साँड़ बनारसी

इलाहाबादी, मुरादाबादी और बनारसी आदि शब्दों के आगे-पीछे यदि अमरूद, लोटा, लँगड़ा आम जैसे शब्द न जोड़े जाएँ तो इसका अर्थ होगा - इन शहरों के निवासी। उत्तर प्रदेश एक ऐसा राज्य है जहाँ के शहरों के नाम के  पीछे ‘ई’ लगा देने से उसका अर्थ वहाँ के निवासी से हो जाता है जैसे बनारसी, मलीहाबादी, आजमगढ़ी, सहारनपुरी, गोरखपुरी, रामपुरी, इलाहाबादी, मिरजापुरी और फर्रुखाबादी आदि। किसी शहर में बस जाने का यह मतलब नहीं कि उस व्यक्ति को उस शहर का निवासी मान लिया जाए। अक्सर आपने लोगों को कहते सुना  होगा - ‘भाई, गाँव जाना है।’ ‘देश में बहिन की शादी है’ ‘घर पर हालत ठीक नहीं, रुपये भेजने हैं’ आदि। इससे यह स्पष्ट है कि वह व्यक्ति मौजूदा समय जहाँ है, उसे अपना शहर नहीं मानता और न वहाँ का रजिस्टर्ड बाशिन्दा हो गया है - इसे स्वीकार करता है, रोजी-रोजगार के लिए टिका हुआ है। भले ही वह बाहर जाकर अपने को उस शहर का निवासी घोषित करे, लेकिन मन, वचन और कर्म से वह उस शहर का निवासी नहीं है। ठीक इसी प्रकार बनारस में रहनेवाले सभी बनारसी नहीं हैं।

बनारसी कौन?
आखिर असली बनारसी है कौन? उनकी पहचान क्या है? पहले आपको यह जान लेना चाहिए कि बनारसी कहना किसे चाहिए। बनारस में पैदा होने या पैदा होकर मर जाने से बनारसी कहलाने का हक हासिल नहीं होता। इस प्रकार के अनेक बनारसी नित्य पैदा होते हैं और मरते हैं। क्या वे सभी बनारसी हैं? कभी नहीं। बनारस में पैदा होना, बनारस में आकर बस जाना या बनारसी बोली सीख लेना भी बनारसी होने का पक्का सबूत नहीं है। हिन्दुस्तान को इस बात का फख़्र है
कभी कभी पढ़ते पढ़ते कोई विचार दिमाग में छा जाता है और उस पर चिंतन मनन करना ही पड़ता है . रांड सांड सीढ़ी सन्यासी, इनसे बचो तो कबहु न होई हानि ... ये वाक्य मैंने कहीं पढ़े हैं पर याद नहीं आ रहा है की मैने किस पुस्तक में पढ़ा है और कौन इसके लेखक हैं .

 
काशी के बारे में एक उक्ति है... रांड सांड सीढ़ी सन्यासी इनसे बचे तो सेवे काशी.

तो ये सीढ़ी काशी की सीढ़ी है...
काशी तीन लोक से न्यारी है। वह शेषनाग के फन पर अथवा शंकर के त्रिशूल पर स्थित है। चूँकि काशी बाबा की राजधानी है, जाड़े के दिनों में वे यहीं रहते हैं, गर्मी में पहाड़ पर आबोहवा बदलने चले जाते हैं, इसलिए यह जरूरी है कि साँड़ अपने मालिक के राज्य में काफी तादाद में रहें, क्योंकि ज़माना तटस्थ रहते हुए भी गुर्राहट और हमले की आशंका से भयभीत है। ऐसी हालत में पता नहीं, कब किसकी और कितनी संख्या में जरूरत पड़ जाए। यही कारण है कि काशी को अपना अस्तबल समझकर साँड़ इतनी आजादी से रहते हैं।


ऐसे ही बनारसी साँड़ के ब्याख्या में बनारस के संस्कारो के संरक्षक श्री सुदामा तिवारी (साँड़ बनारसी ) जिनका एक छोटा सा परिचय 


जौनपुर से २२ कि.मी. दक्षिण और पश्चिम के कोने पर ग्राम-गहलाईं,  वर्तमान में पोस्ट- तेजगढ़,  जिला-जौनपुर में एक साधारण किसान पिता स्वं. विश्वनाथ तिवारी,  माता स्व. नर्मदा तिवारी के परिवार में १३ अप्रैल १९४२ को जन्म हुआ था । ६ वर्ष की  अवस्था मे उनके पिता का देहांत हो गया था । उसी वर्ष उनके बडे भाई का भी अल्पायु में निधन हो गया |

उनकी बुआ उन्हें  १९४६- ४७ में बनारस ( वाराणसी ) लेकर आ गईं और अगस्तकुंड मुहल्ले में रहते हुये टेढीनीम से प्राइमरी स्कूल और उसके बाद सनातन धर्म इंटर कालेज मे पढना प्रारंभ किया । प्रतिकूल परिस्तिथियों के कारण पढाई रुक-रुक कर होती रही |

उनके पिता के स्वर्गवास के बाद उनके पिता के चाचा स्वं. रांमानन्द तिवारी उनके पिता की खेती बारी देखने लगे,  और उन्हें पुत्रवत स्नेह देकर कार्य करने लगे और वह अन्त तक उनके साथ रहे और १९९१ में उनका स्वर्गवास हो गया |

१९६५ मैं उनकी माता जी का भी स्वर्गवास हो गया और उसी समय उनकी शादी भी हो गई लेकिन उनका गाव से भी बरांबर आना-जाना रहता था |


कविता और पैरोडी लिखने की आदत उनकी सनातन धर्म इण्टर कालेज से प्रारम्भ हो गई थी । उन्होंने नौकरी  के साथ-साथ काशी विद्यापीठ से शास्वी एवं एम.ए. समाजशास्त्र बिषय से किया केवल ज्ञान बढाने के लिये । तब तक वो काफी चर्चित हो चुके थे । चकाचक बनारसी एवं स्व. चन्द्रशेखर मिश्र , भइया जी बनारसी,  श्री धर्मशील जी के सहयोग से वाराणसी में लोग जानने सुनने लगे थे । एक कबि सम्मेलन के दौरान गोरखपुर में स्वं. श्याम नारायण पाण्डेय जी  ने उनके डील-डौल एवं शरीर को देखने के बाद कविता सुनकर कहा कि तुम तो साँड़ की तरह लग रहे हो । उस समय स्वं. रूप नारायण त्रिपाठी , स्व. क्षेम , स्व. सुड़ फैजाबादी , स्वं. चन्द्रशेखर मिश्र आदि सबने उनका समर्थम किया और उनका कवि उपनाम साँड़ बनारसी रख दिया गया |  

धीरे- धीरे यह नाम प्रचलित होता गया । मंचों पर कविता पढने का अवसर व उन्हें आगे बढाने में स्वं. चन्द्रशेखर मिश्र एवं स्व. सुड़ फैजाबादी ज्यादा थे । बनारस में चकाचक बनारसी, श्री धर्मशील चतुर्वेदी जी एवं साँड़ बनारसी जी की ही तिकडी ज्यादा सक्रिय रही । अब बनारस में सिर्फ  श्री धर्मशीत्न जी श्री साँड़ बनारसी जी ही है,  उनको धीरे- धीरे लगभग सभी शहरों में काव्य पाठ का अवसर प्राप्त हुआ | कवितायें उस समय दैनिक आज में छपने लगीं जिसे भइया जी बनारसी ने काफी प्रोत्साहित किया |

अभी वो जे.ईं॰ पद से अवकाश ग्रहण कर चुके है । उन्होंने १९५९ में आई.टी.सी. (बी.एच.यू. से इंडस्ट्रियल  ट्रेनिग सेन्टर से ) ट्रेनिग करके डी.एल.डब्लू में अपरेन्टिस में भर्ती हो गए और दो वर्ष के बाद वो कर्मचारी के रूप में स्थाई रूप से काम करने लगे |

श्री साँड़ बनारसी जी बिहार एवं प्रदेश के लगभग सभी शहरों में काव्य पाठ कर चुके है | प्रदेशों में राजस्थान, पजाब, कश्मीर, म.प्र., गोवा, गुजरात, महाराष्ट्र ( मुम्बई ), कोलकाता, उडीसा, हरियाणा, नैनीताल, अल्मोड़ा, देहरादून यानि पूरे भारत में केवल केरल को छोडकर । बाद में दो चार बार अमेरिका भी जाने का अवसर प्राप्त हुआ |

उनकी कविता का अंदाज वो जिस स्वर में पढते है उसे श्रोता पसंद भी करते है, वो हमेशा स्वान्तः सुखाय सवैया और कवित्त, पैरोडी, हास्य लिखने का महारथ हासिल है, समय के अनुसार उनके मन में जो भी उद्गार आते है वो लिख डालते है |


वो अपने माता-पिता की पाँच सन्तानों में चार बहनों एबं एक मात्र में ही पुत्र है | आज उनके दो पुत्र एवं दो पुत्रियाँ हैं बड़ा पुत्र रेलवे में एवं छोटा एडवोकेट हैं । आज के परिवेश में सिर्फ चुनिन्दा कवि सम्मलेन ही करते है लेकिन अपनी संस्था का ही आयोजन परिश्रम के साथ करते है |

मान सम्मान में उन्हें चकल्लस सम्मान, ठहाका सम्मान, सुड़ फैजाबादी सम्मान, चकाचक बनारसी सम्मान, शारदा सम्मान, हुडदंग सम्मान,  स्वं. कैलाश गौतम रजत मुकुट सम्मान जैसे कितने सम्मान से आप अलंककृत है आज भी आप आकाशवाणी से दूरदर्शन तक अपने चहेतों के बीच में अपने काब्य पाठ के माध्यम से हमारे दिल में बैठे है |



काशी में बनारस की सभ्यता के अनुरूप वो हर आयोजन से जुड़े रहते है , वो अत्यंत भावुक, संवेदशील और सहृदय ब्यक्ति है , साँड़ बनारसी जी गीत, पैरोडी, भले ही लिखी हो , परन्तु मूलतः प्राचीन छंद के ही इर्द गिर्द रहते है |


काब्य की विविधता के साथ ही बेलाग प्रस्तुतीकरण में महारथ हासिल करने के कारण श्रोताओ का भरपूर सहयोग और स्नेह मिलता रहा है , दो बार तो अमेरिका में भी अपनी हनक पहुचाने वाले साँड़ बनारसी काशी की हास्य परंपरा से लोगो को आनंदित किया है |

विषय वस्तु में भी वैश्विध्य इनकी विशेषता है , किसी भी अवसर पर झटपट रचना कर लेना आप का कौशल है, आप अमेरिका में भी अपने मित्रो के साथ वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की उची ईमारत के अवलोकन के बाद उनकी ये रचना की दिल को छु जाती है |




आज मनोरंजन के जिस संस्कार को विकार रहित, दूषण रहित , साहित्य को जिन्दा रखे है, ब्यंजना तथा अन्य अलंकारो में इतनी सजावट है की वो मुर्दा दिलो को भी गुदगुदा सकते है |

पता :
श्री सुदामा तिवारी (साँड़ बनारसी )
डी . ३६/१९८ , अगस्त कुंड, गौदोलिया
वाराणसी
मोबाईल : ९४५०५२८७७७  
 

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1 comments:

Santosh Kumar Pandey said...

आप के इस बनारस के इअसे प्रयास हेतु साधुवाद

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बनारस शिव से कभी मुक्त नही, जब से आये कैलाश न गये। बनारसी की मस्ती को लिखा नही जा सकता अनुभव होता है। अद्भूद है ये शहर जिन्दगी जीनेका तरीका कुछ ठहरा हुआ है पर सुख ठहराव में है द्रुतविलंबित में नही. मध्यम में है इसको जीनेवाला है यह नगर। नटराज यहां विश्वेश्वर के रुप में विराजते है इसलिये श्मशान पर भी मस्ती का आलम है। जनजन् शंकरवत् है। इस का अनुभव ही आनन्द है ये जान कर जीना बनारस का जीना है जीवन रस को बना के जीना है।
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काल हर !! कष्ट हर !! दुख हर !! दरिद्र हर !! हर हर महादेव !! ॐ नमः शिवाय.. वाह बनारस वाह !!