काशी के शिव मन्दिर

काशी यानी देवों के देव महादेव की नगरी। माना जाता है कि काशी भगवान शिव के त्रिशूल पर टिकी हुई है। इस पावन नगरी को भगवान शिव कभी छोड़कर नहीं जाते। यहां हर गली मोहल्ले में भगवान शिव शिवलिंग रूप में विद्यमान हैं।

विश्वेश्वर (विश्वनाथ मंदिर)- 'हर-हर महादेव शम्भो काशी विश्वनाथ गंगेकाशी में प्रवेश करते ही धार्मिक प्रवृत्ति वाले हिन्दुओं के मुंह से यह सूक्त वाक्य बरबस ही निकल पड़ता है। तमाम श्रद्धालुओं के मन में बाबा विश्वनाथ के प्रति आस्था हिलोरें मारने लगती हैं। काशीवासियों के लिए तो विश्वनाथ जी कण-कण में समाये हुए हैं। अमूमन जब दो बनारसी मिलते हैं तो हर-हर महादेव के उद्घोष के साथ अभिवादन करते हैं। वहींइसे बाबा विश्वनाथ की महिमा कहा जाये या महात्म्य बाहर से काशी आने वाले लोगों की प्राथमिकता में बाबा का दर्शन प्रमुख होता है। माना जाता है कि बाबा विश्वनाथ के दर्शन से जन्म-जन्मांतर का बंधन छूट जाता है मनुष्य सभी पापों से मुक्त हो जाता है और शरीर शुद्ध हो जाता है। बाबा दरबार से करीब एक दो किलोमीटर की परिधि में ऐसा लगता है जैसे माहौल पूरी तरह से शिवमय हो गया है सभी दिशाओं से लगभग एक ही स्वर कानों में मिश्री की तरह घुलता रहता है वह है ओम नमः शिवाय-ओम नमः शिवाय और लोग बाबा के दर्शन के लिए व्याकुल रहते हैं। बाबा विश्वनाथ को ही विश्वेश्वर कहा जाता है। काशी के सर्वोच्च पदासीन संचालक के रूप में विश्वेश्वर ही हैं। भारत के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक काशी विश्वनाथ हैं। पुराणों के अनुसार विश्वनाथ जी ही लिंगअधिपति हैं एवं पंचक्रोशी यात्रा में पड़ने वाले प्रधान हैं। भगवान शिव को काशी अति प्यारी है। इसलिए भोलेनाथ काशी को छोड़कर कभी नहीं जाते। इस पर एक दोहा भी प्रचलित है जिसे काशीवासी अक्सर दुहाराते रहते हैं।

चना चबैना गंग जल जो पुरवै करतार। 
काशी कबहुं न छोड़िये विश्वनाथ दरबार।।

भगवान शिव का वास और पतित पावनी मां गंगा का प्रवाह काशी को स्वर्ग से भी अधिक सुंदर और पवित्र बना देता है। मान्यता के अनुसार 6वीं शताब्दी में जब गुप्तवंश का शासन था उसी समय विश्वेश्वर के प्रचीन शिवायतन की स्थापना हुई थी जो बाद में कालचक्र प्रवाह में लुप्त हो गया। जिसके काफी समय बाद 14वीं शताब्दी में इस शिवायतन का पुनर्निर्माण कराया गया। विदेशी शासकों का जब भारत पर प्रभुत्व हुआ तो उसका प्रभाव धर्म और मंदिरों पर भी पड़ा। जौनपुर के शर्की बादशाहों ने 1436-1448 के मध्य विश्वनाथ मंदिर को तोड़वा दिया। जिसके मलबे से जौनपुर की बड़ी मस्जिद का निर्माण कराया गया। बाद में मुगल शासक अकबर के शासनकाल में हुए राजा टोडरमल के समय में पंनारायण भट्ट ने विश्वनाथ मंदिर निर्माण कर शिवलिंग की स्थापना कराया। लेकिन जब कट्टर मुगल शासक औरंगजेब गद्दी पर बैठा तो उसने हिन्दुओं की आस्था यानी मंदिरों पर कुठाराघात करना शुरू कर दिया। औरंगजेब की धार्मिक अहिष्णुता का खौफनाख प्रभाव काशी के मंदिरों पर भी पड़ा। मंदिर ध्वस्त करने के क्रम में औरंगजेब के निर्देश पर 2 सितम्बर 1669 को काशी विश्वनाथ मंदिर ध्वस्त कर दिया गया। मान्यता के अनुसार उस दौरान शिव ज्ञानवापी के पास स्थित कुंए में कूद पड़े थे। ऐसे में श्रद्धालु इसी कुंए में भगवान शिव का जलाभिषेक किया करते थे। वहींएक किंवदंती के अनुसार यहां के पंडों ने बाबा विश्वनाथ को कुंए से निकाल लिया था। बाद में बाबा विश्वनाथ की अनुकंपा से इंदौर की महारानी अहिल्या बाई होल्कर ने 1777 में वर्तमान विश्वनाथ जी के मंदिर का निर्माण करवाया। महारानी के मुख्य पुरोहित जयराम शर्मा की अगुवाई में जन्माष्टमी के दिन सोमवार 25 अगस्त 1777 को इस मंदिर की स्थापना हुई। आंकड़ों के अनुसार मंदिर निर्माण में उस वक्त 3 लाख रूपये की लागत लगी थी। भले ही विश्वनाथ जी का मंदिर स्थापत्य कला की कसौटी पर सामान्य हो लेकिन खगोलीय दृष्टि का बोजोड़ उदाहरण है। प्रसिद्ध यात्री जेम्स प्रिंसेप ने विश्वनाथ मंदिर की खगोलीय व्याख्या प्रस्तुत की। जिसके अनुसार मंदिर का मुख्य अन्तःक्षेत्र 108 फीट (32.92मीटर) के चौकोर चौक (प्लेटफार्म) पर बना है। जिसका हर किनारा सांस्कृतिक खगोलीय प्रारूप को दर्शाता है। मंदिर का 27 चंद्र नक्षत्रों का द्योतक है एवं 108 ब्रह्माण्डीय समन्वयक संख्या 12 राशियोंमास एवं 9 ग्रहों का गुणनखंड है। मंदिर निर्माण में खगोलशास्त्र का कितनी बारीकी से प्रयोग किया गया है इसका प्रमाण आधार अष्टपद विन्यास को देखने से मिलता है। मंदिर के पूर्व से दक्षिण की ओर ज्ञान मण्डपतारकेश्वर मण्डपमुक्ति मण्डपदण्डपाणि मण्डपश्रं'गार मण्डपगणेश मण्डपऐश्वर्य मण्डप एवं भैरव मण्डप है। इस विन्यास के केन्द्र में 8 गुणे 8 ग्रिड के फलक का 64 समूह है। जिसे बाबा विश्वनाथ का प्रवित्र क्षेत्र कहा जाता है। पूर्णतया पत्थरों से निर्मित इस मंदिर का शिखर भगवान शिव के त्रिशूल की आकृति सा प्रतीत होता है। मध्य शिखर पर स्वर्ण कलश जबकि पहले पर दण्डपाणिश्वर शिव एवं सबसे उपर भगवान शिव का ध्वज है जो दूर से ही दिखाई देता है। शिखर की उंचाई 51 फीट है। मंदिर के द्वार पर नौबतखाना भी है जिसका निर्माण वारेन हेस्टिंग्स एवं अली इबाहिम खां के निर्देश पर सन् 1880 में किया गया। महाराजा नेपाल ने मंदिर में एक घण्टा दान दिया था। मंदिर का आकर्षण उस समय और बढ़ गया जब 1839 में लाहौर के महाराजा रणजीत सिंह ने शिखर पर सोने की चादर चढ़वाया। जिसका आधार तांबे का है। माना जाता है कि करीब 2.5 मन सोना सोने की पर्त में प्रयोग किया गया है। मंदिर के शिखर पर जब सूर्य की रोशनी का मिलन होता है तो पूरा मंदिर चमक उठता है। इस दौरान ऐसा लगता है जैसे सूर्यदेव बाबा विश्वनाथ का दर्शन करने आये हैं। जहां शिव हों वहां नंदी बैल निश्चित ही रहेगा। बाबा विश्वनाथ मंदिर में गर्भगृह के ठीक सामने नंदी बैल है। जिसे नेपाल नरेश ने स्थापित करवाया था। वैसे तो बाबा का दर्शन-पूजन करने हर समय देश भर से श्रद्धालु आते रहते हैं लेकिन सावन माह और महाशिवरात्रि पर तो मंदिर से लेकर गोदौलिया चौराहे तक दर्शन करने के लिए श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है। बाबा के प्रति श्रद्धा का ऐसा भाव रहता है कि सावन महीने में भक्त जलाभिषेक करने के लिए कई घंटे कतारों में खड़े रहते हैं। हाथों में गंगाजल लिए श्रद्धालु बाबा विश्वनाथ का दर्शन पाने के लिए आतुर हरते हैं। वहीं सावन के सोमवार को तो जैसे आस्था का सैलाब बाबा विश्वनाथ के दर्शन के लिए उमड़ पड़ता है। इस दौरान कावंरियों सहित लाखों श्रद्धालु दुग्धाभिषेक व जलाभिषेक कर धन्य हो जाते हैं। इसी तरह से महाशिवरात्रि पर्व पर भी बाबा का दरबार भक्तों से पट जाता है। शहर में ऐसा लगता है जैसे सभी लोग बाबा विश्वनाथ का दर्शन करने ही जा रहे हैं। प्रतिदिन बाबा विश्वनाथ का अभिषेक सुबह एवं शाम को गंगाजल से किया जाता है। शाम की झांकी बेहद ही आकर्षित करने वाली होती है। यह झांकी फूलचन्दन एवं सुगन्धित पदार्थों से सजायी जाती है। इस दौरान पण्डितों द्वारा मंत्रोच्चारण किया जाता है। जिसे देखने के लिए काफी संख्या में श्रद्धालु मंदिर में पहुंचते हैं। इस मौके पर बाबा को भांगपान एवं अन्य पदार्थों का चढ़ावा चढ़ाया जाता है। सर्दी के मौसम में बाबा को साल और जरी के चद्दर से रात्रि का शयन कराया जाता है। रोजाना अगस्तकुण्ड मोहल्ले से घड़ों में गंगाजल भरकर लाया जाता है जिसमें दो घड़ों में दूध रहता है। इसी जल से गर्भगृह को धोया जाता है। बाबा का दरबार प्रातः तीन बजे खुलता है। इस दौरान 3 से 4 बजे तक भव्य मंगला आरती होती है। मंगला आरती होने से लेकर दिन में 11 बजे तक भक्त गर्भगृह में बाबा का दर्शन करते हैं। वहीं दिन में 11 से 12 बजे तक गर्भगृह के बाहर से दर्शन होता है। बाबा की भोग आरती दिन में 12 बजे होती है। शाम को 7 बजे संध्या आरती आयोजित होती है। रात 9 बजे श्रृंगार आरती एवं साढ़े 10 बजे शयन आरती की जाती है। आरती मंदिर के महंत कराते हैं जिसमें बहुत से पंडित सम्मिलित होते हैं। सुरक्षा की दृष्टि से अतिसंवेदनशील मंदिर परिसर में पुलिस अधीक्षक ज्ञानवापी तमाम पुलिसकर्मियों सहित केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल के जवान हर पल तैनात रहते हैं। कैंट से करीब 6 किलोमीटर दूर शहर के मध्य में बाबा विश्वनाथ का भव्य मंदिर स्थित है। आटो या रिक्शा के जरिये गोदौलिया चौराहे पर पहुंचकर सीधे पैदल कुछ मीटर चलने पर बांयी ओर विश्वनाथ गली है। गली से होते हुए करीब 1 किलोमीटर चलने पर बाबा विश्वनाथ का दरबार स्थित है। मुख्य मंदिर तक पहुंचने के लिए कई गेट हैं जहां पुलिस के जवान चेकिंग करते रहते हैं। बाबा के दर्शन के लिए ऑनलाइन बुकिंग भी होती है। मंदिर के प्रबंधन के लिए कार्यपालक समिति भी गठित की गयी है जिसके चेयरमैन मण्डलायुक्त हैं। वहींसमिति में जिलाधिकारी वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक एवं अन्य अधिकारी शामिल हैं। साथ ही विश्वनाथ मंदिर न्यास भी है जिसके अध्यक्ष वर्तमान में अशोक द्विवेदी हैं। मंदिर कार्यप्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन के लिए अक्सर कार्यपालक समिति एवं मंदिर न्यास की बैठक होती है। जनवरी 2014 में हुई बैठक के दौरान निर्णय लिया गया कि मंदिर के पुजारी एवं सेवादार जल्द ही वैदिक परिधानों में नजर आयेंगे। विश्वनाथ गली धार्मिक वस्तुओं के विक्रय का भी एक बड़ा केन्द्र है। गली में रूद्राक्ष की माला से लेकर सभी प्रकार की धार्मिक वस्तुएं मिल जाती हैं। देश के जाने माने नेताअभिनेता और उद्योगपति अक्सर बाबा दरबार में मत्था टेकने आते रहते हैं।

मृत्युंजय महादेव
काशी में भगवान शिव के विभिन्न नामों से स्थापित महत्वपूर्ण शिवलिंगों में मृत्युंजय महादेव का भी स्थान है। धार्मिक आस्था के केन्द्र में भगवान शिव काशी के सर्वोच्च संचालक हैं। इस प्राचीन शहर में बाबा विश्वनाथ के बाद मृत्युंजय महादेव की भी दूर-दूर से श्रद्धालु दर्शन-पूजन करने आते हैं। कहा जाता है कि मृत्यंजय महादेव के दर्शन से अकाल मृत्यु नहीं होती है। बाबा अपने भक्तों की रक्षा स्वयं करते हैं। मान्यता के अनुसार मृत्युंजय महादेव स्वयंभू शिवलिंग हैं। इनके भक्तों को कभी भय नहीं सताता क्योंकि अपने भक्तों की रक्षा स्वयं ये करते हैं। वर्तमान में जिस स्थान पर मृत्युंजय महादेव का मंदिर स्थित है वहां प्राचीन काल में वन था। जंगल के बीच भक्त मृत्युंजय महादेव के दर्शन पूजन करने आते थे। बाद में भक्तों के सहयोग से वर्तमान भव्य मंदिर का निर्माण किया गया। विशाल मंदिर परिसर में घुसते ही बायीं ओर मृत्युंजय महादेव हैं। इनका दर्शन सड़क से भी किया जा सकता है क्योंकि गर्भगृह में लगी खिड़कियों से मृत्युंजय महादेव को आसनी से देखा जा सकता है। इस मंदिर में महाशिवरात्रि पर्व पर बड़ा आयोजन होता है। जिसकी तैयारी एक दो दिन पहले से ही शुरू कर दी जाती है। महाशिवरात्रि वाले दिन तो भोर से ही भक्तों की कतार लग जाती है। गर्भगृह की साफ-सफाई के बाद भक्तों के जलाभिषेक करने का क्रम शुरू हो जाता है जो देर रात तक चलता रहता है। इस दौरान बाबा का रूद्राभिषेक भी किया जाता है। साथ ही रात्रि में महाआरती का आयोजन वैदिक मन्त्रोच्चारण के साथ होता है। पूरा मंदिर परिसर इस दिन हर-हर महादेव के उद्घोष से गुंजायमान रहता है। इसी तरह सावन माह में भी मंदिर में काफी संख्या में आम भक्तों के अलावा कावंरिया जलाभिषेक करने पहुंचते हैं। वहीं सावन के प्रत्येक सोमवार को बाबा का अलौकिक श्रृंगार किया जाता है। मृत्युंजय महादेव मंदिर में कई और देवी-देवताओं की मूर्तियां हैं। जिनका धार्मिक रूप से बहुत महत्व है। इस मंदिर परिसर में एक और खास बात है। यहां एक ऐतिहासिक कूप है जिसे धनवन्तरी कूप कहा जाता है। कहा जाता है कि आयुर्वेद के जनक धनवन्तरी ने इस कूप में विभिन्न प्रकार की औषधियों का मिश्रण कर दिया था। जिससे इस कूप का जल अमृत के समान हो गया। मान्यता के अनुसार धनवन्तरी कूप के औषधियुक्त जल को पीने से कई प्रकार के रोगों से मुक्त रहा जा सकता है। यह मंदिर दर्शनार्थियों के लिए प्रातःकाल 4 से रात 12 बजे तक खुला रहता है। मृत्युंजय महादेव की आरती प्रातःकाल साढ़े 5 बजे सायं आरती साढ़े 6 बजे एवं शयन आरती रात साढ़े 11 बजे सम्पन्न होती है। इनका प्रसिद्ध मंदिर के 52/39 दारानगर विश्वेश्वरगंज में स्थित है। इन्हीं के पास काशी के कोतवाल कहे जाने वाले बाबा कालभैरव का मंदिर भी है। कैंट स्टेशन से करीब 7 किलोमीटर दूर इस मंदिर तक पहुंचने के लिए ऑटो द्वारा मैदागिन चौराहे पर पहुंचकर पैदल जाया जा सकता है।

पशुपतिनाथ मंदिर
वैसे तो पशुपतिनाथ का प्रसिद्ध मंदिर नेपाल में स्थित है लेकिन उस मंदिर का प्रतिरूप मंदिर वाराणसी में भी है। इस मंदिर की खासियत यह है कि जैसा नेपाल में पशुपतिनाथ का मंदिर है बिल्कुल उसी शैली का काशी का मंदिर भी है। स्थापत्य कला की दृष्टि से बेहतरीन यह मंदिर काफी प्राचीन है। इस मंदिर को देखने से ऐसा एहसास होता है जैसे नेपाल के किसी मंदिर में मौजूद हैं। अपने आप में यह मंदिर काशी के अन्य शिव मंदिरों से बिल्कुल भिन्न है। नेपाली लकड़ी के प्रयोग से निर्मित यह मंदिर लोगों को खूब आकर्षित करता है। मंदिर के भीतर गर्भगृह में पशुपतिनाथ के रूप में शिवलिंग स्थापित हैं। माना जाता है कि काशी के इस पशुपतिनाथ के दर्शन से वही फल प्राप्त होता है जो नेपाल के पशुपतिनाथ के दर्शन से होता है। इस मंदिर का निर्माण नेपाल के राजा राजेन्द्र वीर विक्रम साहा जो कि धार्मिक प्रवृत्ति के थे ने पशुपतिनाथ के आशीर्वाद से सन् 1843 में ललिता घाट पर कराया था। मंदिर का निर्माण नेपाल से आये कारीगरों ने किया था। मंदिर निर्माण में प्रयोग की गयी लकड़ी को भी राजा ने नेपाल से ही मंगवाया था। कारीगरों ने मंदिर में लगायी गयी लकड़ी पर बेहतरीन नक्काशी उभारा। मंदिर के चारो तरफ लकड़ी का दरवाजा होने के साथ भित्ती से लेकर छत तक सबकुछ लकड़ी से बनाया गया है। इन लकड़ियों पर विभिन्न प्रकार की कलाकृतियां उभारी गयी हैं। जो देखने में बेहद आकर्षित करती हैं। वहीं इन लकड़ियों पर कई जगह कामसूत्र की वैसी ही आकृतियां बनायी गयी हैं जैसी खजुराहो के मंदिरों पर बनी हैं। काशी में इस तरह की आकृति सम्भवतः इसी मंदिर पर है। मंदिर के बाहर एक बड़ा सा घण्टा भी है। वहीं दक्षिण द्वार के बाहर पत्थर का नंदी बैल भी है। पशुपतिनाथ का यह मंदिर सुबह साढ़े 4 बजे खुलता है जो दोपहर 12 बजे तक खुला रहता है। वहीं पुनः मंदिर सायं 3 बजे से रात 8 बजे तक खुला रहता है। मंदिर में आरती सुबह 5 बजे एवं शाम को साढ़े 6 बजे सम्पन्न होती है। शाम की आरती में मौसम के अनुसार कुछ फेरबदल भी होता रहता है। सप्ताह के प्रत्येक सोमवार को मंदिर में पशुपतिनाथ जी का रूद्राभिषेक होता है। साथ ही महाशिवरात्रि में भी पशुपतिनाथ जी का अभिषेक होता है। इस दिन दर्शन-पूजन के लिए काफी संख्या में श्रद्धालु मंदिर में पहुंचते हैं। अन्य अवसरों पर स्थानीय लोगों से ज्यादा नेपाली श्रद्धालु इस मंदिर में दर्शन-पूजन के लिए अधिक आते हैं। मंदिर की देख-रेख के लिए नेपाल सरकार आर्थिक सहायता प्रदान करता है। इस मंदिर के पुजारी जीवन पौड़िल हैं। कैंट से करीब 6 किलोमीटर दूर यह मंदिर ललिता घाट पर डी 1/64 में स्थित है।

विश्वनाथ मन्दिर (काशी हिन्दू विश्वविद्यालय)
वाराणसी के सर्वोच्च संचालक बाबा विश्वनाथ के मुख्य मंदिर के अलावा यहां उनका एक और मंदिर बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय परिसर में स्थित है जिसे नये विश्वनाथ जी या बिरला मंदिर कहा जाता है। मां सरस्वती के तपस्थली यानी बी0एच0यूमें स्थापित नये विश्वनाथ जी के मंदिर में छात्रों के अलावा काशी दर्शन करने आने वाले ज्यादातर श्रद्धालु भी आते हैं। स्वच्छताहरियाली और वृक्षों के बीच स्थित इस मंदिर का शिखर बहुत उंचा है। काफी बड़े परिसर में स्थित बिरला मंदिर दो मंजिला है इसका निर्माण संगमरमर के पत्थरों से किया गया है। इस मंदिर का निर्माण देश के जाने माने उद्योगपति बिरला घराने के राजा बिरला ने कराया है। शिव जी का यह भव्य मंदिर 1965 में बनकर तैयार हुआ। इस मंदिर की कल्पना बी0एच0यूके संस्थापक स्वयं पंमदन मोहन मालवीय जी की थी। जिसे मूर्त रूप दिया बिरला परिवार ने। मंदिर जितना बाहर से देखने में खूबसूरत लगता है उससे ज्यादा परिसर के भीतर की बनावट है। बी0एच0यूविश्वविद्यलय के मध्य में स्थित इस मंदिर का शिखर दूर से ही दिखाई देता है। बिरला मंदिर के चारो ओर हरा-भरा उद्यान है जिससे मंदिर की सुन्दरता में चार चांद लग जाता है। मंदिर के गर्भगृह में शिवलिंग स्थापित किया गया है। मंदिर परिसर में पंचमुखी शिव प्रतिमाहनुमान जी की प्रतिमामां पार्वती एवं सरस्वती जी की प्रतिमा है। इसके अलावा नटराज की मूर्ति भी स्थापित है। मंदिर के दूसरे तल पर शिव जी की ध्यान की मुद्रा में स्थापित प्रतिमा है। इस प्रतिमा के दाहिनी ओर मां दुर्गा की प्रतिमा एवं बायीं ओर भगवान विष्णु और मां लक्ष्मी की प्रतिमा है। मंदिर प्रांगण में दाहिनी ओर यज्ञशाला स्थित है जिसके बगल में शिवलिंग को निहारती नंदी की प्रतिमा है। शिवरात्रि के दिन बी0एच0यूके कुलपति नये विश्वनाथ जी पहुंचकर जलाभिषेक कर दर्शन-पूजन करते हैं। इस मौके पर काफी संख्या में भक्त बिरला मंदिर पहुंचते हैं। यह मंदिर दर्शनार्थियों के लिए प्रातःकाल 4 से दोपहर 12 बजे तक फिर पुनः दोपहर 1 से रात 9 बजे तक मंदिर खुला रहता है। वहीं शिवरात्रि सहित बड़े त्यौहारों पर मंदिर सुबह 4 से रात 12 बजे तक खुला रहता है। मंदिर में आरती सुबह 4 बजे फिर पौन 5 बजे दिन में पौने 12 बजे फिर दोपहर 1 बजे शाम को पौने 7 बजेसाढ़े 7 बजे और पौने 9 बजे आरती होती है। वहींहर सोमवार को सुबह 7 से 8 बजे के बीच में बाबा का रूद्राभिषेक किया जाता है। कैंट स्टेशन से करीब 7 किलोमीटर दूर बी0एच0यूकैंपस में स्थित इस मंदिर तक ऑटो द्वारा पहुंचा जा सकता है।
ओकारेश्वर
भगवान शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग है। काशी में यह ज्योतिर्लिंग ओंकारेश्वर में है। नाड़ी शास्त्र के स्वर के अनुसार ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग अकारमकार और ऊकार का सूचक है। काशी खंड के अनुसार इसी लिंग का नाम कपिलेश्वर और नादेश्वर भी है। इनके दर्शन-पूजन से सभी लिंगों की पूजा का फल मिल जाता है। वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को इनकी वार्षिक पूजा और श्रृंगार किया जाता है। इस दौरान काफी संख्या में श्रद्धालु जुटते हैं। साथ ही पूरा माहौल हर-हर महादेव के जयघोष से गूंज उठता है।
कालेश्वर
कालेश्वर लिंग द्वादश ज्योतिर्लिंग में से एक उज्जैन के महाकालेश्वर का प्रतीक हैं। इनका मंदिर वृद्धकाल महामृत्युंजय पर स्थित है। मान्यता के अनुसार यह लिंग महामृत्युंजय रूप हैं। इनकी पूजा से रोगों से छुटकारा और अपमृत्यु का निवारण होता है।
केदारेश्वर
केदारेश्वर का नाम आते ही हिमालय के केदारनाथ की कल्पना अन्तः करण में बनने लगती है। जिनके दर्शन के लिए हर वर्ष हजारों श्रद्धालु जाते हैं। जिनका बहुत महात्म्य है। प्राचीन काल में काशी के राजा मान्धाता भी हर वर्ष केदारनाथ जाकर दर्शन-पूजन करते थे। राजा की केदारनाथ में असीम विश्वास एवं श्रद्धा थी। दर्शन करते-करते राजा मान्धाता वृद्धावस्था में पहुंच गये। उनका स्वास्थ्य खराब हो गया। जिसकी वजह से राजा केदारनाथ का दर्शन करने नहीं जा सके। इसका राजा मान्धाता को बहुत कष्ट हुआ। दर्शन न करने से व्यथित राजा भगवान शिव को भोग लगाने के लिए खिचड़ी बनाकर विलाप करने लगे। मान्यता के अनुसार उसी खिचड़ी में से भगवान शिव प्रकट हुए और राजा को वरदान दिया और नित्य दर्शन देने के लिए खिचड़ी के स्वरूप में ही शिवलिंग बन गये। तभी गौरी केदारेश्वर शिवलिंग अन्य शिवलिंगों से अलग थाली में रखी गयी खिचड़ी के आकार का प्रतीत होता है। एक अन्य कथा के अनुसार वशिष्ट नामक पाशुपत के वृद्ध होने पर उनके वरदान में केदार प्रकट हुए। कहा जाता है कि काशी में केदारेश्वर 15 कला में विराजमान हैं कि इनके दर्शन से विश्वनाथ जी के दर्शन का फल प्राप्त होता हैं। कहा गया है कि केदार के अन्तर्गृह में मरने वालों को भैरवी यातना नहीं होती। वहीं हिमालय के केदारनाथ के दर्शन से अधिक काशी के केदारेश्वर के दर्शन से पुण्य प्राप्त होता है। गौरी केदारेश्वर का मंदिर केदारघाट के बिल्कुल ऊपर है। मंदिर का द्वार ठीक गंगा जी के सामने खुलता है। मंदिर के सामने घाट पर गौरी कुण्ड भी है। बारिश के मौसम में जब गंगा का पानी बढ़ता है तो कुण्ड भर जाता है। मंदिर में बड़ा आयोजन महाशिवरात्रि पर्व पर होता है। इस दिन बाबा की 8 बार पूजा होती है एवं रात्रि 12 बजे महाभिषेक होता है। बाबा का वार्षिक श्रृंगार मकर संक्रांति पर्व पर होता है। हर महीने त्रयोदशी तिथि पर मंदिर में प्रदोष की पूजा होती है। इस दौरान लकड़ी के बने नंदी बैल पर शिव पार्वती की प्रतिमा को बैठाकर गर्भगृह की तीन बार प्रदक्षिणा करायी जाती है। मंदिर के पुजारी धुर्लीपार्ली नारायण शास्त्री बताते हैं कि इस मंदिर को भी नुकसान पहुंचाने का मुस्लिम शासकों ने प्रयास किया था। गर्भगृह के बाहर स्थित नंदी बैल को तोड़ने की कोशिश हुई थी। जिसका निशान आज भी नंदी बैल पर मौजूद है। लेकिन बाबा के प्रभाव से सैनिक मंदिर को नुकसान नहीं पहुंचा सके।
मंदिर में बाबा की 4 बार आरती होती है। मंदिर भोर में साढ़े 3 बजे से रात्रि 10 बजे तक खुला रहता है। इस दौरान आरती प्रातः काल साढ़े 4 बजे फिर दिन में 10 बजेसायंकाल साढ़े 4 बजे एवं रात्रि 9 बजे मन्त्रोच्चारण और घण्ट घड़ियाल नगाड़े के साथ होती है। आरती शुरू होने से पहले करीब आधा घंटा गर्भगृह बंद रहता है। कदरेश्वर शिवलिंग के अलावा मंदिर परिसर में में कई अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियां स्थापित हैं। जिनमें गणेश जी की काले रंग की प्रतिमा के अलावा गौरीकार्तिकेयदण्डपाणि भैरोनाथविनायक सहित शिव जी के अनन्य भक्त चण्डकेश्वर की प्रतिमा भी स्थापित है। मंदिर में पूजा-पाठ कुमार स्वामी मठ की ओर से होता है। चूंकि मंदिर में पूजा-पाठ की जिम्मेदारी दक्षिण भारतीय कुमार स्वामी मठ की ओर से होता है इसलिए यहां काफी संख्या में दक्षिण के दर्शनार्थी दर्शन पूजन के लिए पहुंचते हैं। कैंट से आटो अथवा रिक्शा से सोनारपुरा पहुंचकर पैदल या रिक्शा द्वारा करीब पांच सौ मीटर भीतर गली में जाने पर यह पवित्र मंदिर तक पहुंचा जा सकता है। वहींहरिश्चन्द्र घाट से होते हुए भी केदारघाट नजदीक है जहां से मंदिर में दर्शन पूजन के लिए आसानी से जाया जा सकता है।

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बनारस शिव से कभी मुक्त नही, जब से आये कैलाश न गये। बनारसी की मस्ती को लिखा नही जा सकता अनुभव होता है। अद्भूद है ये शहर जिन्दगी जीनेका तरीका कुछ ठहरा हुआ है पर सुख ठहराव में है द्रुतविलंबित में नही. मध्यम में है इसको जीनेवाला है यह नगर। नटराज यहां विश्वेश्वर के रुप में विराजते है इसलिये श्मशान पर भी मस्ती का आलम है। जनजन् शंकरवत् है। इस का अनुभव ही आनन्द है ये जान कर जीना बनारस का जीना है जीवन रस को बना के जीना है।
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काल हर !! कष्ट हर !! दुख हर !! दरिद्र हर !! हर हर महादेव !! ॐ नमः शिवाय.. वाह बनारस वाह !!