काशी की महिमा


संसार के इतिहास में जितनी अधिक प्राक्कालिकता नैरन्तर्य और लोकप्रियता काशी को प्राप्त है,उतनी किसी भी नगर की नही है.काशी लगभग 15000 सालों से भारत के हिन्दुओ का पवित्र तीर्थ स्थान रही है.और उनकी भावनाओं का धार्मिक केन्द्र रही है.यह परम्परागत धार्मिक पवित्रता और शिक्षा का केन्द्र रही है.हिन्दू धर्म की विचित्र विषमता,संकीर्णता,तथा नानात्व और अन्तर्विरोधों के बीच यह एक सूक्षम श्रंखला है,जो सबको समन्वित करती है.केवल सनातन हिन्दुओ के लियी ही नही बौद्धो और जैनो के लिये भी यह स्थान बहुत महत्व का है.भगवान बुद्ध ने बोध गया मे ज्ञान प्राप्त होने पर सर्वप्रथम यही पर पहला उपदेश किया था.जैनियो के तीन तीर्थंकरो का जन्म यही हुआ था.इसे बनारस या वाराणसी भी कहा जाता है,पिछले सैकडो वर्षो से इसके महात्म पर विपुल साहित्य की सर्जना हुई है,पुराणो मे इसका बहुत विस्तृत वर्णन मिलता है.पुराख्यानो से पता चलता है,कि काशी प्राचीन काल से ही एक राज्य रहा,जिसकी राजधानी वाराणसी थी.पुराणो के अनुसार एल (चन्द्रवंश) के क्षत्रवृद्ध नामक राजा ने काशी राज्य की स्थापना की,उपनिषदो में यहां के राजा अजातशत्रु का उल्लेख है,जो ब्रह्म विद्या और अगिन विद्या के प्रकाण्य विद्वान थे.महाभारत के अनुशासन पर्व (३०.१०) के अनुसार अति प्राचीन काल में काशी में धन्वन्तरि के पौत्र दिवोदास नी आक्रामक भद्रश्रेण्ड्य के १०० पुत्रो को मार डाला था,और वाराणसी पर अधिकार कर लिया था,इससे क्रुद्ध होकर भगवान शिव ने अपने गण निकुम्भ को भेज कर उसका विनास करवा दिया.हजारो वर्ष तक काशी खन्डहर के रूप मे पडी रही,तदुपरान्त भगवान शिव स्वयं काशी मे निवास करने लगे,तबसे इसकी पवित्रता और बढ गयी.बौद्ध धर्म के ग्रन्थो से पता चलता है,कि काशी बुद्ध के युग मे राजगृह श्रावस्ती तथा कौशाम्बी की तरह एक बडा नगर था.वह राज्य भी था.उस युग में यहांवैदिक धर्म का पवित्र तीर्थ स्थान और शिक्षा का केन्द्र भी था.काशी खण्ड (२६.३४) और ब्रह्म पुराण के (२०७) के अनुसार वाराणसी शताब्दियों तक पांच नामो से जानी जाती रही,वाराणसी,काशी,अविमुक्त,आनन्दकानन,और शमशान या महा शमशान इसके प्रमुख नाम थे.पिनाकपाणि शम्भु ने इसे सर्वप्रथम आनन्दकानन और तदन्तर अविमुक्ति कहा (स्कन्द.काशी.२६.३४).काशी काश धातु से निष्पन्न है,काश का अर्थ है ज्योतित होना,अथवा करना,इसका नाम काशी इसलिये है कि यह मनुष्य के निर्वाणपथ को प्रकाशित करती है.अथवा भगवान शिव की परमसत्ता यहां प्रकाशित करती है,(स्कन्द.काशी.२६.६७).ब्रह्म (३३.४९) और कूर्म पुराण (१.३१.६३) के अनुसार वरणा और असी नदियों के बीच स्थित होने से इसका नाम वाराणसी पडा.जाबालोपनिषद में कुछ विपरीत मत मिलते है,वहां अविमुक्त,वरणा और नासी का अलौकिक प्रयोग है,अविमुक्त को वरणा और नाशी के मध्य स्थित बताया गया है,वरणा को त्रुटियों का नाश करने वाला,और नाशी को पापो का नाश करने वाला बताया गया है,इस प्रकार काशी पापं से मुक्त करने वाली नगरी है.लिन्ग पुराण (पूर्वार्ध ९२.१४३) के अनुसार अवि का अर्थ पाप है,और काशी नगरी पापों से मुक्त है,इसलिये इसका नाम अविमुक्त पडा.काशीखण्ड (३२.१११) तथा लिन्गपुराण (१.९१.७६) के अनुसार भगवान शंकर को काशी (वाराणसी) अतयन्त प्रिय है,इसलिये उन्होने इसे आनन्दकानन नाम से अभिहित किया है,काशी का अन्तिम नाम शमशान अथवा महाशमशान इसलिये पडा,कि वह निधनोपरान्त मनुश्य को संसार के बन्धनो से मुक्त करने वाली है,वस्तुत: शमशान प्रेतभूमि,शब्द अशुद्धि का द्योतक है,किन्तु काशी की शमशान भूमि को संसार में सर्वाधिक पवित्र माना गया है.दूसरी बात यह है कि श्म का तात्पर्य है शव,और शान का तात्पर्य है लेटना,(स्कन्द काशी ३०.१०३.४).प्रलय होने पर महान आत्मा यहां शव या प्रेत रूप में निवास करते हैं,इसलिये इसका नाम महाशमशान है.पदम पुराण (१३३.१४) के अनुसार भगवान शंकर स्वयं कहते है,कि अविमुक्त प्रसिद्ध प्रेतभूमि है.संहारक के रूप में यहां रह कर मै संसार का विनास करता हूँ.यद्यपि सामान्य रूप में काशी वाराणसी,और अविमुक्त तीनो का प्रयोग समान अर्थ मे किया गया है,किन्तु पुराणो मे कुछ सीमा तक इनके स्थानीय क्षेत्र विस्तार में अन्तर का भी निर्देश है,वाराणसी उत्तर से दक्षिण तक वरणा और असी से घिरी हुई है,इसके पूर्व मे गंगा है,तथा पश्चिम में विनायक तीर्थ है,इसका आकार धनुषाकार है,जिसका गंगा अनुगमन करती है,मतस्य पुराण (१८४.५०-५२) के अनुसार इसका विस्तार क्षेत्र ढाई योजन पूर्व से पश्चिम और अर्ध योजन उत्तर से दक्षिण है.इसका प्रथम वृत सम्पूर्ण काशी क्षेत्र का सूचक है.पदम पुराण पाताल खण्ड के अनुसार यह एक वृत से घिरी हुई है,जिसकी त्रिज्यापंक्ति मध्यमेश्वर से आरम्भ होकर देहली विनायक तक जाती है.यह दूरी दो योजन तक है (मत्स्यपुराण अध्याय १८१.६१.-६२).अविमुक्त उस स्थान को कहते है जो २०० धनुष व्यासार्ध (८०० हाथ या १२०० फ़ुट) मे विश्वेश्वर के मन्दिर के चतुर्दिक विस्तृत है,काशी खण्ड में अविमुक्त को पंचकोश तक विस्तृत बताया गया है,पर वहां वह शब्द काशी के प्रयुक्त हुआ है.पवित्र काशी क्षेत्र सम्पूर्ण अन्तर्वृत पश्चिम में गोकर्णेश से लेकर पूर्व मे गंगा की मध्य धारा तथा उत्तर में भारभूत से दक्षिण में ब्रह्मेश तक विस्तृत है.

    काशी का धार्मिक महत्व बहुत अधिक है,महाभारत वनपर्व (८४.७९.८०) के अनुसार ब्रह्महत्या का अपराधी अविमुक्त मे प्रवेश करके भगवान विश्वेश्वर की मूर्ति का दर्शन करने मात्र से ही पाप मुक्त हो जाता है.और यदि वहां पर मृत्यु को प्राप्त होता है,तो उसे मोक्ष मिलता है.अविमुक्त मे प्रवेश करते ही सभी प्रकार के प्राणियों को पूर्वजन्मो के हजारों पाप क्षण मात्र में नष्ट हो जाते हैं.धर्म मे आशक्ति रखने वाले व्यक्ति की काशी मे मृत्यु होने पर वह दुबारा से संसार को नही देखता.संसार मे योग के द्वारा मोक्ष (निर्वाण) की प्राप्ति नही हो सकती,किन्तु अविमुक्त मे योगी को मोक्ष सिद्ध हो जाता है,(मत्स्य १८५.१५-१६).कुछ स्थलो पर वाराणसी तथा वहां की नदियों के सम्बन्ध में रहस्यात्मक संकेत भी मिलते है,उदाहरणार्थ काशीखण्ड मे असी को "इडा",वरणा को "पिन्गला"और अविमुक्त को "सुषुम्ना" तथा इन तीनो के सम्मिलित रूप को काशी कहा जाता है,(स्कन्द काशी खण्ड ५१२),परन्तु लिन्गपुराण का इससे भिन्न मत है,वहां असी,वरणा,तथा गंगा को क्रमश: पिन्गला,इडा और सुषुम्ना कहा गया है.
    काशी क्षेत्र में एक एक पग में एक एक तीर्थ की महत्ता है,(स्कन्द काशीखण्ड ५९.११८).और काशी की तिलमात्र भूमि भी शिवलिन्ग से अछूती नही है,जैसे काशीखण्ड के दसवें अध्याय में ही ६४ लिन्गो का वर्णन है,चीनी यात्री (ह्वेनसांग) के अनुसार उसके समय में काशी मे सौ मन्दिर थे,और एक मन्दिर में १०० फ़ुट ऊंची ताम्बे की मूर्ति थी,किन्तु दुर्भाग्यवस विधर्मियो द्वारा काशी के सहस्त्रो मन्दिर विध्वस्त कर दिये,और उनके स्थान पर अपने धर्म स्थानो का निर्माण कर दिया,उस समय के प्रसिद्ध शासक औरंगजेब ने काशी का नाम मुहम्मदाबाद रख दिया था मगर यह चल नही पाया.और काशी में फ़िर से मन्दिर बनने लगे.भवान विश्वनाथ काशी के रक्षक है,और उनका मन्दिर प्रमुख है,ऐसा विधान है कि प्रत्येक काशी वासी को नित्य गंगा स्नान करके काशी विश्वनाथ के दर्शन करने चाहिये.औरंगजेब के बाद लगभग सौ वर्षों तक यह व्यवस्था नही रही,शिवलिन्ग को यात्रियो की सुविधानुसार यत्र तत्र स्थापित किया जाता रहा है,(त्रिस्थलीसेतु पृ.२०८).वर्तमान मन्दिर अठारहवीं शताब्दी के अन्तिम चरणो मे रानी अहिल्याबाई होल्कर द्वारा निर्मित हुआ है.अस्पृस्यता का जहां तक प्रश्न है,त्रिस्थली सेतु पृष्ठ १८३ के अनुसार अन्त्यजों के द्वारा लिन्ग स्पर्श किये जाने मे कोई दोष नही है,क्योंकि विश्वनाथजी प्रतिदिन प्रात: ब्रह्मबेला में मणिकर्णिका घाट पर गंगास्नान करके प्राणियों द्वारा ग्रहण की गयी अशुद्धियों को धो डालते है.
    काशी मे विश्वनाथ के पूजनोपरान्त तीर्थ यात्री को पांच अवान्तर तीर्थों-द्शाश्वमेध,लोलार्क,केशव,बिन्दुमाधव,तथा मणिकर्णिका का भी परिभ्रमण करना आवश्यक है,(मत्स्यपुराण).आधुनिक काल में काशी के अवान्तर पांच तीर्थ पंचतीर्थी के नाम से अभिहित किये जाते है.और वे गंगा असी सन्गम दशाश्वमेध घाट,मणिकर्णिका,पंचगंगा,और वरणासंगम,लोलार्क तीर्थ असी संगम के पास वाराणसी की दक्षिणी सीमा पर स्थित हैं,वाराणसी के पास गम्गा की धारा तो तीव्र है,और वह सीधी उत्तर की ओर बहती है,इसलिये यहां इसकी पवित्रता का और अधिक महात्म्य है,दशाश्वमेधघाट तो शताब्दियों से अपनी पवित्रता के लिये ख्यातिलब्ध है,काशी खण्ड (अध्याय ५२,५६,६८) के अनुसार द्शाश्वमेध का पूर्व नाम रुद्रसर है,किन्तु जब ब्रहमा ने यहां दस अश्वमेध यज्ञ किये उसका नाम दशाश्वमेध हो गया.मणिकर्णिका (मुक्तिक्षेत्र) काशी का सर्वाधिक पवित्र तीर्थ तथा वाराणसी के धार्मिक जीवन क्रम का केन्द्र है.इसके आरम्भ के सम्बन्ध मे एक रोचक कथा है.
    विष्णु ने अपने चिन्तन से यहां एक पुष्कर्णी का निर्माण किया,और लगभग पचास हजार वर्षों तक वे यहां घोर तपस्या करते रहे,इससे शंकर प्रसन्न हुए,और उन्होने विष्णु के सिर को स्पर्श किया,और उनका एक मणिजटित कर्णभूषण सेतु के जल मे गिर पडा,तभी से इस स्थल को मणिकर्णिका कहा जाने लगा.काशीखण्ड के अनुसार निधन के समय यहां सज्जन मनुष्यों के कान में भगवान शंकर तारक मन्त्र फ़ूंकते है,इसलिये यहां स्थित मन्दिर का नाम तारकेश्वर है.
    यहां पंचगंगा घाट भी है,इसे पंचगंगा घात इसलिये कहा जाता है,कि पुराणो के अनुसार यहां किरणा,धूतपापा,गंगा,यमुना,और सरस्वती का पवित्र सम्मेलन हुआ है,यद्यपि इनमे दो अब अद्र्श्य है,काशीखण्ड (५९.११८-१३३) के अनुसार जो व्यक्ति इस पंचानद संगम स्थल पर स्नान करता है,वह इस पंचभौतिक शरीर से मुक्त होकर वापस इस संसार मे नही आता है.यह पांचनदियों का संगम विभिन्न युगों मे विभिन्न नामो से अभिहित किया गया था.सत्ययुग मे धर्ममय,त्रेता में धूतपातक,द्वापर मे बिन्दु तीर्थ,कलियुग मे इसका नाम पंचनद पडा.
    काशी में तीर्थ यात्री के लिये पंचकोशी की यात्रा बहुत ही महत्व पूर्ण है,पंचकोशी मार्ग की लम्बाई लगभग पचास मील है,और इस मार्ग पर सैकडों मन्दिर है,मणिकर्णिका केन्द्र से यात्री वाराणसी की अर्धवृत्ताकार मे परिक्रमा करता है,जिसका अर्धव्यास पंचकोश है,इसी लिये इसे पंच कोश कहते हैं (काशीखन्ड२६.८०. और ११४ तथा अध्याय ५५-४४) इसके अनुसार यात्री मणिकर्णिका घाट से गंगा के किनारे किनारे चलना आरम्भ करके अस्सी घाट के पास मणिकर्णिका से ६ मील दूर खाण्डव (कंदवा) नामक गांव में रुकता है,वहा से दूसरे दिन धूपचन्डी के लिये जिसकी दूरी १० मील है,प्रस्थान करता है,वहां धूपचन्डी का मन्दिर है.तीसरे दिन वह १४ मील की यात्रा पर रामेश्वर नामक गांव के लिये प्रस्थान करता है,चौथे दिन वहां से ८ मील दूर शिवपुर पहुंचता है,५ वें दिन ६ मील दूर कपिलधारा जाता है,वहां पर पितरों का श्राद्ध करता है,छठे दिन वह वरणासंगम होते हुए ६ मील की यात्रा करके मणिकर्णिका आजाता है.कपिलधारा से मणिकर्णिका तक वह यव (जौ) देवान्न बिखेरता हुआ आता है.तदुपरान्त वह गंगा स्नान करके पुरोहितों को दक्षिणा देता है,फ़िर साक्षीविनायक के मन्दिर मे जाकर अपनी पंचकोशी यात्रा की पूर्ति की साक्षी देता है.
    इसके अतिरिक्त काशी के कुछ अनु तीर्थ भी प्रमुख है,इनमे ज्ञानवापी का नाम उल्लेखनीय है,यहां भगवान शिव ने शीतल जल मे स्नान करके यह वर दिया था, कि यह तीर्थ अन्य तीर्थों से उच्चतर कोटिका होगा.इसके अतिरिक्त दुर्गाकुण्ड पर एक विशाल दुर्गा मन्दिर है,काशीखण्ड (श्लोक ३७.६५) में इससे सम्बन्ध दुर्गास्तोत्र का भी उल्लेख है.विश्वेश्वर मन्दिर से एक मील उत्तर भैरवनाथ का मन्दिर है,इनको काशी का कोतवाल कहा जाता है,इनका वाहन कुत्ता है.साथ ही गणेशजी के मन्दिर तो काशी में अनन्त हैं,(त्रिस्थलीसेतु प्रुष्ठ ९८-१००) से यह पता चलता है,कि काशी मे प्रवेश करने मात्र से ही इस जीवन के पापॊ का क्षय हो जाता है.और विविध पवित्र शलो पर स्नान करने से पूर्व जन्मो के पाप नष्ट हो जाते है.
    कुछ पुराणो के अनुसार काशी मे रहकर जरा भी पाप नही करना चाहिये,क्योंकि इसके लिये बडे ही कठोर दंड का विधान है.तीर्थ स्थान होने के कारण यहां पूर्वजो अथवा पितरों का श्राद्ध और पिण्डदान किया जा सकता है.किन्तु तपस्वियों द्वारा काशी में मठों का निर्माण अधिक प्रसंसनीय है,साथ ही यह भी कहा जाता है,कि प्रत्येक काशीवासी को प्रतिदिन मणिकर्णिका घाट पर गंगा स्नान करके विश्वेशवर का दर्शन करना चाहिये.(त्रिस्थली पेज १६८) में कहा गया है कि किसी अन्य स्थल पर किये गये पाप काशी मे नष्ट हो जाते है,किन्तु काशी मे किये गये पाप और काशी के प्रति मन में लायी गयी गलत अवधारणा दारुण यातनादायक होते है,जो काशी मे रहकर पाप करते है वह पिसाच योनि मे चला जाता है,वह इस अवस्था में हजारो वर्षों तक भी रह सकता है,और पापों का क्षय होने पर ही वह मोक्ष का अधिकारी होता है.काशी मे रहकर जो पाप करते है,उन्हे यम यातना नही सहन करनी पडती है,चाहे वे काशी मे मरे या और कहीं,जो काशी मे रहकर पाप करते है वे कालभैरव द्वारा दण्डित होते है,जो काशी मे पाप करने के बाद अन्यत्र मरते है,वे राम नामक शिव के गण द्वारा सर्वप्रथम यातना सहते हैं,तत्पश्चात वे कालभैरव द्वारा दिये गये दण्ड को सहते हैं फ़िर वे नश्वर मानव योनि में प्रविष्ट होते हैं,और काशी मे मर कर संसार से मुक्ति पाते हैं.
    स्कन्द पुराण के काशीखण्ड मे (८५,११२-११३) मे यह उल्लेख है कि काशी से उत्तर में धर्म क्षेत्र सारनाथ विष्णु का निवास स्थान है,जहां उन्होने बुद्ध का रूप धारण किया,यात्रियो के लिये सामान्य नियम है कि उन्हे आठ मास तक रह कर संयत तरीके से स्थान शान पर भ्रमण करना चाहिये,किन्तु काशी में प्रवेश के बाद बाहर भ्रमण नही करना चाहिये,और काशी को छोडना ही नही चाहिये,क्योंकि वहां पर मोक्ष निश्चित है.भगवान शिव के श्रद्धालु भक्त के लिये महान विपात्तियों मे भी उनके चरणो के जल के अतिरिक्त और अन्य कही स्थान नही है,शरीर के अन्दर और बाहर के किसी भी रोग में भगवान शंकर की प्रतिमा पर चढे जल के आस्था पूर्ण स्पर्श से वे दूर हो जाते है.(काशीखण्ड ६७,७२-८३)
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बनारस शिव से कभी मुक्त नही, जब से आये कैलाश न गये। बनारसी की मस्ती को लिखा नही जा सकता अनुभव होता है। अद्भूद है ये शहर जिन्दगी जीनेका तरीका कुछ ठहरा हुआ है पर सुख ठहराव में है द्रुतविलंबित में नही. मध्यम में है इसको जीनेवाला है यह नगर। नटराज यहां विश्वेश्वर के रुप में विराजते है इसलिये श्मशान पर भी मस्ती का आलम है। जनजन् शंकरवत् है। इस का अनुभव ही आनन्द है ये जान कर जीना बनारस का जीना है जीवन रस को बना के जीना है।
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काल हर !! कष्ट हर !! दुख हर !! दरिद्र हर !! हर हर महादेव !! ॐ नमः शिवाय.. वाह बनारस वाह !!