काशी / वाराणसी की संगीत परम्परा (काशी संगीत समाज )_3

काशी के गौरवपूर्ण संगीत - इतिहास को सदियों तक अपना कला साधना से जीवन्त बनाए रखने में यहाँ की कला - समर्पिता, संगीत साधिका गायिकाओं का विशेष योगदान रहा है, जिनका उल्लेख बौद्धकालीन जातक - कथाओं में वर्णित काशीराज ब्रह्मदत्त शासनकालीन
चित्रलेखआ, श्यामा, सुलसा आदि नगर वधुओं से लेकर बाद की पीढ़ी की ख्यातिनामा विद्याधरी, बड़ी मैना, हुस्ना, जद्दन, बड़ी मोती, राजेश्वरी, काशी सिध्देश्वरी सरीखी रस सिद्ध गायिकाओं की अटूट श्रंखला के रुप में प्राप्त होता रहा है. इस वर्ग विशेष को संगीत की उत्कृष्ट शिक्षा देकर उन्हें सुदक्ष कलाकार बनाने में काशी के घरानेदार संगीतज्ञों को एक समय अपना सामाजिक सम्मान भी एक प्रकार से खोना पड़, जिसकी लेशमात्र भी परवाह न करते हुए इन घरानेदार संगीतज्ञों ने उन सभी गायिकाओं की अपनी उत्कृष्ट शिक्षा से परिपक्क कर जब एक सुलझे कलाकार के रुप में समाज के समक्ष प्रस्तुत किया तो काशी ही नहीं समस्त संगीत प्रेमी समाज उनकी कलासाधना से न केवल प्रभावित हुआ, अपित उन्हें विशिष्ट भी मानने को बाध्य हुआ, जिनकी संगीत साधना से जन समान्य के पारिवारिक, धार्मिक, सामाजिक, मांगलिक उत्सवों का व्यक्तित्व भी निखर कर विशिष्ट हो उठता और देश की प्रमुख रियायतों के सुणग्राही नरेशों के आमंत्रण पर काशई की गौरवशाली संगीत - परम्परा की सुगन्ध से सभी अभिभूत हुए और इन गायिकाओं ने अपने विद्वान गुरुओं की गरिमा बढ़ाते हुए काशी की धवल कीर्तिपताका पूरे देश में फहराकर अपनी विशिष्ट पहचान बनाई.
एक उत्कृष्ट सारंगीवादक किसी को संगीत शिक्षा देकर उत्कृष्ट गायक बना सकता है, जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण काशी की अनेक उत्कृष्ट गायिकाएँ हैं, जो किसी प्रसिद्ध सारंगीवादक की ही
शिष्य - परम्परा में रहीं क्योंकि सारंगीवादन में विशिष्टता प्राप्त करने के लिए प्रथमत: गायन की विभिन्न शैलियों की शिक्षा आवश्यक है तभी किसी भी अंग - विशेष अथवा शैली - विशेष की गायकी की कुशल संगति की सुदक्षता प्राप्त हो सकती है. ऐसे ही स्वनामधन्य विद्वान सारंगीवादकों की कुशल शिष्याओं के रुप में इन कोकिलकंठी गायिकाओं के अपने कंठ - माधुर्य के लालित्म से काशी का नाम उज्जवल किया और पीढ़ी दर पीढ़ी अपनी संगीत - साधना से सदियों तक काशी की संगीत - परम्परा को अक्षुण्ण बनाये रखने में अपना प्रमुख एवं अनुपम योगदान दिया है. देश पर हुए अती के अनेक विदेशी आक्रमणों से देश का धार्मिक - सांस्कृतिक वातावरण भी खण्डित हुआ, किन्तु श्यामा, सुलसा, गुलबदन, इमामबाँदी से लेकर टामी, मैना, विद्याधरी, हुस्ना तक ने काशी की सांस्कृतिक चेतना मं शिथिलता नहीं आने दी और विषम, प्रतिकूल परिस्थितियों से जूझते हुए भी अपनी एकलव्यीय साधना में रत रहते हुए काशी एवं संगीतकला को जीवन्त बनाए रखा, उसे विलुप्त नहीं होने दिया. वाद्यों में सबसे कठिन किन्तु मानव कंठ की सीमा तक वादन शैली का प्रमाणिक अनूठा वाद्य सारंगी किसी समय संगीत - जगत् में लोकप्रियता की चरम सीमा पर विराजमान रहा, वही लोकप्रियता आज तबला वाद्य को प्राप्त हैं. संगीत - जगत् की ओछी राजनीति का शिकार होकर सारंगी सीखने वालों और कुशल सारंगी - वादकों की संख्या धीरे - धीरे सीमित होती जा रही है और अनेक घरानेदार सारंगी वादकों के प्रतिभाशाली वंशज भी सारंगी के भविष्य के प्रति निराश होकर गायन, सितार, सरोद, सन्तूर , तबला आदि की ओर उन्मुख हो रहे हैं क्योंकि इन क्षेत्रों में उन्हें अपना भविष्य अधिक उज्जवल दिखाई पड़ रहा हैं.
काशी के घरानेदार संगीतज्ञों के अतिरिक्त भी नगर में संगीतसिद्ध विद्वानों की श्रृंखला था जिसकी विद्वता से संगीत - जगत् पूर्णरुपेण सुपरिचित था. ऐसे गुणियों में काशी के महाराष्ट्रीय विद्वानों में मूर्धन्य श्री वासुदेव बुआजोशी का नाम अग्रणी है, जिन्हें भैया जोशी
जैसा सुयोग्य पुत्र एवं बालकृष्ण बुआ इचलकरंजीकर, विष्णु पन्त छजे सरीखा सुयोग्य शिष्य मिला. श्री बालकृष्ण बुआ इचलकरंगीकर ने अपनी संगीतसाधना, निष्ठा, तपस्या और लगन से संगीतकला के अक्षय भण्डार में अबगाहन कराते हुए संगीत - जगत को पं. विष्णु दिगम्बर पलुस्कर जैसा रससिद्ध गायक, संगीत - उद्धारक, निरभिमानी सन्त शिष्य दिया. इस महान पुष्प ने भारतीय संगीत को जन - जन कर पहुँचाने का अखण्ड व्रत लेकर देश के इस कोने से उस कोने तक की यात्रा कर संगीत की शइक्षा के लिए देश के विभिन्न नगरों में संगीत - विद्यालयों की स्थापना की. पं. विष्णु दिगम्बर, मूर्धन्य लोकप्रिय गायक, नायक, उत्कृष्ट संगीत शिक्षक, संगीत शास्रज्ञ, वाग्गेयकर संगीत - समीक्षक, लेखक आदि के रुप में पं. ओंकार नाथ ठाकुर, पं. डी.वी. पलुस्कर (पुत्र) जैसे मशस्वी विद्वानों की अटूट श्रंखला मिली, जिन्होंने संगीत के उत्थान में अपना विशेष योगदान देकर द्वितीय ग्वालियर घराने की विशिष्ट गायन - परम्परा की नींव डाली, और उसे जनमानस में लोकप्रिय बनाकर, अपने पूज्यगुरु पं. विष्णु दिगम्बर पलुसकर के परिकल्पित - स्वप्न को साकार कर जीवन की अन्तिम साँस तक गुरु के श्रीचरणों में संगीत सुमनाञ्जलि अर्पित करने का शिष्य धर्म निभाया.
काशी के श्री रामचन्द्र गोपाल भावे (समय -.. सन् 1885 ई अपने समय के अप्रतिम ध्रुपदगायक के रुप में विख्यात थे, जिनकी कुशलतम शिष्या पूना की सुविख्यात गायिका सुन्दरी बाई थी, जो अपने समकालीन गायिकाओं में अपना विशेष स्थान रखती थीं काशी के वेतिया घराने की ध्रुपदगायकी के अप्रतिम विद्वान् श्री जयकरण मिश्र की शिष्य - परम्परा में खण्डहार बानी के पारंगत श्री वेणी माधव भट्ट - भैया जी लॉडे (भट्जी) ध्रुपद - धमार परम्परा में सोमनाथ गणोरकर और सोमनाथ बहेरे प्रमुख थे पं भोलानाथ भ (जो प्रथमत:.. पं . जयकरण मिश्र के शिष्य थे) और वेदमूर्ति नारायण भट्ट फड़के काशी के विद्वान ध्रुपद गायकों में अग्रणी थे.
देश के मूर्धन्य विद्वान् गायक पं. ओंकारनाथ ठाकुर ने कई दशकों तक काशी नगरी को अपनी कार्यस्थली के रुप में चुनकर अपनी शिष्य - प्रशिष्य - परम्परा में पं. बलवन्त राय
भट्ट, श्रीमति डॉ. एन. राजम्, सुश्री डॉ. प्रेमलता शर्मा, कनकराय त्रिवेदी, चितरंजन ज्योतिषी, प्रदीप दीक्षित, अर्चना दीक्षित, राजेश्वर आचार्य की कलाक्षमता से संगीत - जगत् को परिचित कराया. इसके अतिरिक्त श्री कृष्ण हरि हिर्लेकर, दुण्ढि़ राज पलुस्कर, श्री शिव प्रसाद त्रिपाठी, 'गायनाचार्य', दामोदर विष्णु कालविष्ट, डी.एस. बेलसरे, भालचन्द्र चिन्तामणि दामले, भालचन्द्र पाटेकर आदि अनेक संगीतज्ञों ने काशी में निवास करते हुए काशी के गौरव को बढ़ाया हैं. सुप्रसिद्ध ठुमरी गायक धीरेन बाबू रामजी शउक्ल गुजराती, कमल सिंह और वर्तमान में काशी के लोकप्रिय ठुमरी गायक हारमोनियम वादक ध्रुवजी से सभी परिचित हैं, जो गया के रससिद्ध हारमोनियम वादक स्वर्गीय सोनीजी की शिष्य - परम्परा के प्रतिनिधि हैं. काशी के अन्य सुप्रसिद्ध हारमोनियम वादकों में गणपतिजी, वीरु महाराज, हरेन्द्र भट्टाचार्य, मुनीमजी, ईश्वरीलाल नेपाली आदि उल्लेखनीय है.
प्रसिद्ध वीणावादकों में श्री महेशचन्द्र सरकार, सन्त बाबू एवं पं. लालमणि मिश्र की विद्वता से
विदेशी भी चकित थे, और उनसे सीखने आते थे.वायलिन वादकों में जी.एन. गोस्वामी, जोई श्रीवास्तव, कृष्ण विनायक भागवत, रामूशास्री एवं देश की महिला वायलिन वादिका के रुप में अत्यन्त लोकप्रिय डॉ. श्रीमति एन. राजम् आपनी अलग पहचान बना चुकी हैं. सरोद वादकों में उसताद अलाउद्दीन खाँ की शिष्य - परम्परा में पं. ज्योतिन भट्टाचार्य, भोलानाथ भट्टाचार्य, राजेश मोइत्रा आदि की शिष्य - परम्परा में अनेक उदीयमान कलाकार साधनारत हैं. सितार - वादकों में ननीगोपाल, मोतीलाल, उस्ताद मुश्ताक अली खाँ, राम गांगुली, गुल्लू महाराज, विमला - नन्दन चटर्जी, ओझाजी, राम चक्रवर्ती, राजमान सिंह एवं भारत की महान विभूति, विश्वविख्यात भारतीय संगीतदूत पं. रविशंकर काशी के ही कहलाते हैं. बाँसुरी वादन में शहनाई वादक नन्दलाल के पुत्र श्यामलाल, रघुनाथ प्रसन्ना राजेन्द्र प्रसन्ना, भोलानाथ, तारकनाथ नाग, छेडीलाल श्रीवास्तव, राधेश्याम जायसवाल एवं क्लारनेट - वादन में राजन बाबू प्रसिद्ध हुए.
शहनाई वादन के क्षेत्र में अपने वाद्य के प्रतीक, एवं विश्व के अनुपम वादक उस्ताद बिसमिल्लाह खाँ, (उनके मामा एवं गुरु विलायतू, भ्राता शमशुद्दीन एवं पारिवारिक पुत्र, पौत्र, भतीजा, जमाता आदि इमदाद हुसेन, इकबाल हुसेन, प्यारे हुसेन -. दुलारे हुसेन , महबूब अली, खादिम अली एवं उनके पूर्वज, शिव प्रसाद, आत्माराम, कृष्णाराम आदि प्रमुख हैं.
पखावज्र वादन में जोधसिंह (नाना पानसे के गुरु) मदनमोहनजी, भोलानाथ पाठक, मन्नूजी एवं उनके शिष्य अमरनाथ मिश्र (महंत संकटमोचन) एवं श्रीकान्त मिश्र, विभूति मिश्र, वृन्दावनदास, रामदेव पाठक सुबोध बाबू, बाबूलाल, त्रिभुवन उपाध्याय, जमुनादास ने अपनी विशेष पहचान बनाई तबलावादकों में अपने युग के लोकप्रिय श्री वीरुजी - वासुदेवजी - लच्छु - केदारनाथ भौमिक, जे मेसी, शंकर सिंह, अनोखेलालजी के शिष्यों में गणेश प्रसाद, रमेशराय, छोटे लाल, वाद्यशिरोमणि पं. कंठे महाराज के शिष्य आशुतोष भट्टाचार्य, उनके पुत्र देवव्रत भट्टाचार्य कृपाशंकर जायसवाल आदि से अधिकाधिक लोग परिचित हैं.
सारंगीवादकों में उस्ताद आशिक अली खाँ, झल्लन खाँ, चन्दा खाँ, सिकन्दर अली खाँ, संकठाराय, सीताराम गन्धर्व, लडुन खाँ, मुन्नुजी, माठूराम, घनश्याम छोटे, उदय आदि प्रसिद्ध रहे
. ढ़ोलक वादन क्षेत्र में काली प्रसाद, बहादुर, सुरजन सिंह, सचिता राय, गोपाल आदि लोकप्रिय हुए. सन्तूर वादन में विश्व के लोकप्रिय कलाकार शिव कुमार शर्मा के पिता श्री उमादत्तजी काशी के गायनाचार्य पं. बड़े रामदास मिश्र के शिष्य रहे. अत: उन्हें काशी का मानना ​​उचित है. पं. लालमणि मिश्र के शिष्य ओम प्रकाश चौरसिया, (भोपाल में कार्यरत), सिद्धनाथ मिश्र ने अच्छी ख्याति अर्जित की है.
कथक नृत्य में श्रीमति मधुरानी, ​​रुक्मिणी, मधु पाटेकर, रुबी चटर्जी, सरला गुप्ता आदि ने अपनी साधना से सफलता एवं ख्याति अर्जित की. भरत - नाट्यम् के सुप्रसिद्ध एवं पारंगत कलाकार सी.वी. चन्द्रशेखर, श्रीमति जया चन्द्रशेखर एवं उनकी पुत्री एवं पी.सी. होम्बल से सभी सुपरिचित हैं, जिन्होंने महिला महाविद्यालय (काशी हिन्दु विश्व विद्यालय), बसन्त कॉलेज, राजघाट, वसन्त कन्या महाविद्यालय, कमच्छा एवं संगीतकला - संकाय आदि ने अनेक वर्षों तक कार्यरत रहकर नगर के संगीत प्रेमियों को इस अभिनव नृत्य शैली से परिचित कराने में अपनी विशेष भूमिका का निर्वाह किया है.
इस संक्षिप्त सर्वेक्षण के अनुसार काशई की सदियों प्राचीन संगीत परम्परा को जीवन्त बनाये
रखने में, विशिष्ट घरानेदार गायकों, वादकों नर्तकों के अतिरिक्त गैर पेशेवर, शौकिया, कालाकारों एवं समाज के हर वर्ग का भरपूर सहयोग हमेशा मिलता रहा, जिससे वर्तमान में भी संगीत की प्रत्येक विद्या में इस नगरी का वर्चस्व शीर्ष पर है.
श्री के के  रस्तोगी जी बताते है की प्रगैतिहासिक काल से ही भारत में संगीत की समृद्ध परम्परा रही है। गिने-चुने देशों में ही संगीत की इतनी पुरानी एवं इतनी समृद्ध परम्परा पायी जाती है। माना जाता है कि संगीत का प्रारम्भ सिंधु घाटी की सभ्यता के काल में हुआ हालांकि इस दावे के एकमात्र साक्ष्य हैं उस समय की एक नृत्य बाला की मुद्रा में कांस्य मूर्ति और नृत्य, नाटक और संगीत के देवता रूद्र अथवा शिव की पूजा का प्रचलन। सिंधु घाटी की सभ्यता के पतन के पश्चात् वैदिक संगीत की अवस्था का प्रारम्भ हुआ जिसमें संगीत की शैली में भजनों और मंत्रों के उच्चारण से ईश्वर की पूजा और अर्चना की जाती थी। इसके अतिरिक्त दो भारतीय महाकाव्यों   - रामायण और महाभारत की रचना में संगीत का मुख्य प्रभाव रहा। भारत में सांस्कृतिक काल से लेकर आधुनिक युग तक आते-आते संगीत की शैली और पद्धति में जबरदस्त परिवर्तन हुआ है। भारतीय संगीत के इतिहास के महान संगीतकारों जैसे कि कालिदास, तानसेन, अमीर खुसरो आदि ने भारतीय संगीत की उन्नति में बहुत योगदान किया है जिसकी कीर्ति को पंडित रवि शंकर, भीमसेन गुरूराज जोशी, पंडित जसराज, प्रभा अत्रे, सुल्तान खान आदि जैसे संगीत प्रेमियों ने आज के युग में भी कायम रखा हुआ है।
भारतीय संगीत में यह माना गया है कि संगीत के आदि प्रेरक शिव और सरस्वती है। इसका तात्पर्य यही जान पड़ता है कि मानव इतनी उच्च कला को बिना किसी दैवी प्रेरणा के, केवल अपने बल पर, विकसित नहीं कर सकता।
वैदिक युग में संगीतसमाज में स्थान बना चुका था। सबसे प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेदमें आर्यो के आमोद-प्रमोद का मुख्य साधन संगीत को बताया गया है। अनेक वाद्यों का आविष्कार भी ऋग्वेद के समय में बताया जाता है। यजुर्वेदमें संगीत को अनेक लोगों की आजीविका का साधन बताया गया, फिर गान प्रधान वेद सामवेदआया, जिसे संगीत का मूल ग्रन्थ माना गया। सामवेदमें उच्चारण की दृष्टि से तीन और संगीत की दृष्टि से सात प्राकार के स्वरों का उल्लेख है। सामवेदका गान (सामगान) मेसोपोटामिया, फैल्डिया, अक्कड़, सुमेर, बवेरु, असुर, सुर, यरुशलम, ईरान, अरब, फिनिशिया व मिस्त्र के धार्मिक संगीत से पर्याप्त मात्रा में मिलता-जुलता था।

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बनारस शिव से कभी मुक्त नही, जब से आये कैलाश न गये। बनारसी की मस्ती को लिखा नही जा सकता अनुभव होता है। अद्भूद है ये शहर जिन्दगी जीनेका तरीका कुछ ठहरा हुआ है पर सुख ठहराव में है द्रुतविलंबित में नही. मध्यम में है इसको जीनेवाला है यह नगर। नटराज यहां विश्वेश्वर के रुप में विराजते है इसलिये श्मशान पर भी मस्ती का आलम है। जनजन् शंकरवत् है। इस का अनुभव ही आनन्द है ये जान कर जीना बनारस का जीना है जीवन रस को बना के जीना है।
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काल हर !! कष्ट हर !! दुख हर !! दरिद्र हर !! हर हर महादेव !! ॐ नमः शिवाय.. वाह बनारस वाह !!