बनारसीपन यानी मौज-मस्ती का दूसरा नाम

बनारसीपन यानी मौज-मस्ती का दूसरा नाम। शायद ही वर्तमान समय की इस दौड़भाग भरी जिंदगी में कहीं लोगों को मौजमस्ती के लिए भरपूर फुर्सत मिलती हो लेकिन काशीवासी इस मामले में धनी हैं। तमाम काम के बावजूद लोग अपने और दूसरों के लिए समय निकाल ही लेते हैं। वहीं, काम के दौरान माहौल को हल्का फुल्का बनाने की कला बनारसियों का स्वाभाविक गुण है। महादेव की नगरी में बिना भांग खाये भी लोगों के बातचीत का लहजा अल्हड़पन लिए रहता है। एक बात जो बनारसियों के मौजमस्ती का ट्रेडमार्क बन गयी है वह है गंभीर से गंभीर मसले पर भी मुंह में पान घुलाते हुए बात करना। इस दौरान यदि मुंह से पान की लाल छीटें सफेद कुर्ते या शर्ट पर गिर जाये तो बनारसी स्टाइल में चार चांद लग जाता है।
भले ही कहा गया हो कि सबहे बनारस और शामें अवध लेकिन वास्तविकता तो यह है कि बनारस की सुबह जितनी खूबसूरत होती है उससे भी अनोखी, अदभुत और चकाचौंध करने वाली यहां की मदमस्त शाम है। काशी में जैसे-जैसे सूरज ढलता है शाम और हसीन और रंगीन होती जाती है। जीवनदायिनी मां गंगा के सुमधुर कल-कल करते जल और उसपर पड़ता घाटों पर लगे हाईमास्ट लाइटों की परछाईं पानी में पड़ती है तो घाट पर बैठे लोग उत्साहित हो जाते हैं। जिसका लुत्फ उठाने के लिए बनारसी समय निकाल ही लेता है। मौजमस्ती का आलम बानरस में इस कदर रहता है कि चाय की दुकानों पर एक पुरवे गरम चाय को पीते-पीते घंटों गुजार देना बनारसी मौज मस्ती का जीवंत उदाहरण है। वहीं, चाय वाला भी गप लड़ा रहे लोगों को दुकान से जाने के लिए नहीं कहता है बल्कि गप्पेबाजी में खुद भी सहभागिता कर माहौल का आनंद उठाता है। बनारसीपन के इस खास अंदाज और देशीपन से ही वह कहीं रहे आसानी से पहचाना जा सकता है। बातचीत में 'गुरू' 'मालिक' 'बाबा' 'महराज' जैसे शब्दों का प्रयोग आम बनारसी करता ही है। बाइक पर चलते हुए सकरी गलियों के भीड़भाड़ के बीच जाते हुए पीछे से सांड़ को छेड़ना बनारसियों के आदत में शुमार है। कहा जाता है कि बनारसी प्रतिकूल हालात में भी सामान्य रहते हैं। यहां शोक नहीं उल्लास है। जन्म से लेकर मृत्यु तक काशी में संगीत बजता है। यही तो है काशी जहां बाहर से आने वाले का मन बिना दिखावटी आकर्षण के भी रम जाता है। बनारस की मौज मस्ती को खास दायरे में बांधा नहीं जा सकता है क्योंकि यहां राह चलते भी मौज मस्ती है। फिर भी कुछ प्रमुख तरीके से लोग मौज मस्ती करते हैं।

1- साफा पानी- काशी में साफा पानी ऐसी क्रिया है जो हर आम बनारसी करता है। साफा पानी के तहत स्नान, व्यायाम, कपड़ा सफाई होती है। यानी दैनिक काम को भी बनारसी मौजमस्ती से जोड़कर करता है। जिससे काम बोझ नहीं बल्कि आनंद का बोध कराते हैं।
2- रोगन पानी- यह शब्द भी बनारसी मौजमस्ती का प्रतीक है। रोगन पानी का मतलब है तेल मालिश, श्रृंगार इ़त्र लगाना और घूमने निकल जाना है।
3- माल पानी- माल पानी यानी धन कमाना या कमाई करना है। बनारसी धन कमाने को भी हल्के-फुल्के अंदाज में मालपानी का नाम देता है।
4- माझा पानी- बनारसी किसी बात को घुमा फिरा कर कहने की बजाय अपनी बात बेबाकी और आसानी से कहता है।
5- मौज पानी- भांग, ठंडई, पान, रबड़ी, मलाई, कचौड़ी जलेबी, लस्सी का सेवन बनारसी मौज मस्ती का अभिन्न अंग है।
6- माचा पानी- बात-बात पर अपनी शेखी बघारना एवं दूसरों को मूर्ख बनाना बनारसियों की खास पहचान है।
7- रंग पानी- यह शब्द भी मौज मस्ती से ही जुड़ा हुआ है। यहां की अक्खड़ता बनारसी रंग लोगों पर आम रहती है।
8- बाहरी अलंग- काशी की मौज मस्ती में बाहरी अलंग का अपना अलग महत्व और आकर्षण है। जिसका आनंद लगभग हर बनारसी उठाता हैं। बाहरी अलंग के तहत सभी तरह के मानसिक और शारीरिक तनाव को दूर करने के लिए बाहर घूमने जाते हैं। पहले बनारसी बाहरी अलंग करने गंगा उस पार रेती पर जाकर नित्य क्रिया के बाद गंगा में स्नान, ध्यान के करने के बाद ठंडई के साथ वहीं पर बाटी लगाकर खाते थे। जिससे लोग तरोताजा हो जाते थे। वर्तमान समय में बाहरी अलग का स्वरूप थोड़ा बदल गया है। अब काशी वासी उस पर रेती पर जाने के अलावा रामनगर, राजदरी, देवदरी, समेत शहर से दूर शांत व प्राकृतिक स्थलों पर पिकनिक मनाने जाते हैं। इस दौरान वहीं पर कुछ लोग बाटी चोखा बनाते हैं तो ज्यादातर लोग कोल्ड ड्रिंक के साथ चिप्स खाते हुए चाय पीते हैं।
9- गहरेबाजी- बनारस में मौजमस्ती का प्रतीक गहरेबाजी भी रहा है। बनारसी पूरे उत्साह के साथ भांग छान, माथे पर टीका कन्धे पर गमछा कान में इत्र लगाकर गहरेबाजी में भाग लेता है।
10- सांड़बाजी- बनारस की सड़कों पर मदमस्त सांड़ों को कहीं भी विचरते देखा जा सकता है। स्वभाव से विपरीत यहां सांड़ लोगों पर धावा नहीं बोलते लेकिन जब दो सांड़ों का आमना-सामना जंग में बदल जाता है तो लबे सड़क लोग रूककर सांड़ों की जोरआजमाइश का मजा लेते हैं और अपने खास अंदाज में 'जियो बेटा' की आवाज लगाते हुए सांड़ों को और भड़काते हैं। इस दौरान उन्हें ऑफिस के लिए भले ही देर हो जाये उसकी परवाह कोई नहीं करता।
11- मंदिर में दर्शन व कचौड़ी जलेबी का मजा- बनारसी सुबह जल्दी उठकर मंदिरों में दर्शन करने के बाद दुआ सलाम करते हुए परिचित दुकान पर जलेबी कचौड़ी का मजा लेता है।
12- अड़ीबाजी- चायपान की दुकानों पर आम बनारसी जमकर अड़ीबाजी करता है। चाय की चुस्की के साथ शुरू हो जाती है धर्म, अर्थ, खेल, राजनीति जैसे अन्य विषयों की चर्चा। इस दौरान कोई देश का प्रधानमंत्री कैसा है पर बहस करता है तो कोई किसी की सरकार बातों से ही बना देता है। इस दौरान कब घंटे दो घंटे यूं ही बीत जाते हैं लोगों को पता ही नहीं चलता है।
13- घाटों पर घूमना- शाम ढलने के साथ ही बनारसी मौजमस्ती को खोजने घाटों की तरफ बढ़ने लगते हैं। घाटों की सीढ़ियों पर बैठकर गंगाजी के प्रवाहमान जल को निहारता हुए प्रसन्न होता है।
14- मॉल कल्चर- काशी में पारंपरिक मौजमस्ती की कड़ी में अब आधुनिक मॉल कल्चर भी शामिल हो गया है। मॉल में जाकर घूमना कोल्ड ड्रिंक के साथ पॉपकार्न खाना फिल्में देखना लोगों के मौजमस्ती का जरिया बन गया है। खासकर युवा वर्ग मॉल में जाना अधिक पसंद करता है।
सिनेमा का फलता-फूलता बाजार : काशी
लाइट, कैमरा, एक्शन! जी हाँ काशी में फिल्म निर्माण अब आम बात हो गई है। लागा चुनरी में दाग, गैंग्स ऑफ वासेपुर, मोहल्ला अस्सी, यमला पगला दीवाना, राँझणा जैसी आधुनिक फिल्में काशी की पृष्ठभूमि पर बनीं। फिल्मों का मात्र एक कोना है। सिनेमा का आधुनिक दौर काशी को फलते-फूलते बाजार की कसौटी पर कस रहा है। आइए काशी के सिने मार्केट से अवगत होते हैं।
काशी में सिनेमा जगत का प्रारम्भिक दौर-
वास्तव में फिल्मिस्तान के मूलतः दो ही केन्द्र हैं, बाम्बे और मद्रास। (1975) में वाराणसी के कुछ निर्माताओं ने प्रयोग के तौर पर दंगल नामक भोजपुरी फिल्म का निर्माण किया, जिसमें उन्हें अशातीत सफलता मिली।
काशी में फिल्मों के उन्नायक- आगा हश्र काश्मीरी- आगा हश्र काश्मीरी के पिता मूलतः काश्मीरी थे, तथा काशी में शाल का व्यापार करने आये और यहीं के बाशिन्दे हो गये, वाराणसी में थियेटर युग की समाप्ति के बाद मदन थियेटर के फिल्म 'समाज का शिकार' उर्फ 'भारतीय लक' का दिग्दर्शन किया। आगा जी गीत, संवाद, कहानी लेखन में अति महत्वपूर्ण रहे। 'पाक-दामन' 'बिल्व मंगल', आँख का नशा' 'हिन्दुस्तान', यहूदी की लड़की', 'शीरी-फरहाद' 'भीष्म प्रतिज्ञा' उनके द्वारा लिखी महत्वपूर्ण फिल्में हैं।
कुन्दन कुमार- कुन्दन कुमार ने 'गंगा मइया तोहे पियरी चढ़ैबे, 'लागी नाही छूटे राम', 'भौजी' (भोजपुरी) 'अपना पराया', 'फौलाद' 'परदेशी', दुनिया के मेले आदि फिल्मों का निर्माण व निर्देशन कर काशी का मान संवर्द्धन किया।
अरविन्द सेन- अरविन्द सेन ने 'चौबे जी', अमानत', 'काफिला', 'मुकद्दर', 'जमाना', 'जालसाज', 'मेरे अरमाँ', 'मेरे सपने', 'मर्यादा', 'अतिथि', 'कसौटी', 'नसीहत', आदि फिल्मों का निर्माण निर्देशन कर काशी को गौरवान्वित किया।
देवी शर्मा- वाराणसी के ही देवी शर्मा ने 'गुनाहों का देवता' काली टोपी लाल रूमाल, गंगा की लहरें, सुहागरात, नाचे नागिन बाजे बीन का सफल निर्देशन किया।
कनक मिश्र- काशी के फिल्म निर्देशक कनक मिश्र ने जियो तो जियो, 'सावन को आने दो' जैसी सुपरहिट फिल्मों का निर्माण किया।
प्रेमचन्द- प्रख्यात साहित्यकार मुंशी प्रेमचन्द आगा हश्र के बाद काशी सिने साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आप अजंता मिनोटोन के आह्वान पर मुम्बई गये 'गरीब-मजदूर', 'सेवा-सदन' 'बाजारे हुस्न', 'तिरिया चरित', 'स्वामी', 'रंगभूमि' लिखी। दूसरे नामों से भी फिल्में लिखीं तथा मरणोपरान्त 'गोदान', 'शतरंज के खिलाड़ी', 'निष्कृति' पर फिल्में बनीं।
अन्य फिल्म निर्देशक- वाराणसी के सिने परम्परा में गोपाल मोती व ज्ञानकुमार ने मीनू, एस0एन0 श्रीवास्तव ने 'विद्यार्थी' ओमप्रकाश जौहरी ने 'एक सूरत दो दिल', त्रिलोक जेटली द्वारा 'गोदान' 0के0 गुप्ता की चिमनी का धुआँ, सुन्दर दर की सोरहो सिंगार कर दुल्हनियाँ आई इसके अतिरिक्त द्वारिकादास, ज्ञान चन्द्र श्रीवास्तव, प्रभाकर सिंह जैसे निर्देशकों ने काशी फिल्म को पुष्पित-पल्लवित किया।
काशी की अभिनय परम्परा- भले ही काशी का कोई कलाकार सुपरस्टार नहीं हुआ लेकिन कन्हैया लाल, लीला मिश्रा, कुमकुम, मोनिका, अम्बिका वर्मा, सुजीत कुमार पद्मा खन्ना, साधना सिंह, नारायण भण्डारी, मधु मिश्रा, जे0 मोहन, देव मल्होत्रा, केवल कृष्ण, रत्नेश्वरी, रामचन्द्र विश्वकर्मा, पूनम मिश्र, सोनी राठौर, त्रिभुवन बच्चन, अशोक सेठ, संजय ने अमिट छाप अभिनय में छोड़ी।
फिल्मी संगीत निर्देशन वादन- पं0 रविशंकर व पं0 एस0एन0 त्रिपाठी ने चिरस्मरणीय फिल्मी धुनें बनाईं तथा फिल्मी संगीत में शास्त्रीय धुनों का सम्मिश्रण किया। फिल्म 'गूँज उठी शहनाई' में बिस्मिल्लाह खाँ की शहनाई, पं0 किशन महराज, पं0 शामता प्रसाद उर्फ गुदई महराज द्वारा फिल्मों में झंकृत कर देने वाला तबला वादन अविस्मरणीय है। संगीतकार हेमन्त भी काशी की धरती का धूल माथे पर लगाये बिना नहीं रह सके।
नृत्य एवम् नृत्य निर्देशन- वाराणसी की तारा, सितारा व अलकनन्दा बहनों ने नृत्य विधा में धूम मचाकर नृत्य कौशल को नई कसौटी में कसा। बेहतरीन नृत्य निर्देशिका अन्नपूर्णा 'रजिया सुल्तान' फिल्म में अनुबन्धित होने के कुछ समय बाद ही दिवंगत हो गई। माधव किशन जाने-माने नृत्य-निर्देशक रहे। नर्तक रामकृष्ण, सोनी राठौर तथा पूनम मिश्र ने भी नृत्य निर्देशन में एक अलग पहचान बनाई है।
गायक-गायिका- बनारस घराने की गायिका राजकुमारी ने फिल्म 'महल' तथा गायिका गिरजा देवी ने फिल्म 'याद रहे' में गाना गाया। मदन विश्वकर्मा ने कई भोजपुरी फिल्मों में गीत गाये।
गीतकार- अनजान बनारस के सर्वाधिक प्रतिष्ठित और सफल गीतकार रहे, जिन्होंने 'खई के पान बनारस वाला' जैसे गीत रचना से एक अलग मुकाम हासिल किया। इनके पुत्र समीर की बॉलीवुड गीतकारों में तूती बोल रही है।
बी-बी मौजी, भोलानाथ गहमरी, मधुकर बिहारी, डॉ0 नामवर सिंह ने भी गीत रचना में सराहनीय प्रयास किये।
फिल्म समीक्षा प्रचार-प्रसार- काशी में दिनेश भारती, कुमार विजय, भोलानाथ मिश्र, बंशीधर राजू, शेखर धोवाल नामक व्यक्तियों ने समुचित फिल्म समीक्षा एवम् गीतकार अनजान के भाई गोपाल पाण्डेय सफल फिल्म जनसम्पर्क अधिकारी रहे हैं। फिल्म प्रचार एवम् छायांकन में धीरेन्द्र, किशन व बृजकुमार ने अच्छा नाम कमाया।
भोजपुरी फिल्मों का दौर काशी में- भोजपुरी फिल्मों का दौर 1975 से 'दंगल' से शुरू हुआ। काशी में निर्मित भोजपुरी फिल्मों की श्रं'खला इस प्रकार है।
'दंगल', 'माई क।़ लाल', 'धरती मइया', 'गंगा मइया भर द अचरवा हमार', 'सोनवा क।़ पिंजरा', 'गंगा किनारे मोरा गांव', 'नैहर की चुनरी', 'वेदना', 'भारत की सन्तान', 'सिन्धुरवा भइल मोहाल', 'बसुरिया बाजे गंगा तीर', 'पान खाये सैयाँ हमार', 'आँगन की लक्ष्मी', 'दुलहिन', 'किस्ती किनारा', 'बैरी कॅगना', 'ससुरा बड़ा पइसा वाला', आदि।
टी0वी0 सीरियल- गंगाघाट, गंगा के तीरे-तीरे, रंग ली चुनरिया रंग में, सजाय द।़ मॉग हमार, माई क।़ ऍचरा, भारत की संतान, गंगा जइसन भौजी हमार, घर गृहस्थी, चम्पा-चमेली, गंगा मइया भर द।़ गोदिया हमार, सबै नचावत राम गोसाई, गंगा माई, गंगा दर्शन, सुबहे काशी आदि बनारस के प्रमुख सीरियल हैं।
फिल्म वितरक कम्पनी- 0जी0 फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर्स, देवी पद्ममावती फिल्म्स, श्री विन्ध्याचित्रम्, सरोज फिल्म्स, लाईट ट्रेडर्स, रवि फिल्म्स, 0के0 डिस्ट्रीब्यूशन, फिल्म एण्ड फिल्मको, काशी फिल्म्स, सरोज फिल्म्स, राजकमल डिस्ट्रीब्यूटर, 0के0 डिस्ट्रीब्यूटर आदि प्रमुख वितरण कम्पनियाँ हैं। फिल्म वितरण का केन्द्र काशी के होने से अब दिल्ली, यू0पी0 टेरिटरों जो एक में है, दो भागों में बाँटने की बात चल रही है।
फिल्मी पत्रिका- श्रीमुन्नू प्रसाद पाण्डेय ने उत्तर-प्रदेश का पहला फिल्मी साप्ताहिक पत्र 'रम्भा' का प्रकाशन शुरू किया। यह पत्र अब भी काशी का एक मात्र फिल्मी पत्र है।
सत्यजीत राय और काशी का फिल्मांकन- सत्यजीत राय का प्रथम बनारस आगमन 'पथेर पांचाली' सिरीज की फिल्म 'ओपुर संसार' की शूटिंग के दौरान हुआ थ। इस फिल्म में बनारस की सही जानकारी न होने के कारण 'जय बाबा फेलूनाथ' की शूटिंग के दौरान 16 दिन वाराणसी में रहे।

ओपुर संसार में बनारसी गालियों-घाटों के साथ-साथ 'जय बाबा फेलूनाथ' में बनारस की अलग-अलग विशेषताओं का प्रभाव है। वे बनारसी स्थानीय भित्ति चित्र से बहुत प्रभावित थे। उन्होंने अपनी किताब 'एकेई बोले' शूटिंग के फेलूदार शंगे काशी ते' में उल्लेख हुआ है। बनारसी साड़ों को भी उन्होंने अपनी फिल्म में जगह दी। सत्यजीत राय के अनुसार बनारसी फिल्मों का एक अलग मिजाज है।
- अभिनव पाण्डेय



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बनारस शिव से कभी मुक्त नही, जब से आये कैलाश न गये। बनारसी की मस्ती को लिखा नही जा सकता अनुभव होता है। अद्भूद है ये शहर जिन्दगी जीनेका तरीका कुछ ठहरा हुआ है पर सुख ठहराव में है द्रुतविलंबित में नही. मध्यम में है इसको जीनेवाला है यह नगर। नटराज यहां विश्वेश्वर के रुप में विराजते है इसलिये श्मशान पर भी मस्ती का आलम है। जनजन् शंकरवत् है। इस का अनुभव ही आनन्द है ये जान कर जीना बनारस का जीना है जीवन रस को बना के जीना है।
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काल हर !! कष्ट हर !! दुख हर !! दरिद्र हर !! हर हर महादेव !! ॐ नमः शिवाय.. वाह बनारस वाह !!