भुलभुलैया का दौर हुआ खत्म

।। निराला ।।

बनारसी किसी को निराश नहीं करते. हताश नहीं करते. मान- मर्यादा का खूब ख्याल रखते हैं. परंपरागत तौर पर. पीढ़ियों से. बनारस का यह स्वभाव उसके  स्वाभाविक गुणों में है, दिखावे के लिए नहीं. इसे पतियाने के लिए किसी पान की दुकान पर जा सकते हैं.हर पान की दुकान पर पानी का एक टब रखा हुआ मिलेगा. साथ में लोटा भी. और दुकानदार पान देने के पहले कहेगा-‘ठंडा ल गुरु.
पिहले पानी पी ल, तब पान खईह.’ यह परंपरा किसी दूसरे शहर में शायद ही मिले. सब जगह अब लोग पानी खरीदकर पीते हैं. बनारसी फ्री में पानी पिलाते हैं. प्यार से. जो एकदम अनजान होते हैं, अजनबी होते हैं, वे इस बनारसियों के इस सहज स्वभाव को दूसरे रूप में ले लेते हैं. सोचते हैं कि अपनी दुकानदारी चलाने के लिए यह अतिरिक्त सेवा दे रहा है. और इसी हिसाब से वे व्यवहार भी करने लगते हैं. बनारसी रिएक्ट नहीं करते. अजनबी के व्यवहार पर हंसते हैं.
12 मई को जब बहुचर्चित बनारस सीट पर सुबह से वोटिंग की शुरु आत हुई, तब बनारसियों का वैसा ही स्वभाव दिखा. वे एक माह से अधिक समय से सबको मान-सम्मान देकर उन्हें उम्मीदों से लबरेज करते रहे. सुबह से शाम तक सहानुभूति भी दिखाते रहे, उत्साह भी बढ़ाते रहे और ऐसे प्यार से, दिल खोलकर तारीफ करते रहे कि अजय राय, अरविंद केजरीवाल से लेकर दूसरे कई उम्मीदवारों को भी भरोसा होता गया कि मोदी की लहर को वे रोक रहे हैं. दो दिनों पहले तक बनारसी ऐसे ही फंसाये रखे सबको. अनुमान लगाना मुश्किल हो गया. अजय राय को भी, केजरीवाल को भी और यहां तक कि मोदी को भी.
दो दिनों पहले एक ही दिन राहुल गांधी और अखिलेश यादव बनारस रोड शो करने पहुंचे थे. पहले राहुल गुजरे. सड़क किनारे भीड़ थी. राहुल आगे बढ़ते गये, भीड़ पीछे छुटती रही और फिर फटाफट पॉकेट से समाजवादी पार्टी का टोपी निकालकर पहनती रही. इस बतकही के साथ कि गुरु राहुलवा भी देश के बड़का नेता हौ, ओके स्वागत में भीड़ ना जुटित तो ई तो बनारस के बेइज्जती होखित ना. फिर अखिलेश के स्वागत के पहले भी यही तर्क- गुरु आखिर जईसन भी हौ, हौ तो आपन राज्य के मुख्यमंत्री ना, एक्के भी स्वागत करेके चाहीं, एके बुरा लागी, जब भीड़ ना लागी.
राहुल और अखिलेश, दोनों भ्रम में पड़े होंगे भीड़ देखकर लेकिन उस भीड़ में ही इस तरह की बतकही करनेवाले बहुतेरे थे, जो बनारस की मान-मर्यादा का ख्याल करते हुए दोनों नेताओं का तहे दिल से स्वागत किये और फिर शाम को अस्सी तीरस्ता पर पप्पू की चाय दुकान से लेकर मैदागिन में शकील मियां की अड़ी तक राष्ट्र, राष्ट्रवाद से गंगा, बनारस, देश और भी न जाने क्या-क्या बात करते रहे. 12 मई को बनारस में भुलभुलैया का दौर खत्म हुआ.
हिंदू इलाके में भी. मुसलिम इलाके में भी. जो मोदी वाले थे, खुलकर मोदी के साथ गये. जिन पर सपा, कांग्रेस की नजर थी, वे बहुतायत में केजरीवाल के साथ हो गये. दोपहर तक मैसेज के जरिये मुसलमानों के पास यह संदेशा जाता रहा कि अभी अभी मसजिदों से यह तय हुआ है कि वोट कांग्रेस को करना है. आम आदमी पार्टी वाले कहते रहे कि यह भाजपाइयों की चाल है. मोदी केजरीवाल से हार रहे हैं, इसलिए मुसलमानों का वोट कांग्रेस की ओर टर्न करवाकर भाजपाई अपनी जीत किसी तरह पक्की करना चाहते हैं. आप वालों के इस तर्क में दम नहीं था. मुसलमानों ने माना कि यह चाल भाजपा की बजाय कांग्रेस की है. मैसेज वाली चाल किसकी थी, नहीं पता.
बनारस से कौन जीतेगा, इसकी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती. लेकिन बनारस ने इस बार उत्तर प्रदेश से लेकर देश की सियासत के समीकरण को गड़बड़ाने के संकेत दिये हैं. कांग्रेस की परेशानी बढ़ेगी, क्योंकि बनारस के जरिये, केजरीवाल के जरिये उनके परंपरागत मुसलिम मतों में सेंधमारी करने के लिए मुलायम सिंह व सपा के बाद केजरीवाल जैसे तत्व भी पनप रहे हैं. मुलायम की परेशानी भी बढ़ेगी, क्योंकि केजरीवाल उनके लिए भी कोई अच्छे संकेत देकर नहीं जायेंगे बनारस से.        
किसकी जीत होगी, किसकी हार होगी, यह 16 को पता चलेगा. मोदी की जीत होती है तो यह कोई आश्चर्यजनक जीत नहीं होगी. केजरीवाल अगर हारते भी हैं और सच में, जैसा कि माहौल दिखा, वे मुसलमानों का भारी मत प्राप्त कर बनारस से लौटते हैं तो फिर वे एक नयी जीत लेकर ही जायेंगे. भाजपा को भयभीत करनेवाले तत्व की तरह भी साबित होंगे, कांग्रेस के लिए चिंता का विषय बनेंगे और सपा की तरह राजनीति करनेवाली दूसरे क्षेत्रीय दलों की नींद हराम करनेवाले तत्व भी बन जायेंगे.
फिलहाल चुनाव खत्म होने के बाद बनारस फिर से अतीत के खोल में समा गया है. बनारसी अपने शहर से लाल बहादुर शास्त्री के बाद दूसरे प्रधानमंत्री देने के लिए मोदी के हाई फाई और हाई प्रोफाइल लाव-लश्कर और चमचमाहट की खुलेआम आलोचना करने के बावजूद मोदी के साथ भेड़ियाधसान चाल में जाते हुए दिखे. बनारसी कह रहे हैं कि यह मोदी का तो करिश्मा था ही, एक पुरानी कसक भी बनारसियों को उभर गयी. वही कसक कि इस शहर के ही शास्त्री जब पीएम बने थे तो कांग्रेसियों ने, नेहरू-गांधी परिवार ने उन्हें भाव ही नहीं दिया था. अब दूसरा प्रधानमंत्री देकर कांग्रेस और नेहरू गांधी परिवार से उस अपमान का बदला लेंगे. बनारसी भाजपा को विजयी बनवायेंगे भी तो भाजपा को हरवाने का गुमान पाले रखेंगे, क्योंकि बनारसियों को लगता है कि वे दिखावे के लिए अरविंद केजरीवाल के पक्ष में इतने चले गये कि भाजपा ने बनारसियों से घबराकर आखिरी में कह दिया कि प्रधानमंत्री बनारस का ही होगा.
(लेखक तहलका  पत्रिका के विशेष संवाददाता हैं. यह आलेख उनके फेसबुक वाल से साभार.)
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बनारस शिव से कभी मुक्त नही, जब से आये कैलाश न गये। बनारसी की मस्ती को लिखा नही जा सकता अनुभव होता है। अद्भूद है ये शहर जिन्दगी जीनेका तरीका कुछ ठहरा हुआ है पर सुख ठहराव में है द्रुतविलंबित में नही. मध्यम में है इसको जीनेवाला है यह नगर। नटराज यहां विश्वेश्वर के रुप में विराजते है इसलिये श्मशान पर भी मस्ती का आलम है। जनजन् शंकरवत् है। इस का अनुभव ही आनन्द है ये जान कर जीना बनारस का जीना है जीवन रस को बना के जीना है।
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काल हर !! कष्ट हर !! दुख हर !! दरिद्र हर !! हर हर महादेव !! ॐ नमः शिवाय.. वाह बनारस वाह !!