उत्तर वैदिक काल के ‘रामायण’ ग्रन्थ में भेरी, दुंदभि, वीणा, मृदंग व घड़ा आदि वाद्य यंत्रों व भँवरों के गान का
वर्णन मिलता है, तो ‘महाभारत’ में कृष्ण की
बाँसुरी के जादुई प्रभाव से
सभी प्रभावित होते हैं। अज्ञातवास के दौरान अर्जुन ने उत्तरा को संगीत-नृत्य सिखाने हेतु बृहन्नला का रूप धारण किया। पौराणिक काल के ‘तैत्तिरीय उपनिषद’, ‘ऐतरेय उपनिषद’, ‘शतपथ ब्राह्मण’ के अलावा ‘याज्ञवल्क्य-रत्न प्रदीपिका’, ‘प्रतिभाष्यप्रदीप’ और ‘नारदीय शिक्षा’ जैसे ग्रन्थों से भी हमें उस समय के संगीत का परिचय मिलता है। चौथी शताब्दी में भरत मुनि ने ‘नाट्यशास्त्र’ के छ: अध्यायों में संगीत पर ही चर्चा की। इनमें विभिन्न वाद्यों का वर्णन, उनकी उत्पत्ति, उन्हें बजाने के तरीकों, स्वर, छन्द, लय व विभिन्न कालों के बारे में विस्तार से लिखा गया है। इस ग्रन्थ में भरत मुनि ने गायकों और वादकों के गुणों और दोषों पर भी खुलकर लिखा है। बाद में छ: राग ‘भैरव’, ‘हिंडोल’, ‘कैशिक’, ‘दीपक’, ‘श्रीराग’ और ‘मेध’ प्रचार में आये। पाँचवीं शताब्दी के आसपास मतंग मुनि द्वारा रचित महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ ‘वृहददेशी’ से पता चलता है कि उस समय तक लोग रागों के बारे में जानने लगे थे। लोगों द्वारा गाये-बजाये जाने वाले रागों को मतंग मुनि ने देशी राग कहा और देशी रागों के नियमों को समझाने हेतु ‘वृहद्देशी’ ग्रन्थ की रचना की। मतंग ही पहले व्यक्ति थे जिन्होंने अच्छी तरह से सोच-विचार कर पाया कि चार या पाँच स्वरों से कम में राग बन ही नहीं सकता। पाणिनी के ‘अष्टाध्यायी’ में भी अनेक वाद्यों जैसे मृदंग, झर्झर, हुड़क तथा गायकों व नर्तकों सम्बन्धी कई बातों का उल्लेख है। सातवीं–आठवीं शताब्दी में ‘नारदीय शिक्षा’ और ‘संगीत मकरंद’ की रचना हुई। ‘संगीत मकरंद’ में राग में लगने वाले स्वरों के अनुसार उन्हें अलग-अलग वर्गों में बाँटा गया है और रागों को गाने-बजाने के समय पर भी गम्भीरता से सोचा गया है।
सभी प्रभावित होते हैं। अज्ञातवास के दौरान अर्जुन ने उत्तरा को संगीत-नृत्य सिखाने हेतु बृहन्नला का रूप धारण किया। पौराणिक काल के ‘तैत्तिरीय उपनिषद’, ‘ऐतरेय उपनिषद’, ‘शतपथ ब्राह्मण’ के अलावा ‘याज्ञवल्क्य-रत्न प्रदीपिका’, ‘प्रतिभाष्यप्रदीप’ और ‘नारदीय शिक्षा’ जैसे ग्रन्थों से भी हमें उस समय के संगीत का परिचय मिलता है। चौथी शताब्दी में भरत मुनि ने ‘नाट्यशास्त्र’ के छ: अध्यायों में संगीत पर ही चर्चा की। इनमें विभिन्न वाद्यों का वर्णन, उनकी उत्पत्ति, उन्हें बजाने के तरीकों, स्वर, छन्द, लय व विभिन्न कालों के बारे में विस्तार से लिखा गया है। इस ग्रन्थ में भरत मुनि ने गायकों और वादकों के गुणों और दोषों पर भी खुलकर लिखा है। बाद में छ: राग ‘भैरव’, ‘हिंडोल’, ‘कैशिक’, ‘दीपक’, ‘श्रीराग’ और ‘मेध’ प्रचार में आये। पाँचवीं शताब्दी के आसपास मतंग मुनि द्वारा रचित महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ ‘वृहददेशी’ से पता चलता है कि उस समय तक लोग रागों के बारे में जानने लगे थे। लोगों द्वारा गाये-बजाये जाने वाले रागों को मतंग मुनि ने देशी राग कहा और देशी रागों के नियमों को समझाने हेतु ‘वृहद्देशी’ ग्रन्थ की रचना की। मतंग ही पहले व्यक्ति थे जिन्होंने अच्छी तरह से सोच-विचार कर पाया कि चार या पाँच स्वरों से कम में राग बन ही नहीं सकता। पाणिनी के ‘अष्टाध्यायी’ में भी अनेक वाद्यों जैसे मृदंग, झर्झर, हुड़क तथा गायकों व नर्तकों सम्बन्धी कई बातों का उल्लेख है। सातवीं–आठवीं शताब्दी में ‘नारदीय शिक्षा’ और ‘संगीत मकरंद’ की रचना हुई। ‘संगीत मकरंद’ में राग में लगने वाले स्वरों के अनुसार उन्हें अलग-अलग वर्गों में बाँटा गया है और रागों को गाने-बजाने के समय पर भी गम्भीरता से सोचा गया है।
ग्यारहवीं शताब्दी में मुसलमान अपने साथ फारस का
संगीत लाए। उनकी और हमारी संगीत पद्धतियों के मेल से भारतीय संगीत में काफी बदलाव
आया। उस दौर के राजा-महाराजा भी संगीत-कला के प्रेमी थे और दूसरे संगीतज्ञों को
आश्रय देकर उनकी कला को निखारने-सँवारने में मदद करते थे। बादशाह अकबर के दरबार
में 36 संगीतज्ञ थे। उसी
दौर के तानसेन, बैजूबावरा, रामदास व तानरंग खाँ के नाम आज भी चर्चित हैं।
जहाँगीर के दरबार में खुर्रमदाद, मक्खू, छत्तर खाँ व विलास खाँ नामक संगीतज्ञ थे। कहा जाता
है कि शाहजहाँ तो खुद भी अच्छा गाते थे और गायकों को सोने-चाँदी के सिक्कों से
तौलवाकर ईनाम दिया करते थे। मुगलवंश के एक और बादशाह मुहम्मदशाह रंगीले का नाम तो
कई पुराने गीतों में आज भी मिलता है। ग्वालियर के राजा मानसिंह भी संगीत प्रेमी
थे। उनके समय में ही संगीत की खास शैली ‘ध्रुपद’ का विकास हुआ। 12वीं शताब्दी में संगीतज्ञ
जयदेव ने ‘गीतगोविन्द’ नामक
संस्कृत ग्रन्थ लिखा, इसे सकारण ‘अष्टपदी’ भी कहा जाता है। तेरहवीं शताब्दी में पण्डित शार्ङ्गदेव ने ‘संगीतरत्नाकर’ की रचना की। इस ग्रन्थ में अपने दौर के प्रचलित संगीत और भरत व मतंग के समय के संगीत का गहन अध्ययन मिलता है। सात अध्यायों में रचे होने के कारण इस उपयोगी ग्रन्थ को 'सप्ताध्यायी' भी कहा जाता है। शांरगदेव द्वारा रचित ‘संगीत रत्नाकर’ के अतिरिक्त चौदहवीं शताब्दी में विद्यारण्य द्वारा ‘संगीत सार’, पन्द्रहवीं शताब्दी में लोचन कवि द्वारा ‘राग तरंगिणी’, सोलहवीं शताब्दी में पुण्डरीक विट्ठल द्वारा ‘सद्रागचंद्रोदय’, रामामात्य द्वारा ‘स्वरमेल कलानिधि’, सत्रहवीं शताब्दी में हृदयनारायण देव द्वारा ‘हृदय प्रकाश’ व ‘हृदय कौतुकम्’, व्यंकटमखी द्वारा ‘चतुर्दंर्डिप्रकाशिका’, अहोबल द्वारा‘संगीत पारिजात’, दामोदर पण्डित द्वारा ‘संगीत दर्पण,’ भावभट्ट द्वारा ‘अनूप विलास’ व ‘अनूप संगीत रत्नाकार’, सोमनाथ’ द्वारा’ अष्टोत्तरशतताल लक्षणाम्’ और अठारहवीं शताब्दी में श्रीनिवास पण्डित द्वारा ‘राग तत्व विबोध:’, तुलजेन्द्र भोंसले द्वारा ‘संगीत सारामृतं’ व ‘राग लक्षमण्’ ग्रन्थों की रचना हुई। स्वामी हरिदास, विट्ठल, कृष्णदास, त्यागराज, मुथ्थुस्वामी दीक्षितर और श्यामा शास्त्री जैसे अनेक संत कवि–संगीतज्ञों ने भी उत्तर आदि दक्षिण भारत के संगीत को अनगिनत रचनाएँ दीं। कहा जा सकता है कि भारतीय संगीत शताब्दियों के प्रयास व प्रयोग का परिणाम है।
संस्कृत ग्रन्थ लिखा, इसे सकारण ‘अष्टपदी’ भी कहा जाता है। तेरहवीं शताब्दी में पण्डित शार्ङ्गदेव ने ‘संगीतरत्नाकर’ की रचना की। इस ग्रन्थ में अपने दौर के प्रचलित संगीत और भरत व मतंग के समय के संगीत का गहन अध्ययन मिलता है। सात अध्यायों में रचे होने के कारण इस उपयोगी ग्रन्थ को 'सप्ताध्यायी' भी कहा जाता है। शांरगदेव द्वारा रचित ‘संगीत रत्नाकर’ के अतिरिक्त चौदहवीं शताब्दी में विद्यारण्य द्वारा ‘संगीत सार’, पन्द्रहवीं शताब्दी में लोचन कवि द्वारा ‘राग तरंगिणी’, सोलहवीं शताब्दी में पुण्डरीक विट्ठल द्वारा ‘सद्रागचंद्रोदय’, रामामात्य द्वारा ‘स्वरमेल कलानिधि’, सत्रहवीं शताब्दी में हृदयनारायण देव द्वारा ‘हृदय प्रकाश’ व ‘हृदय कौतुकम्’, व्यंकटमखी द्वारा ‘चतुर्दंर्डिप्रकाशिका’, अहोबल द्वारा‘संगीत पारिजात’, दामोदर पण्डित द्वारा ‘संगीत दर्पण,’ भावभट्ट द्वारा ‘अनूप विलास’ व ‘अनूप संगीत रत्नाकार’, सोमनाथ’ द्वारा’ अष्टोत्तरशतताल लक्षणाम्’ और अठारहवीं शताब्दी में श्रीनिवास पण्डित द्वारा ‘राग तत्व विबोध:’, तुलजेन्द्र भोंसले द्वारा ‘संगीत सारामृतं’ व ‘राग लक्षमण्’ ग्रन्थों की रचना हुई। स्वामी हरिदास, विट्ठल, कृष्णदास, त्यागराज, मुथ्थुस्वामी दीक्षितर और श्यामा शास्त्री जैसे अनेक संत कवि–संगीतज्ञों ने भी उत्तर आदि दक्षिण भारत के संगीत को अनगिनत रचनाएँ दीं। कहा जा सकता है कि भारतीय संगीत शताब्दियों के प्रयास व प्रयोग का परिणाम है।
भारतीय संगीत का आदि रूप वेदों में मिलता है। वेद
के काल के विषय में विद्वानों में बहुत
मतभेद है, किंतु उसका काल ईसा से लगभग 2000 वर्ष पूर्व था - इसपर प्राय: सभी विद्वान् सहमत है। इसलिए भारतीय संगीत का इतिहास कम से कम 4000 वर्ष प्राचीन है।
मतभेद है, किंतु उसका काल ईसा से लगभग 2000 वर्ष पूर्व था - इसपर प्राय: सभी विद्वान् सहमत है। इसलिए भारतीय संगीत का इतिहास कम से कम 4000 वर्ष प्राचीन है।
वेदों में वाण,
वीणा और कर्करि इत्यादि तंतु वाद्यों का उल्लेख मिलता है। अवनद्ध वाद्यों में
दुदुंभि, गर्गर इत्यादि का, घनवाद्यों में आघाट या आघाटि और सुषिर वाद्यों में
बाकुर, नाडी, तूणव, शंख इत्यादि का
उल्लेख है। यजुर्वेद में 30वें कांड के 19वें और 20वें मंत्र में कई
वाद्य बजानेवालों का उल्लेख है जिससे प्रतीत होता है कि उस समय तक कई प्रकार के
वाद्यवादन का व्यवसाय हो चला था।
संसार भर में सबसे प्राचीन संगीत सामवेद में मिलता
है। उस समय "स्वर" को "यम" कहते थे। साम का संगीत से इतना
घनिष्ठ संबंध था कि साम को स्वर का पर्याय समझने लग गए थे। छांदोग्योपनिषद् में यह
बात प्रश्नोत्तर के रूप में स्पष्ट की गई है। "का साम्नो गतिरिति? स्वर इति होवाच" (छा. उ. 1।8।4)। (प्रश्न "साम की गति क्या है?" उत्तर "स्वर"। साम का "स्व"
अपनापन "स्वर" है। "तस्य हैतस्य साम्नो य: स्वं वेद, भवति हास्य स्वं, तस्य स्वर एव स्वम्" (बृ. उ. 1।3।25) अर्थात् जो साम के
स्वर को जानता है उसे "स्व" प्राप्त होता है। साम का "स्व"
स्वर ही है।
वैदिक काल में तीन स्वरों का गान 'सामिक' कहलाता था।
"सामिक" शब्द से ही जान पड़ता है कि पहले "साम" तीन स्वरों से
ही गाया जाता था। ये स्वर "ग रे स" थे। धीरे-धीरे गान चार, पाँच, छह और सात स्वरों के
होने लगे। छह और सात स्वरों के तो बहुत ही कम साम मिलते
हैं। अधिक "साम" तीन से पाँच स्वरों तक के मिलते हैं। साम के यमों (स्वरों) की जो संज्ञाएँ हैं उनसे उनकी प्राप्ति के क्रम का पता चलता है। जैसा हम कह चुके हैं, सामगायकों को स्पष्ट रूप से पहले "ग रे स" इन तीन यमों (स्वरों) की प्राप्ति हुई। इनका नाम हुआ - प्रथम, द्वितीय, तृतीय। ये सब अवरोही क्रम में थे। इनके अनंतर नि की प्राप्ति हुई जिसका नाम चतुर्थ हुआ। अधिकतर साम इन्हीं चार स्वरों के मिलते हैं। इन चारों स्वरों के नाम संख्यात्मक शब्दों में है। इनके अनंतर जो स्वर मिले उनके नाम वर्णनात्मक शब्दों द्वारा व्यक्त किए गए हैं। इससे इस कल्पना की पुष्टि होती है कि इनकी प्राप्ति बाद में हुई। "गांधार" से एक ऊँचे स्वर "मध्यम" की भी प्राप्ति हुई जिसका नाम "क्रुष्ट" (जोर से उच्चारित) पड़ा। निषाद से एक नीचे का स्वर जब प्राप्त हुआ तो उसका नाम "मंद" (गंभीर) पड़ा। जब इससे भी नीचे के एक और स्वर को प्राप्ति हुई तो उसका नाम पड़ा "अतिस्वार अथवा अतिस्वार्य"। इसका अर्थ है स्वरण (ध्वनन) करने की अंतिम सीमा।
हैं। अधिक "साम" तीन से पाँच स्वरों तक के मिलते हैं। साम के यमों (स्वरों) की जो संज्ञाएँ हैं उनसे उनकी प्राप्ति के क्रम का पता चलता है। जैसा हम कह चुके हैं, सामगायकों को स्पष्ट रूप से पहले "ग रे स" इन तीन यमों (स्वरों) की प्राप्ति हुई। इनका नाम हुआ - प्रथम, द्वितीय, तृतीय। ये सब अवरोही क्रम में थे। इनके अनंतर नि की प्राप्ति हुई जिसका नाम चतुर्थ हुआ। अधिकतर साम इन्हीं चार स्वरों के मिलते हैं। इन चारों स्वरों के नाम संख्यात्मक शब्दों में है। इनके अनंतर जो स्वर मिले उनके नाम वर्णनात्मक शब्दों द्वारा व्यक्त किए गए हैं। इससे इस कल्पना की पुष्टि होती है कि इनकी प्राप्ति बाद में हुई। "गांधार" से एक ऊँचे स्वर "मध्यम" की भी प्राप्ति हुई जिसका नाम "क्रुष्ट" (जोर से उच्चारित) पड़ा। निषाद से एक नीचे का स्वर जब प्राप्त हुआ तो उसका नाम "मंद" (गंभीर) पड़ा। जब इससे भी नीचे के एक और स्वर को प्राप्ति हुई तो उसका नाम पड़ा "अतिस्वार अथवा अतिस्वार्य"। इसका अर्थ है स्वरण (ध्वनन) करने की अंतिम सीमा।
संभाव्य स्वरों के नियत क्रम का जो समूह है वह संगीत में "साम"
कहलाता है। यूरोपीय संगीत में इसे "स्केल" कहते हैं।
हम देख सकते हैं कि धीरे-धीरे विकसित होकर साम का पूर्ण ग्राम इस प्रकार बना-
क्रुष्ट, प्रथम, द्वितीय, तृतीय, मंद्र, अतिस्वार्थ
वाल्मीकि रामायण में भेरी, दुंदुभि, मृदंग, पटह, घट, पणव, डिंडिम, आडंवर, वीणा इत्यादि वाद्यों और जातिगायन का उल्लेख मिलता
है। जाति राग का आदिरूप है। महाभारत में सप्त स्वरों और गांधार ग्राम का उल्लेख
आता है। महाजनक जातक (लगभग 200 ई. पू.) में चार
परम महाशब्दों का उल्लेख है। इन्हें राजा उपाधि रूप में विद्वान् को प्रदान करता था।
पुरनानूरू और पत्तुपाटटु (100-200 ई.) नामक तमिल ग्रंथों में अवनद्ध (चमड़े से मढ़े
हुए) वाद्यों का बहुत महत्व दिया गया है। ऐसे वाद्य का विशिष्ट स्थान होता था जिसे
"मुरसुकट्टिल" कहते थे। तमिल के परिपादल (100-200 ई.) ग्रंथ में स्वरों और सात पालइ का उल्लेख है।
"पालइ" मूर्छना से मिलता है। उसमें "याल" नामक तंत्री वाद्य
का भी उल्लेख है। "याल" के एक प्रकार में एक सहस्र तक तार होते थे।
दक्षिण के एक बौद्ध नाटक सिलप्पडिगारन् (300 ई.) में भी कुछ संगीतविषयक बातों का
समावेश है। इसमें वीणा, याल, बाँसुरी, पटह इत्यादि वाद्यों का जिक्र है। उस समय के प्रचलित रागों का भी इसमें उल्लेख है। उसी समय के "तिवाकरम्" नामक एक जैन कोश में भी संगीत के विषय में कुछ जानकारी दी गई है। इसमें संपूर्ण षाडव और ओडव रागों का उल्लेख तथा है तथा श्रुतियों और सात स्वरों का भी वर्णन है।
समावेश है। इसमें वीणा, याल, बाँसुरी, पटह इत्यादि वाद्यों का जिक्र है। उस समय के प्रचलित रागों का भी इसमें उल्लेख है। उसी समय के "तिवाकरम्" नामक एक जैन कोश में भी संगीत के विषय में कुछ जानकारी दी गई है। इसमें संपूर्ण षाडव और ओडव रागों का उल्लेख तथा है तथा श्रुतियों और सात स्वरों का भी वर्णन है।
कालिदास के नाटकों में संगीत की चर्चा इतस्तत: आई है। मालविकाग्निमित्र में तो
संगीत में दो शिष्यों क पूरी प्रतियोगिता ही दिखलाई गई है।
भारतीय संगीत का जो सबसे प्राचीन ग्रंथ मिलता है वह
है भरत का नाट्यशास्त्र। भरत के काल के विषय में विवाद है। यह एक संग्रह ग्रंथ है।
इसलिए इसके काल का निर्णय करना और कठिन हो गया है। विद्वान् लाग इसका काल लगभग ई.
पू. 500 से 400 ई. तक मानते हैं। नाट्यशास्त्र में श्रुति, स्वर, ग्राम, मूर्छना, जाति और ताल का विशद
विवेचन किया गया है। भरत ने श्रुतियों का विचार स्वर की स्थापना के लिए किया है।
उन्होंने 4 श्रुतियों के
अंतराल पर षड्ज रखा है, उसके अनंतर 3 श्रुतियों के अंतराल पर ऋषभ, 2 श्रुतियों के अंतराल पर गांधार, 4 श्रुतियों के अंतराल पर मध्यम, फिर 4 श्रुतियों के
अंतराल पर पंचम, 3 श्रुतियों के
अंतराल पर धैवत, और 2 श्रुतियों के अंतराल पर निपाद रखा है। इस प्रकार
श्रुतियों की कुल संख्या 22 मानी है। भरत ने
षड्जग्राम और मध्यमग्राम ऐसे दो ग्राम माने हैं। ऊपर जो श्रुतियों का अंतराल दिया
है वह षड्ज ग्राम का है। यह ग्राम षड्ज से प्रारंभ होता है। इसलिए इसका षड्जग्राम
नाम पड़ा। जो ग्राम मध्यम से प्रारंभ होता है उसका नाम है "मध्यम
ग्राम"। मध्यम ग्राम में मध्यम ग्राम में मध्यम चतु:श्रुति, पंचम त्रिश्रुति, धैवत चतुश्रुति, निषाद द्विश्रुति, षड्ज चतु:श्रुति, ऋषभ त्रिश्रुति, एवं गांधार
द्विश्रुति होता है। गांधार ग्राम भरत को मान्य नहीं है।
मूर्छना का अर्थ है उभर या चमक। सात स्वरों के
क्रमयुक्त प्रयोग की संज्ञा मूर्छना है
(क्रमयुक्ता स्वरा: सप्त मूर्च्छनास्त्वभिसंज्ञिता: भरत, व.सं.अ. 28 पृ. 435)। भरत ने षड्ज और मध्यम दोनों ग्रामों में सात सात मूर्छनाएँ मानी हैं। मूर्छनाएँ "जाति" गान का आधार थीं। विशिष्ट स्वर विशेष प्रकार के सन्निवेश में "जाति" कहलाते थे। जिसमें ग्रह, अंश, तार, मंद्र, न्यास, अपन्यास, अल्पत्व, बहुत्व, षाडवत्व और औडुवत्व के नियमों द्वारा स्वरसन्निवेश किया जाता था, वह "जाति" कहलाता था। जातिगान संगीत की बहुत विकसित अवस्था का सूचक है। भरत के समय में जातिगान परिपूर्ण अवस्था का सूचक है। भरत के समय में जातिगान परिपूर्ण अवस्था पर पहुँचा हुआ था। जाति ही राग की जननी है। भरत ने सात ग्रामराग भी गिनाए हैं और यह बतलाया है कि वे जाति से प्रादुर्भूत होते हैं।
(क्रमयुक्ता स्वरा: सप्त मूर्च्छनास्त्वभिसंज्ञिता: भरत, व.सं.अ. 28 पृ. 435)। भरत ने षड्ज और मध्यम दोनों ग्रामों में सात सात मूर्छनाएँ मानी हैं। मूर्छनाएँ "जाति" गान का आधार थीं। विशिष्ट स्वर विशेष प्रकार के सन्निवेश में "जाति" कहलाते थे। जिसमें ग्रह, अंश, तार, मंद्र, न्यास, अपन्यास, अल्पत्व, बहुत्व, षाडवत्व और औडुवत्व के नियमों द्वारा स्वरसन्निवेश किया जाता था, वह "जाति" कहलाता था। जातिगान संगीत की बहुत विकसित अवस्था का सूचक है। भरत के समय में जातिगान परिपूर्ण अवस्था का सूचक है। भरत के समय में जातिगान परिपूर्ण अवस्था पर पहुँचा हुआ था। जाति ही राग की जननी है। भरत ने सात ग्रामराग भी गिनाए हैं और यह बतलाया है कि वे जाति से प्रादुर्भूत होते हैं।
नाट्यशास्त्र में चच्चत्पुट, चाचपुट अथवा चंचूपुट, षटपितापुत्र अथवा पंचपाणि, संपत्केष्टक,
उद्बद्ध अथवा उद्घट तालों का उल्लेख है। ये क्रमश: 8, 6, 12, 12, और 6 मात्राओं के ताल
थे।
14वीं और 15वीं शती में उत्तरी भारत के संगीत पर मुसलमानों के
प्रभुत्व के कारण ईरानी संगीत का प्रभाव पड़ने लगा। सुल्तान अलाउद्दीन (1295-1316 ई.) के दरबार में अमीर खुसरों संगीत के अच्छे
ज्ञाता थे। उन्होंने कव्वाली मान का प्रचार किया। कहा जाता है, सितार वाद्य का भी निर्माण इन्हीं ने किया। किंतु
"सहतार" वाद्य ईरान में पहले से वर्तमान था। हो सकता है, इसका कुछ रूपांतर करके उन्होंने इसे भारत में
प्रोत्साहन दिया हो। कहा जाता है, तबला भी इन्हीं का
निर्माण किया हुआ है। ख्याल गायकी का भी आरंभ इन्होंने किया। इन्होंने ईरानी धुनों
का मिश्रण करके कुछ नए राग भी बनाए।
जौनपुर के सुलतान इब्राहीम शर्की (1400-1440 ई.) के समय मलिक सुलतान कड़ा (प्रयाग के समीप) के
अधिपति थे। इनके पुत्र बहादुर मलिक संगीत के बहुत प्रेमी थे। इन्होंने प्राय: सभी
संगीतग्रंथों को एकत्र किया और सारे भारत से संगीत के विद्वानों को आमंत्रित किया। उनको आदेश दिया कि सब ग्रंथों का अध्ययन करके एक ऐसे ग्रंथ की रचना करें जिसमें संगीत संबंधी मतभेदों का निर्णय हो। इन पंडितों ने बहुत कुछ विचार विमर्श के अनंतर एक ग्रन्थ की रचना की जिसका नाम उन्होंने "संगीतशिरोमणि" रखा। भारतीय संगीत के इतिहास में यह पहला प्रयत्न था जब विविध मतों पर विचार करके एक समन्वयात्मक ग्रंथ लिखा गया। इस दृष्टि से यह ग्रंथ बहुत ही महत्वपूर्ण है। दुर्भाग्यवश इस ग्रंथ के इस समय केवल प्रथम और चतुर्थ अध्याय ही प्राप्य है। यदि सपूर्ण ग्रंथ मिल जाए तो भारतीय संगीत पर बहुत बड़ा प्रकाश पड़ सकता है।
संगीतग्रंथों को एकत्र किया और सारे भारत से संगीत के विद्वानों को आमंत्रित किया। उनको आदेश दिया कि सब ग्रंथों का अध्ययन करके एक ऐसे ग्रंथ की रचना करें जिसमें संगीत संबंधी मतभेदों का निर्णय हो। इन पंडितों ने बहुत कुछ विचार विमर्श के अनंतर एक ग्रन्थ की रचना की जिसका नाम उन्होंने "संगीतशिरोमणि" रखा। भारतीय संगीत के इतिहास में यह पहला प्रयत्न था जब विविध मतों पर विचार करके एक समन्वयात्मक ग्रंथ लिखा गया। इस दृष्टि से यह ग्रंथ बहुत ही महत्वपूर्ण है। दुर्भाग्यवश इस ग्रंथ के इस समय केवल प्रथम और चतुर्थ अध्याय ही प्राप्य है। यदि सपूर्ण ग्रंथ मिल जाए तो भारतीय संगीत पर बहुत बड़ा प्रकाश पड़ सकता है।
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आपके स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा देती हैं जिसके लिए हम आप के आभारी है .
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