भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के बनारस से लोकसभा का चुनाव लड़ने की घोषणा के बाद से इस चुनाव के संदर्भ में बनारस सर्वाधिक चर्चित चुनाव क्षेत्र हो चुका है.
आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार अरविन्द केजरीवाल के मोदी के ख़िलाफ़ खम ठोकने से यह क्षेत्र और भी चर्चा में आ गया है.
मंगलवार को कांग्रेस ने एक लंबे ऊहापोह, खोजबीन एवं इंतज़ार के बाद बनारस क्षेत्र के पिंडरा क्षेत्र से विधायक अजय राय को अपना उम्मीदवार घोषित किया है.
अजय राय बनारस क्षेत्र में काफ़ी लोकप्रिय हैं. यहां के लोगों के साथ उनका सुख-दुख का संबंध है.
पिछले लोकसभा के चुनाव में वह समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार के रूप में यहां से चुनाव भी लड़ चुके हैं एवं एक लाख 23 हज़ार से ज़्यादा वोट पाकर तीसरे स्थान पर रहे. फिर भी यह कहना मुश्किल है कि वह मोदी के लिए कितनी बड़ी चुनौती बन सकते हैं?
सामाजिक आधार
मीडिया विशेषकर टीवी चैनल एवं उनके सर्वेक्षण 'मोदीलहर' की घोषणा कर रहे हैं. किन्तु यहां के गांवों एवं शहरों में लोग इस लहर को मान तो रहे हैं पर इसे कोई शंका से, कोई संशय से देख रहा है. लहर अगर है भी तो उसे वोट में बदलने के लिए सामाजिक आधार की ज़रूरत होती है.
बनारस लोकसभा क्षेत्र के जातीय बनावट का अध्ययन करें तो अजय राय जिस जाति से जुड़े हैं वह भूमिहार जाति है जिसकी जनसंख्या बनारस में 90 हज़ार के आसपास है.
इस क्षेत्र में ब्राह्मण, पटेल, मुसलमान और वैश्य सभी जातियों की संख्या दो लाख से ऊपर है.
अगर जातीय स्थिति के आधार पर देखा जाए तो अजय राय को इसका बहुत फ़ायदा नहीं मिलता दिखता है. जातीय समीकरण के लिहाज से स्थिति भिन्न है.
अजय राय के कांग्रेस के दिग्गज नेता कमलापति त्रिपाठी के परिवार से गहरे संबंध होने के कारण ब्राह्मण वोट कांग्रेस को भी मिल सकते हैं. वहीं मोदी विरोधी वोट के धुव्रीकरण की प्रक्रिया में मुसलमान वोटों की बड़ी भूमिका होगी.
बाहुबली नेता मुख्तार अंसारी पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा के मुरली मनोहर जोशी से तक़रीबन 17,000 वोटों से पराजित हुए थे लेकिन इस बार उन्होंने चुनाव नहीं लड़ने का फ़ैसला किया है.
मुख़्तार अंसारी के फ़ैसले से मुसलमान मतों के विभाजित होने का ख़तरा कम हुआ है. लगता है कि मुसलमान बड़े पैमाने पर कांग्रेस के साथ जा सकते लेकिन इसके लिए कांग्रेस उम्मीदवार अजय राय को कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी.
दूसरी तरफ़ अगर केजरीवाल मेहनत कर पाए तो वे भी मुसलमान वोटों को प्रभावित कर सकते हैं.
पुरानी दुश्मनी
मुख्तार अंसारी एवं अजय राय की दुश्मनी इस क्षेत्र में काफ़ी प्रसिद्ध है. कांग्रेस मुख्तार अंसारी का असर कम करने की कोशिश कर रही थी ताकि मुस्लिम मत विभाजित न हो और कांग्रेस को एकमुश्त वोट मिल सके.
ऐसे में 'भूमिहार-ब्राह्मण-मुस्लिम गठजोड़' जिसे बनाने की कोशिश कांग्रेस के अजय राय कर रहे हैं, अगर वो बन जाता है तो वह मोदी को बड़ी चुनौती दे सकते हैं.
लेकिन इसमें एक पेंच है कि बनारस क्षेत्र से कांग्रेस के टिकट के लिए कई ब्राह्मण प्रत्याशी उत्सुक थे जो टिकट न मिलने के कारण दुखी होंगे और इस बीएमबी (ब्राह्मण-मुस्लिम-भूमिहार) समीकरण बनाने में समस्या खड़ी कर सकते हैं.
इस क्षेत्र में दलित लगभग 80 हज़ार के आसपास हैं जिनका कुछ मत बीएसपी को और कुछ कांग्रेस को मिल सकता है.
इस क्षेत्र में पटेलों की भी बड़ी संख्या है, उनकी आबादी दो लाख के आसपास है जिसमें से ज़्यादातर सोने लाल पटेल की पार्टी 'अपना दल' के प्रभाव में हैं.
सोने लाल पटेल की बेटी अनुप्रिया पटेल ने भाजपा के साथ गठजोड़ किया गया है जिससे पटेल दुःखी तो हैं क्योंकि उनकी चाह थी कि अपना दल अलग से चुनाव लड़े. किन्तु इस गठबंधन का सम्मान रखते हुए वो वोट भाजपा को ही देते दिख रहे हैं.
जातियों की जोड़-तोड़
इस क्षेत्र में वैश्यों की संख्या लगभग दो लाख है और वे भाजपा के पारंपरिक वोट बैंक माने जाते हैं. उनका एक बड़ा हिस्सा मोदी के पक्ष में संगठित होता दिखता है.
केजरीवाल वैश्य होने के बाद भी वैश्य मतों को कितना तोड़ पाते हैं, यह भविष्य में देखने वाली बात है. उम्मीद है कि शहरी मध्य वर्ग के वोटों में से केजरीवाल अच्छे ख़ासे वोट ले जाएंगे.
पटेल के अतिरिक्त लगभग 1.50 लाख मतदाताओं का संबंध अन्य ओबीसी जातियों से है. बनारस में यादवों की जनसंख्या तक़रीबन एक लाख है. समाजवादी पार्टी इन सामाजिक समूहों के मतों को लेने की कोशिश कर रही है.
लेकिन अजय राय के व्यक्तिगत संबंध जातियों से परे लोगों से वर्षो से बने हैं. इसीलिए उन्हें पिछडों और दलित जैसी उपेक्षित जातियों के वोट मिलने की आशा है.
अजय राय जोर-शोर से 'स्थानीय बनाम बाहरी' का मुद्दा इस चुनाव में उठाएंगे. पिछले दिनों हम लोगों ने इस क्षेत्र में फील्ड वर्क किया जिनमें देखने को मिला कि यहां के लोगों में स्थानीय उम्मीदवार की चाह महत्वपूर्ण है.
देखना यह है कि 'स्थानीय बनाम बाहरी' का मुद्दा राय को कितना फ़ायदा पहुंचाता है.
कम रहा मतदान, तो
अगर मतदान कम हुआ तो इसका असर बीजेपी की महत्तवकांक्षाओं पर पड़ेगा क्योंकि अब तक जो चुनाव पूर्व सर्वेक्षण बीजेपी को 40 से 50 लोकसभा सीटें दे रहे थे, वो शायद ना मिल पाएं.
इसके अलावा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जहां मत प्रतिशत थोड़ा-बहुत बढ़ा भी है उसकी वजह मोदी के जोश ना होकर शायद सांप्रदायिक ध्रुवीकरण है.
अगर बीजेपी उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक सीटें लाना चाहती है तो उसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बड़ी बढ़त हासिल करनी होगी. ऐसा ना होने की स्थिती में राज्य के बाक़ी हिस्सों में पार्टी की हालत पिछले चुनाव सरीखी ही रह सकती है.
इसका एक अर्थ ये भी है कि शायद 'लहर' वाली बात पूरी तरह सही नहीं है.
बद्री नारायण
समाजशास्त्री, जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान, इलाहाबाद
शुक्रवार, 11 अप्रैल, 2014 को 11:41 IST तक के समाचार
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