सामने है। वहीं गर्भगृह के बायीं ओर छोटा सा द्वार है। मंदिर परिसर में गणेश जी, भद्रकाली, चण्डभैरव, महालक्ष्मी, सरस्वती, राधाकृष्ण, हनुमान एवं शिव की भी प्रतिमाएं भी स्थापित हैं। मंदिर में स्थित भद्रकाली मंदिर के पास यज्ञकुण्ड है। जहां नियमित रूप से यज्ञ होता है। मां दुर्गा के इस मंदिर में नवरात्र में दर्शन के लिए दर्शनार्थियों का तांता लगा रहता है। मंदिर को बेहतरीन ढंग से विभिन्न रंगों के झालरों से सजाया जाता है। जो रात में बेहद ही आकर्षक लगता है। नवरात्र के चतुर्थी तिथि पर मां को कुष्माण्डा देवी के रूप में पूजा जाता है। इस दौरान मां का दिव्य श्रृंगार किया जाता है। शिव की इस नगरी में सावन महीना आते ही मन्दिर के आस-पास उत्सवमय महौल हो जाता है। इस अवसर पर दुर्गा देवी मंदिर के पास भी मेला लगा रहता है। दूर-दूर से आये दर्शनार्थी मां का दर्शन करते हैं। मां दुर्गा का यह प्रसिद्ध मंदिर प्रातःकाल 4 से रात 10 बजे तक खुला रहता है। जबकि आरती सुबह साढ़े 5 बजे एवं रात्रि साढ़े 9 बजे मन्त्रोच्चारण के बीच सम्पन्न होती है।
माँ विशालाक्षी
शिव की इस नगरी वाराणसी में शक्ति पीठों का भी महत्व रहा है। देवियों के दर्शन-पूजन के लिए श्रद्धालु दूर-दूर से यहां आते रहते हैं। काशी के नव शक्ति पीठों में मां विशालाक्षी का महत्वपूर्ण स्थान है। मीरघाट पर गलियों से होते हुए पहुंचने पर मां विशालाक्षी का भव्य मंदिर स्थित है। मान्यता के अनुसार इस स्थान पर मां सती का कर्ण-कुण्डल और उनका एक अंग गिरा था। जिससे इस स्थान की महिमा और माहत्म्य दोनों काफी बढ़ गयी। लोग यहां मां की उपस्थिति मानकर दर्शन-पूजन करने लगे। बाद में इस स्थान पर मंदिर का निर्माण किया गया। जिसमें मां की दिव्य प्रतिमा स्थापित है। विशाल नेत्रों वाली मां विशालाक्षी का यह स्थान मां सती के 51 शक्ति पीठों में से एक है। इनका महत्व कांची की मां (कृपा दृष्टा) कामाक्षी और मदुरै की (मत्स्य नेत्री) मीनाक्षी के समान है। शास्त्रों के अनुसार काशी के कर्ता-धर्ता बाबा विश्वनाथ मां विशालाक्षी के मंदिर में विश्राम करते हैं। मंदिर में मां विशालाक्षी की दो मूर्तियां हैं। सन् 1971 में अभिषेक कराते समय पुजारी से मां की मुख्य प्रतिमा की अंगुली खण्डित हो गयी थी। जिसके बाद खण्डित प्रतिमा के आगे मां की दूसरी प्रतिमा प्रतिष्ठापित की गयी। मंदिर का जीर्णोद्धार सन् 1908 में मद्रासियों ने कराया। गर्भगृह को छोड़कर मंदिर का अन्य भाग दक्षिण भारतीय मंदिर शैली का बना हुआ है। मंदिर के बाहरी भाग पर रंग-बिरंगे रूप में गणेश जी, शंकर जी समेत कई अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियां बनी हुई हैं। मंदिर में भादों मास पर भव्य आयोजन किया जाता है। इस माह की कृष्ण पक्ष तृतीया को मां विशालाक्षी का जन्मोत्सव धूम-धाम से मनाया जाता है। इस मौके पर मां का अतिसुन्दर श्रृंगार किया जाता है। जिसका दर्शन करने के लिए आस-पास के श्रद्धालुओं के अलावा काफी संख्या में दक्षिण भारतीय श्रद्धालु भी आते हैं। वहीं मां के दर्शन के लिए काफी संख्या में दक्षिण भारतीय श्रद्धालु हर समय इस मंदिर में पहुंचते रहते हैं। चैत्र नवरात्र में मां के दर्शन-पूजन के लिए भी भक्तों की भीड़ उमड़ पड़ती है। नवरात्र की पंचमी तिथि को मां विशालाक्षी का दर्शन होता है। मंदिर प्रातःकाल 5 से रात 10 बजे तक दर्शनार्थियों के लिए खुला रहता है। मां की पांच बार आरती की जाती है। पहली आरती सुबह साढ़े पांच बजे, फिर दिन में 11 बजे एवं 12 बजे वहीं, शाम को 6 बजे एवं अन्तिम आरती रात 10 बजे मन्त्रोंच्चारण के साथ होती है। मंदिर के महंत राधेश्याम दुबे बताते हैं कि मां विशालाक्षी के दर्शन से सभी प्रकार का कष्ट दूर हो जाता है और सुख,समृद्धि एवं यश बढ़ता है।
तारा देवी मंदिर
वाराणसी सिर्फ शिवनगरी से ही विख्यात नहीं है। यहां अन्य देवी-देवताओं के भी अदभुत मंदिर स्थापित हैं। जहां दर्शनार्थी मत्था टेकने पहुंचते रहते हैं। देवी मंदिरों की भी एक लंबी श्रृंखला काशी में है। काशी के इन्हीं जागृत देवी मंदिरों में से एक है तारा देवी का मंदिर। काशी की विशिष्ट सकरी गलियों के बीच तारा मंदिर मकान संख्या डी0 24/4 पाण्डेय घाट मोहल्ले में स्थित है। इस मंदिर की खास पहचान यह है कि इसमें चार बड़े-बड़े आंगन हैं। जिसमें अलग देवी-देवताओं की मूर्तियां स्थापित हैं। चार आंगन इस मंदिर की पहचान बन गयी है। जिसकी वजह से इसे चार आंगन वाला मंदिर भी कहा जाता है। स्थापत्य कला की दृष्टि से मंदिर के भीतर की बनावट बेहतरीन है। यह मंदिर किसी भूलभुलैया से कम नहीं है। चारो आंगनों की बनावट लगभग एक जैसी है। अमूमन किसी भी मंदिर तक पहुंचने के लिए सही पता मालूम होना चाहिए। उस स्थान तक पहुंचने पर मंदिर दूर से ही पता चल जाता है। लेकिन तारा देवी मंदिर में पहुंचने में थोड़ी कठिनाई होती है क्योंकि इस मंदिर की बनावट ही दूसरे प्रकार की है। गली से मंदिर में प्रवेश करने के लिए पुरानी कोठरी से गुजरना पड़ता है जिसका दरवाजा बहुत छोटा सा है। बाहर गली से देखने पर यह अंदाजा ही नहीं लगाया जा सकता है कि भीतर चार आंगनों वाला भव्य मंदिर है। कोठरी से अंदर प्रवेश करने पर स्थित है मुख्य आंगन, जिसमें एक तरफ पारिजात का वृक्ष है। इस आंगन के सामने बरामदे में मां विशालाक्षी देवी की प्रतिमा स्थापित है। आंगन के दाहिनी ओर राधा-कृष्ण, ललिता का मंदिर है। आंगन के बायीं ओर गोपाल का मंदिर है। इस मंदिर की विशिष्टता यह है कि पहले आंगन में पहुंचने के बाद ऐसा लगता ही नहीं है कि भीतर तीन आंगन आकार में इतने बड़े और हैं। मुख्य आंगन से दाहिनी ओर पतली सी गैलरी में जाने पर दाहिने तरफ छोटा सा दरवाजा है उसमें प्रवेश करने पर बड़ा सा आंगन है जिसमें तारा देवी की प्रतिमा स्थपित है। वहीं उसी गैलरी से बायीं ओर जाने पर इसी प्रकार के एक आंगन में मां काली का मंदिर है। मुख्य आंगन से बायीं ओर गैलरी में जाने पर एक और आंगन स्थित है। इस आंगन में मां दुर्गा की भव्य प्रतिमा स्थित है। चारो आंगनों में मंदिरों के आगे फौव्वारा भी बना हुआ है। मंदिर के निर्माण के बारे में बताया जाता है कि 1752 में रानी भवानी ने कराया था। इस मंदिर को तंत्र पीठ भी कहा जाता है। यहां अक्सर तंत्र क्रिया करने वाले भक्त आकर ध्यान लगाते हैं। बेहद ही शांत वातावरण में स्थित यह मंदिर आकर्षित करता है। दर्शन-पूजन के लिए यह मंदिर प्रातःकाल साढ़े 6 से अपराह्न डेढ़ बजे तक एवं सायं 4 से रात 10 बजे तक खुला रहता है। शयन आरती रात्रि 9 बजे होती है। मंदिर के बाहर गली में फूल-माला की कई दुकानें खुल गयी हैं। मान्यता है कि इस मंदिर में जाकर दर्शन-पूजन करने से सभी प्रकार के कष्ट दूर हो जाते हैं और सुख समृद्धि में बढ़ोत्तरी होती है।
माँ राजराजेश्वरी
मां राजराजेश्वरी के दरबार में पहुंचकर श्रद्धालुओं को असीम शांति का अनुभव होता है। इसका एक कारण तो यह है कि मां अपने भक्तों को सभी संतापों को हर कर सुख शांति प्रदान करती हैं। वहीं दूसरी वजह यह कि मां का यह मंदिर जिस स्थान पर स्थित है वह बेहतरीन है। घाटों और गलियों के इस अदभुत नगर की बनावट ऐसी है जो लोगों को सहज ही अपनी ओर खींच लेती है। मां राजराजेश्वरी का दरबार सिद्धगिरि मठ, डी, 1/58 ललिताघाट पर स्थित है। वहीं, सीधे ललिता घाट से ही सीढ़ियां चढ़कर मंदिर तक पहुंचा जा सकता है। घाट से उपर चढ़ने पर गुफा जैसे सकरे रास्ते पर कुछ कदम ही बढ़ने पर बायीं ओर उपर सीढ़ियां हैं। करीब 20 सीढ़ियां चढ़ने पर बायीं ओर एक बड़ा सा हाल है। इस हाल में प्रवेश करते ही सामने मां की दिव्य प्रतिमा दरवाजों के भीतर विराजमान है। मां की बड़ी सी प्रतिमा को देखकर कोई भी सम्मोहित हो सकता है। मां राजराजेश्वरी के दर्शन-पूजन से सभी प्रकार के कष्ट दूर हो जाते हैं और प्रसिद्धि मिलती है। मां राजराजेश्वरी पार्वती जी का स्वरूप हैं। इन्हें श्रीयंत्र और ललिता सहस्त्र नाम प्रिय है। मां राजराजेश्वरी का मंदिर सुबह 6 बजे खुलता है जो पूर्वाह्न 10 बजे तक खुला रहता है। वहीं 10 से 12 बजे तक दर्शनार्थियों के मर्भगृह की खिड़की खुली रहती है। दोपहर 12 से 3 बजे तक मंदिर का पट पूरी तरह से बंद रहता है। पुनः अपराह्न 3 बजे से 6 बजे तक दर्शन के लिए खिड़की खुली रहती है। शाम 6 से 8 बजे तक गर्भगृह का द्वार खुल जाता है। मां की आरती पूरे विधि-विधान से सुबह साढ़े 7 बजे एवं शाम 6 बजे होती होती है। मां का नवरात्रि में नौ श्रृंगार भव्य ढंग से होता है। वहीं शिवरात्रि को मन्दिर में रूद्रि पाठ होता है।
शवशिवा काली मन्दिर
मां काली के बारे में कहा गया है कि इनके दर्शन-पूजन से तत्काल ही फल की प्राप्ति होती है। मां काली की पूजा के लिए भक्तों में सहज ही आकर्षण रहता है। भक्त मां काली के शक्ति स्वरूप के प्रति आदर भाव रखते हैं। काशी में मां काली के कई मंदिर स्थापित हैं। इन्हीं मंदिरों में से एक प्रसिद्ध मंदिर है शवशिवा काली का मंदिर। मां काली की अलौकिक प्रतिमा इस मंदिर में स्थापित है। सोनारपुरा से केदारघाट की ओर गलियों से आगे बढ़ने पर देवनाथपुरा मोहल्ले में मं0नं0 के0डी0 30/66 में स्थित है। इस मंदिर की खास बात यह है कि यहां पांच मुण्डों के ऊपर एक शव पर शिव हैं और शिव पर मां काली की दिव्य प्रतिमा स्थापित हैं। मां काली की इस अलौकिक प्रतिमा के दर्शन-पूजन से लोग धन्य हो जाते हैं। माना जाता है कि शवशिवा काली की इस अदभुत प्रतिमा के दर्शन से सभी प्रकार के कष्ट दूर हो जाते हैं। मां का विभिन्न त्यौहारों पर विधिवत श्रृंगार किया जाता है। मंदिर खुलने का समय प्रातः 5 बजे से दोपहर 12 बजे तक एवं सायंकाल 4 से रात 10 बजे तक खुला रहता है। मां की आरती सुबह साढ़े 5 बजे एवं रात 8 बजे होती है। इस मंदिर में नियमित रूप से श्रद्धालु दर्शन-पूजन के लिए आते हैं वहीं नवरात्र में दर्शनार्थियों की भीड़ अधिक रहती है।
संकठा जी
शिव जहां काशी में ज्ञान से लेकर आत्म दर्शन के केन्द्र हैं वहीं संकठा जी का स्थान शक्ति दात्री के रूप में है। माना जाता है कि मां काशीवासियों को शक्ति प्रदान करती हैं। इनके दर्शन-पूजन करने वालों को कभी भय नहीं सताता। मां के इसी महात्म्य का प्रभाव है कि हर समय भक्त दर्शन-पूजन के लिए इनके दरबार में पहुंचते रहते हैं। मान्यता के अनुसार अज्ञातवास के दौरान पाण्डव जब काशी में आये तो संकठा जी का दर्शन-पूजन किया और करीब एक वर्ष तक यहां रूके। वहीं आज से करीब 250 वर्ष पहले खुदाई के दौरान मां की मूर्ति मिली थी जिसे वर्तमान में मंदिर की देख-रेख कर रहे राजीव शर्मा और अतुल शर्मा के पूर्वजों ने मंदिर बनवाकर स्थापित कर दिया। तभी से भक्त मां संकठा के दर्शन-पूजन कर आशीर्वाद प्राप्त कर रहे हैं। मान्यता के अनुसार मां संकठा के दर्शन से सभी कष्ट दूर हो जाते हैं और सारी मनोकामना पूरी होती है। इस बड़े से मंदिर परिसर में मां की करीब पांच फीट दिव्य प्रतिमा स्थापित है। इस मंदिर की बनावट अन्य मंदिरों से भिन्न है। मंदिर में प्रवेश के लिए बड़ा सा भव्य द्वार है। जिससे भीतर प्रवेश करते ही काफी लम्बा-चौड़ा आंगन है जिसके मध्य में एक विशालकाय पीपल का पेड़ है। इस पीपल के पेड़ के चारों ओर चबूतरा बनाया गया है। वहीं, आंगन के चारो ओर बरामदा है। जिसमें भक्तगण अनुष्ठान हवन साहित अन्य धार्मिक कार्य करते हैं। सप्ताह के प्रत्येक शुक्रवार को संकठा मां के दर्शन-पूजन के लिए काफी संख्या में श्रद्धालु मंदिर पहुंचते हैं। कहा जाता है कि शुक्रवार को मां संकठा के दर्शन करने से तुरन्त फल की प्राप्ति होती है। वहीं, पौष महीने (दिसम्बर-जनवरी) की शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को मां का अन्नकूट किया जाता है। इस मौके पर कई प्रकार के व्यंजन मां को अर्पित किये जाते हैं। चैत्र मास (अप्रैल) की शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को संकठा मां का वार्षिक श्रृंगार किया जाता है। इस दौरान मां को बेहद आकर्षक ढंग से सजाया जाता है। जबकि रक्षाबंधन वाले दिन मां का जल विहार होता है। इस दौरान मां के चरणों को जल से डुबा दिया जाता है। साथ ही वर्ष में कई बार मंदिर में भव्य झांकियों का भी आयोजन होता है। जिसमें काफी संख्या में भक्त भाग लेते हैं। दर्शनार्थियों के लिए यह मंदिर भोर में साढ़े 4 बजे खुलता है जो दोपहर 1 बजे तक खुला रहता है। फिर सांय 3 बजे मंदिर पुनः खुलता जो रात 12 बजे तक खुला रहता है। हालांकि मंदिर बीच में भी 2 घण्टे बंद भी रहता है। मां की आरती सुबह साढ़े 6 बजे एवं रात 10 बजे होती है। मंदिर के पास 3-4 की संख्या में माला-फूल की दुकानें हैं। संकठा जी का यह मंदिर सिन्धिया घाट के पास स्थित है। कैन्ट रेलवे स्टेशन से करीब 6 किलोमीटर दूर स्थित इस मंदिर की लोकप्रियता भक्तों में बहुत है।
मंगला गौरी
निःसंतान दम्पत्तियों को बच्चे का सुख देने वाली और अविवाहित कन्याओं को सर्वगुण सम्पन्न वर प्रदान करने वाली मां मंगला गौरी के प्रति भक्तों की असीम आस्था रहती है। मां की अनुकम्पा से भक्तों की सारी मनोकामनायें पूरी हो जाती है। मान्यता के अनुसार एक बार सूर्य पंचगंगा घाट (पंचनंदा तीर्थ) पर शिवलिंग स्थापित करके घोर तपस्या करने लगे। उनके तप से उनकी किरणें आग के समान गर्म होने लगीं। अन्ततः उनके तप के प्रभाव से किरणें इतनी तीक्ष्ण हो गयीं कि मानव सहित सभी प्राणी जहां के तहां बुत बन गये। चारो ओर हाहाकार मच गया। अचानक हुई इस अप्राकृतिक स्थिति को जानने के लिए भगवान शिव मां पार्वती के साथ तपस्या में लीन सूर्यदेव के सामने प्रकट हुए। महादेव और मां पार्वती को अपने सम्मुख पाकर सूर्यदेव भावविह्वल हो गये और उनकी स्तुति करने लगे। सूर्य देव की इस असीम भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें वरदान स्वरूप दैव शक्तियां प्रदान की। साथ ही कहा कि यहां स्थापित देवी जिन्हें कालांतर में मंगला गौरी के नाम से जाना जायेगा। इनके दर्शन-पूजन करने वाले आस्थावान भक्तों को सभी प्रकार के दुखों से दूर कर मां सुख सम्पत्ति प्रदान करेंगी। वहीं, अविवाहित कन्याएं यदि मां का दर्शन करेंगी तो उन्हें सर्वगुण सम्पन्न वर और निःसंतान दम्पत्ति को दर्शन करने से बच्चे की प्राप्ति होगी। धीर-धीरे इस मंदिर की ख्याति बढ़ती गयी। बाद में मां के इस मंदिर का निर्माण किसी भक्त ने करवाया। इस मंदिर को पंचायतन मंदिर भी कहा जाता है। मंदिर के मध्य में गौरीगौश्तीश्वर शिवलिंग स्थापित हैं। मंदिर में एक कोने में मां की दिव्य प्रतिमा स्थापित है। वहीं, मंदिर में आदि केशव और हनुमान जी की मूर्ति को रामदास जी ने स्थापित किया है। मंदिर में मर्तंड भैरव की भी मूर्ति है। जिनके दर्शन-पूजन करने लोग आते हैं। मंदिर में बड़ा कार्यक्रम पूष महीने की शुक्लपक्ष चतुर्दशी को मां का अन्नकूट महोत्सव होता है। इस दौरान कई प्रकार के व्यंजन बनाकर मां को अर्पित किया जाता है। वहीं चैत्र नवरात्र में अष्टमी के दिन इन्हें गौरी के रूप में पूजा जाता है। प्रत्येक मंगलवार को इस मंदिर में काफी संख्या में श्रद्धालु मां के दर्शन-पूजन के लिए पहुंचते हैं। यह मंदिर प्रातःकाल 4 से दोपहर 12 बजे तक खुला रहता है। फिर पुनः शाम को 4 बजे से खुलता है जो रात 9 बजे तक खुला रहता है। मां की आरती दो बार होती है। सुबह की आरती 5 बजे एवं रात की शयन आरती 9 बजे होती है। यह मंदिर k 24/34 पंचगंगा घाट पर स्थित है। कैन्ट स्टेशन से करीब 8 किलोमीटर दूर स्थित इस मंदिर तक पहुंचने के लिए ऑटो द्वारा मैदागिन चौराहे पर पहुंचकर पैदल भैरवनाथ होते हुए सकरी गलियों द्वारा पहुंचा जा सकता है।
चौसट्टी देवी मंदिर
काशी में देवी मंदिरों की लम्बी श्रृंखला में एक महत्वपूर्ण मंदिर चौसट्टी देवी का है। चौसट्टी देवी को जागृत पीठों में से एक माना गया है। मान्यता के अनुसार काशी के राजा दिवोदास धार्मिक प्रवृत्ति के थे लेकिन वे भगवान शिव को पसंद नहीं करते थे। एक बार उन्होंने देवताओं के समक्ष शर्त रखी की यदि शिव काशी को छोड़कर चले जाये ंतो वे काशी को स्वर्ग की तरह बना देंगे। देवताओं के अनुनय-विनय पर भगवान शिव काशी छोड़कर कैलाश चले गये। कथा के अनुसार उस समय गंगा में दूध की धारा प्रवाहित होती थी। कुछ दिनों बाद भगवान शिव ने अपनी अनुपस्थिति में चौसठ योगिनियों को काशी में भेजा। चौसठ योगिनियों को काशी इतनी प्रिय लगी की वे यहीं पर रह गयीं। इन्हीं को चौसट्टी कहा जाता है। मान्यता के अनुसार चैत्र मास की प्रतिपदा को चौसट्टी माता आयीं थीं। माना जाता है कि चौसट्टी मां की दिव्य प्रतिमा के दर्शन-पूजन करने से सारे पाप दूर हो जाते हैं। करीब पांच सौ वर्ष पहले लगभग सन 15 सौ में कलकत्ता निवासी जमींदार प्रतापादित्य को स्वप्न आया कि पास में ही मां भद्रकाली की प्रतिमा है जिसे काशी में चौसट्टी देवी के पास स्थापित कर दें। उन्होंने उसी अनुसार मां भद्रकाली की प्रतिमा को नौका द्वारा कलकत्त्ता से काशी लाया। मां भद्रकाली की उस प्रतिमा को प्रतापादित्य ने चौसट्टी देवी की प्रतिमा के ठीक सामने स्थापित कर मंदिर का निर्माण कराया। साथ ही चौसट्टी मां के ऊपर अष्टधातु का छत्र चढ़ाया। इसके बाद से काफी संख्या में श्रद्धालु मां चौसट्टी के दर्शन-पूजन करने आने लगे। भक्तों की मां में असीम आस्था है। होली वाले दिन तो मां का दरबार दर्शनार्थियों से पट जाता है। घाटों एवं गलियों से होते हुए लोग होली खेलने के बाद मां का दर्शन कर आशीर्वाद लेते हैं। वहीं नवरात्र के दौरान भी काफी संख्या में भक्त मंदिर में पहुंचकर मां के आगे शीश नवाते हैं। नवरात्र में चौसट्टी मां की नौ देवियों के रूप में पूजा होती है। इस दौरान मंदिर को विधिवत सजाया जाता है। साथ ही मां का भव्य श्रृंगार किया जाता है एवं समय-समय पर मनमोह लेने वाली झांकी भी सजायी जाती है। वहीं मां का वार्षिक श्रृंगार चैत्र महीने (अप्रैल) में होता है। इनका मंदिर सुबह 5 बजे से रात 11 बजे तक खुला रहता है। मां की दो बार आरती होती है। सुबह की आरती 5 बजे एवं शयन आरती रात 11 बजे मन्त्रोच्चारण के बीच सम्पन्न होती है। वर्तमान में मंदिर के पुजारी चुन्नीलाल पन्ड्या हैं। यह मंदिर बंगाली टोला मोहल्ले में डी 22/17 चौसट्टी घाट पर स्थित है। कैन्ट रेलवे स्टेशन से करीब 6 किलोमीटर दूर इस मंदिर तक पहुंचने के लिए सोनारपुरा तक आटो से उसके बाद पैदल गलियों से होते हुए जाया जा सकता है।
काशी राज काली मंदिर
मंदिरों के इस शहर काशी में कुछ ऐसे मंदिर भी हैं जिन्हें देखने के बाद सहसा ही मन कह उठता है 'लाजवाब'। स्थापत्य कला की दृष्टि से बेहतरीन मंदिरों में से एक है काशी राज काली मंदिर। इस मंदिर में काली जी की भव्य प्रतिमा के साथ शिवलिंग और अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियां विराजमान हैं। पूरी तरह से पत्थर से निर्मित यह रथाकार विशाल मंदिर कारीगरी का नायाब उपहार है। गोदौलिया चौराहे से चौक जाने वाले रास्ते पर करीब बीस कदम की दूरी पर दाहिने हाथ पर बेहद कलात्मकता लिए बड़ा सा पत्थर का गेट है। इसी द्वार से भीतर जाने पर काशीराज काली मंदिर है। इस मंदिर का निर्माण काशी नरेश श्री नरनारायण की पत्नी जो कि प्रभुनारायण की मां थी ने संवत 1943 में कराया था। इस मंदिर के निर्माण में उस समय के बेहतरीन कारीगरों ने हथौड़ा चलाया था। मंदिर को सुन्दर और आकर्षक बनाने के लिए बड़ी ही बारीकी से कार्य किया गया। मंदिर के हर हिस्से की बनावट का खास ध्यान रखा गया है। इसका प्रमाण मंदिर के अगल-बगल और पीछे का हिस्सा है। इस हिस्से पर दरवाजे का आकार बना है जो हुबहू लकड़ी के दरवाजे सा प्रतीत होता है। लेकिन यह लकड़ी का दरवाजा न होकर पत्थर पर नक्काशी का बेहतरीन नमूना है। पत्थर पर त्रिस्तरीय निर्माण किया गया है। इसकी भित्ती पर शंखनुमा आकृति बनी हुई है। मंदिर की दीवारों पर छोटे-छोटे मंदिर, घण्टे सहित अन्य आकृतियों को बड़ी ही बारीकी से उभारा गया है। मंदिर को आकर्षक बनाने के लिए किये गये मेहनत का अंदाजा इसके खम्भों से लगाया जा सकता है। मंदिर के प्रत्येक खम्भों के निर्माण में छः महीने का समय लगा था। जिससे इसके खम्भे आज भी बेहद खूबसूरत बने हुए हैं। मंदिर सुबह पांच बजे खुलता है इसी दौरान आरती होती है। दिन में 11 बजे मंदिर का गर्भगृह बंद हो जाता है फिर पुनः शाम चार बजे खुलता है जो रात आठ बजे शयन आरती तक खुला रहता है। महाशिवरात्रि के दिन मंदिर में कार्यक्रम आयोजित होता है। स्थापत्य कला की दृष्टि से जितनी बेहतरीन इस मंदिर की बनावट है उसी प्रकार इसका मुख्य द्वार भी आकर्षक है। जो गोदौलिया से चौक जाने वाले मार्ग पर स्थित है। इस मंदिर परिसर में ही काशी खण्डोक्त गौतमेश्वर महादेव का मंदिर भी है।
वाराही देवी
बहुभाषी, संस्कृति, खान-पान एवं रहन-सहन के इस अनोखे शहर काशी का प्रशासनिक ढांचा भी अद्भुत रहा है। इस शहर के पालक जहां स्वयं भगवान शिव बाबा विश्वनाथ के रूप में हैं वहीं, यहां के कोतवाल बाबा कालभैरव हैं जो काशी को बाहरी बाधाओं से बचाने का जिम्मा संभाले हुए हैं। जबकि वाराही देवी का भी काशी की दैवीय व्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान है। मान्यता के अनुसार मां वाराही क्षेत्र पालिका के रूप काशी की रक्षा करती हैं। इन्हें गुप्त वाराही भी कहा जाता है। जबकि पुराणों के अनुसार मां शती का जिस स्थान पर काशी में दांत गिरा था वहीं मां वाराही देवी उत्पन्न हुईं। इसलिए इन्हें शक्तिपीठ के रूप में पूजा जाता है। मां वाराही असुरों से युद्ध के दौरान मां दुर्गा के सेना की सेनापति भी थीं। कहा जाता है कि मां वाराही के दर्शन-पूजन से सभी प्रकार के कष्ट दूर हो जाते हैं और मान-प्रतिष्ठा के साथ आयु और शक्ति में वृद्धि होती है। इनका प्रसिद्ध मंदिर डी 5/83 पिपरा भैरवी मोहल्ला मान मंदिर घाट पर स्थित है। बेहद सकरी गलियों के बीच स्थित इस मंदिर में वाराही देवी की ओजपूर्ण स्वयंभू प्रतिमा है। मंदिर के प्रधान महंत एवं व्यवस्थापक कृष्णकांत दुबे बताते हैं कि मां का यह मंदिर कब निर्मित किया गया इसकी जानकारी नहीं है हां समय-समय पर इसका जीर्णोद्धार होता रहा है। मां के महात्म्य के बारे में बताया कि शक्तिपीठ होने से इनके समक्ष निर्मल मन से जो कुछ भी मांगा जाता है वह मनोकामना शीघ्र ही पूरी हो जाती है। मंदिर में बड़ा कार्यक्रम माघ महीने की षष्टी तिथि को होता है। इस दौरान मां का वार्षिक श्रृंगार बेहद आकर्षक ढंग से किया जाता है। इस मौके पर काफी संख्या में श्रद्धालु मंदिर में उपस्थित होकर मां के दर्शन कर भजन-कीर्तन करते हैं। वहीं नवरात्र की सप्तमी को मां के दर्शन का विधान है। नवरात्र में मंदिर को बेहतरीन ढंग से सजाया जाता है। साथ ही सप्ताह में मंगलवार एवं शुक्रवार को भी काफी संख्या में भक्त मां के दरबार में मत्था टेकते हैं। वाराही देवी का यह मंदिर दर्शनार्थियों के लिए केवल सुबह ही खुला रहता है। मंदिर प्रातःकाल साढ़े 4 बजे से पूर्वाह्न 9 बजे तक खुलता है। मंदिर खुलने के साथ ही करीब 25 मिनट मां का स्नान कराया जाता है। फिर 5 बजे आरती शुरू होती है। इनकी आरती की खासियत यह है कि यह सामान्य ढंग से न होकर शास्त्रीय संगीत में होती है। क्योंकि मां वाराही को शास्त्रीय संगीत काफी प्रिय है। करीब डेढ़ घण्टे की आरती के दौरान मां की कृपा से आस-पास का माहौल संगीतमय हो जाता है। कैन्ट स्टेशन से लगभग 8 किलोमीटर दूर स्थित इस मंदिर तक पहुंचने के लिए आटो द्वारा गोदौलिया चौराहे पर पहुंकर वहां से पैदल दशाश्वमेध घाट होते हुए मानमंदिर घाट की सीढ़ियों के ऊपर चढ़ने पर कुछ मीटर की दूरी पर गलियों में मां वाराही का दिव्य मंदिर स्थित है। इनके मंदिर के पास ही द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक सोमनाथ के प्रतिरूप सोमेश्वर महादेव का भी मंदिर स्थित है।
कामाख्या देवी मंदिर
काशी के देवी मंदिरों में कामाख्या देवी का मंदिर भी महत्वपूर्ण है। कामाख्या देवी को जागृत माना गया है। मान्यता के अनुसार कमच्छा मोहल्ला कामाख्या देवी के नमा से ही पड़ा है। मां कामाख्या का प्रधान मंदिर असम के गोवाहाटी में स्थित है। कामाख्या पीठ 52 शक्तिपीठों में से एक है। यहां मां का योनि यंत्र में विग्रह स्थापित है। मां कामाख्या देवी की प्रतिमा देखने में शांत एवं मनमोहक लगती हैं। माना जाता है कि इनके दर्शन-पूजन से सभी प्रकार के कष्ट दूर हो जाते हैं और मां अपने भक्तों की सदा रक्षा करती हैं। मां की मूर्ति कब स्थापित की गयी और मंदिर का निर्माण किसने कराया यह किसी को ज्ञात नहीं है। मंदिर परिसर में ही क्रोधन भैरव का विग्रह, भद्रकाली, हनुमान जी का भी विग्रह स्थापित है। साथ ही मां कामाख्या की प्रतिमा के नीचे चौसठ योगिनियों का विग्रह है। यहां पर एक शिवलिंग भी हैं। साथ ही मां पार्वती की गोद में सिर कटे गणेश जी का भी विग्रह है। इसके अलावा मां प्रत्यगिंरा देवी की प्रतिमा स्थापित है। इस मंदिर में काशी के सात धार्मिक कूपों में से एक धनन्जय कूप भी है। कहा जाता है कि इसका जल अमृत के समान है। जिसके पीने से कई प्रकार के रोग दूर हो जाते हैं। इस मंदिर में बड़ा आयोजन सावन महीने में किया जाता है इस महीने की तीसरे मंगलवार को मां कामाख्या का वार्षिक श्रृंगार बेहद ही आकर्षक ढंग से किया जाता है। इस दौरान खास तरह के फूलों से मंदिर को सजाया जाता है। वार्षिक श्रृंगार का दर्शन करने काफी संख्या में भक्त मंदिर में पहुंचते हैं। इस दिन पूरे दिन श्रद्धालु मां की आराधना करते हैं। दूसरा बड़ा आयोजन कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की अक्षय नवमी तिथि होता है। इस अवसर पर मां का अन्नकूट श्रृंगार किया जाता है। अन्नकूट श्रृंगार में कई प्रकार के स्वादिष्ट पकवान बनाकर मां को चढ़ाये जाते हैं। इस दिन भी काफी संख्या में भक्त मां के दर्शन-पूजन के लिए पहुंचते हैं। इस मंदिर का मुख्य द्वार प्रातः 4 बजे खुल जाता है जबकि गर्भगृह प्रातः साढ़े 5 बजे खुलता जो दोपहर 12 बजे तक खुला रहता है। वहीं शाम को 4 से रात साढ़े 10 बजे तक मंदिर खुला रहता है। आरती सुबह 6 बजे एवं शाम 7 बजे सम्पन्न होती है। इस मंदिर के महंत दिगम्बर वीरेश्वर पुरी हैं। कामाख्या देवी मंदिर के पास ही बटुक भैरव का मंदिर स्थित है। यह मंदिर कैंट स्टेशन से करीब 6 किलोमीटर दूर कमच्छा में स्थित है।
त्रिपुर भैरवी
वाराणसी की विशिष्ट शैली की सकरी गलियों में मां त्रिपुर भैरवी का मंदिर स्थित है। इस मंदिर के पास से गुजरने वालों के सिर मां के समक्ष अपने आप झुक जाते हैं। माना जाता है कि मां त्रिपुर भैरवी के दर्शन-पूजन से सभी प्रकार के दुःख दूर हो जाते हैं। मां का ऐसा महात्म्य है कि इनके आस-पास का पूरा मोहल्ला त्रिपुर भैरवी के नाम से जाना जाता है। मां त्रिपुर भैरवी का स्थान 10 महाविद्या में 5 वें नंबर का है। कहा जाता है कि मां की अद्भुत प्रतिमा स्वयं भू है। इनके भक्तों को सहज रूप से विद्या प्राप्त होती है। मान्यता के अनुसार मां अपने भक्तों को विद्या के साथ सुख-सम्पत्ति भी प्रदान करती हैं। छोटे से इस मंदिर में मुख्य द्वार के सामने मां की बेहद भावपूर्ण मुद्रा की प्रतिमा स्थापित है जो कि गली से दिखाई देती है। मंदिर परिसर में ही एक तरफ त्रिपुरेश्वर महादेव का शिवलिंग स्थापित है। मंदिर में बड़ा कार्यक्रम कार्तिक मास में अनन्त चतुर्दशी को मां का जन्मोत्सव मनाया जाता है। इस दौरान मां का भव्य वार्षिक श्रृंगार भी किया जाता है। मां का श्रृंगार बेहद आकर्षक ढंग से किया जाता है। वहीं वर्ष में पड़ने वाले दोनों नवरात्र में मां का नौ दिन अलग-अलग ढंग से श्रृंगार किया जाता है। नवरात्र में मां के दर्शन के लिए दर्शनार्थियों की काफी संख्या बढ़ जाती है। जबकि सप्ताह में मंगलवार एवं शुक्रवार को भी मां के दरबार में दर्शनार्थी मत्था टेकते हैं। यह मंदिर सुबह 6 बजे से रात 10 बजे तक खुला रहता है। सुबह की आरती 9 बजे एवं रात की शयन आरती 10 बजे मन्त्रोच्चारण के बीच सम्पन्न होती है। वर्तमान में मंदिर के पुजारी पंडित ओमप्रकाश शास्त्री हैं। कैन्ट स्टेशन से करीब 8 किलोमीटर दूर स्थित इस मंदिर तक पहुचने के लिए गोदौलिया आटो द्वारा पहुंचकर पैदल गलियो में पहुंचा जा सकता है। वहीं इस मंदिर तक मीर घाट होते हुए भी पहुंचा जा सकता है।
नौ दुर्गा
हिन्दुओं में अन्य देवी-देवताओ के साथ जगत-जननी माँ दुर्गा के प्रति असीम आस्था एवं भक्ति है। नवरात्र में नवों दिन लोग माँ दुर्गा की पूजा अर्चना करते हैं। वैसे भारत में नवरात्र पश्चिम बंगाल खासकर कलकत्ता में बड़े ही धूम-धाम से मनाया जाता है लेकिन उत्तर भारत में भी लोग नवरात्र को काफी श्रद्धा भाव से मनाते हैं। इस दौरान नवरात्र के नौ दिन अलग-अलग रूपों में माँ दुर्गा की पूजा की जाती है। काशी में नौ दुर्गा का अलग-अलग स्थान है। शारदीय नवरात्र में माँ के इन रूपों को पूजा होती है।

शैलपुत्री
- नवरात्र के पहले दिन (प्रथमा) को माँ दुर्गा को शैलपुत्री के रूप में पूजा जाता है। शैलपुत्री दर्शन से भक्तों के सारे दुःख, पाप कट जाते हैं। इनकी कृपा होने पर धन संपदा और पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है। इन्हें माँ दुर्गा के शक्ति रूप में भी माना जाता है। माँ शैलपुत्री के दाहिने हाथ में त्रिशूल और बायें हाथ में कमल रहता है। काशी में शैलपुत्री माता का मंदिर अलईपुर मुहल्ले में A 40/11, शैलपुत्री भवन में है नवरात्र के पहले दिन यहाँ दर्शनार्थियों का तांता लगा रहता है।
ब्रह्मचारिणी- नवरात्र के दूसरे दिन (द्वितीया) को माता
ब्रह्मचारिणी की पूजा की जाती है। भक्तों का मानना है कि इनके दर्शन मात्र से रोगों से मुक्ति मिल जाती है और भक्त बलवान व शक्तिशाली हो जाता है। साथ ही इनकी कृपा होने पर हमेशा सफलता मिलती है। इनका पवित्र मंदिर 22/17 दुर्गाघाट मुहल्ले में स्थित है। भक्त दुर्गाघाट में स्नान कर इनका दर्शन करते हैं।
चन्द्रघण्टा- नवरात्र के तीसरे दिन (तृतीया) को माँ दुर्गा के
चन्द्रघण्टा रूप की पूजा होती है। इस रूप को चित्रघण्टा भी कहा जाता है। भक्तों में मान्यता है कि माँ के इस रूप के दर्शन पूजन से नरक से मुक्ति मिल जाती है। साथ ही सुख, समृद्धि, विद्या, सम्पत्ति की प्राप्ति होती है। इनके माथे पर घण्टे के आकार का अर्धचन्द्र बना है। माँ सिंह वाहिनी हैं। इनकी दस भुजाएँ है। माँ के एक हाथ में कमण्डल भी है। इनका भव्य मंदिर CK 33/35 चौक मुहल्ले में स्थित है। नवरात्र में माँ के भक्तों की भीड़ लगी रहती है।
कुष्माण्डा- माँ दुर्गा का चौथा रूप कुष्माण्डा है। नवरात्र के
चौथे दिन (चतुर्थी) को माता के इसी रूप की पूजा विधि विधान से होती है। माँ के इस रूप के दर्शन-पूजन से सारी बाधा, विध्न और दुखों से छुटकारा मिलता है। साथ ही भवसागर की दुर्गति को भी नहीं भोगना पड़ता है। माँ की आठ भुजाएं हैं। इनके सात हाथों में क्रमशः कमण्डल, धनुष, बाण, कमल पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र और गदा है। मां कुष्माण्डा विश्व की पालनकर्ता के रूप में भी जानी जाती हैं। इनका मंदिर D 27/2 दुर्गाकुण्ड मुहल्ले में स्थित है।
स्कन्दमाता- नवरात्र के पांचवें दिन (पंचमी) को माँ दुर्गा के
स्कन्द माता रूप की पूजा होती है। स्कन्द कार्तिकेय का एक नाम है। इनका दर्शन-पूजन करने से सभी दुखों से छुटकारा मिल जाता है। साथ ही भक्त ओजस्वी और तेजस्वी होते हैं। माना जाता है कि स्कन्द माता नगरवासियों की रक्षा करती हैं। स्कन्द माता सिंह वाहिनी हैं। इनकी चार भुजाएँ हैं। दाहिने भुजा में स्कन्द कार्तिकेय को अपनी गोंद में पकड़ी हुए हैं। नीचे भुजा में कमल पुष्प धारण की हैं। बायीं ओर एक हाथ वरद मुद्रा में है तो दूसरी भुजा में कमल फूल पकड़े हुए हैं। स्कन्द माता का मंदिर J 6/33, जैतपुरा मुहल्ले में स्थित है।
कात्यायनी माता- नवरात्र के छठें दिन (षष्ठी) को भक्त माँ के
कात्यायनी माता का दर्शन-पूजन करते हैं। मान्यता है कि कात्यायन ऋषि के आश्रम में उनके तप से माता ने दर्शन दिया था। इसीलिए इनका नाम कात्यायनी पड़ा। माँ के इस रूप का पूजन-अर्चन करने से भक्तों के पाप का नाश होता है। साथ ही माँ आत्मज्ञान प्रदान करती हैं। काशी के अलावा वृन्दावन में भी माता अधिष्ठात्री देवी हैं। माना जाता है कि भगवान कृष्ण को पति के रूप में पाने के लिए गोपियों ने कात्यायनी व्रत रखा था। इनका रूप सोने जैसा है। माँ चतुभुर्जा हैं और इनका वाहन सिंह है। कात्यायनी माता का मंदिर CK 7/158 सिन्धिया घाट मुहल्ले में है। नवरात्र में इस मंदिर में  काफी संख्या में भक्त आते हैं।
कालरात्रि- नवरात्र के सातवें दिन (सप्तमी) को माता कालरात्रि की
पूजा होती है। भक्तों में आस्था है कि उनके दर्शन-पूजन से अकाल मृत्यु नहीं होती है। साथ ही भक्तों की सारी कामनाएँ पूरी हो जाती है। माँ कालरात्रि भक्तों को सुख देने के साथ मोक्ष भी प्रदान करती हैं। माँ कालरात्रि का रूप भयानक है। सिर के बाल बिखरे हैं। गले की माला बिजली की तरह चमकती है। इनके तीन नेत्र हैं। इनके श्वास से अग्नि की ज्वालाएँ निकलती हैं। माँ का वाहन गर्दभ है। इनका मंदिर D 8/3 कालिका गली में स्थित है।
महागौरी- नवरात्र के आठवें दिन (अष्टमी) को माँ दुर्गा के
महागौरी रूप की पूजा होती है। यह रूप काशी की अधिष्ठात्री देवी माता अन्नपूर्णा भी हैं। इनके दर्शन पूजन करने से भक्त कभी दरिद्र नहीं होते। भक्तों पर माँ की असीम अनुकम्पा हमेशा रहती है। जिससे धन संपदा और अन्न की प्राप्ति होती है। महागौरी हमेशा काशी वासियों का कल्याण करती हैं। इनकी कृपा से काशीवासी कभी भूखे नहीं रहते। माँ का रूप पूरी तरह से गौर है माँ की सवारी वृषभ है। इनकी चार भुजाएं हैं। इनकी मुद्रा शांत और सौम्य है। इनके दर्शन के लिए भक्तों की जमकर भीड़ होती है। यह मंदिर अन्नपूर्णा मंदिर में स्थित है।
सिद्धिदात्री माता- नवरात्र के नौवें (नवमी) को व अंतिम दिन
सिद्धिदात्री माँ की पूजा आराधना होती है। इनके दर्शन-पूजन से कलह का शमन होता है। माँ सबकी रक्षा करने के साथ सिद्धि प्रदान करती हैं। माँ के प्रसन्न होने पर भक्तों को आठों सिद्धि मिल जाती है। आठों सिद्धियाँ इस प्रकार है। अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वाशित्व। इनका वाहन भी सिंह है और इन्हें चार भुजाएं हैं। माँ सिद्धिदात्री का मंदिर CK 6/28 बुलानाला में स्थित है।

वासंतिक नवरात्र में माँ दुर्गा के नौ रूप इस प्रकार हैं।
1- मुख निर्मालिका गौरी- वासंतिक नवरात्र के पहले दिन (प्रथमा) को मुखनिर्मालिका गौरी का दर्शन-पूजन किया जाता है। इनका मंदिर गाय घाट क्षेत्र में स्थित है। मान्यता है कि इनके दर्शन से वर्ष भर मंगल और कल्याण होता है।
2-ज्येष्ठा गौरी- वासंतिक नवरात्र के दूसरे दिन (द्वितीया) को ज्येष्ठा गौरी का भक्त दर्शन-पूजन करते हैं। इनका भव्य मंदिर कर्णघण्टा (सप्त सागर) क्षेत्र में स्थित है। इनके दर्शन से भक्तों का सर्व मंगल होता है।
3-सौभाग्य गौरी- वासंतिक नवरात्र के तीसरे दिन (तृतीया) को माँ दुर्गा के सौभाग्य गौरी रूप का दर्शन पूजन होता है। इनका मंदिर ज्ञानवापी परिसर के सत्यनारायण मंदिर में स्थित है। शास्त्रों में माँ के इस रूप के दर्शन-पूजन का विशेष महत्व दिया गया है। गृहस्थ आश्रम में महिलाओं के सुख-सौभाग्य की अधिष्ठात्री गौरी हैं। महिलाए माँ से पति के कल्याण की कामना करती हैं।
4- श्रृंगार गौरी- वासंतिक नवरात्र के चौथे दिन (चतुर्थी) को माँ श्रृंगार गौरी का पूजन अर्चन होता है। इनका मंदिर ज्ञानवापी परिसर में मस्जिद के पीछे हैं। मान्यता है कि इनके दर्शन से महिलाओं का श्रृंगार वर्ष भर बना रहता है।
5-विशालाक्षी गौरी- वासंतिक नवरात्र के पांचवे दिन (पंचमी) को भक्त माँ विशालाक्षी गौरी की पूजा करते हैं। इनका मंदिर मीर घाट के धर्मकूप क्षेत्र में स्थित है। इनकी आराधना करने से सारी मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं। माँ स्त्रियों को संतान प्रदान करती हैं।
6-ललिता गौरी- वासंतिक नवरात्र के छठें दिन (षष्ठी) को ललिता गौरी की पूजा की जाती है। इनका मंदिर ललिता घाट में स्थित है। भक्त ललिता घाट पर स्नान करके माँ का दर्शन-पूजन करते हैं। मान्यता है कि इनके दर्शन से सभी प्रकार का कल्याण होता है। साथ ही सुख शांति की प्राप्ति होती है।
7- भवानी गौरी- वासंतिक नवरात्र के सातवें दिन (सप्तमी) को भवानी गौरी के दर्शन-पूजन का विधान है। माँ का मंदिर विश्वनाथ गली में स्थित माता अन्नपूर्णा मंदिर के निकट राम मंदिर में है। माँ सभी बाधा व आपदाओं को हरने वाली है।
8-मंगला गौरी - वासंतिक नवरात्र के आठवें दिन (अष्टमी) को माँ मंगलागौरी का दर्शन-पूजन होता है। इनका मंदिर बाला घाट स्थित बाला जी मंदिर के पास है। माँ भक्तों का हमेशा कल्याण करती हैं। इनके दर्शन-पूजन से कन्या विवाह की बाधाएँ दूर हो जाती हैं।
9-महालक्ष्मी गौरी- वासंतिक नवरात्र के नौवें दिन (नवमी) को महालक्ष्मी गौरी का दर्शन-पूजन होता है। इनका मंदिर लक्ष्मी कुण्ड का सुप्रसिद्ध लक्ष्मी मंदिर है। मान्यता है कि भूतों में देवी लक्ष्मी रूप में है। गृहस्थों के दर्शन-पूजन से धन सम्पत्ति प्राप्त होती है।

काशी की गौरी मन्दिर
काशी में देवी पूजन की परम्परा में गौरी का भी अपना अलग महत्व है। उनके दर्शन-पूजन से लोग कृतार्थ होते रहे है।

1-  मुखनिर्मालिका गौरी - वासंतिक नवरात्र के पहले दिन (प्रथमा) को मुखनिर्मालिका गौरी का दर्शन-पूजन किया जाता है। इनका मंदिर गाय घाट क्षेत्र में स्थित है। मान्यता है कि इनके दर्शन से वर्ष भर मंगल और कल्याण होता है।
2- ज्येष्ठा गौरी - वासंतिक नवरात्र के दूसरे दिन (द्वितीया) को ज्येष्ठा गौरी का भक्त दर्शन-पूजन करते हैं। इनका भव्य मंदिर कर्णघण्टा (सप्त सागर) क्षेत्र में स्थित है। इनके दर्शन से भक्तों का सर्व मंगल होता है।
3-सौभाग्य गौरी - वासंतिक नवरात्र के तीसरे दिन (तृतीया) को माँ दुर्गा के सौभाग्य गौरी रूप का दर्शन पूजन होता है। इनका मंदिर ज्ञानवापी परिसर के सत्यनारायण मंदिर में स्थित है। शास्त्रों में माँ के इस रूप के दर्शन-पूजन का विशेष महत्व दिया गया है। गृहस्थ आश्रम में महिलाओं के सुख-सौभाग्य की अधिष्ठात्री गौरी हैं। महिलाए माँ से पति के कल्याण की कामना करती हैं।
4-श्रृंगार गौरी - वासंतिक नवरात्र के चौथे दिन (चतुर्थी) को माँ श्रृंगार गौरी का पूजन अर्चन होता है। इनका मंदिर ज्ञानवापी परिसर में मस्जिद के पीछे हैं। मान्यता है कि इनके दर्शन से महिलाओं का श्रृंगार वर्ष भर बना रहता है।
5-विशालाक्षी गौरी - वासंतिक नवरात्र के पांचवे दिन (पंचमी) को भक्त माँ विशालाक्षी गौरी की पूजा करते हैं। इनका मंदिर मीर घाट के धर्मकूप क्षेत्र में स्थित है। इनकी आराधना करने से सारी मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं। माँ स्त्रियों को संतान प्रदान करती हैं।
6-ललिता गौरी - वासंतिक नवरात्र के छठें दिन (षष्ठी) को ललिता गौरी की पूजा की जाती है। इनका मंदिर ललिता घाट में स्थित है। भक्त ललिता घट पर स्नान करके माँ का दर्शन-पूजन करते हैं। मान्यता है कि इनके दर्शन से सभी प्रकार का कल्याण होता है। साथ ही सुख शांति की प्राप्ति होती है।
7-भवानी गौरी - वासंतिक नवरात्र के सातवें दिन (सप्तमी) को भवानी गौरी के दर्शन-पूजन का विधान है। माँ का मंदिर विश्वनाथ गली में स्थित माता अन्नपूर्णा मंदिर के निकट राम मंदिर में है। माँ सभी बाधा व आपदाओं को हरने वाली है।
8- मंगला गौरी - वासंतिक नवरात्र के आठवें दिन (अष्टमी) को माँ मंगलागौरी का दर्शन-पूजन होता है। इनका मंदिर बाला घाट स्थित बाला जी मंदिर के पास है। माँ भक्तों का हमेशा कल्याण करती हैं। इनके दर्शन-पूजन से कन्या विवाह की बाधाएँ दूर हो जाती हैं।
9-महालक्ष्मी गौरी - वासंतिक नवरात्र के नौवें दिन (नवमी) को महालक्ष्मी गौरी का दर्शन-पूजन होता है। इनका मंदिर लक्ष्मी कुण्ड का सुप्रसिद्ध लक्ष्मी मंदिर है। मान्यता है कि भूतों में देवी लक्ष्मी रूप में है। गृहस्थों के दर्शन-पूजन से धन सम्पत्ति प्राप्त होती है।

काशी में प्रमुख रूप से 9 गौरियों के अतिरिक्त 7 गौरियाँ हैं। जिनका भी लोग दर्शन-पूजन करते हैं।

  शांतिकरी गौरी
  अम्बिका गौरी
  पार्वती गौरी
  विरुपाक्षी गौरी
  त्रिलोक सुन्दरी
  विजया भैरवी


मातृकाएं
जगत जननी मां कई रूपों में पूजी जाती हैं। मां का समस्त रूप उनके
भक्तों के लिए कल्याणकारी और सारे दुखों को दूर करने वाला रहा है। मां के कई रूपों में से एक प्रमुख रूप मातृका का भी है। मां के इस रूप का भी श्रद्धालु दर्शन-पूजन कर धन्य होते रहे हैं। मां के यह रूप इस प्रकार है-

ब्राह्मी - ब्राह्मी की मूर्ति
बालमुकुन्द चौहट्टे में मकान नं. डी 33/67 ब्रह्मेश्वर मंदिर में स्थित है। इनके दर्शन-पूजन से ब्रह्मविद्या की प्राप्ति होती है।
माहेश्वरी - इनका मंदिर ज्ञानवापी विश्वनाथ मंदिर के दक्षिण में
नैऋत्य कोण में पीपल के पेड़ के पास है।
ऐन्द्री - ऐन्द्री का मंदिर पहले मणिकर्णिका घाट स्थित तारकेश्वर
के मश्चिम में था। वर्तमान में इस मंदिर का पता नहीं है।
वाराही- इनका मंदिर दाल्भ्येश्वर के पास उत्तर की ओर मकान नं.
16/ 84 में स्थित है।
वैष्णवी- वैष्णवी का मंदिर राज मंदिर के उत्तर में शीतला मंदिर
में है। इस मंदिर का पता मकान नं. 20/19 है।
कौमारी- महादेव के पश्चिम स्कन्देश्वर के पास इनका मंदिर था।
वर्तमान में यह मंदिर वहां नहीं है।
चामुण्डा- चामुण्डा का मंदिर भदैनी स्थित लोलार्क कुण्ड के पास
अर्क विनायक मंदिर में है।
चर्चिका - चर्चिका का मंदिर ब्रह्मचारिणी दुर्गा से मंगलागौरी
जाने वाले रास्ते में मकान नं. 23/72 में स्थित है।
विकटा- लोग विकटा की पूजा संकटा देवी के नाम से करते हैं। इनका
मंदिर आत्मवीरेश्वर के उत्तर एवं चन्द्रेश्वर के पूर्व में है।

काशी की चण्डी माता
देवी का एक रूप चण्डी का भी है। मान्यताओं के अनुसार माँ चण्डी
दुष्टों का संहार करती हैं। जिससे उनके भक्तों की रक्षा होती है। काशी में पूर्व में 9 चण्डी थीं लेकिन वर्तमान में 7 चण्डियों का स्थान ज्ञात है।

1 दुर्गा - दुर्गा का मन्दिर दुर्गाकुण्ड में स्थित है। इस मंदिर
में हर समय दर्शनार्थियों की भीड़ लगी रहती है। भादो माह में 5 दिवसीय भव्य संगीत कार्यक्रम का आयोजन होता है। जिसमें प्रसिद्ध लोक गायक कलाकार मनोज तिवारी, मालिनी अवस्थी, महुआ बनर्जी समेत अन्य अपनी प्रस्तुति देते हैं। इस दौरान मंदिर को आकर्षक ढंग से सजाया जाता है।
2. अंगारेशी - अंगारेशी चण्डी का मंदिर गोवावाई कुंड पर स्थित
है। यहाँ भी श्रद्धालु दर्शन-पूजन के लिए आते रहते हैं।
3- भद्रकाली - भद्रकाली का मंदिर मध्यमेश्वर मंदिर के पास स्थित
है।
4- भीमचण्डी - भीमचण्डी का मंदिर सदर बाजार क्षेत्र में स्थित
है। इस मंदिर में भी दर्शन-पूजन करने के लिए श्रद्धालुओं की आवा-जाही लगी रहती है।
5- महामुण्डा - महामुण्डा देवी का मंदिर ऋणमोचन मंदिर के दक्षिण
में स्थित है।
6- शांकरी - शांकरी देवी का मंदिर वरुणा संगम के पास है। यहां भी
काफी संख्या में श्रद्धालु आते रहते हैं।
7- चित्रघण्टा - चित्रघण्टा देवी का मंदिर रानी कुंआ क्षेत्र में
स्थित है।

एक और चण्डी जिनका उल्लेख है वह है शिखीचण्डी इनका मंदिर
महालक्ष्मी के पास स्थित है।

योगिनी
देवाधिदेव महादेव की नगरी काशी में देवी के दर्शन पूजन की
परम्परा भी रही है। जिसमें कई देवियों की आराधना काशीवासी करते हैं। इसमें योगिनी प्रमुख हैं। काशी में चौसठ योगिनी हैं लेकिन वर्तमान में कुछ योगीनियों के स्थान ज्ञात हैं।

काशी में गजानना, हयग्रीवा, वाराही, मयूरी, विकटानना, विकट लोचना, काली, उर्ध्वद्रिका, शुकिका, तापिनी/तारा, शोषणदृष्टि, अट्टहास, कामाक्षी और मृगलोचना समेत
64 योगनियां थीं।
काशी की
64 योगनियों में से 60 का स्थान चौसट्टी घाट स्थित राणा महल में है। जहां वर्तमान में मात्र 5 योगिनियों की मूर्तियां ही शेष बची हैं।
'वाराही' योगिनी का स्थान काशी में मीर
घाट पर है। भक्त यहां हर समय दर्शन-पूजन करने आते हैं। 'मयूरी' का मंदिर लक्ष्मीकुण्ड पर स्थित है।
'शुकिका' का मंदिर डौड़ियावीर स्थान पर
है।
'कामाक्षी' योगिनी का मंदिर कमच्छा
मुहल्ले में स्थित हैं।



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बनारस शिव से कभी मुक्त नही, जब से आये कैलाश न गये। बनारसी की मस्ती को लिखा नही जा सकता अनुभव होता है। अद्भूद है ये शहर जिन्दगी जीनेका तरीका कुछ ठहरा हुआ है पर सुख ठहराव में है द्रुतविलंबित में नही. मध्यम में है इसको जीनेवाला है यह नगर। नटराज यहां विश्वेश्वर के रुप में विराजते है इसलिये श्मशान पर भी मस्ती का आलम है। जनजन् शंकरवत् है। इस का अनुभव ही आनन्द है ये जान कर जीना बनारस का जीना है जीवन रस को बना के जीना है।
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काल हर !! कष्ट हर !! दुख हर !! दरिद्र हर !! हर हर महादेव !! ॐ नमः शिवाय.. वाह बनारस वाह !!